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भगवई
सम्मदंसणपज्जवेहिं
परिहायमाणेहिं परिवड्ढमाणेहिं परिवड्डमाणेहिं विब्भंगे अण्णाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ ॥
१. सूत्र ३३
निर्दिष्ट हैं।
प्रस्तुत सूत्र में अश्रुत्वा पुरूष के आध्यात्मिक विकास के साधन
१. निरन्तर दो उपवास ( बेला की तपस्या)
२. सूर्याभिमुखी आतापना
३. प्रकृति की भद्रता
से
४. प्रकृति का उपशम
५. क्रोध, मान माया और लोभ की प्रतनुता ६. मृदु - मार्दव संपन्नता ७. आलीनता
३४. से णं भंते! कतिसु लेस्सासु होज्जा ?
गोयमा! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा, तं जहा - तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए ॥
१. सूत्र ३४
३५. से णं भंते! कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु-आभिणिबोहियनाणसुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा ॥
३६. से णं भंते! किं सजोगी होज्जा ? अजोगी होज्जा ?
गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा |
१. भ. २/६२ का भाष्य ।
२. वही ३ / २१ का भाष्य ।
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भाष्य
पूर्व सूत्र में उल्लिखित सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति विशुद्ध लेश्या
स भदन्त ! कतिषु लेश्यासु भवति ?
८. विनीतता ।
इन साधनों का विकास होते होते एक समय आता है कि अध्यवसान, परिणाम और लेश्या की विशुद्धि के क्षणों में उसे विभंग नाम का अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध हो जाता है। उस अश्रुत्वा पुरुष की सूक्ष्म सत्यों को जानने की शक्ति बढ़ जाती है। वह जीव अजीव, आरंभ, परिग्रह तथा अनारंभ और अपरिग्रह, संक्लेश और विशुद्धि को जान लेता है । वह बोध उसे सम्यक्त्व तक पहुंचा देता है। मिथ्यात्व के पर्यवों की हानि और सम्यक्दर्शन के पर्यवों की वृद्धि होने पर उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान में बदल जाता है। "
गौतम! तिसृषु विशुद्धलेश्यासु भवति, तद् यथा-तेजोलेश्यायाम्, पद्मलेश्यायाम्, शुक्ललेश्यायाम् ।
भाष्य
स भदन्त कतिषु ज्ञानेषु भवति ? गौतम! त्रिषु - आभिनिबोधिकज्ञान - श्रुतज्ञान अवधिज्ञानेषु भवति ।
श. ९ : उ. ३१ : सू. ३३-३६ पहले सम्यक्त्व को प्रतिपन्न होता है। सम्यक्त्व को प्रतिपन्न होकर श्रमण धर्म में रुचि करता है। श्रमण धर्म में रुचि कर चारित्र को प्रतिपन्न होता है । चारित्र को प्रतिपन्न होकर लिंग को स्वीकार करता है। मिथ्यात्व पर्यवों के उत्तरोत्तर परिहानि तथा सम्यक् दर्शन के पर्यवों की उत्तरोत्तर परिवृद्धि होने के कारण उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और सम्यक्त्व प्राप्ति के क्षण में ही विभंगज्ञान अवधिज्ञान में बदल जाता है।
३४. भंते! सम्यक्त्व आदि की प्रतिपत्ति के
की अवस्थिति में ही होती है इसलिए उसमें तीन प्रशस्त लेश्या की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है।
स भदन्त ! किं संयोगी भवति ? अयोगी भवति ?
गौतम! संयोगी भवति, नो अयोगी भवति ।
समय उस अश्रुत्वा पुरुष में कितनी लेश्याएं होती हैं?
गौतम! तीन विशुद्ध लेश्याएं होती हैं, जैसे-तैजस लेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या ।
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३५. भंते! उसमें कितने ज्ञान होते हैं ? गौतम! तीन ज्ञान होते हैं- आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान ।
३६. भंते! क्या वह योग सहित होता है? योग रहित होता है?
गौतम! योग सहित होता है, योग रहित नहीं होता।
३. द्रष्टव्य भ. जो. ३/१७२ / १७-३०।
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