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भगवई
श. ११ : उ. १० : सू. १०८,१०९
४१० भविस्सइ य-धुवे नियए सासए अक्खए च-ध्रुवः नियतः शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अव्वए अवट्ठिए निच्चे, एवं तिरिय- अवस्थितः नित्यः एवं तिर्यक्लोकक्षेत्रलोके लोयखेत्तलोए, एवं उड्डलोयखेत्तलोए, एवं ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोके, एवं लोके, एवं एवं लोए एवं अलोए।
अलोके। भावओ णं अहेलोयखेत्तलोए अणंता भावतः अधोलोकक्षेत्रलोके, अनन्ताः वर्णवण्णपज्जवा, अणंता गंधपज्जवा, पर्यवाः, अनन्ताः गन्धपर्यवाः, अनन्ताः अणंता रसपज्जवा, अणंता फास- रसपर्यवाः अनन्ताः स्पर्शपर्यवाः, अनन्ताः पज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अणंता संस्थानपर्यवाः, अनन्ताः गुरुकलघुकगरुयलयपज्जवा, अणता अगरुय. पर्यवाः, अनन्ताः अगुरुकलघुकपर्यवाः, लहुयपज्जवा, एवं तिरियलोय. एवं तिर्यक्लोकक्षेत्रलोके, एवम् खेत्तलोए, एवं उडलोयखेत्तलोए, एवं ऊर्ध्वलोकक्षेत्र-लोके, एवं लोकेभावतः लोए। भावओ णं अलोए नेवत्थि अलोके नैव अस्ति वर्णपर्यवाः, नैव अस्ति वण्णपज्जवा, नेवत्थि गंधपज्जवा, गन्धपर्यवाः नैव अस्ति रसपर्यवाः, नैव नेवत्थि रसपज्जवा, नेवत्थि फास- अस्ति स्पर्शपर्यवाः नैव अस्ति पज्जवा, नेवत्थि संठाणपज्जवा, नेवत्थि संस्थानपर्यवाः, नैव अस्ति गरुयलयपज्जवा, एगे अजीवदव्वदेसे गुरुकलघुकपर्यवाः एकः अजीवद्रव्यदेशः अगरुयलहुए अणंतेहिं अगरुय- अगुरुलघुकः अनन्तैः अगुरुकलघुकगुणैः लहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासस्स संयुक्तः सर्वाकाशस्य अनन्तभागोनः। अणतभागूणे॥
ध्रुव नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित, नित्य है। इसी प्रकार तिर्यक क्षेत्रलोक में, इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक में, इसी प्रकार अलोक में। भावतः अधोलोक क्षेत्रलोक में अनंत वर्णपर्यव, अनंत गंधपर्यव, अनंत रसपर्यव, अनंत स्पर्शपर्यव, अनंत संस्थानपर्यव, अनंत गुरुलघुपर्यव, अनंत अगुरुलघुपर्यव हैं। इसी प्रकार तिर्यकलोक क्षेत्रलोक में, इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक में, इसी प्रकार लोक में। भावतः अलोक में वर्णपर्यव नहीं हैं, गंध पर्यव नहीं हैं. रस पर्यव नहीं है, स्पर्शपर्यव नहीं हैं, संस्थानपर्यव नहीं हैं, गुरुलघु पर्यव नहीं हैं। एक अजीव द्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त है और सर्वाकाश का अनंत भाग न्यून है।
भाष्य
१. सूत्र १०८
द्रष्टव्य : २/४५.४८ का भाष्य।
लोक का परिमाण-पद १०९. भंते! लोक कितना बड़ा प्रज्ञाप्त है?
गौतम! यह जम्बूद्वीप द्वीप सब द्वीपसमुद्रों के मध्य अवस्थित है यावत् एक लाख योजन लम्बा चौड़ा है। उसकी परिधि तीन लाख, सोलह हजार. दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, अट्ठाईस धनुष साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है।
लोयस्स परिमाण-पदं
लोकस्य परिमाण-पदम् १०९. लोए णं भंते! केमहालए पण्णत्ते? लोकः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः ? गोयमा! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्व- गौतम ! अयं जम्बूद्वीपः द्वीपः सर्वद्वीप- दीवसमुद्दाणं सव्वभंतराए जाव एगं समुद्राणां सर्वाभ्यान्तरकः यावत् एकं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, योजनशतसहस्रम् आयाम-विष्कम्भेण तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलस- त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि सहस्साई दोण्णि य सत्ता-वीसे द्वे च ससविंशतियोजनशते त्रयः च क्रोशाः जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च अष्टाविंशतिः च धनुशतं त्रयोदश अंगुलानि धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलगं च अर्धाङ्गुलकं च किंचित् विशेषाधिकः किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणं। परिक्षेपण। तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिड्डि तस्मिन् काले तस्मिन् समये षट् देवाः या जाव महासोक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे महर्द्धिकाः यावत् महासौख्याः जम्बूद्वीपे पव्वए मंदरचूलियं सव्वओ समंता द्वीपे मन्दरे पर्वते मन्दरचूलिकां सर्वतः संपरिक्खिताणं चिट्ठज्जा। अहे णं समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठेयुः। अधः चत्तारि दिसा कुमारीओ महत्तरियाओ चतस्रः दिशाकुमार्यः महत्तरिकाः चतुरः चत्तारि बलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स बलिपिण्डान् गृहीत्वा जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य दीवस्स चउसु वि दिसासु बहियाभि- चतसृषु अपि दिशासु बहिः अभिमुख्यः मुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिंडे स्थित्वा तान् चतुरः बलिपिण्डान् ‘जमग- जमग-समगं बहियाभिमुहे पक्खि- समगं' बहिः अभिमुखे प्रक्षिपेयुः। प्रभुः
उस काल और उस समय में छह देव महान ऋद्धि वाले यावत् महासुख वाले जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत पर मंदर चूलिका को चारों ओर से घेरे हए खड़े हैं। नीचे चार दिशाकुमारी महत्तरिकाओं ने चार बलिपिण्डों को ग्रहण कर जंबूद्वीप की चारों दिशाओं में बाह्याभिमुख स्थित होकर उन चारों बलिपिण्डों को एक साथ बाहर फेंका।
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