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श.८ : उ. ७ : सू. २७७-२८०
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भगवई
अदिन्नं भुंजह, अदिन्नं सातिज्जह। तए णं ततः यूयम् अदत्तं गृह्णन्तः यावत् तुब्भे अदिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतबाला एकान्तबालाश्चापि भवथ। या वि भवह।।
अपहरण कर लेता है वह द्रव्य गृहपति का है, तुम्हारा नहीं है। इस हेतु से हम कह रहे हैं-तुम अदत्त ले रहे हो, अदत्त का उपभोग कर रहे हो, अदन का अनुमोदन कर रहे हो। अदत्त का ग्रहण, उपभोग
और अनुमोदन करने के कारण तुम असंयत यावत् एकान्त बाल भी हो।
२७८. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिको से इस प्रकार कहा-आर्यो! हम अदत्त
२७८ तए णं थेरा भगवंतो ते अण्ण- ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान उत्थिए एवं वयासी-नो खलु अज्जो! अन्ययूथिकान् एवमवादिषुःनो खलु अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, अदिन्नं भुंजामो, आर्य! वयम् अदत्तं गृह्णीमः, अदत्तं अदिन्नं सातिज्जामो। अम्हे णं अज्जो! भुजामहे, अदत्तं स्वादयामः। वयम् आर्य। दिन्नं गेण्हामो, दिन्नं भुंजामो, दिन्नं दत्तं गृह्णीमः दत्तं भुजामहे, दत्तं स्वादयामः। सातिज्जामो। तए णं अम्हे दिन्नं ततः वयं दत्तं गृह्णन्तः, दत्तं भुञ्जानाः, दनं गेण्हमाणा, दिन्नं भुंजमाणा, दिन्नं स्वादयन्तः त्रिविधं त्रिविधेन संयत-विरतसातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं संजय- प्रतिहत . प्रत्याख्यात - पापकर्माणः, विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मा, अक्रियाः, संवृताः, एकान्तपंडिताश्चापि अकिरिया, संवुडा एगंतपंडिया या वि भवामः। भवामो।
रहे हैं, अदन का अनुमोदन नहीं कर रहे हैं। आर्यो! हम दन ले रहे हैं, दत्त का उपभोग कर रहे हैं, दन का अनुमोदन कर रहे हैं। दत्त का ग्रहण, उपभोग और अनुमोदन करने के कारण हम तीन योग और तीन करण से संयत, विरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन करनेवाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान करने वाले, कायिकी आदि क्रिया से मुक्त, संवृत और एकान्त पण्डित भी हैं।
२७०. तए ण अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते ततः ते अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान् २७९. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरा एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो! भगवतः एवमवादिषु:-केन कारणेन आर्य! से इस प्रकार कहा--आर्यो ! कैसे तुम दत्त तुम्हे दिन्नं गेण्हह, दिन्नं भुजह, दिन्नं यूयं दत्तं गृह्णीथ, दत्तं भुझ्ध्वे. दत्तं स्वादयथ, का ग्रहण कर रहे हो. दत्त का उपभोग कर सातिज्जह, जए णं तुब्भे दिन्नं गेण्हमाणा यतः यूयं दत्तं गृह्णन्तः यावत एकान्त- रहे हो, दत्त का अनुमोदन कर रहे हो? जाव एगंतपंडिया या वि भवह ? पंडिताश्चापि भवथ।
दत्त का ग्रहण, उपभाग और अनुमोदन करने के कारण तुम संयत यावत एकान्त पण्डित हो?
२८०. तए णं ते थेरा भगवंतो ते ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् २८०. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययथिकों अण्णउत्थिए एवं वयासी-अम्हण्णं अन्यूथिकान, एवमवादिषुः-अस्मभ्यम् से इस प्रकार कहा-आर्यों ! हमें जो दिया अज्जो! दिज्जमाणे दिन्ने, पडिग्गा- आर्य! दीयमानं दत्तं. प्रतिगृह्यमाणं जा रहा है वह दत्त है. हमारे द्वारा जो हिज्जमाणे पडिग्गाहिए, निस्सि- प्रतिगृहीतं. निसृज्यमानं निसृष्टम्। प्रतिगृह्यमाण है, बह प्रतिगृहीत है, जो रिज्जमाणे निसिटे। अम्हण्णं अज्जो! अस्मभ्यम् आर्य! दीयमानं प्रतिग्रहकम निसृज्यमाण है, वह निसृष्ट है। आर्यो! हमें दिज्जमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं असम्प्राप्तम् अत्र अन्तरा कोऽपि अपहरेत्, जो द्रव्य दिया जा रहा है और वह पात्र में अंतरा केइ अवहरेज्जा, अम्हण्णं तं, अस्माकं तत् नो खलु तत् 'गाहावइस्स', गिरा नहीं है, बीच में ही कोई पुरुष उस नो खलु तं गाहावइस्स, तए णं अम्हे ततः वयं दत्तं गृह्णीमः, दत्तं भुजामहे, दत्तं द्रव्य का अपहरण कर लेता है। वह द्रव्य दिन्नं गेण्हामो, दिन्नं भुंजामो, दिन्नं ।। स्वादयामः, ततः वयं दत्तं गृह्णन्तः, दत्तं हमारा है, गृहपति का नहीं। इस हेतु से सातिज्जामो तए णं अम्हे दिन्नं गेह- भुजानाः, दत्तं स्वादयन्तः त्रिविधं त्रिविधेन हम कह रहे हैं-हम दत्त का ग्रहण करते हैं, माणा, दिन्नं भुजमाणा, दिन्नं सातिज्ज- संयत अविरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पाप- दत्त का उपभोग करते हैं, दत्न का माणा तिविहं तिविहेणं संजय-विरय- कर्माणःयावत् एकान्तपंडिताश्चापि भवामः। अनुमोदन करते है। दन का ग्रहण, पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मा जाव। यूयम् आर्य ! आत्मना चैव त्रिविधं त्रिविधेन उपभोग और अनुमोदन करने के कारण एगंतपंडिया या वि भवामो। तुब्भे णं असंयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपाप- हम तीन योग और तीन करण से संयत,
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