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भगवई
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श.८ : उ.९ : सू. ३४९-३५३
कायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे वि, एवं आगासत्थिकायअण्ण-मण्णअणादीयवीससाबंधे वि॥
अन्योन्य-अनादिकविस्रसाबन्धोऽपि, एवम् आकशास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिकविस्रसाबन्धोऽपि।
अधर्मास्तिकाय अन्योन्य अनादिक विस्रसा बंध की वक्तव्यता। इसी प्रकार आकाशास्तिकाय अन्योन्य अनादिक विस्रसा बंध की वक्तव्यता।
३५०. सादीयवीससाबंधे णं भंते! सादिकविस्रसाबन्धः भदन्त ! कतिविधः ३५०. भंते! सादिक विस्रसा बंध कितने कतिविहे पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः?
प्रकार का प्रज्ञाप्त है? गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-बन्धन गौतम! तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, बंधणपच्चइए, भायणपच्चइए, परि- प्रत्ययिकः, भाजनप्रत्ययिकः, परिणाम- जैसे-बंधन प्रत्ययिक, भाजन प्रत्ययिक, णामपच्चइए॥ प्रत्ययिकः।
परिणाम प्रत्ययिक।
३५१. से किं तं बंधणपच्चइए?
अथ किं तत् बंधनप्रत्ययिकः ? बंधणपच्चइए-जण्णं परमाणु- बंधनप्रत्ययिकः-यत् परमाणुपुद्गल द्विपोग्गलदुप्पदेसियतिप्पदेसिय जाव। प्रदेशिकः त्रिप्रदेशिकः यावत् दशप्रदेशिकदसपदेसियसंखेज्जपदेसियअसंखेज्ज- संख्येयप्रदेशिक-असंख्येयप्रदेशिकअनन्तपदेसिय-अणंतपदेसियाण खंधाणं प्रदेशिकानां स्कन्धानां विमात्रस्ग्धितया, वेमायनिळ्याए, वेमायलुक्खयाए, विमात्ररूक्षतया, विमात्रस्निग्धरूक्षतया वेमायनिद्धलुक्खयाए बंधणपच्चएणं बंधे बन्धनप्रत्ययेन बन्धः समुत्पद्यते, जघन्येन समुप्पज्जइ, जहण्णेणं एक्कं समयं, एकं समयम्. उत्कर्षेण असंख्येयं कालम्। उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं। सेत्तं सः एषः बन्धनप्रत्ययिकः। बंधणपच्चइए।
३५१.वह बंधन प्रत्ययिक क्या है? बंधन प्रत्ययिक-परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक यावत् दशप्रदेशिक, संख्येय प्रदेशिक, असंख्येय प्रदेशिक, अनंत प्रदेशिक स्कंधों की विमात्र (विषम मात्रा वाली) स्निग्धता, विमात्र रूक्षता, विमात्र स्निग्ध-रूक्षता से होने वाले बंधन-प्रत्यय के कारण जो बंध-उत्पन्न होता है, वह बंधन प्रत्ययिक है। इसका कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः असंख्येय काल है। यह है बंधन प्रत्ययिक।
३५२. से किं तं भायणपच्चइए?
अथ किं तत् भाजनप्रत्ययिकः? भायणपच्चइए-जण्णं जुण्णसुरजुण्ण- भाजनप्रत्ययिकः यत् जीर्णसुरा-जीर्णगुडगुल-जुण्णतंदुलाणं भायण-पच्चएणं बंधे जीर्णतन्दुलानां भाजनप्रत्ययेन बन्धः समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, समुत्पद्यते, जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षण उक्कोसेणं संखेज्ज कालं। सेत्तं संख्येयं कालम्। सः एषः भाजनप्रत्ययिकः। भायणपच्चइए॥
३५२. वह भाजन प्रत्ययिक क्या है? भाजन प्रत्ययिक-जीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़, जीर्ण तंदुलों का भाजन-प्रत्यय के कारण जो बंध उत्पन्न होता है, वह भाजन प्रत्ययिक है। इसका कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः असंख्येय काल है। यह है भाजन प्रत्ययिक।
३५३. से किं तं परिणामपच्चइए? अथ किं तत् परिणामप्रत्ययिकः? परिणाम- ३५३. वह परिणाम प्रत्ययिक क्या है? परिणामपच्चइए-जण्णं अब्भाणं, प्रत्ययिकः-यत् अभ्राणाम्, अभ्र-रुक्षाणां परिणाम प्रत्ययिक-अभ्र, अभवृक्ष जैसेअब्भरुक्खाणं, जहा ततियसए जाव यथा तृतीयशते यावत् अमोघानां परिणाम- तीसरे शतक में यावत् अमोघा का अमोहाणं परिणामपच्चएणं बंधे प्रत्ययेन बन्धः समुत्पद्यते, जघन्येन एक परिणाम प्रत्यय के कारण जो बंध उत्पन्न समुप्पज्जइ, जहण्णेणं एक्कं समयं. समयम्, उत्कर्षेण षण्मासान्। सः एषः होता है, वह परिणाम प्रत्ययिक है। उक्कोसेणं छम्मासा। सेत्तं परिणामप्रत्ययिकः।
इसका कालमान जघन्यतः एक समय, परिणामपच्चइए। सेत्तं सादीय- सः एषः सादिकविससाबन्धः। सः एषः उत्कृष्टतः छह मास है। यह है परिणाम वीससाबंधे। सेत्तं वीससाबंधे। विस्रसाबन्धः।
प्रत्ययिक। यह है सादिक विससा बंध !
यह है विरसा बंध।
भाष्य १. सूत्र ३४५-३५३
प्रदेशात्मक अस्तित्व है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय-प्रत्येक बंध स्वाभाविक और प्रायोगिक-दोनों प्रकार का होता है। के असंख्य प्रदेश परमाणु जितना भाग अवयव है। आकाश के दो स्वाभाविक बंध के दो प्रकार हैं-अनादि कालीन और सादिकालीन। विभाग है-लोकाकाश और अलोकाकाश। लोकाकाश के असंख्य धर्मास्तिकाय, अधमास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-इनका और अलोकाकाश के अनंत प्रदेश हैं। प्रत्येक अस्तिकाय के प्रदेशों
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