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________________ भगवई ४३३ श. ११ : उ.११ : सू. १५२-१५५ य, सइए य सहस्सिए य सयसाहस्सिए शतकान् साहस्रिकान् शतसाहसिकान च य लंभे पडिच्छेमाणे य पडिच्छावेमाणे । लम्भान् प्रतीच्छन् प्रत्येषयन् च एवं चापि य एवं यावि विहरइ॥ विहरति। दान और भाग (विवक्षित द्रव्य का अंश) दिया, दिलवाया। सैकड़ों, हजारों, लाखों लोगों से उपहार को ग्रहण करता हुआ, स्वीकार करता हुआ, स्वीकार करवाता हुआ विहरण कर रहा था। १५३. तए णं तस्स दारगस्स ततः तस्य दारकस्य अम्बापितरौ प्रथमे १५३. बालक के माता-पिता ने प्रथम दिन अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइ-वडियं दिवसे स्थितिपतितां कुरुतः, तृतीये दिवसे कुल मर्यादा के अनुरूप महोत्सव मनाया। करेइ, तइए दिवसे चंद-सूरदंसावणियं चन्द्रसूरदर्शनिकां कुरुतः, षष्ठे दिवसे तीसरे दिन चंद्र-सूर्य के दर्शन कराए। छठे करेइ, छठे दिवसे जागरियं करेइ, जागरिकां कुरुतः, एकादशमे दिवसे व्यति- दिन जागरण किया। इस प्रकार ग्यारह एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते निव्वत्ते क्रान्ते निवृत्ते अशुचिजातकर्मकरणे सम्प्राप्ते दिन व्यतिक्रांत होने पर अशुचिजात-कर्म असुइजाय-कम्मकरणे संपत्ते बारसमे । द्वादशमे दिवसे विपुलम् अशनं पानं खाद्यं से निवृत्त होकर बारहवें दिन के आने पर स्वाद्यम् उपस्कारयति, उपस्कार्य मित्र- विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता मित्त- ज्ञाति-निजक -स्वजन-संबन्धि-परिजनं तैयार कराए, कराकर मित्र. शाति, नाइ-नियग-सयण संबंधि-परिजणं राज्ञः च क्षत्रियान् च आमंत्रयति, आमन्त्र्य निजक, स्वजन, संबंधी, परिजन, राजा रायाणो य खत्तिए य आमंतेति, ततः पश्चात् स्नाताः तं चैव यावत् और क्षत्रियों को आमंत्रित किया, आमंत्रित आमंतेत्ता तओ पच्छा ण्हाया तं चेव सत्कुर्वन्ति संमन्यन्ते, सत्कृत्य सम्मान्य करने के पश्चात् स्नान किया, पूर्ववत् जाव सक्कारेंति सम्माणति, तस्यैव मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबन्धि- यावत् सत्कार-सम्मान किया, सत्कारसक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त- परिजनस्य राज्ञां च क्षत्रियाणां च पुरतः सम्मान कर उन मित्र, ज्ञाति, निजक, नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणस्स आर्यक-प्रार्यक-पितृप्रार्यकागतं बहुपुरुष- स्वजन, संबंधी, परिजन, राजा और राईण य खत्ति-याण य पुरओ अज्जय- परम्पराप्ररूढं कुलानुरूपं कुलसदृशं क्षत्रियों के सामने पितामह, प्रपितामह पज्जय-पिउपज्जयागयं बहपुरिस- कुलसन्तानतन्तुवर्द्धन-करम् इदमेतद्रूपं प्रप्रपितामह आदि बहपुरुष की परंपरा से परंपरप्प-रूढं कुलाणुरुवं कुलसरिसं गौणं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुरुतः यस्मात् रूढ, कुलानुरूप, कुल-सदृश, कुल संतान कुलसंताणतंतुवद्धणकरं अयमेया-रूवं अस्माकम् अयं दारकः बलस्य राज्ञः पुत्रः के तंतु का संवर्द्धन करने वाला, इस प्रकार गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेज्जं करेंति- प्रभावत्याः देव्याः आत्मजः, तत् भवतु का गुणयुक्त गुणनिष्पन्न नामकरण जम्हा णं अम्हं इमे दारए बलस्स रण्णो अस्माकम् अस्य दारकस्य नामधेयं किया-क्योंकि यह बालक राजा बल का पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तं होउ णं 'महाबलः-महाबलः। ततः तस्य दारकस्य पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज है अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं अम्बापितरौनामधेयं कुरुतः महाबल इति। इसलिए इसका नाम होना चाहिएमहब्बले-महब्बले। तए णं तस्स 'महाबल- महाबल।' तब उसके मातादारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं पिता ने उस बालक का नाम महाबल करेंति महब्बले त्ति॥ किया। १५४. तए णं से महब्बले दारए पंचधाईपरिग्गहिए, (तं जहा- खीरधाईए), एवं जहा दढपइण्णस्स जाव निव्वाय-निव्वाघायंसि सुह-सुहेणं परिवड्डति॥ ततः सः महाबलः दारकः पंचधात्रीपरि- १५४. बालक महाबल पांच धायों के द्वारा गृहीतः,(तद् यथा-क्षीरधात्रया) एवं यथा परिगृहीत (जैसे क्षीर धातृ) इस प्रकार दृढप्रतिज्ञस्य यावत् निर्वातनिर्व्याघाते । दृढ़-प्रतिज्ञ की भांति वक्तव्यता सुखंसुखेन परिवर्धते। (रायपसेणीय सूत्र ८०५) यावत् निर्वात और व्याघात रहित स्थान में सुखपूर्वक बढने लगा। १५५. तए णं तस्स महब्बलस्स दारगस्स ततः तस्य महाबलस्य दारकस्य १५५. उस बालक महाबल के माता-पिता ने अम्मापियरो अणुपुव्वेणं ठिइवडियं वा अम्बापितरौ अनुपूर्वेण स्थितिपतितां वा __अनुक्रम से कुल मर्यादा के अनुरूप चंद्रचंदसूरदंसावणियं वा जागरियं वा चन्द्रसूरदर्शनिकां वा जागरिकां वा सूर्य के दर्शन कराए, जागरण, नामकरण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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