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________________ भगवई श. ८ : उ.९ : सू. ४२८ स्थान पर बहु शब्द का प्रयोग हुआ है।' आरंभ शब्द के तीन अर्थ मिलते हैं१. प्राणी के प्राण का व्यपरोपण।२ २. हिंस्र कर्म। ३. प्राणी पीड़ा का हेतुभूत व्यापार।' इसका तात्पर्य है-असीम आरंभ का अनवरत प्रयोग नरकायु का हेतु बनता है। २. महा परिग्रह-परिमाण अथवा सीमा रहित संग्रह। परिग्रह के अनेक अर्थ हैं। तात्पर्यार्थ में वे भिन्न नहीं हैं • ममत्व, मूर्छा, गृद्धि। शरीर आदि में ममत्व आंतरिक परिग्रह है। वस्तु समूह के प्रति ममत्व बाहरी परिग्रह है।' • यह मेरा है, इस प्रकार का संकल्प। ३.पंचेन्द्रिय वध। ४. कुणिमाहार-मांसाहार। मांसाहार और पंचेन्द्रिय वध-इन प्रवृत्तियों का आसेवन और उनमें रागात्मकभाव अथवा द्वेषात्मक भाव की तीव्रता नरकायु का हेतु बनती है। उमास्वाति ने नरक आयु के बहु आरंभ और बहु परिग्रह इन दो हेतुओं का ही उल्लेख किया है। प्रश्न उपस्थित होता है क्या चार हेतुओं का उल्लेख उमास्वाति से उत्तरवर्ती है। सिद्धसेनगणि ने अन्य अनेक हेतुओं का भी उल्लेख किया मनुष्य आयु के चार हेतु १. प्रकृति भद्रता दूसरों को अनुतप्त न करने का स्वभाव। २. प्रकृति विनीतता-विनम्र स्वभाव। ३. स्वानुकंपा-अनुकंपा। ४. अमत्सरिता-दूसरे के गुणों को सहन करने की मनोवृत्ति, प्रमोद भावना। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में मनुष्य आयु के चार हेतु भिन्न प्रकार से निर्दिष्ट है १. अल्पारंभ २. अल्पपरिग्रह ३. स्वभाव की मृदुता ४. स्वभाव की ऋजुता। सर्वार्थ सिद्धि में आर्जव का उल्लेख नहीं है।' उमास्वाति ने निःशीलव्रतत्व को सब आयुष्यों का आस्रव बतलाया है। इसका तात्पर्य है-शील और व्रत रहित दशा में सब प्रकार के आयुष्य का बंध होता है। व्रत की अवस्था में केवल वैमानिक देव आयुष्य का ही बंध होता है। देवायु के चार हेतु व्यक्ति भेद से संयम दो प्रकार का होता है-- १. सराग संयम-कषाययुक्त मुनि का संयम। २. वीतराग संयम-उपशांत या क्षीण कषाय वाले मुनि का संयम। वीतराग संयमी के आयुष्य का बंध नहीं होता इसलिए यहां सराग संयम (सकषाय चरित्र) को देवायु के बंध का कारण बतलाया गया है। २. संयमासंयम आंशिक रूप से व्रत स्वीकार करने वाले गृहस्थ के जीवन में संयम और असंयम दोनों होते हैं इसलिए उसका संयम संयमासंयम कहलाता है। ३. बालतपःकर्म-मिथ्यादृष्टि का आचरण। ४. अकाम निर्जरा-निर्जरा की अभिलाषा के बिना कर्म निर्जरण का हेतुभूत आचरण। जयाचार्य ने आयुष्य चतुष्क के हेतुभूत तत्त्वों की समीक्षा की है। उनके अनुसार नरक आयु और तिर्यंच आयु के हेतु सावध हैं। मनुष्य आयु और देव आयु के हेतु निरवद्य है। प्रस्तुत प्रकरण में यौगलिक तिर्यंच और असंज्ञी मनुष्य विवक्षित नहीं है। हो सकता है-प्राचीन परम्परा दो हेतुओं की रही, उत्तरकाल में उसका विस्तार हुआ और चार हेतुओं की परम्परा मान्य हो गई। तिर्यच आयु तिर्यंच आयु के चार हेतु-माया, निकृति, अलीक वचन और कूटतौल-कूटमाप। माया-प्रवंचना। निकृति-प्रवंचना की चेष्टा। वृत्तिकार ने दो मतांतरों का उल्लेख किया है-- १. माया को ढांकने के लिए दूसरी माया करना। २. अति आदर प्रदर्शित कर ठगना। उमास्वाति ने तिर्यग आयु के केवल एक हेतु-माया का उन्लेख किया है।" १. न. सू. ६/१६-बहारंभपरिग्रहत्वं च नारकाण्यायुषः । २.त. सू. भा. य. भा. १ भाष्यानुसारिणी प. २२-आरंभः-प्राणिप्राणव्य परोपणम्। ३. न, सू. भा. वृ. ६.१५ की वृत्ति-आरंभो हैंसं कर्म। ४. सर्वार्थ सिन्द्रि. ६.१५ की वृत्ति-आरंभः प्राणिपीड़ाहेतुव्यापारः। ५.त. सू. भा. वृ.६१५ की वृत्ति। ६. (क) न. रा. वा. ६.१५ की वृत्ति। (ख) सर्वार्थसिन्द्रि, ६.१५ की वृत्ति। ७. न. सू. भा. वृ. ६.१६-बहारंभपरिग्रहवं च नारकास्यायुषः। ८. वही. भा. २-भाष्यानुसारिणी पृ. २०॥ १.. भ. व. ८.१०.-४२० -निकृतिः वंचनार्थ चेष्टमाया प्रच्छादनार्थ मायान्तरामित्येके, अन्यादरकरणेन परवंचनमित्यन्ये। १०. न. सू. ६/१७-माया तैर्यक्योनस्य। ११. भ. वृ.८/४१९-४२९/ १२. न. सू. भा, वृ. ६/१८-अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य। १३. सर्वार्थसिद्धि, ६.१७-१८-अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य। स्वभावमार्दवं १४. त. स. भा. वृ. ६.१९-निःशीलवतत्वं सर्वेषाम्। १५. भ. जो. २/१६३/५५-६३ नरकायु नां धार, कारण चिहं सावध कह्या। चिहुं जिन आज्ञा बार, पाप प्रकृति है ने भणी॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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