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________________ श.८ : उ.६ : सू. २५१-२५४ भगवई गोयमा! आराहए, नो विराहए। ८. से य संपट्ठिए संपत्ते अप्पणा य कालं करेज्जा। से णं भंते! किं आराहए? विराहए? गौतम ! आराधकः, नो विराधकः। ८.सः च संप्रस्थितः सम्प्राप्तः, आत्मना च कालं कुर्यात्। सः भदन्त ! किम् आराधकः ? विराधकः? भंते ! इस अवस्था में क्या वह आराधक है अथवा विराधक? गौतम ! वह आराधक है. विराधक नहीं। ८. उसने आलोचना के संकल्प के साथ प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुंच गया, उस समय वह स्वयं काल कर गया। भंते ! इस अवस्था में क्या वह आराधक है अथवा विराधक? गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं। गोयमा! आराहए, नो विराहए। गौतम! आराधकः, नो विराधकः। २५२. निग्गंथेण य बहिया वियारभूमि वा निर्ग्रन्थेन च बहिः विचारभूमि वा विहारभूमि विहारभूमिं वा निक्खंतेणं अण्णयरे वा निष्क्रान्तेन अन्यतरत् अकृत्यस्थानं अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं प्रतिसेवितम्, तस्य एवं भवति-इहैव तावत भवति-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स अहम् एतद् स्थानं आलोचयामि-एवम् आलोएमि-एवं एत्थ वि ते चेव अट्ठ अत्रापि ते चैव अष्ट आलापकाः भणितव्याः आलावगा भाणियव्वा जाव नो यावत् नो विराधकः। विराहए। २५२. निर्ग्रन्थ ने बाह्य विचारभूमि (शौच भूमि) अथवा विहारभूमि के लिए निष्क्रमण कर किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन कर लिया, उसके मन में ऐसा संकल्प हुआ-मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना करूं यहां भी पूर्ववत् आठ आलापक वक्तव्य है यावत् विराधक नहीं। २५३. निग्गंथेण य गामाणुगामं निर्ग्रन्थेन च ग्रामानुगामं दवता अन्यतरत् २५३. निर्ग्रन्थ ने ग्रामानुग्राम विहार करते दूइज्जमाणेणं अण्णयरे अकिच्चट्ठाणे अकृत्यस्थानं प्रतिसेवितम्, तस्य एवं हुए किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ- इहेव भवति-इहैव तावत् अहम् एतत् स्थानं कर लिया, उसके मन में ऐसा संकल्प ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि- आलोचयामि, एवम् अत्रापि ते चैव अष्ट हुआ- मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की एवं एत्थ वि ते चेव अट्ठ आलावगा आलापकाः भणितव्याः यावत् नो आलोचना करूं, यहां भी पूर्ववत् आठ भाणियव्वा जाव नो विराहए॥ विराधकः। आलापक वक्तव्य हैं यावत् विराधक नहीं। २५४. निग्गंथीए य गाहावइकुलं निर्ग्रन्थ्या च 'गाहावई' कुलं पिण्डपात- २५४. निन्थिनी ने भिक्षा के लिए गृहपति पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अण्णयरे प्रतिज्ञया अनुप्रविष्टया अन्यतरत् अकृत्य- के कुल में प्रवेश कर किसी अकृत्यस्थान अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तीसे णं एवं स्थानं प्रतिसेवितम्, तस्याः एवं भवति- का प्रतिसेवन कर लिया, उसके मन में भवइ-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स इहैव तावत् अहम् एतत् स्थानं आलोचयामि ऐसा संकल्प हुआ-मैं यहीं इस आलोएमि जाव तवोकम्म पडिवज्जामि; यावत् तपःकर्म प्रतिपद्ये; ततः पश्चात् अकृत्यस्थान की आलोचना करूं यावत् तओ पच्छा पवत्तिणीए अंतियं आलो- प्रवर्तिन्या अन्तिके आलोचयिष्यामि यावत् तपःकर्म स्वीकार करूं, तत्पश्चात् एस्सामि जाव तवोकम्मं पडि- तपःकर्म प्रतिपत्स्ये। प्रवर्तिनी के पास जाकर आलोचना वज्जिस्सामि। करूंगी यावत् तपःकर्म स्वीकार करूंगी। सा य संपट्ठिया असंपत्ता, पवत्तिणी य सा च संप्रस्थिता, असम्प्राप्ता, प्रवर्तिनी च । उसने आलोचना के संकल्प के साथ अमुहा सिया। सा णं भंते! किं अमुखा स्यात्। सा भदन्त! किम् प्रस्थान किया। अभी प्रवर्तिनी के पास आराहिया? विराहिया? आराधिका? विराधिका? पहुंची नहीं, उससे पहले ही प्रवर्तिनी अमुख (बोलने में असमर्थ) हो गई। भंते! इस अवस्था में क्या वह आराधिका है अथवा विराधिका? गोयमा! आराहिया, नो विराहिया। गौतम! आराधिका, नो विराधिका। गौतम! वह आराधिका है, विराधिका सा य संपट्ठिया जहा निग्गंथस्स तिण्णि सा च संप्रस्थिता यथा निर्ग्रन्थस्य त्रयः नहीं। उसने आलोचना के संकल्प के साथ गमा भणिया एवं निग्गंधीए वि तिण्णि गमाः भणिताः एवं निर्ग्रन्थ्याः अपि त्रयः प्रस्थान किया, जैसे निर्ग्रन्थ के तीन गमक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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