________________
भगवई
३७३
श. ११ : उ.१ : सू. १२
१२. ते णं भंते। जीवा किं कण्हलेसा? ते भदन्त ! जीवाः किं कृष्णलेश्याः? १२. भंते! वे जीव कृष्ण लेश्या वाले हैं? नीललेसा? काउलेसा? तेउलेसा? नीललेश्याः? तेजोलेश्याः?
नीललेश्या वाले हैं ? कापोत लेश्या वाले
हैं? तैजस लेश्या वाले हैं? गोयमा! कण्हेलेसे वा नीललेसे वा गौतम! कृष्णलेश्यः वा, नीललेश्यः वा, गौतम ! १. कृष्ण लेश्या वाला है अथवा काउलेसे वा तेउलेसे वा, कण्ह-लेस्सा वा कापोतलेश्यः वा, तेजोलेश्यः वा, नील लेश्या वाला है अथवा कापोत लेश्या नीललेस्सा वा काउ-लेस्सा वा कृष्णलेश्या वा, नीललेश्याः वा, वाला है अथवा तैजस लेश्या वाला है. २. तेउलेस्सा वा, अहवा कण्हलेसे य कापोतलेश्याः वा, तेजोलेश्याः वा अथवा कृष्ण लेश्या वाले हैं अथवा नील लेश्या नीललेसे य। एवं एए दुयासंजोग- कृष्णलेश्यः च, नीललेश्यः च। एवम् एते वाले हैं अथवा कापोत लेश्या वाले हैं अथवा तियासंजोग-चउक्क-संजोगेणं असीती द्विकसंयोग-त्रिकसंयोग-चतुष्कसंयोगेन तैजस लेश्या वाले हैं ३. अथवा कृष्ण भंगा भवंति॥ अशीतिः भङ्गाः भवन्ति।
लेश्या वाला और नील लेश्या वाला है। इस प्रकार ये द्वि-संयोग, त्रि-संयोग और
चतुष्क संयोग से अस्सी भंग होते हैं।
भाष्य १.सूत्र-१२
जीव जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या में उत्पन्न होता है।' उत्पल पत्र में चार लेश्याएं बतलाई गई हैं। प्रज्ञापना के अनुसार इस नियम के अनुसार इन तीन जीव निकायों में तेजोलेश्या का अस्तित्व एकेन्द्रिय में समुच्चय रूप में चार लेश्याएं होती हैं। विभागशः सम्मत है। पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में चार लेश्याएं इन तीन जीव निकायों में उत्पन्न होने वाले देव अपर्याप्त अवस्था होती हैं। तैजसकायिक और वायुकायिक जीवों में तीन होती हैं।' में रहते हैं तब तक तेजोलेश्या होती है, पर्याप्त होने के बाद उसकी
स्थानांग सूत्र में पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक उपलब्धि नहीं रहती। में तीन लेश्याएं बतलाई गई हैं। वहां तेजोलेश्या का निषेध नहीं है। इन तीन जीव निकायों में उत्पन्न होने वाले देव बादर पृथ्वीकाय, संक्लिष्ट लेश्या का प्रकरण है इसलिए तीन लेश्याओं का निर्देश हैं। बादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं, सूक्ष्म में
भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और प्रथम, द्वितीय कल्प के नहीं। पर्याप्तक में उत्पन्न होते हैं, जिन बादर पृ काय आदि की वैमानिक देव अपने स्थान से च्युत होकर इन तीन जीव निकायों में पर्याप्त होने से पहले मृत्यु नहीं होती, उनमें उत्पन्न होते हैं. अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। इस अपेक्षा से इनमें तेजोलेश्या का अस्तित्व बतलाया में नहीं।' गया है।
इक सांयोगिक भंग ८ एकवचन के भंग चार
का. |
Fo-varnatarpara
बहुवचन के चार भंग
१०
।
१
Sorarmila.jara-||Formjoram
।
नी.
१
२४
।
३.
द्वि-सांयोगिक भंग २४
कृ. नी.
।
२
।
१
।
।
१६
१.पण्ण.१७/३०.४०॥ २. (क) ठाणं ३/६१.
(ख) स्था. वृ. प. १०९
३. भ. २४/२०४॥ ४. वही, ३/१८३.। ५. पण्ण, ६/१०२।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org