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________________ भगवई ४२९ श. ११ : उ. ११ : सू. १४३,१४४ सम्माणेत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं प्रतिविसृज्य सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठति, दलयइ, दलयित्ता पडिविसज्जेइ, अभ्युत्थाय यत्रैव प्रभावती देवी तत्रैव पडिविसज्जेत्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, उपागच्छति, उपागम्य प्रभावी देवीं ताभिः अब्भुट्ठत्ता जेणेव पभावती देवी तेणेव । इप्टाभिः यावत् मित-मधुर-सश्रीकाभिः उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पभा-वतिं वाग्भिः संलपन् संलपन् एवमवादीत्-एवं देवि ताहिं इट्ठाहिं जाव मिय- खलु देवानुप्रिये! स्वप्नशास्त्रे द्विमहुरसस्सिरीयाहिं वग्गूहिं संलव-माणे चत्वारिंशत् स्वप्नाः, त्रिंशत् महास्वप्नाःसंलवमाणे एवं वयासी- एवं खलु द्विसप्ततिः महास्वप्नाः दृष्टाः। तत्र देवाणुप्पिए! सुविण-सत्थंसि बायालीसं देवानुप्रिये! तीर्थंकरमातरः वा चक्रवर्तिसुविणा, तीसं महा-सुविणा-बावत्तरिं मातरः वा तीर्थंकरे वा चक्रवर्ती वा गर्भम् सव्वसुविणा दिट्ठा। तत्थ णं अवक्रामति एतेषां त्रिंशत् महास्वप्नानाम् देवाणुप्पिए! तित्थ-गरमायरो वा इमान् चतुर्दशान् महास्वप्नान् दृष्ट्वा चक्कवट्टि-मायरो वा तित्थगरंसि वा प्रतिबुध्यन्ते तत् चैव यावत् मांडलिक- चक्क-वट्टिसि वा गब्भं वक्कममाणंसि मातारः मांडलिके गर्भम् अवक्रामति एतेषां एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चोइस चतुर्दशानां महास्वप्नानाम् अन्यतरत् एकं महा-सुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति तं महास्वप्नं दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते। अयं च चेव जाव मंडलियमायरो मंडलि-यंसि त्वया देवानुप्रिये! एकः महास्वप्नः दृष्टः, गब्भं वक्कममाणंसि एएसि णं चोइसण्हं तत् 'ओराले' त्वया-देवि! स्वप्नः दृष्टः महासुविणाणं अण्णयरं एगं महासुविणं यावत् राज्यपतिः राजा भविष्यति, पासित्ता णं पडि-बुज्झंति। इमे य णं । अनगारः वा भावितात्मा. तत् 'आराले' तुमे देवाणु-प्पिए! एगे महासुविणे दिढे, त्वया देवि ! स्वप्नः दृष्टः यावत् आरोग्यतं ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिढे तुष्टि-दीर्घायु-कल्याण-मांगल्यकारकः जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे त्वया देवि स्वप्नः दृष्टः इति कृत्वा प्रभावतीं वा भावियप्पा, तं ओराले णं तुमे देवी! देवीं ताभिः इष्टाभिः यावत् मित-मधुर- सुविणे दिढे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ- सश्रीकाभिः वाग्भिः द्विः अपि त्रिः अपि कल्लाण-मंगल्लकारए णं तुमे देवी! अनुबंहति। सुविणे दिवे त्ति कट्ट पभावतिं देविं ताहिं इट्ठाहिं जाव मिय-महर-सस्सिरी-याहिं वग्गृहिं दोच्चं पि तच्चं पि अणुबूहइ।। माल्यालंकारों से सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान कर जीवननिर्वाह के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर प्रतिविसर्जित किया। प्रतिविसर्जित कर सिंहासन से उठा। उठकर जहां प्रभावती देवी थी वहां आया। वहां आकर प्रभावती देवी को इष्ट यावत् मदु-मधुर और श्री संपन्न शब्दों के द्वारा पुनः पुनः संलाप करता हुआ इस प्रकार बोला-देवानुप्रिये! स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्नसर्व बहत्तर स्वप्न निर्दिष्ट हैं। देवानुप्रिये ! तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती की माता तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती के गर्भावक्रांति के समय इन तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागृत होती है। पूर्ववत् यावत् मांडलिक राजा की माता मांडलिक राजा के गर्भावक्रांति के समय इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है। देवानुप्रिये! तुमने एक महास्वप्न देखा है इसलिए देवी ! तुमने उदार स्वप्न देखा है यावत् राज्य का अधिपति राजा अथवा भावितात्मा अनगार होगा। देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है यावत् आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारक स्वप्न देखा है। इस प्रकार उन इष्ट यावत् मृदु मधुर, श्री संपन्न शब्दों के द्वारा दूसरी और तीसरी बार प्रभावती देवी के उल्लास का संवर्द्धन करता है। १४४. तए णं सा पभावती देवी बलस्स ततः सा प्रभावती देवी बलस्य राज्ञः १४४. वह प्रभावती देवी बल राजा के पास रणो अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म अन्तिकम् एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्टहट्टतुट्ठा करयलपरिग्गहियं दसनहं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावलें तुष्ट हुई। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्- आकार वाली दस नखात्मक अंजलि को वयासी-एयमेयं देवणु-प्पिया! जाव तं एवमेतद् देवानुप्रियाः! यावत् तं स्वप्नं मस्तक के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर सुविणं सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सम्यक् प्रतीच्छति, प्रतीष्य बलेन राज्ञा टिकाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! यह बलेणं रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी अभ्यनुज्ञाता सती नानामणिरत्नभक्ति- ऐसा ही है यावत् उस स्वप्न को सम्यक् नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दा- चित्रात् भद्रासनात् अभ्युत्तिष्ठति, स्वीकार किया। स्वीकार कर राजा बल सणाओ अब्भुट्टेइ, अतुरिय-मचवल- अत्वरिताचपलासम्भ्रान्तया अविलम्बितया की अनुज्ञा प्राप्त कर नाना मणि-रत्नों की मसंभंताए अविलंबियाए रायहंस- राजहंससदृश्या गत्या यत्रैव स्वके भवने भांतों से चित्रित भद्रासन से उठी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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