________________
श. ११ : उ.९ : सू. ८५-८७
४०२
भगवई
तहाख्वाणं अरहताणं भगवंताणं गोत्रस्यापि श्रवणं, किमङ्ग पुनः अभिगमननामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण । वंदन-नमस्यन-प्रतिप्रच्छन पर्युपासनम् ? अभिगमण - वंदण - नमसण - पुडि- एकस्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य पुच्छण-पज्जु-वासणाए? एगस्स वि श्रवणं किमङ्ग पुनः विपुलस्य अर्थस्य आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स ग्रहणम् ? तत् गच्छामि श्रमणं भगवन्तं सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स महावीरं वन्दे यावत् पर्युपासे, एतत् नः अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामि णं प्रेत्यभवे इहभवे च हिताय शुभाय क्षमाय समणं भगवं महावीरं वंदामि जाव निःश्रेयसाय आनुगामिकत्वाय भविष्यति पज्जुवासामि, एयं णे इहभवे य परभवे इति कृत्वा एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य यत्रैव य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए तापसावसथः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य आणुगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कट्ट एवं तापसावसथम् अनुप्रविशति अनुप्रविश्य संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव तावसावसहे सुबहु लौही-लोहकटाह-'कडच्छुयं ताम्रिक तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताव- तापसभाण्डकं किढिण-संकाइयगं' च सावसह अणुप्पविसइ अणुप्पवि-सित्ता गृह्णाति गृहीत्वा तापसावसथात् प्रतिनिष्सुबहुं लोही-लोहकडाह-कडच्छुयं तंबियं क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य प्रतिपतितविभङ्गः तावसभंडगं किढिण संकाइयगं च । हस्तिनापुर नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छति, गेण्हइ, गेण्हित्ता तावसावसहाओ पडि- निर्गत्य यचैव सहस्राम्रवनम् उद्यानम् यत्रैव निक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पडि- श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागवडियविन्भंगे हत्थिणापुर नगरं च्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीर मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्ग- त्रिः वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा च्छित्ता जेणेव सहसंबवणेउज्जाणे, नात्यासन्नः नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव अभिमुखः विनयेन कृत-प्राञ्जलिः उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं पर्युपास्ते। महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिकडे पज्जुवासइ॥
ऐसे अर्हत भगवानों के नाम गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक है फिर अभिगमन, वंदन, नमस्कार. प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या ? एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण महान फलदायक है फिर विपुल अर्थ ग्रहण का कहना ही क्या ? इसलिए मैं जाऊं, श्रमण भगवान महावीर की वंदना करूं यावत् पर्युपासना करूं । यह मेरे इस भव और पर भव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा-इस प्रकार संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर जहां तापस गृह था, वहां आया, वहां आकर, तापसगृह में अनुप्रवेश करता है, अनुप्रवेश कर बहुत सारे तवा, लोह-कडाह, कड़छी, ताम्रपात्र, तापस-भाण्ड, वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर तापसआवास से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर विभंग ज्ञान से प्रतिपतित वह हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच निर्गमन करता है, निर्गमन कर जहां सहस्राम्रवन उद्यान है, जहां भगवान महावीर हैं, वहां आया, वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर न अति निकट और न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धांजलि होकर पर्युपासना करता है।
८६. तए णं समणे भगवं महावीरे सिवस्स ततः श्रमणः भगवान् महावीरः शिवस्य रायरिसिस्स तीसे य महतिमहालियाए राजर्षेः तस्यां च महामहात्यां परिषदि धर्म परिसाए धम्म परिकहेइ जाव आणाए परिकथयति यावत् आज्ञायाः आराधकः आराहए भवइ॥
भवति।
८६. श्रमण भगवान महावीर शिवराजर्षि को उस विशालतम धर्म परिषद् में धर्म कहते हैं यावत् आज्ञा की आराधना होती है।
८७. तए णं से सिवे रायरिसी समणस्स ततः सः शिवः राजर्षिः श्रमणस्य भगवतः ८७. शिवराजर्षि भगवान महावीर के पास , भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा निशम्य यथा धर्म को सुनकर. अवधारण कर स्कंदक सोच्चा निसम्म जहा खंदओ जाव स्कन्दकः यावत् उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे की भांति यावत् उत्तर पूर्व दिशा में जाता उत्तरपुरत्थिमं दिसी-भागं अवक्कमइ, अपक्रामति, अपक्रम्य लौही-लोहकटाह- है, जाकर तवा, लोह-कटाह, कड़छी, अवक्कमित्ता सुबहुं लोही-लोहकडाह- 'कडच्छुयं' तामिकं तापसभाण्डकं 'किढिण- ताम्र-पात्र, तापस- भाण्ड, वंशमय-पात्र कडच्छुयं तंबियं तावसभंडगं किढिण- संकाइयगं' च एकान्ते एडयति, एडयित्वा और कावड़ को एकांत में डाल देता है, संकाइयगं च एगते एडेइ, एडेत्ता सयमेव स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा डालकर स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच करता पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता समणं श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- है, लोच कर श्रमण भगवान महावीर को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org