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भगवई
केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवली प्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त नहीं कर सकता यावत् केवल ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता।
श. ९ : उ. ३१ : सू. ३२ कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ १०. वरणीयानां कर्मणां क्षयः नो कृतः भवति, सः जस्स णं मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिककम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ ११. उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं नो लभेत जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं श्रवणाय, केवलं बोधिं नो बुध्येत यावत् कम्माणं खए नो कडे भवइ, से णं केवलज्ञानं नो उत्पादयेत्। असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय-उवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहिं नो बुज्झेजा जाव केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा। जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं यस्य ज्ञानावारणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं दरिस- कृतः भवति, यस्य दर्शनावरणीयानां कर्मणां णावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे क्षयोपशमः कृतः भवति, यस्य धर्मान्तकडे भवइ, जस्स णं धम्मंतराइयाणं रायिकानां कर्मणां क्षयोपशमः कृतः भवति कम्माण खओवसमे कडे भवइ, एवं जाव एवं यावत् यस्य केवलज्ञानावरणीयानां जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कर्मणा क्षयः कृतः भवति, स अश्रुत्वा कम्माणं खए कडे भवइ, से णं असोच्चा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिककेवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- उपासिकायाः वा केवलि-प्रज्ञप्तं धर्म लभेत उवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्म । श्रवणाय, केवलं बोधिं बुध्येत यावत् लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहिं केवलज्ञानं उत्पादयेत्। बुज्झेज्जा जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा।
१. जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है २. जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है ३. जिसके धर्मान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है इस प्रकार यावत् जिसके केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना १. केवली प्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त कर सकता है २. केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है यावत् ११. केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है।
भाष्य
१. सूत्र-९-३२
जैन धर्म आध्यात्मिक धर्म है। उसमें आध्यात्मिक विकास की कसौटी आत्मा की शुद्धि और अशुद्धि पर आधारित है। आध्यात्मिक चिंतन में जाति, वर्ण, वेश और सम्प्रदाय का कोई स्थान नहीं है। इस आध्यात्मिक चिंतन का स्वयंभू प्रमाण है असोच्चा और सोच्चा का सूक्त।
अध्यात्म के मूल तत्त्व हैं१. धर्म का ज्ञान
५.संयम २. बोधि
६.संवर ३. गृह त्याग (अपरिग्रह) ७ ज्ञान ४. ब्रह्मचर्यवास
इनकी उपलब्धि आंतरिक शुद्धि से होती है। आंतरिक शुद्धि के दो सूत्र बतलाए गए हैं
१. क्षयोपशम (कर्म का विलय) २. क्षय ( कर्म का विनाश)
धर्म का ज्ञान और ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम-धर्म का ज्ञान करने के लिए आभिनिबोधिक ज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम अपेक्षित है। इसलिए इन दोनों का ही क्षयोपशम यहां प्रासंगिक है।
बोधि और दर्शनावरणीय कर्म-बोधि का अर्थ है-सम्यग्दर्शन, इसलिए यहां दर्शनावरणीय का अर्थ होगा दर्शन मोहनीय। बोधि का लाभ दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से होता है।
अनगारिता और धर्मान्तरायिक कर्म-आठवें शतक में आन्तरायिक कर्म के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें पांचवां है वीर्यान्तराय। स्थानांग में धर्म के दो प्रकार बतलाए गए हैं-श्रुतधर्म
और चारित्र धर्म। धर्मान्तरायिक कर्म का अर्थ है-चारित्र धर्म में विघ्न डालने वाला वीर्यान्तराय कर्म। स्थानांग में अंतराय कर्म के केवल दो प्रकारों का निर्देश है
१. प्रत्युत्पन्न विनाशक-वर्तमान में प्राप्त वस्तु का विनाश करने वाला।
१.(क) भ. बृ.९.१३॥
(ख) भ. जो. ३.१२०९/२६-३०.।
२.भ.८/४३३। ३. ठाणं. २/१०७
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