________________
श.९ : उ. ३१ : सू. ३३ २१२
भगवई आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान-ये दो ज्ञान सर्व साधारण विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य यंत्रहै। इनका क्षयोपशम प्रत्येक जीव में होता है। सम्यक दृष्टि जीव के ये
अध्यात्म के सूत्र आन्तरिक शुद्धि के सूत्र दोनों ज्ञान कहलाते हैं और मिथ्यादृष्टि जीव के इन दोनों के नाम भिन्न
१. धर्म का ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होते हैं-मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान। इस स्थिति में इस प्रतिपादन
२. बोधि दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम का अर्थ है-जिसके आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम
३. गृहत्याग धर्मान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है, वह आभिनिबोधिकज्ञान उत्पन्न करता है। जिसके
४. ब्रह्मचर्यवास चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता वह
५. संयम यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न नहीं करता? इसका उत्तर अज्ञान और
। ६. संवर
अध्यवसानावरणीय कर्म का क्षयोपशम ज्ञान के भेद में ही खोजा जा सकता है। अनुयोगद्वार में क्षायोपशमिक
७. आभिनिबोधिक आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय भाव के अनेक प्रकारों का निर्देश है। उनमें मतिज्ञानावरण,
कर्म का क्षयोपशम श्रुतज्ञानावरण और अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति
८. श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अज्ञानावरण, श्रुतअज्ञानावरण और विभंगज्ञानावरण के क्षयोपशम 18. अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम भिन्न बतलाए गए हैं। जिसके मतिज्ञानाबरण का क्षयोपशम नहीं होता |१०. मनःपर्यवज्ञान मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम
और मतिअज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है उसके आभिनिबोधिक- 1११. केवलज्ञान | केवल ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। श्रुतज्ञान के लिए भी यही नियम है।
३३. तस्स णं छटुंछडेणं अणिक्खित्तेणं तस्य षष्ठंषष्ठेन अनिक्षिसेन तपःकर्मणा तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पगिज्झिय- ऊर्ध्वं बाहू प्रगह्य-प्रगह्य सूराभिमुखस्य पगिन्झिय सूराभि-मुहस्स आयावण- आतापन-भूम्याम् आतापयतः प्रकृतिभूमीए आया-वेमाणस्स पगइभद्दयाए, भद्रतया प्रकृति-उपशान्ततया, प्रकृति प्रतनु पगइ-उवसंतयाए, पगइपयणुकोह- क्रोध-मान-माया-लोभतया, मृदुमार्दव- माण-माया-लोभयाए, मिउमद्दव- सम्पन्नतया, आलीनतया, विनीततया, संपन्न-याए, अल्लीणयाए, विणीय- अन्यदा कदापि शुभेन अध्यव-सानेन, याए, अण्णया कयावि सुभेणं अज्झ- शुभेन परिणामेन लेश्याभिः विशुद्धयवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं मानाभिः-विशुद्ध्यमानाभिः तदावरणीयानां विसुज्झमाणीहिं . विसुज्झमाणीहिं कर्मणां क्षयोपयशमेन ईहापोहमार्गणातयावरणिज्जाणं कम्माणं खओव- गवेषणां कुर्वतः विभंग नाम अज्ञानं समेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करे- समुत्पद्यते। सः तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन माणस्स विब्भंगे नामं अण्णाणे जघन्येन अंगुल-स्य असंख्येयतमभागम्, समुप्पज्जइ। से णं तेणं विभंग-नाणेणं उत्कर्षेण असंख्येयानि योजनसहस्राणि समुप्पन्नेणं जहण्णेणं अंगुल-स्स जानाति-पश्यति। सः तेन विभंगज्ञानेन असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं- समुत्पन्नेन जीवान् अपि जानाति, अजीवान् असंखेज्जाइं जोयण-सहस्साइं जाणइ- अपि जानाति, पाषण्ड-स्थान् सारम्भान् पासइ। से णं तेणं विब्भंग-नाणेणं सपरिग्रहान् संक्लिश्य-मानान् अपि समुप्पन्नेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि। जानाति, विशुद्धयमानान् अपि जानाति। जाणइ, पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे सः पूर्वमेव सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, सम्यक्त्वं संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झ- प्रतिपद्य श्रमणधर्मं रोचते, श्रमणधर्म माणे वि जाणइ। से णं पुव्वामेव सम्मत्तं रोचित्वा चरित्रं प्रतिपद्यते, चरित्रं प्रतिपद्य पडिवज्जइ, सम्मत्तं पडिवज्जित्ता लिङ्गं प्रतिपद्यते। तस्य तैः मिथ्यात्व-पर्यवैः समणधम्म रोएति, समण-धम्मं रोएत्ता परिहीयमानैः-परीहीयमानः सम्यग-दर्शनचरित्तं पडिवज्जइ, चरित्तं पडिवज्जित्ता पर्यवैः परिवर्धमानैः-परिवर्धमानैः तत् लिंगं पडिवज्जइ। तस्स णं तेहिं । विभंग-अज्ञानं सम्यक्त्वपरीगृहीते क्षिप्रमेव मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं- अवधौ परावर्तते।
३३. 'जो निरन्तर बेले-बेले (दो-दो दिन का
उपवास) के तप की साधना करता है, जो दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन भूमि में आतापना लेता है, उसके प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया
और लोभ की प्रतनुता, मृदु-मार्दव सम्पन्नता, आत्मलीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और लेश्या की उत्तरोतर होने वाली विशुद्धि से तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्म का क्षयोपशम होता है। उसे ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। वह पुरुष समुत्पन्न विभंगज्ञान के द्वारा जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः असंख्येय हजार योजन को जानता-देखता है। वह समुत्पन्न विभंगज्ञान के द्वारा जीव को भी जानता है, अजीव को भी जानता है। वे पासंडस्थ (अन्य सम्प्रदाय में स्थित व्रती) आरंभ सहित और परिग्रह सहित होने के कारण संक्लिश्यमान है, इसे जानता है तथा आरंभ और परिग्रह को छोड़कर वे विशुद्धयमान होते हैं, इसे भी जानता है। वह विभंगज्ञानी जीव-अजीव आदि के यथार्थ स्वरूप के प्रति समर्पित होकर
१. (क) अनु. सू. २८५।
(ख) अनु. वृ. पृ. ११०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org