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भगवई
श.९ : उ. ३१ : सू. ५५,५६
२२० ५५. तस्स णं अट्ठमंअट्टमेणं अणि- तस्य अष्टमम्अष्टमेन अनिक्षिप्तेन तपः- क्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं कर्मणा आत्मानं भावयतः प्रकृतिभद्रतयाभावेमाणस्स पगइभद्दयाए, पगइ- प्रकृत्युपशांततया प्रकृतिप्रतनुक्रोध-मानउवसंतयाए, पगइपयणुकोह-माण- माया-लोभतया, मृदुमार्दवसम्पन्नतया, माया-लोभयाए, मिउ-मद्दव-संपन्न- आलीनतया, विनीततया, अन्यदा कदापि याए, अल्लीणयाए, विणीययाए, शुभेन अध्यवसायेन, शुभेन परिणामेन, अण्णया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं, लेश्याभिः विशुद्धयमानाभिः - विशुद्ध्यसुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्झ. मानाभिः तदावरणीयानां कर्मणां माणीहिं-विसुज्झमाणीहिं तयार. क्षयोपशमेन ईहापोहमार्गणागवेषणां कुर्वतः णिज्जाणं कम्माणं खओव-समेणं अवधिज्ञानं समुत्पद्यते। स तेन अविधज्ञानेन ईहापोह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स समुत्पनेन जघन्येन अंगुल्यस्य ओहिनाणे समुप्पज्जइ। से णं तेणं असंख्येयतमभागम्, उत्कर्षेण असंख्येयानि ओहिनाणेणं समुप्पन्नेणं जहण्णेणं अलोके लोकप्रमाण-मात्राणि खंडानि अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं जानाति-पश्यति। असंखेज्जाई अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई खंडाई जाणइ-पासइ॥
५५. 'जो निरन्तर तेले-तेले के तप (तीनतीन दिन के उपवास) की साधना के द्वारा आत्मा को भावित करता है, उसके प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदु-मार्दव सम्पन्नता, आत्म-लीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और लेश्या की उत्तरोत्तर होने वाली विशुद्धि से तदावरणीय (अवधिज्ञानावरणीय) कर्म का क्षयोपशम होता है, उसे ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। वह पुरुष समुत्पन्न अवधिज्ञान के द्वारा जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः अलोक में असंख्येय लोकप्रमाण खण्डों को जानता-देखता है।
भाष्य
१. सूत्र ५५
अश्रुत्वा पुरुष और श्रुत्वा पुरुष की स्थिति में कुछ समानता है, कुछ भिन्नता है। प्रस्तुत प्रकरण में केवल भिन्नता का दिग्दर्शन कराया जा रहा है। अश्रुत्वा पुरुष का अवधिज्ञान देशावधि की कोटि
का होता है इसलिए वह असंख्येय हजार योजन तक जानता-देखता है। श्रुत्वा पुरुष का अवधिज्ञान परमावधि की कोटि का होता है इसलिए वह अलोक में लोक प्रमाण मात्र असंख्येय खण्डों को जानता-देखता है।'
५६. से णं भंते! कतिसु लेस्सासु होज्जा?
स भदन्त! कतिषु लेश्यासु भवति?
गोयमा! छस् लेस्सासु होज्जा, तं गौतम! षट्सु लेश्यासु भवति, तद् यथाजहा-कण्हलेस्साए जाव सुक्क- कृष्णलेश्यायां यावत्, शुक्ललेश्यायाम्। लेस्साए॥
५६. 'भंते! उस श्रुत्वा अवधिज्ञानी में कितनी लेश्याएं होती हैं? गौतम! छह लेश्याएं होती हैं, जैसे-कृष्ण लेश्या यावत शुक्ल लेश्या।
भाष्य
१. सूत्र ५६
अश्रुत्वा पुरुष अवधिज्ञानी में तीन प्रशस्त लेश्याएं बतलाई गई हैं। श्रुत्वापुरुष अवधिज्ञानी में छहों लेश्याएं निर्दिष्ट हैं। अभयदेवसूरि का अभिमत है-अवधिज्ञान की प्राप्ति तीन प्रशस्त भाव लेश्याओं में ही होती हैं। शेष तीन लेश्याओं का प्रतिपादन द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से किया गया है। द्रव्य लेश्या की अपेक्षा से छहों लेश्याओं में सम्यक्त्व
और श्रुत का लाभ होता है, वैसे अवधिज्ञान की उपलब्धि भी हो सकती है। उसकी उपलब्धि के पश्चात् अप्रशस्त अध्यवसाय होने पर अप्रशस्त भाव लेश्याएं भी होती हैं। जयाचार्य ने प्रस्तुत विषय की समीक्षा की है। उसमें वृत्तिकार के अभिमत का समर्थन किया है। उनका तर्क यह है-श्रुत्वा पुरुष अवधिज्ञानी हुआ है, वह केवलज्ञान सन्मुख है, श्रेणी का आरोहण कर रहा है इसलिए अश्रुत्वा पुरुष की
१. विशेषावश्यक भाष्य गाथा ६८५
परमोहि असंखेज्जा लोगमित्ता समा असंखेज्जा।
ख्वगयं लहइ सव्वं खेत्तोवमिया अगणिजीवा।। २. (क) द्रव्य लेश्या की जानकारी के लिए द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि के ३४ वें अध्ययन का आमुख।
(ख) उत्तर. नि. गा. ५३४-४४| ३. भ. वृ. ९/५६-यद्यपि भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव तिरस्वपि ज्ञानं लभते तथापि द्रव्यलेश्याः प्रतीत्य षट्स्वपि लेश्यासु लभते सम्यक्त्वश्रुतवत्। यदाह-सम्मत्त सुयं सव्वासु लब्भइ ति तल्लाभे चासी षट्स्वपि भवतीत्युच्यत इति।
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