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________________ भगवई १०५ श.८ : उ. ७ : सू. २७३-२७७ सकिरिया, असंवुडा, एगंतदंडा सक्रियाः, असंवृताः, एकान्तदण्डाः एगंतबाला या वि भवह|| एकान्तबालाश्चापि भवथ। भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले, कायिकी आदि क्रिया से युक्त, असंवृत, एकान्त दण्ड और एकान्त बाल भी हो। २७४. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीकेण कारणेणं अज्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय - विरय - पडिहय - पच्च- क्खायपावकम्मा, सकिरिया, असंवुडा, एगंतदंडा, एगंतबाला या वि भवामो? ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् २७४. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिका अन्ययूथिकान एवमवादिषुः-केन कारणेन से इस प्रकार कहा-आर्यो ! किस कारण आर्य! वयं त्रिविधं त्रिविधेन असंयत- से हम तीन योग और तीन करण से अविरत-प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्माणः, असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का सक्रियाः, असंवृताः, एकान्तदण्डाः, प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के एकान्तबालाश्चापि भवामः? पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले. कायिकी आदि क्रिया से युक्त, असंवृत, एकान्त दण्ड और एकान्त बाल भी हैं ? २७५. तए ण ते अण्णउत्थिया ते थेरे ततः ते अन्यूयथिकाः तान् स्थविरान २७५. अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों से भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जो! भगवतः एवमवादिषुः-यूयं आर्य! अदत्तं इस प्रकार कहा-आर्यो ! तुम अदत्त ले रहे अदिन्नं गेण्हह, अदिन्नं भुंजह, अदिन्नं गृह्णीथ, अदत्तं भुङ्ग्ध्वे, अदत्तं स्वादयथा हो, अदत्त का उपभोग कर रहे हो, अदत्त सातिज्जह। तए णं ते तुब्भे अदिन्नं ततः ते यूयं अदत्तं गृह्णन्तः, अदत्तं का अनुमोदन कर रहे हो। अदत्त का गेण्हमाणा, अदिन्नं भुंजमाणा, अदिन्नं । भुजानाः, अदत्तं स्वादयन्तः त्रिविधं ग्रहण, उपभोग और अनुमोदन करने के सातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं । त्रिविधेन असंयत-विरत-प्रतिहत- कारण तुम तीन योग और तीन करण से अस्संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय- प्रत्याख्यातपापकर्माणः यावत एकान्त- असंयत, अविरत. अतीत के पापकर्म का पावकम्मा जाव एगंत-बाला या वि बालाश्चापि भवथ। प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के भवह|| पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत् एकान्त बाल भी हो। २७६. तए णं ते थेरा भगवंतो ते ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् अण्णउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अन्यूथिकान एवमवादिषुः-केन कारणेन अज्जो! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, अदिन्नं आर्य! वयम् अदत्तं गृह्णीमः, अदत्तं भुंजामो, अदिन्नं सातिज्जामो, जए णं भुजामहे, अदत्तं स्वादयामः, यतः वयम् अम्हे अदिन्नं गेण्हमाणा, अदिन्नं अदत्तं गृह्णन्तः, अदत्तं भुजानाः, अदत्तं भुंजमाणा अदिन्नं सातिज्जमाणा, तिविह स्वादयन्तः, त्रिविधं त्रिविधेन असंयततिविहेणं अस्संजय-विरय-पडिहय- विरत-प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्माणः पच्चक्खायपावकम्मा जाव एगंतबाला यावत् एकान्तबालाश्चापि भवामः। या वि भवामो? २७६. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययथिकों से इस प्रकार कहा-आर्यो: कैसे हम अदत्त ले रहे हैं, अदत्त का उपभोग कर रहे हैं, अदत्त का अनुमोदन कर रहे हैं? अदत्त का ग्रहण, उपभोग और अनुमोदन करने के कारण तीन योग और नीन करण से असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत् एकान्त बाल भी हैं? २७७. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे ततः ते अन्ययूथकाः तान् स्थविरान् २७७. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों भगवंते एवं वयासी-तुब्भण्णं अज्जो! भगवतः एवमवादिषुः-युष्मभ्यम् आर्य! से इस प्रकार कहा-आर्यो! तुम्हें जो दिज्जमाणे अदिन्ने, पडिग्गाहेज्जमाणे दीयमानम् अदत्तं, प्रतिगृह्यमानं अप्रति- दिया जा रहा है वह अदत्त है, तुम्हारे द्वारा अपडिग्गाहिए, निस्सिरिज्जमाणे गृहीतं, निसृज्यमानम् अनिसृष्टमा युष्मभ्यम् जो प्रतिगृह्यमाण है वह अप्रतिगृहीन है. अणिसिट्टे। तुब्भण्णं अज्जो! दिज्जमाणं आर्य! दीयमानं प्रतिग्रहकम् असम्प्राप्तम् जो निसृज्यमाण (पात्र में डाला जा रहा) पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ अत्र अन्तरा कोऽपि अपहरेत् ‘गाहावइस्स' है वह अनिसृष्ट है। आर्यो ! जो द्रव्य दिया अवहरेज्जा गाहावइस्स णं तं, नो खलु तत्, नो खलु तत् युष्माकं, ततः यूयं अदत्तं जा रहा है और वह पात्र में गिरा नहीं है. तं तुब्भं, तए णं तुब्भे अदिन्नं गेण्हह, गृह्णीथ, अदत्तं भुग्ध्वे, अदत्तं स्वादयथा बीच में ही कोई पुरुष उस द्रव्य का Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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