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________________ भगवई श. ११ : उ. ९ : सू. ५९ ३९० कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसे, वृत्तिविशेषः, येनाहं हिरण्येन वर्धे, सुवर्णेन जेणाहं हिरण्णेणं बढामि, सुवण्णेणं वड्ड वर्धे, धनेन वर्धे, धान्येन वर्धे, पुत्रैः वर्धे, मि, धणेणं वड्डामि, धण्णेणं वड्डामि, पशुभिः वर्धे. राज्येन वर्धे, एवं राष्ट्रेण बलेन पुत्तेहिं बड्डामि, पसूहिं वड्ढामि, रज्जेणं वाहनेन कोषेण कोष्ठागारेण पुरेण अन्तःवहामि, एवं रटेणं बलेणं वाहणेणं पुरेण वर्धे, विपुलधन-कनक-रत्न-मणिकोसेणं कोट्ठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं वड्ड। मौक्तिक -शङ्ख-शिला-प्रवाल-रक्तरत्नमि, विपुलधण-कणग-रयण-मणि- सत्सारस्वापतेयेन अतीव-अतीव अभिमोत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण वर्धे, तत् किम् अहं पुरा पुराणानां सुचीर्णानां संतसार-सावएज्जेण अतीव-अतीव सुपराकान्तानां शुभानां कल्याणानां कृतानां अभि-वड्वामि, तं किं णं अहं पुरा पोरा- कर्मणा एकान्तशः क्षयम् उपेक्षमाणः णाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं विहरामि। तत् यावत्-तावत् अहं हिरण्येन कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं एगंतसो वर्धे यावत् अतीव-अतीव अभिवर्धे यावत् मे खयं उवेहमाणे विहरामि? तं जाव ताव। सामन्तराजानोऽपि वशे वर्तन्ते, तावत् मे अहं हिरण्णेणं वड्डामि जाव अतीव- श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् अतीव अभिवड्ढामि जाव मे उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा सामंतरायाणो वि वसे वटुंति, तावता मे ज्वलति सुबह लौही-लोहकटाह 'कइच्छयं' सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव ताम्रिकं तापसभाण्डकं घटयित्वा शिवभद्रं उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि कुमारं राज्ये स्थापयित्वा तत् सुबहु लौहीदिणयरे तेयसा जलंते सुबहुं लोहि- लोहकटाह-'कडुच्छयं' ताम्रिकं तापसलोहकडाह-कडच्छ्यं तंबियं तावसभंडगं भाण्डकं गृहीत्वा ये इमे गङ्गाकुले वानप्रस्थाः घडावेत्ता सिवभई कुमारं रज्जे ठावेत्ता। तापसाः भवन्ति, (तद्यथा-होत्रियाः तं सुबहुं लोहि-लोहकडाह-कडच्छुयं पोतिकाः कोत्रिकाः यथा औपपातिके यावत् तंबियं तावसभंडगं गहाय जे इमे। आतापनाभिः पञ्चाग्नितापैः अङ्गारगंगाकुले वाणपत्था तावसा भवंति, (तं 'सोल्लियं' कन्दु सोल्लियं' काष्ठजहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जहा 'सोल्लियं' इव आत्मानं कुर्वाणाः ओववाइए जाव आयावणाहिं पंचग्गि- विहरन्ति) तत्र ये ते दिशाप्रोक्षिणः तापसाः तावेहिं इंगाल-सोल्लियं कंदुसोल्लियं तेषामन्तिकं मुण्डः भूत्वा दिशाप्रोक्षित- कट्ठसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा तापसत्वेन प्रवजितुम्, प्रवजितोऽपि च सन् विहरंति) इममेतद्रूपमभिग्रहम् अभिग्रहिष्यामितत्थ णं जे ते दिसापोक्खी तावसा तेसिं कल्पते मे यावज्जीवंषष्ठंषष्ठेन अनिक्षिसेन अंतियं मुंडे भवित्ता दिसा-पोक्खिय- दिशाचक्रवालेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहू त्तावसत्ताए पव्वइत्तए, पव्वइते वि य णं प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखस्य आतापन- समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभि- भूम्याम आतापयतः विहर्तुम्, इति कृत्वा एवं गिण्हिस्सामि-कप्पइ मे जावज्जीवाए सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्क- रजन्यां यावत् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मी वालेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड बाहाओ दिनकरे तेजसा ज्वलति सुबह लौहीपगिज्झिय-पगिन्झिय सूराभिमुहस्स लोहकटाह-'कडुच्छयं' ताम्रिकं तापसआयावणभूमीए आयावेमाणस्स भाण्डकं घटयित्वा कौटुम्बिकपुरुषान् विहरित्तए, त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव कल्लं पाउप्प-भायाए रयणीए जाव भो ! देवानुप्रियाः ! हस्तिनापुर नगरं साभ्यउट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि न्तरबायकम् आसिक्तसम्मार्जितोपलिप्तं दिणयरे तेयसा जलंते सुबहुं लोहीलोह- यावत् सुगन्धवरगन्धिकं गन्धवर्तिभूतं कडाह-कडच्छुयं तंबियं तावस-भंडगं । कुरुत च कारयत च, कृत्वा कारयित्वा च घडावेत्ता कोडुंबिय-पुरिसे सहावेइ, एनामाज्ञाप्तिका प्रत्यर्पयतः। ते अपि कर्मों का कल्याणदायी फल मिल रहा है, जिससे मैं चांदी, सोना, धन, धान्य, पुत्र, पशु तथा राज्य से बढ़ रहा हूं। इसी प्रकार राष्ट्र, बल, वाहन. कोष, कोष्ठागार, पुर और अंतःपुर से बढ़ रहा हूं। विपुल वैभव धन, सोना, रत्न, मणि मोती, शंख, शिला, प्रवाल, लालरत्न (पद्म राग मणि) और श्रेष्ठ-सार-इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव-अतीव वृद्धि कर रहा हूं, तो क्या मैं पूर्वकृत पुरातन सुआचरित, सुपरा-क्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्मों का केवल क्षय करता हुआ विहरण कर रहा हूं ? इसलिए जब तक मैं चांदी से वृद्धि कर रहा हूं यावत् इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव-अतीव वृद्धि कर रहा हूं और जब तक सामंत राजा वश में रहते हैं तब तक मेरे लिए श्रेय है-दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्र-रश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बहुत सारे तवा, लोह-कडाह, कडछी, ताम्रपात्र आदि तापस-भंड बनवा कर, कुमार शिवभद्र को राज्य में स्थापित कर, उन बहुत तवा, लोह-कडाह, कडछी, ताम्रपात्र आदि तापस-भंड को लेकर जो इस गंगा के किनारे वानप्रस्थ तापस रहते है (जैसे-अग्निहोत्रिक, वस्त्रधारी, भूमि पर सोने वाले जैसे औपपातिक में वक्तव्यता है यावत् पंचाग्नि तप के द्वारा अंगारों से पक्व, लोह की कड़ाही में पक्व, काष्ठ से पक्व, श्याम वर्ण की भांति अपने आपको बनाते हुए विहार कर रहे हैं।) उनमें जो दिशाप्रोक्षिक (दिशा का प्रक्षालन करने वाले) तापस हैं उनके पास मुंड होकर दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रव्रजित होकर मैं इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार करूंगा-मैं जीवन भर निरन्तर बेले-बेले (दो दिन के उपवास) द्वारा दिशाचक्रवाल तप की साधना करूंगा। मैं आतापन भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करूंगा। ऐसी संप्रेक्षा करता है। संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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