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________________ श.८ : उ. ५ : सू. २३६ ८४ भगवई आजीवक संप्रदाय महावीर के काल में बहुत शक्तिशाली था। की चेतना जागृत होती है। इस ममत्व चेतना के आधार पर ही निग्रंथ और आजीवकों के पारस्परिक मिलन के अनेक प्रसंग आगम महावीर ने कहा-सामायिक में चुराए गए उपकरण की अनुगवेषणा और उसके व्याख्या साहित्य में उपलब्ध हैं।' प्रस्तुत प्रसंग उसी करने वाला अपने उपकरण की अनुगवेषणा करता है, किसी दूसरे के शृंखला की एक कड़ी है। आजीवक संप्रदाय के कुछ व्यक्ति स्थविरों उपकरण की अनुगवेषणा नहीं करता। से मिले और उनके सामने अपने प्रश्न प्रस्तुत किए। अभयदेवसूरि ने ममत्व और अनुमोदन की एकरूपता बतलाई आजीवक के शिष्य साधु थे अथवा गृहस्थ-इसका स्पष्ट है। उनका वक्तव्य है-अनुमोदन का प्रत्याख्यान नहीं होता इसलिए निर्देश नहीं है। स्थविरों का भी नाम निर्देश नहीं है। स्थविरों ने उत्तर सामायिक में चुराया गया उपकरण उसी का है, किसी दूसरे का दिए अथवा नहीं, इसका भी कोई निर्देश नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में नहीं। गौतम महावीर के सामने आजीवकों द्वारा पूछे गए प्रश्न रख रहे हैं जयाचार्य ने भिक्षु स्वामी को उद्धृत करते हए सामाथिक में और भगवान महावीर उनका समाधान कर रहे हैं। इसका पूरा विवरण किए जाने वाले प्रत्याख्यान की तीन कोटियां बतलाई हैलिपि काल में संक्षिप्त किया गया अथवा किसी कारणवश त्रुटित हो १. छह कोटि-करूंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। गया. यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। __ कराऊंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। आजीवकों द्वारा पूछे गए प्रश्न का संबंध सामायिक की २. आठ कोटि-करूंगा नहीं मन से. वचन से, काया से। अवस्था से है। सामायिक काल में श्रमणोपासक अपने उपकरणों का कराऊंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। परित्याग करता है फिर भी वे उपकरण उसी के रहते हैं। इन दोनों अनुमोदूंगा नहीं वचन से, काया से। क्रियाओं को अनेकांत दृष्टि से समझाया गया है। श्रमणोपासक ने २. नव कोटि-करूंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। सामायिक में उपकरणों का त्याग कर दिया, इस दृष्टि से वे उपकरण __ कराऊंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। उसके नहीं रहे किन्तु उनके प्रति उसका ममत्व अपरित्यक्त है, इस अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से. काया से। अपेक्षा से वे उपकरण उस श्रमणोपासक के हैं। इस उत्तर से दो तथ्य इन तीनों विकल्पों में भी ममत्व अथवा अनुमोदना का सर्वथा फलित होते हैं परित्याग नहीं होता। १. वस्तु पर स्वामित्व। जयाचार्य ने आगम साक्ष्य से प्रमाणित किया है कि सामायिक २. वस्तु के प्रति ममत्व की चेतना। में आत्मा अधिकरण होती है इसलिए उसके सर्वथा त्याग नहीं श्रमणोपासक सामायिक काल में स्वामित्व का परित्याग होता। करता है। सूत्रकार ने उसका स्पष्ट निर्देश किया है-'हिरण्य मेरा नहीं दूसरा प्रश्न जाया (पत्नी) के विषय में है। सामायिक काल में है. स्वर्ण मेरा नहीं है आदि आदि। यह वस्तु के प्रति स्वामित्व की जाया अजाया नहीं होती। वह सामायिक काल में संकल्प करता चेतना का परिवर्तन है और सावधिक है। सामायिक का काल सम्पन्न है-माता मेरी नहीं है, पिता मेरा नहीं है, भाई मेरा नहीं है, फिर भी प्रेम होने पर उन पर स्वामित्व की चेतना फिर प्रारंभ हो जाती है। ममत्व का बंधन व्युच्छिन्न नहीं होता इसलिए जाया अजाया नहीं होती। का सूत्र सामायिक में भी अविच्छिन्न रहता है इसलिए पुनः स्वामित्व २३६. समणोवासगस्स णं भंते! पुवामेव श्रमणोपासकस्य भदन्त ! पूर्वमेव स्थूलः २३६. भंते! श्रमणोपासक के स्थूल थूलए पाणाइवाए अपच्चक्खाए भवइ, प्राणातिपातः अप्रत्याख्यातः भवति, सः प्राणातिपात का पहले प्रत्याख्यान नहीं से णं भंते! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं भदन्त ! पश्चात् प्रत्याख्यान किं करोति? होता। भंते! फिर वह उसका प्रत्याख्यान करेइ? करता हुआ क्या करता है? गोयमा! तीयं पडिक्कमति, पड़प्पन्नं गौतम! अतीतं प्रतिक्रामति, प्रत्युत्पन्न गौतम! वह अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान संवरेति, अणागयं पच्चक्खाति॥ संवृणोति, अनागतं प्रत्याख्याति। का संवरण और अनागत का प्रत्याख्यान करता है। १.(क) सूप.२.६.१-५५/ काल अतीत तणी हिंसा प्रतै, न कर मन करि एम। (ख) भ. १५.१०१-११५॥ न करावै अनुमोदै न मन करी विहुँ निवर्ने नेम॥ २. भ. वृ. ८२३२-परिग्रहादिविषये मनोवाक्कायानां करणकारणे तेन ४. वहीं, २/१४१/२९-३२ प्रत्याख्याते ममत्वभावः पुनः हिरण्यादिविषये ममतापरिणामः पुनः इम न करै हिंसा वचन करी, हा मुझ हणियो एण! अपरिज्ञातः अप्रत्याख्यातो भवति अनुमतेरप्रत्याख्यातत्वात् ममत्वभावस्य तिण दिन मैं इण. हणियो नहीं, इम बोल्यां थी नेण।। चानुमतिरूपत्वादिति। करावे वच करि हिंसा प्रते, हा निण हणियो मोय। ३.भ.जा.२, १४१/२६-२८ अन्य पास तस म्है न हणावियो, इम बोल्यां थी सोय।। करता प्रति जे अनुमोदे नहीं. उपलक्षण थी आम। वध प्रति अनुमोदै नहिं वच थकी, अतीत हिंसा प्रतेह। करावता प्रति अनुमोदै नहीं, अनुमोदता प्रति आम।। अनुमोदै ते सरावै वध करी, रूड़ो हणियो एह ।। वध पर-कृत अथवा आतम कियो, अनुमोदै जहि जेह। काय करी न करै नहिं करावै, अनुमोदै नहिं काय। मन कर वध चिंतवै करि तसुं अनुमोदन थी तेह॥ अंग विशेष तथाविध करण थी अनीत काल कृत ताय।। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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