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________________ भगवई श. ९ : उ. ३१ : सू. ६८-७४ २२४ माण-माया-लोभे खवेइ, खवेत्ता क्षपयित्वा पञ्चविधं ज्ञानावरणीम्, नवविधं पंचविहं नाणावरणिज्जं, नवविहं दर्शनावरणीयम्, पञ्चविधम् आन्तदरिसणावरणिज्जं, पंच-विहं अंतराइयं रायिकम, तालमस्तककृतंच मोहनीयं कृत्वा तालमत्थाकडं च णं मोहणिज्जं कट्ट। कर्मरजोविकिरणम् अपूर्वकरणम् अनुकम्मरयवि-किरणकरं अपुव्वकरणं । प्रविष्टस्य अनन्तम् अनुत्तरं नियाघातं अणुप-विट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्व- निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्णं केवलवरज्ञानघाए निरावरण कसिणे पडिपुण्णे दर्शनं समुत्पद्यते। केवलवरनाण-दंसणे समुप्पज्जइ॥ नावरण-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण कर संज्वलनक्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण कर पंचविध ज्ञानावरणीय, नवविध दर्शनावरणीय, पंचविध आंतरायिक और मोहनीय को सिर से छिन्न किए हुए तालवृक्ष की भांति क्षीणकर कर्मरज के विकिरणकारक अपूर्वकरण में अनुप्रविष्ट होता है। उसके अनंत, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान-दर्शन समुत्पन्न होता है। ६९. से णं भंते! केवलिपण्णत्तं धम्मं स भदन्त! केवलिप्रज्ञसं धर्ममाख्याति वा? आघवेज्ज वा? पण्णवेज्ज वा? प्रज्ञापयति वा? प्ररूपयति वा? परवेज्ज वा? हंता आघवेज्ज वा, पण्णवेज्ज वा, हन्त आख्याति वा, प्रज्ञापयति वा, परवेज्ज वा॥ प्ररूपयति वा। ६९. भंते! क्या वह श्रुत्वा केवलज्ञानी केवली प्रज्ञप्त धर्म का आख्यान, प्रज्ञापन अथवा प्ररूपण करता है? हां, वह केवली प्रज्ञप्त धर्म का आख्यान भी करता है, प्रज्ञापन भी करता है, प्ररूपण भी करता है। स भदन्त! प्रव्राजयति वा? मुण्डयति वा? ७०. भंते! वह प्रव्रज्या देता है? मुंड करता ७०. से णं भंते! पव्वावेज्ज वा? मुंडावेज्ज वा? हंता पव्वावेज्ज वा, मुंडावेज्ज वा॥ हन्त प्रव्राजयति वा, मुण्डयति वा। हां, प्रव्रज्या भी देता है, मुंड भी करता है। ७१. से णं भंते! सिज्झति बुज्झति जाव स भदन्त! सिद्धयति 'बुज्झति' यावत् सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ? सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति? हंता सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं हन्त सिद्धयति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करेति॥ करोति। ७१. भंते! वह सिद्ध, बुद्ध यावत् सब दुःखों का अंत करता है? हां, वह सिद्ध होता है. यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ७२. तस्स णं भंते! सिस्सा वि सिझंति तस्य भदन्त! शिष्या अपि सिद्ध्यन्ति यावत् ७२. भंते! क्या उसके शिष्य सिद्ध होते हैं? जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति? सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्वन्ति? यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं? हंता सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं हन्त सिद्ध्यन्ति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं हां, सिद्ध होते हैं, यावत् सब दुःखों का अंत करेंति॥ कुर्वन्ति। करते हैं। ७३. तस्स णं भंते! पसिस्सा वि सिज्झंति तस्य भदन्त! प्रशिष्या अपि सिद्ध्यन्ति ७३. भंते! क्या उसके प्रशिष्य सिद्ध होते हैं जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति? यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्वन्ति? यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं? हंता सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं हन्त सिद्धयन्ति यावत् सर्व दुःखानाम् अन्तं हां, सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का करेंति॥ कुर्वन्ति। अन्त करते हैं। ७४. से णं भंते! किं उड़े होज्जा? जहेव। स भदन्त! किम् ऊर्ध्वं भवति? यथैव असोच्चाए जाव अड्ढाइज्ज-दीवसमुद्द- अश्रुत्वायाः यावत् अर्धतृतीयद्वीपसमुद्र- तदेक्कदेसभाए होज्जा॥ तदेकदेशभागे भवति। ७४. भंते! क्या वह ऊर्ध्व देश में होता है? जैसे असोच्चा की वक्तव्यता यावत् संहरण की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप समुद्र के एक देश भाग में होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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