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भगवई
श. ८ : उ. २ : सू. १२०-१२५ .
भाष्य
१. सूत्र ११८-११९
आत्मा के दो रूप हैं१. सकाय-सशरीरी।
२. अकाय-अशरीरी। सकाय में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान के सब विकल्प मिलते हैं। अकाय सिन्द्र होता है। उसमें एक ही ज्ञान होता है-केवलज्ञान।
सुहुम-बादरं पडुच्च१२०.सुहमा णं भंते! जीवा किं नाणी? जहा पढविक्काइया।।
सूक्ष्मबादरं प्रतीत्यसूक्ष्माः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? यथा पृथ्वीकायिकाः।
सूक्ष्म-बादर की अपेक्षा १२०. 'भन्ते ! सूक्ष्म जीव क्या जानी है? पृथ्वीकायिक जीवों की भांति वक्तव्यता।
१२१. बादरा णं भंते ! जीवा किं नाणी? जहा सकाइया॥
बादराः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? जहा सकायिकाः।
१२१. भन्ते! बादर जीव क्या ज्ञानी है?
सकायिक की भांति वक्तव्यता।
१२२. नोसुहमा-नोबादरा णं भंते! जीवा । नो सूक्ष्माः नो बादराः भदन्त ! जीवाः किं किं नाणी?
ज्ञानिनः? जहा सिद्धा।।
यथा सिद्धाः।
१२२. भन्ते! नोसूक्ष्म- नोबादर जीव क्या
ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं ? सिद्धों की भांति वक्तव्यता।
भाष्य १. सूत्र १२०-१२२
प्रतिघातयुक्त होता है, वे बादर कहलाते हैं। सूक्ष्म जीव केवल सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिनका शरीर अप्रतिघात वाला एकेन्द्रिय में ही होते हैं। वे पृथ्वीकाय की भांति नियमतः द्वि-अज्ञानी होता है-न किसी दूसरे को बाधा पहुंचाता है और न किसी दूसरे से हैं। बादर जीव सकायिक (सूत्र ११८) की भांति वक्तव्य है। सिद्ध बाधित होता है, वे सूक्ष्म जीव कहलाते हैं। जिनका शरीर अशरीरी होने के कारण नोसूक्ष्म-नोबादर होते हैं।
पज्जत्तापज्जत्तं पडुच्च१२३. पन्जत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी? जहा सकाइया॥
पर्याप्तापर्याप्तं प्रतीत्यपर्याप्ताः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? यथा सकायिकाः।
पर्याप्त अपर्याप्त की अपेक्षा १२३. भन्ते! पर्याप्त जीव क्या ज्ञानी हैं? सकायिक जीवों की भांति वक्तव्यता।
१२४. पज्जत्ता णं भंते! नेरइया किं पर्याप्ताः भदन्त ! नैरयिकाः किं ज्ञानिनः?
नाणी? तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा नियमा। त्रीणि ज्ञानानि. त्रीणि अज्ञानानि नियमात्। जहा नेरइया एवं थणियकुमारा। यथा नैरयिका एवं स्तनितकुमाराः। पृथ्वी- पुढविक्काइया जहा एगिदिया। एवं जाव कायिकाः यथा एकेन्द्रियाः। एवं यावत् चउरिंदिया।
चतुरिन्द्रियाः।
१२४. भन्ते! पर्याप्त नैरयिक जीव क्या ज्ञानी है? नियमतः तीन ज्ञान और तीन अज्ञान होते हैं। इसी प्रकार असुरकुमार से स्तनितकुमार तक की वक्तव्यता नैरयिक की भांति ज्ञातव्य है। पर्याप्त पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता एकेन्द्रिय की भांति ज्ञातव्य है। इसी प्रकार यावत् पर्याप्त चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता।
१२५. पज्जत्ता णं भंते! पंचिंदिय- पर्याप्ताः भदन्त ! पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकाः १२५. 'भन्ते! पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यकतिरिक्खजोणिया किं नाणी? किं ज्ञानिनः? अज्ञानिनः?
योनिक क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं ? अण्णाणी? तिण्णि नाणा, तिण्णि त्रीणि ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि-भजनया। तीन ज्ञान, तीन अज्ञान की भजना है। अण्णाणा-भयणाए। मणुस्सा जहा मनुष्याः यथा सकायिकाः। वानमन्तर- पर्याप्त मनुष्यों की बक्तव्यता सकायिक सकाइया। वाणमंतर-जोइसिय- ज्योतिष्क-वैमानिकाः यथा नैरयिकाः। जीवों की भांति ज्ञातव्य है। पर्याप्त वेमाणिया जहा नेरझ्या॥
वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की वक्तव्यता नैरयिक की भांति ज्ञातव्य
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