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________________ भगवई श.८ : उ. २ : सू. १७४-१७८ दसणअणागारोवउत्ता वि, नवरंचत्तारि नाणाई, तिणि अण्णा- णाई-भयणाए। अपि, नवरं-चत्वारि ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि-भजनया। प्रकार चक्षु, अचक्षदर्शन अनाकारोपयुक्त जीवों की वक्तव्यता, इतना विशेष है-उनके चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है। १७५. ओहिदसणअणागारोवउत्ताणं पुच्छा। अवधिदर्शनानाकारोपयुक्तानां पृच्छा। गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। जे गौतम! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। ये नाणी ते अत्थेगतिया तिण्णाणी, ज्ञानिनः ते अस्त्येकके त्रिज्ञानिनः, अत्थेगतिया चउनाणी। जे तिण्णाणी ते अस्त्येकके चतुर्जानिनः। ये विज्ञानिनः ते आभिणिबोहिय-नाणी, सुयनाणी, आभिनि-बोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, ओहीनाणी। जे चउनाणी ते आभिणि- अवधि-ज्ञानिनः। ये चतुर्जानिनः ते आभिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी। जे निबोधिकज्ञानिनः यावत् मनःपर्यवज्ञानिनः । अण्णाणी ते नियमा तिअण्णाणी, तं ये अज्ञानिनः ते नियमात् त्रि-अज्ञानिनः जहा-मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, तद्यथा-मति-अज्ञानिनः, श्रुत-अज्ञानिनः. विभंगनाणी। केवलदसण-अणागारो- विभंगज्ञानिनः। केवलदर्शनानाकारोपवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया॥ युक्ताः यथा केवलज्ञानलब्धिकाः। १७५. अवधिदर्शन अनाकारोपयुक्त जीवों की पच्छा । गौतम ! अवधिदर्शन अनाकारोपयुक्त जीव ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, उनमें कुछेक तीन ज्ञान वाले हैं और कुछेक चार ज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं। जो चार ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनः पर्यवज्ञानी हैं। जो अज्ञानी हैं, वे नियमतः तीन अज्ञान वाले हैं, जैसे-मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंगज्ञानी। केवलदर्शन अनाकारोपयुक्त जीवों की वक्तव्यता केवलज्ञानलब्धिकों के समान है। जोगं पडुच्च१७६. सजोगी णं भंते! जीवा किं नाणी? अण्णाणी? जहा सकाइया। एवं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी वि। अजोगी जहा सिद्धा॥ योगं प्रतीत्य योग की अपेक्षासयोगिनः भदन्त ! जीवा किं ज्ञानिनः? १७६. भंते! योगयुक्त जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानिनः? अज्ञानी हैं? यथा सकायिकाः। एवं मनोयोगिनः, काययुक्त जीव की भांति वक्तव्य हैं। इसी वाग्योगिनः, काययोगिनोऽपि। अयोगिनः प्रकार मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी की यथा सिद्धाः। वक्तव्यता। अयोगी सिद्ध की भांति वक्तव्य है। लेस्सं पडुच्च१७७. सलेस्सा णं भंते! जीवा किं नाणी? अण्णाणी? जहा सकाइया॥ लेश्यां प्रतीत्य लेश्या की अपेक्षासलेश्याः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १७७. भंते! लेश्यायुक्त जीव क्या ज्ञानी हैं ? अज्ञानिनः? अज्ञानी हैं? यथा सकायिकाः। काययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता। १७८. कण्हलेस्सा णं भंते! जीवा किं कृष्णलेश्याः भदन्त! जीवाः किं ज्ञानिनः? १७८. 'भंते! कृष्णलेश्या वाले जीव क्या नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः? ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं? जहा सइंदिया। एवं जाव पम्हलेस्सा, सु- यथा स-इन्द्रियाः। एवं यथा पद्मलेश्याः, इन्द्रिययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता। क्कलेस्सा जहा सलेस्सा। अलेस्सा शुक्ललेश्याः यथा सलेश्याः। अलेश्याः यथा इसी प्रकार यावत् पद्मलेश्या और शुक्लजहा सिद्धा। सिद्धाः। लेश्या वाले जीव लेश्यायुक्त जीव की भांति वक्तव्य हैं। लेश्यामुक्त जीव सिद्ध की भांति वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र १७८ अलेश्य-चतुर्दश गुणस्थान का अधिकारी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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