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श.८ : उ.९ : सू. ४०४-४०९
भगवई गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा वेउब्विय- गौतम ! विशेषाधिकाः वा? सर्वस्तोकाः गौतम! वैक्रिय शरीर के सर्वबंधक जीव सरीरस्स सव्वबंधगा, देसबंधगा जीवाः वैक्रियशरीरस्य सर्वबन्धकाः, देश- सबसे अल्प है, देशबंधक असंख्येय गुण असंखेज्जगुणा, अबंधगा अणंतगुणा। बन्धकाः असंख्येयगुणाः, अबन्धकाः हैं, अबंधक अनंत गुण हैं।
अनन्तगुणाः।
भाष्य १.सूत्र ४०४
देशबंधक सर्वबंधक की अपेक्षा असंख्येय गुण अधिक है। सिद्ध और काल की अल्पता के कारण वैक्रिय शरीर के सर्वबंधक अल्प वनस्पति आदि की अपेक्षा से अबंधक देशबंधक से अनंत गुण हैं। सर्वबंध की अपेक्षा देशबंध का काल असंख्यात गुण है इसलिए अधिक हैं।' आहारगसरीरप्पयोगं पडुच्चआहारकशरीरप्रयोगं प्रतीत्य
आहारक शरीर प्रयोग की अपेक्षा ४०५. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! आहारकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! ४०५. भंते! आहारक शरीर प्रयोग बंध कतिविहे पण्णत्ते? कतिविधः प्रज्ञप्तः?
कितने प्रकार का प्रज्ञाप्त है? गोयमा! एगागारे पण्णत्ते॥ गौतम! एकाकारः प्रज्ञप्तः।
गौतम! आहारक शरीरप्रयोग बंध एक आकार का प्रज्ञाप्त है।
४०६. जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणुस्सा- यदि एकाकारः प्रज्ञप्तः किं मनुष्याहारकहारगसरीरप्पयोगबंधे? अमणुस्सा- शरीर-प्रयोगबन्धः? अमनुष्याहारकशरीरहारगसरीरप्पयोगबंधे?
प्रयोगबन्धः। गोयमा! मणुस्साहारगसरीरप्प- गोयमा ! मनुष्याहारकशरीरप्रयोगबन्धः, नो योगबंधे, नो अमणुस्साहारगसरीर- अमनुष्याहारकशरीरप्रयोगबन्धः। एवम् प्पयोगबंधे। एवं एएणं अभिलावेणं जहा एतेन अभिलापेन यथा अवगाहना-संस्थाने
ओगाहणसंठाणे जाव इड्वि-पत्तपमत्त- यावत् ऋद्धिप्राप्तप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टिसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तसंखेज्ज- वासा- पर्याप्तसंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमकगर्भाव- उयकम्मभूमागब्भवक्कंतिय- मणुस्सा- क्रान्ति-कमनुष्याहारकशरीरप्रयोगबन्धः, हारगसरीरप्पयोगबंधे, नो अणिति नो अनृन्द्रिप्राप्तप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्टि - पज्जत्त- पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमकगर्भावसंखेज्जवासाउयकम्म . मागब्भ- क्रान्तिकमनुष्याहारकशरीरप्रयोगबन्धः। वक्कंतियमणुस्साहारग- सरीरप्पयोगबंधे॥
४०६.यदि एक आकार का प्रज्ञप्त है तो क्या मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है? अमनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है? गौतम ! वह मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है, अमनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध नहीं है। इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार अवगाहन संस्थान नामक प्रज्ञापना पद यावत् ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत सम्यक् दृष्टि, पर्याप्सक, संख्येयवर्षायुष्क, कर्मभूमिकगर्भावक्रांतिक मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है, ऋद्धि रहित प्रमत्त संयत सम्यकदृष्टि, पर्याप्तक, संख्येयवर्षायुष्क कर्म भूमिक गर्भावक्रांतिक मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध नहीं है।
४०७. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! आहारकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! कस्य कस्स कम्मस्स उदएणं?
कर्मणः उदयेन? गोयमा! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए गौतम! वीर्य-सयोग-सद्व्यतया प्रमादपमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च । प्रत्ययात् कर्म च योगं च भवं च आयुष्कं च आउयं च लद्धिं वा पडुच्च आहा- लब्धिं वा प्रतीत्य आहारकशरीरप्रयोगरगसरीरप्पायोगनामाए कम्मस्स नाम्नः कर्मणः उदयेन आहरकशरीरप्रयोगउदएणं आहारगसरीरप्पयोगबंधे।
बन्धः ।
४०७. भंते! आहारक शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है? गौतम ! आहारक शरीर प्रयोग बंध के तीन हेतु हैं- १. वीर्य सयोग सद्व्यता, २. प्रमाद ३. कर्म, योग. भव, आयुष्य और लब्धि सापेक्ष आहारक शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय।
४०८. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे ? सव्वबंधे? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि॥
आहारकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! किं देशबन्धः? सर्वबन्धः? गौतम ! देशबन्धोऽपि. सर्वबन्धोऽपि।
४०८. 'भंते! आहारक शरीर प्रयोग बंध
क्या देशबंध है ? सर्वबंध है ? गौतम! देशबंध भी है सर्वबंध भी है।
४०९. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते!
आहारकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कालतः
४०९. भंते! आहारक शरीर प्रयोग बंध
१. भ. वृ.८.४०४
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