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भगवई
आलीन-करण बंध, शरीर बंध, शरीर प्रयोग बंध।
षट्खंडागम में जीव के आठ मध्य प्रदेशों के बंध को अनादि शरीरबंध कहा गया है। सिद्धसेन गणि ने भाष्यानुसारिणी में आठ मध्य प्रदेशों की चर्चा की है। तत्त्वार्थ वार्तिक में जीव के आठ मध्य आलावणं पडुच्चआलापनं प्रतीत्य ३५५. से किं तं आलावणबंधे ? आलावणबंधे-जण्णं तणभाराण वा, कट्टभाराण वा, पत्तभाराण वा, पलालभाराण वा, वेत्तलता-वाग वरत-रज्जुवल्लि कुस दब्भमा दीएहिं आलावणबंधे समुपज्जइ, जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं । सेत्तं आलावण- बंधे ॥
१. सूत्र ३५५
आलापन बंध- रस्सी आदि से होने वाला बंध। सूत्र में बंध के साधनों का नामोल्लेख किया गया है
वेत्रलता - जलीय बांस की खपाची ।
वल्क--छाल।
रज्जु-सन आदि की रस्सी ।
वरत्रा - चमड़े की रस्सी ।
अल्लियावणं पडुच्च३५६. से किं तं अल्लियावणबंधे ? अल्लियावणबंधे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - लेसणाबंधे, उच्चयबंधे, समुच्चयबंधे, साहणणाबंधे ॥
३५७. से किं तं लेसणाबंधे ? लेसणाबंधे - जणं कुड्डाणं, कोट्टि माणं, खंभाणं, पासायाणं, कट्ठाणं, चम्माणं, घडणं, पडाणं, कडाणं छुहाचिक्खल्ल-सिलेस लक्ख-महुसित्थमाईएहिं लेसण - एहिं बंधे समुप्पज्जइ, जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं । सेत्तं लेसणाबंधे।
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अथ किं तत् आलापनबन्धः ? आलापनबन्धः- यत् तृणभाराणां वा, काष्ठभाराणां वा, पत्रभाराणां वा, पलालभाराणां वा, वेत्रलता वल्क- वरत्र-रज्जुवल्ली - कुश-दर्भादिभिः समुत्पद्यते, जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण संख्येयं कालम् । सः एषः आलापनबन्धः ।
आलापनबन्धः
श. ८ : उ. ९ : सू. ३५५-३५७ प्रदेशों की अवस्थिति ऊपर और नीचे बतलाई गई । वे सदा परस्पर संबद्ध रहते हैं इसलिए उनका बंध अनादि होता है। जीव के अन्य प्रदेशों का कर्म के निमित्त से संहरण और विसर्पण होता रहता है इसलिए वे आदिमान हैं। *
भाष्य
१. भ. वृ. ८ / ३५४ - शेषाणां मध्यमाष्टाभ्योन्येषां सादिविपरिवर्तमानात्वात्, एतेन प्रथमभंग उदाहृतः अनादिसपर्यवसित इत्ययं तु द्वितीयो भंग इह न संभवति, अनादिसंबद्धानामष्टानां जीवप्रदेशानामपरिवर्तमानत्वेन बंधस्य सपर्यवसितत्वानुपपत्तेरिति । अथ तृतीयो भंग उदाहियते- 'तत्थ णं जे से साइए' इत्यादि सिद्धानां सादिरपर्यवसितो जीवप्रदेशबंध: शैलेश्यवस्थायां संस्थापित प्रदेशानां सिद्धत्वेऽपि चलनाभावादिति । अथ चतुर्थभ भदन्त आह तत्थं णं जे से साइए इत्यादि ।
२. ष. खं. पु. १४,५,६,६३ - जो अणादिय सरीरिबंधोणाम यथा अट्टण्णां जीवमज्झपदेसाणं अण्णोष्णापदेस बंधो भवदि सो सत्वो अणादियसरीरि-बंधोणाम।
वल्ली - ककड़ी आदि की बेल ।
कुश - कड़ी और नुकीली पत्तियों वाली घास । दर्भ - डाभ |
अल्लियावणं प्रतीत्य अथ किं तत् अल्लियावणबन्धः ? अल्लियावणबन्धः चतुर्विधः प्रज्ञसः तद्यथा - श्लेषणाबन्धः, उच्चयबन्धः, समुच्चय-बन्धः, संहननबन्धः,
वृत्तिकार के निर्मूल कुश को कुश और समूल कुश को दर्भ कहा है। आदि शब्द के द्वारा वस्त्र आदि का ग्रहण किया है।
षट्खण्डागम' और तत्त्वार्थवार्तिक' में बंधन के साधनों की सूचि में लोह का भी उल्लेख है।
अथ किं तत् श्लेषणाबन्धः ? श्लेषणाबन्धः - यत् कुड्यानां, कुट्टिमानां, स्तम्भानां, प्रासादानां काष्ठानां, चर्माणां, घटानां. पटानां, कटानां सुधा'चिक्खल्ल' - श्लेष - लाक्षा - मधुसिक्थ दिभिः श्लेषणैः बन्धः समुत्पद्यते, जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण संख्येयं कालम् । स एषः श्लेषणाबन्धः ।
आलापन की अपेक्षा
३५५. वह आलापन बंध क्या है ? आलापन बंध तृण, काष्ठ, पत्र और पलाल के समूह, वेत्रलता, छाल, चर्म, रज्जु सन आदि की रज्जु ककड़ी आदि की बेल, कुश, डाभ और चीवर आदि से बांधना आलापन बंध है। इसका कालमान जघन्यतः अन्तमुहूर्त, उत्कृष्टतः संख्येय काल है। यह है- आलापन बंध |
आलीनकरण बंध की अपेक्षा
३५६. वह आलीनकरण बंध क्या है ? आलीनकरण बंध चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- श्लेष बंध, उच्चय बंध, समुच्चय बंध, संहनन बंध |
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३५७. वह श्लेष बंध क्या है?
श्लेष बंध - भित्ति, मणि, प्रांगण, स्तंभ, प्रासाद, काठ, चर्म, घट, पट और कट का चूना, चिकनी मिट्टी, श्लेष, लाख, मोम आदि श्लेष द्रव्यों से जो बंध होता है, वह श्लेष बंध है। इसका कालमान जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः संख्येय काल है। यह है श्लेष बंध |
३. त. सू. भा. वृ. २/९ का भाष्य पृ. १५१,१५४।
४. त. रा. वा. ५/२४ की वृत्ति - अष्टजीवमध्यप्रदेशानामुपर्यधश्चतुर्णा, रुचकवदवस्थितानां सर्वकालमन्योन्यपरित्यागात अनादिबंधः । इतरेषां प्रदेशानां कर्मनिमित्तं संहरण- विसर्पणस्वभावत्वादादिमान् ।
५. भ. वृ. ८/३५५ - वेत्रलता - जलवंशकम्बा, वागति वल्कः वरवा चर्ममयी रज्जुः सनादिमयी वल्ली-त्रपुष्यादिका, कुशा-निर्मूलदर्भाः, दर्भास्तु समूला, आदि शब्दाच्चीवरादिग्रहः ।
६. ष. खं. पु. १४,५,६,४१ पृ. ३८।
७. त. रा. वा. ५/२४ की वृत्ति पृ. ४८७-८८३
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