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पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
आजीवियसंदब्भे समणोवासय-पदं आजीविकसंदर्भ श्रमणोपासक-पदम् आजीवक के संदर्भ में श्रमणोपासक-पद २३०. रायगिहे जाव एवं वयासी- राजगृहे यावत् एवमवादीत्-आजीविकाः २३०. 'राजगृह नगर में समवसरण यावत्
आजीविया णं भंते! थेरे भगवंते एवं भदन्त ! स्थविरान् भगवतः एवमवादिषुः- गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते ! वयासी-समणोवासगस्स णं भंते! श्रमणोपासकस्य भदन्त ! सामायिककृतस्य आजीवकों ने भगवान स्थविरों से इस सामाइयकडस्स समणो-वस्सए श्रमणोपाश्रये आसीनस्य कोऽपि भाण्डं प्रकार कहाअच्छमाणस्स केइ भंडं अवहरेज्जा, से अपहरेत्, सः भदन्त! तत् भाण्ड भंते! कोई श्रमणोपासक श्रमणों के णं भंते! तं भंड अणुगवेसमाणे किं सभंडं । अनुगवेषयन् किं स्वभाण्डं अनुगवेषयति? उपाश्रय में आसीन होकर सामायिक कर अणु-गवेसइ? परायगं भंडं अणुग- परकं भाण्डं अनुगवेषयति?
रहा है। उस समय कोई पुरुष उसके वेसइ?
भाण्ड, वस्त्र आदि वस्तु का अपहरण कर लेता है, भंते! सामायिक पूर्ण होने के पश्चात् श्रमणोपासक उस भाण्ड की अनुगवेषणा कर रहा है तो क्या अपने भाण्ड की अनुगवेषणा कर रहा है अथवा
पराए भाण्ड की अनुगवेषणा कर रहा है? गोयमा! सभंडं अणुगवेसइ, नो परायगं गौतम ! स्वभाण्डम् अनुगवेषयति, नो परकं गौतम ! वह अपने भाण्ड की अनुगवेषणा भंडं अणुगवेसइ॥ भाण्डम् अनुगवेषयति।
करता है, पराए भाण्ड की अनुगवेषणा नहीं करता।
२३१. तस्स णं भंते! तेहिं सीलव्वय-गुण-
वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवइ?
तस्य भदन्त! तैः शीलवत-गुणविरमण- प्रत्याख्यान-पौषधोपवासैः तद् भाण्डम् अभाण्डं भवति?
२३१. भंते! श्रमणोपासक शीलव्रत, गुणविरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास की आराधना करता है। क्या उसका भाण्ड अभाण्ड हो जाता है, पराया हो जाता है? हां, उसका भाण्ड अभाण्ड बन जाता है।
हंता भवइ।
हन्त भवति।
२३२. से केणं खाइ णं अटेणं भंते! एवं वुच्चइ-सभंडं अणुगवेसइ, नो परायगं भंड अणुगवेसइ?
तत् केन 'खाइ' अर्थेन भदन्त! एवमुच्यते-स्वभाण्ड अनुगवेषयति, नो परकं भाण्ड अनुगवेषयति?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-नो मे गौतम! तस्य एवं भवति-नो मे हिरण्यम्, नो हिरण्णे, नो मे सुवण्णे, नो मे कंसे, नो मे मे सुवर्णम्, नो मे कांस्यम्, नो मे दृष्यम्, नो दूसे, नो मे विपुलधण-कणग-रयण- मे विपुलधन-कनक-रत्न-मणि-मौक्तिकमणि - मोत्तिय - संख - सिलप्प - वाल- शंख - शिला - प्रवाल - रक्तरत्नादिके रत्तरयणमादीए संतसार-सावदेज्जे, सत्सार- स्वापतेये ममत्वभावः, पुनः तस्य
२३२. भंते! यह कैसे कहा जा सकता है
श्रमणोपासक अपने भाण्ड की अनुगवेषणा करता है, पराए भाण्ड की अनुगवेषणा नहीं करता? गौतम! उसका ऐसा संकल्प होता हैहिरण्य मेरा नहीं है, सुवर्ण मेरा नहीं है, कांस्य मेरा नहीं है, दृष्य (वस्त्र) मेरा नहीं है, विपुल धन, सोना, रत्न, मणि, मोती, शंख, मैनसिन, प्रवाल, रक्त-रत्न आदि
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