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________________ भगवई श. ८ : उ. ९ : सू. ३५४ १३८ पयोगबंध-पदं प्रयोगबन्ध-पदम् ३५४.से किं तं पयोगबंधे? अथ किं तत् प्रयोगबन्धः? पयोगबंधे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रयोगबन्धः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- अणादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा अना-दिकः वा अपर्यवसितः, सादिकः वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। अपर्यव-सितः, सादिकः वा सपर्यवसितः। तत्थ णं जे से अणादीए अपज्ज-वसिए से तत्र यः सः अनादिकः अपर्यवसितः सः णं अट्ठण्हं जीवमज्झपए-साणं, तत्थ वि अष्टानां जीव-मध्यप्रदेशानाम, तत्रापि णं तिण्हं-तिण्हं अणादीए अपज्जवसिए, त्रयाणां-त्रयाणाम् अनादिकः अपर्यवसितः, सेसाणं सादीए। तत्थ णं जे से सादीए शेषानां सादिकः। तत्र यः सः सादिकः अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं। तत्थ णं जे अपर्यवसितः सः सिद्धानाम्। तत्र यः सः से सादीए सपज्जवसिए से णं चउबिहे सादिकः सपर्यवसितः सः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, पण्णत्ते, तं जहा-आला-वणबंधे, तद्यथा- आलापनबन्धः, अल्लियावणअल्लियावणबंधे, सरीर-बंधे, सरीर बन्धः, शरीरबन्धः, शरीरप्रयोगबन्धः । प्पयोगबंधे। प्रयोग बंध-पद ३५४. वह प्रयोग बंध क्या है? प्रयोग बंध तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-अनादिक अपर्यवसित, सादिक अपर्यवसित, सादिक सपर्यवसिता जीव के आठ मध्यप्रदेशों का बंध अनादिक अपर्यवसित है, जीव के उन आठ मध्य प्रदेशों में तीन तीन प्रदेशों का एक एक प्रदेश के साथ होने वाला बंध अनादिक अपर्यवसित है। शेष प्रदेशों का बंध सादिक है। सिद्धों के जीव प्रदेशों का बंध सादिक-अपर्यवसित है। सादिक सपर्यवसित बंध चार प्रकार का प्रज्ञप्त है जैसे-आलापन बंध, आलीनकरण बंध, शरीर बंध, शरीर प्रयोग बंध। भाष्य १.सूत्र ३५४ जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार होता रहता है। शरीर बड़ा होता है. जीव के प्रदेश फैल जाते हैं। शरीर छोटा होता है, वे संकुचित हो जाते हैं। समुद्घात की अवस्था में जीव के प्रदेश फैलते हैं। समुद्घात की संपन्नता पर संकुचित हो जाते है। इसलिए जीव के प्रदेश बंध का अनादि विससा बंध से पृथक् निर्देश किया गया है। जीव के प्रदेश फैलते हैं और संकुचित होते हैं, इस अपेक्षा से उनका बंध है। प्रस्तुत आगम के पच्चीसवें शतक में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीव-इनमें से प्रत्येक के आठ मध्यप्रदेश बतलाए गए हैं। जीव के आठ प्रदेशों का बंध अनादि अपर्यवसित है इसलिए इनका बंध अनादि विससा बंध होना चाहिए फिर भी जीव के अन्य प्रदेशों के अनवस्थित संबंध के कारण इन्हें प्रयोग बंध के विभाग में रखा गया है। अभयदेवसूरि ने प्रयोग बंध जीव के व्यापार से होने वाला प्रदेशों का संबंध किया है। इसका वैकल्पिक अर्थ है-जीव प्रदेशों का और औदारिक आदि पुद्गलों का संबंध।' जीव के आठ मध्य प्रदेशों की स्थापना गोस्तन के आकार की हैकघ-उपरिवर्तीप्रतर चझ-अधोवर्तीप्रतर ख प्रस्तुत चित्र में आठ मध्य (रुचक) प्रदेश हैं। इनको क से झ तक संज्ञापित किया गया है। आठ छमध्य प्रदेशों में तीन-तीन प्रदेशों का एक-एक प्रदेश के साथ अनादि अपर्यवसित बंध है। चार प्रदेशों का एक अधोवर्ती प्रतर तथा चार प्रदेशों का एक उपरिवर्ती प्रतर। उनमें से किसी एक विवक्षित प्रदेश का दो पार्श्ववर्ती प्रदेशों तथा एक अधोवर्ती प्रदेश से संबंध होता है। शेष चार व्यवहित हो जाते हैं इसलिए उनके साथ संबंध नहीं होता। जैसे क प्रदेश का संबंध क ख+क घ+क च से है। ख प्रदेश का संबंध ख क+ख ग+खछ से है। घ प्रदेश का संबंध घ क +घ ग+घ झ से है। ग प्रदेश का संबंध ग ख+ग घ+ग ज से है। च प्रदेश का संबंध च छ+च झ+च क से है। छ प्रदेश का संबंध छ ज+छ च+छ ख से है। झ प्रदेश का संबंध झ ज+झ च+झ घसे है। ज प्रदेश का संबंध ज छ+ज ग+ज झ से है। अभयदेव सूरि ने चूर्णि को अपनी व्याख्या का आधार बनाया है। टीकाकार की व्याख्या को दुर्बोध मानकर उसकी उपेक्षा की है।" वृत्तिकार ने चतुर्भंगी का निर्देश किया है १.जीव के आठ मध्य प्रदेशों का बंध अनादि अपर्यवसित और शेष प्रदेशों का बंध सादि।। २. अनादि अपर्यवसित-यह भंग शून्य है। ३. सादि अपर्यवसित-सिद्ध जीवों के प्रदेशों का संबंध सादि अपर्यवसित होता है। शैलेशी अवस्था चतुर्दश गुणस्थान में जीव प्रदेशों की जो रचना होती है, वह सिद्ध अवस्था में वैसी ही रहती है। उसका चलन नहीं होता। ४. सादि सपर्यवसित-इसके चार प्रकार हैं-आलापन बंध, १.त. स. भा. ७.५/१६-प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत्। २. भग.२५/२४०-२४४। ३. भ. ७.८:३५४-जीवव्यापारबंधः सः जीवप्रदेशानामौदारिकादि-पुद्गलानां सहानादिरपर्यवसितो बंधः तथाहि-पूर्वोक्तप्रकारेणावस्थिताना मष्टानामु. परितनप्रतरस्य यः कश्चिद् विवक्षितस्तस्य द्वौ पार्श्ववर्तिना-वेकश्चाधोवर्तीत्येतेः वयः संबध्यन्ने शेषस्त्वेक उपरितनस्ययश्चाधस्तना न संबध्यन्ने व्यवहितत्वात् एवमधस्तनप्रतरापेक्षयाऽपीति चूर्णिकार व्याख्या, टीकाकारव्याख्या तु दुखगमत्वात्परिहतेहि। वा। ४. वही, ८/३५४-तत्रापि तेष्वष्टासु जीवप्रदेशेषु मध्ये त्रयाणां त्रयाणांमेकैकेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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