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भगवई
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श.८ : उ.५ : सू. २३२,२३५
ममत्तभावे पुण से अपरिण्णाए भवइ। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-सभंडं अणुगवेसइ, नो परायगं भंडं अणुगवेसइ॥
अपरिज्ञातः भवति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते स्वभाण्डं अनुगवेषयति, नो परकं भाण्डम् अनुगवेषयति।
प्रवर सार-वर्ण का वैभव मेरा नहीं है, फिर भी उसका ममत्व भाव अपरिज्ञात होता है. प्रत्याख्यात नहीं होता। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-श्रमणोपासक अपने भाण्ड की अनुगवेषणा करता है,पराए भाण्ड की अनुगवेषणा नहीं करता।
२३३. समणोवासगस्स णं भंते! श्रमणोपासकस्य भदन्त ! सामायिककृतस्य २३३. भंते! कोई श्रमणोपासक श्रमणों के
सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छ- श्रमणोपाश्रये आसीनस्य कोऽपि जायां उपाश्रय में आसीन होकर सामायिक कर माणस्स केइ जायं चरेज्जा, से णं भंते! चरेत्, सः भदन्त! किं जायां चरति ? रहा है। उस समय कोई पुरुष उसकी किं जायं चरइ? अजायं चरइ? अजायां चरति?
जाया (भार्या) का सेवन करता है? तो क्या वह उसकी जाया का सेवन करता है। अथवा अजाया (अभार्या) का सेवन
करता है? गोयमा! जायं चरइ, नो अजायं चरइ॥ गौतम! जायां चरति, नो अजायां चरति।। गौतम! वह श्रमणोपासक की जाया का
सेवन करता है, अजाया का सेवन नहीं करता।
२३४. तस्स णं भंते! तेहिं सीलव्वय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ? हंता भवइ॥
तस्य भदन्त ! तैः शीलवत-गुण-विरमण- प्रत्याख्यान-पौषधोपवासैः सा जाया अजाया भवति? हन्त भवति।
२३४. भंते! वह श्रमणोपासक शीलव्रत, गुण-विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास की आराधना करता है, क्या उसकी जाया अजाया हो जाती है ? हां, उसकी जाया अजाया हो जाती है।
२३५. से केणं खाइ णं अटेणं भंते एवं वुच्चइ-जायं चरइ? नो अजायं चरइ?
तत् केन 'वाई' अर्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-जायां चरति ? नो अजायां चरति?
गोयमा! तस्सणं एवं भवइ-नो मे माता, गौतम ! तस्य एवं भवति-नो मे माता, नो मे नो मे पिता, नो मे भाया, नो मे भगिणी, पिता, नो मे भ्राता, नो मे भगिनी, नो मे नो मे भज्जा, नो मे पुत्ता, नो मे धूया, नो भार्या, नो मे पुत्राः, नो मे दुहिता, नो मे मे सुण्हा; पेज्जबंधणे पुण से स्नुषा, प्रेयोबन्धनं पुनः तस्य अव्यवच्छिन्नं अव्वोच्छिन्ने भवइ। से तेणद्वेणं गोयमा! भवति। तत् तेनार्थेन । गौतम! एवम् उच्यतेएवं वुच्चइ-जायं चरइ, नो अजायं जायां चरति, नो अजायां चरति। चरइ॥
२३५. भंते! यह कैसे कहा जा सकता हैकोई पुरुष श्रमणोपासक की जाया का सेवन करता है, अजाया का सेवन नहीं करता? गौतम! उसका ऐसा संकल्प होता है-माता मेरी नहीं है, पिता मेरा नहीं है, भाई मेरा नहीं है, बहिन मेरी नहीं है, भार्या मेरी नहीं है, पुत्र मेरे नहीं हैं. पुत्री मेरी नहीं है, वधू मेरी नहीं है, फिर भी उसका प्रेयस बंधन विच्छिन्न नहीं होता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई पुरुष श्रमणोपासक की जाया का सेवन करता है, अजाया का सेवन नहीं करता।
भाष्य १.सूत्र २३०-२३५
मिलता है - भगवान महावीर के समय में श्रमणों के अनेक संप्रदाय थे। १. निग्रंथ, २. शाक्य, ३. तापस, ४. गैरिक-परिव्राजक, ५. उत्तरकालीन साहित्य में केवल पांच श्रमण संप्रदायों का उल्लेख आजीवक। १. (क) नि. भा. गा. ४४२०-निग्गंथसक्कनावसगेरुयआजीव पंचहा समणा। (ख) प्र. सा. गा. ७३१-७३३।
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