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भगवई
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२. आगामी पथ का अवरोधक-भविष्य में होने वाले लाभ के मार्ग को रोकने वाला।
___ प्रस्तुत प्रकरण में यह दूसरा प्रकार विवक्षित है। यह चारित्र धर्म के पथ में अवरोध उत्पन्न करता है।
आंतरायिक कर्म का संबंध ज्ञान, दर्शन और चारित्र सबकी उपलब्धि के साथ है। धर्मान्तरायिक कर्म का क्षायोपशमिक भाव चारित्र मोहनीय कर्म के क्षायोपशमिक भाव के अनुरूप नहीं होता, उस अवस्था में गृह त्याग की प्रव्रज्या प्राप्त नहीं होती। वृत्तिकार के मत से भी इस आशय का समर्थन होता है।'
ब्रह्मचर्यवास और चारित्रावरणीय कर्म-यहां ब्रह्मचर्यवास का अर्थ साधु जीवन का आचार प्रासंगिक है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ मैथुन विरति किया है। वेद (काम-वासना) ब्रह्मचर्यवास का आवारक है इसलिए चारित्रावरणीय का अर्थ वेद लक्षण चारित्रावरणीय किया
मोहनीय कर्म की दो प्रकृतियां बतलाई गई हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। चारित्र मोहनीय का व्यापक अर्थ हैसामायिक आदि की चेतना में विघ्न पैदा करने वाला कर्म। इस आधार पर ब्रह्मचर्यवास का अर्थ आचार किया जा सकता है।
संयम और यतनावरणीय कर्म-संयम, संवर, ब्रह्मचर्यवास और अष्ट प्रवचन माता-इन चारों का अपना स्वतंत्र अर्थ है। संयम के दो अर्थ है--
१. इन्द्रिय और मन का निग्रह २.सतरह प्रकार का संयम।'
यतना का अर्थ है संयम की साधना में किया जाने वाला प्रयत्न।
उत्तराध्ययन में ईर्या समिति के प्रसंग में यतना के चार प्रकार बतलाए गए हैं
१.द्रव्यतः यतना २.क्षेत्रतः यतना ३. कालतः यतना ४. भावतः यतना
श. ९ : उ. ३१ : सू. ३२ इन्द्रिय और मन का संयम करना तथा सतरह प्रकार के संयम में जागरूक रहना चारित्र साधना के विशेष प्रयोग हैं। उनकी सफलता वीर्यान्तराय के क्षयोपशम पर निर्भर है। अतः संयम के लिए यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम अनिवार्य बतलाया गया।
वीर्यान्तराय आन्तरायिक कर्म का एक प्रकार है। वीर्य का प्रयोग अनेक दिशाओं में होता है। वीर्यान्तराय सब प्रकार के वीर्यों में बाधक नहीं बनता। इस प्रकार जितने वीर्य प्रयोग के प्रकार हैं, उतने ही वीर्यान्तराय के प्रकार बन जाते हैं। ध्यान विचार में वीर्य योग के बहत्तर प्रकार बतलाए गए हैं
वीर्यायोगालंबनानि-ज्ञानाचार ८, दर्शनाचार ८, चारित्राचार ८,तप आचार १२, वीर्याचार-३६-७२।।
संवर और अध्यवसानावरणीय कर्म-अध्यवसान का अर्थ है चेतना की सूक्ष्म परिणति। अभयदेव सूरि ने इसका तात्पर्य भाव किया है। अध्यवसान, परिणाम और लेश्या-इन तीनों का एक गुच्छक है। लेश्या का अर्थ भाव है। वह सूक्ष्म क्रिया है। परिणाम चेतना की सूक्ष्मतर क्रिया है। अध्यवसान चेतना की सूक्ष्मतम क्रिया है। अध्यवसानावरणीय के उदयकाल में अध्यवसान का संवर नहीं होता, निरोध नहीं होता।
अभयदेव सूरि के अनुसार यहां संवर शब्द शुभाध्यवसाय की वृत्ति के अर्थ में विवक्षित है। किंतु यह विमर्शनीय है। जयाचार्य ने इसकी समीक्षा की है। उनके अनुसार कर्म निरोध का अध्यवसाय संवर है। योग प्रवृत्ति है, चंचलता है। संवर का स्वभाव निरोधात्मक है इसलिए संवर शुभ योग नहीं है।१२
अनगारिता, ब्रह्मचर्यवास, संयम और संवर-ये अध्यात्म विकास की उत्तरोत्तर भूमिकाएं हैं।
स्थानांग में 'सोच्चा असोच्चा' प्रकरण का सार-संक्षेप उपलब्ध है।
__ ज्ञान पांच हैं-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इसमें प्रथम चार ज्ञान ज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। केवलज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है।
१. ठाणं २.४३११ २. भ वृ. ९/१६-अंतरायो-विघ्नः सास्ति येष तान्यान्तरायिकाणि धर्मस्य ।
चारित्रप्रतिपनिलक्षणस्यान्तरायिकाणि धर्मान्तरायिकाणि तेषां वीर्यान्तरायचारित्रमोहनीयभेदानामित्यर्थः। ३. द्रष्ट. भ. १२००-२०९ का भाष्य। ४. भ. व.२.१८-वेदलक्षणानि चारित्रावरणीयानि विशेषतो ग्राह्याणि, मैथुन
विरतिलक्षणस्य ब्रह्मचर्यवासस्य विशेषतस्तेषामेवावारकत्वात्। ५.भ.८.३२०-३२१ ६. द्रष्टव्य भ. १.२००-२०२. का भाष्य। ७. उत्तर. २४, ६-८ ८. भ. व. १९१८ इह तु यतनावरणीयानि चारित्रविशेषविषयवीर्यान्तराय
लक्षणानि मंतव्यानि। ९. ध्यान विचार ८ पृ. २३८।
१०. भ. वृ.१२०॥ ११. वही, ९/२०-संवरशब्देन शुभाध्यवसायवृत्तेर्विवक्षितत्वात नस्याश्च
भावचारित्ररूपत्वेन तदावरणक्षयोपशमलभ्यत्वात अध्यवसानावरणीयशब्देनेह भावचारित्रावरणीयान्युक्तानीति। १२. भ. जो. ३॥ १७१।४४-४७
आख्या शुभ अध्यवसाय, चारित्ररूपपणे करी। तसु आवरणी ताय, चारित्रावरणी वृति में।। कर्म रूंधण रा सार, अध्यवसाय संवर तिके। त्रिहुं जोगा थी न्यार, बुद्धिवंत न्याय विचारज्यो। जोग व्यापार कहाय, चंचल स्वभाव जेहनो।
संवर गुण सुखदाय, स्थिर स्वभाव है तेहनों।। १३. ठाणं २/४१-७३।
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