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श. ८ : उ. २ : सू. १७९-१८३
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भगवई
कसायं पडुच्च१७९. सकसाई णं भंते! जीवा किं नाणी?
अण्णाणी? जहा सइंदिया। एवं जाव लोभ-कसाई॥
कषायं प्रतीत्य
कषाय की अपेक्षा सकषायिणः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १७९. भंते! कषाययुक्त जीव क्या ज्ञानी अज्ञानिनः?
हैं ? अज्ञानी है ? यथा स-इन्द्रियाः। एवं यथा लोभकषायिणः। इन्द्रिययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता।
इसी प्रकार यावत् लोभकषायी वक्तव्य हैं।
जन
१८०. अकसाई णं भंते! जीवा किं नाणी? अकषायिणः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १८०. "भंते! कषायमुक्त जीव क्या ज्ञानी अण्णाणी? अज्ञानिनः?
हैं? अज्ञानी हैं? पंच नाणाई भयणाए। पञ्च ज्ञानानि भजनया।
कषायमुक्त जीवों के पांच ज्ञान की भजना है।
भाष्य १.सूत्र १८०
अकषायी-वीतराग। छद्मस्थ वीतराग में चार ज्ञान की भजना। केवली वीतराग में एक ज्ञान केवलज्ञान। वेदं पडुच्चवेदं प्रतीत्य
वेद की अपेक्षा १८१. सवेदगा णं भंते! जीवा किं नाणी? सवेदकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १८१. भंते ! वेदयुक्त जीव क्या ज्ञानी हैं ? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? जहा सइंदिया। एवं इत्थिवेदगा वि, एवं यथा स-इन्द्रियाः। एवं स्त्रीवेदकाः अपि, एवं इन्द्रिययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता। पुरिसवेदगा वि, एवं नपुंसगवेदगा वि। पुरुषवेदकाः अपि, एवं नपुंसकवेदकाः इसी प्रकार स्त्रीवेद, पुरुषवेद और अवेदगा जहा अकसाई॥ अपि। अवेदकाः यथा अकषायिणः।
नपुंसक-वेद वाले जीवों की वक्तव्यता। वेदमुक्त जीव कषायमुक्त जीव की भांति
वक्तव्य हैं।
भाष्य १.सूत्र १८१
__ होती है अतः अनिवृत्ति गुणस्थान से अग्रिम गुणस्थानों के अधिकारी अवेदक-नवे गुणस्थान के उत्तर भाग में अवेदक अवस्था प्राप्त. अवेदक होते हैं। आहारगं पडुच्चआहारकं प्रतीत्य
आहारक की अपेक्षा१८२. आहारगा णं भंते! जीवा किं । आहारकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १८२. 'भंते! आहारक जीव क्या ज्ञानी हैं? नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? जहा सकसाई, नवरं-केवलनाणं पि॥ यथा सकषायिणः, नवरं- केवलज्ञानमपि। कषाययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता।
इतना विशेष है-आहारक जीवों के केवलज्ञान भी होता है।
१८३. अणाहारगा णं भंते! जीवा किं अनाहारकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १८३. भंते! अनाहारक जीव क्या ज्ञानी हैं ? नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी है? मणपज्जवनाणवज्जाइं नाणाई, मनःपर्यवज्ञानवानि ज्ञानानि, अज्ञानानि अनाहारक जीवों के मनःपर्यवज्ञान को अण्णाणाई तिण्णि-भयणाए। त्रीणि-भजनया।
छोड़कर चार ज्ञान और तीन अज्ञान की
भजना है।
भाष्य १. सूत्र १८२-१८३
विग्रह गति में तीन ज्ञान, तीन अज्ञान हो सकते हैं, केवली केवली भी आहारक होते हैं इसलिए आहारक में पांच ज्ञान समुद्घात की अवस्था, शैलेशी और सिद्धावस्था में केवलज्ञान होता की भजना है। अनाहारक की चार अवस्थाएं हैं
है। मनःपर्यवज्ञान छद्मस्थ मुनि के ही होता है। इसलिए अनाहारक १. विग्रह गति २. केवली समुद्घात
अवस्था में उसका वर्जन किया गया है।' ___३. शैलेशी या अयोगी अवस्था ४. सिद्धावस्था। १. भ. वृ.८/१८२-सकषाया भजनया चतुर्ज्ञानस्यज्ञानाश्चोक्ताः आहारकाः २. भ, वृ. ८/१८३-मनःपर्यवज्ञानमाहारकाणामेव आद्यं पुनर्ज्ञानत्रयमज्ञानत्रयं अप्येवमेव नवरमाहारकाणां केवलमप्यस्ति केवलिन आहारकत्वादपीति। च विग्रहे भवति, केवलं च केवलिसमुद्घातशैलेशीसिद्धावस्थास्वनाहारकाणा
मपि स्याद।
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