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भगवई
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श. ११ : उ. १ : सू. २६-३०
पुरुषवेद बंधक हैं ? नपुंसकवेद बंधक हैं ?
बंधगा? परिसवेदबंधगा? नपुंसगवेद- पुरुषवेदबन्धकाः? नपुंसकवेदबन्धकाः? बंधगा? गोयमा! इत्थिवेदबंधए वा, पुरिस- गौतम! स्त्रीवेदबन्धकः वा, पुरुषवेद- वेदबंधए वा, नपुंसगवेदबंधए । बन्धकः वा, नपुंसकवेदबन्धकः वावा-छव्वीसं भंगा।
षड्वंशतिः भङ्गाः।
गौतम! स्त्रीवेद बंधक भी है, पुरुषवेद बंधक भी है, नपुंसकवेद बंधक भी है-छब्बीस भंग होते हैं।
ते भदन्त ! जीवाः किं संज्ञिनः? असंज्ञिनः?
२७. ते णं भंते! जीवा किं सण्णी? असण्णी? गोयमा! नो सण्णी. असण्णी वा असण्णिणो वा।
२७. भंते! वे जीव संज्ञी (समनस्क) हैं? असंज्ञी (अमनस्क) है? गौतम! संज्ञी नहीं हैं, असंज्ञी है अथवा असंज्ञी है।
गौतम! नो संजिनः, असंज्ञी वा असंज्ञिनः वा।
२८. ते णं भंते ! जीवा किं सइंदिया?
अणिंदिया? गोयमा! नो अणिंदिया, सइंदिए वा, सइंदिया वा॥
ते भदन्त ! जीवाः किं सेन्द्रियाः? २८. भंते! क्या वे जीव इन्द्रिय सहित हैं ? अनिन्द्रियाः वा?
इन्द्रिय रहित हैं? गौतम! नो अनिन्द्रियाः, सेन्द्रियः वा। गौतम! इन्द्रिय रहित नहीं है। इन्द्रिय सेन्द्रियाः वा।
सहित है अथवा इन्द्रिय सहित हैं।
२९. से णं भंते! उप्पलजीवेत्ति कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जंकालं ।।
सः भदन्त! उत्पलजीवः इति कालतः कियच्चिरं भवति। गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम, उत्कर्षण असंख्येयं कालम्।
२९. 'भंते! वह उत्पल जीव उत्पल जीव के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः असंख्येय काल।
३०. से णं भंते! उप्पलजीवे पुढवि-जीवे, पुण्णरवि उप्पलजीवेत्ति केवतियं कालं सेवेज्जा? केवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ?
सः भदन्त ! उत्पलजीवः पृथ्वीजीवः, पुनः अपि उत्पलजीवः इति कियन्तं कालं सेवेत? कियन्तं कालं गत्यागती कुर्यात् ?
गोयमा! भवादेसेणं जहण्णेणं दो। गौतम! भवादेशेन जघन्येन द्वे भवग्रहणे, भवग्गहणाई, उवकोसेणं असं- खेज्जाई उत्कर्षेण असंख्येयानि भवग्रहणानि। भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं दो कालादेशेन जघन्येन द्वौ अन्तर्मुहूर्ती, अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं असंखेज्जं उत्कर्षेण असंख्येयं कालं, एतावन्तं कालं कालं, एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं सेवते एतावन्तं कालं गत्यागती करोति। कालं गतिरागतिं करेज्जा॥
३०. भंते! वह उत्पल जीव पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होता है, पुनः उत्पल जीव के रूप में उत्पन्न होकर कितने काल तक रहता है ? कितने काल तक गति-आगति करता है? गौतम ! भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भवग्रहण (जन्म) करता है, उत्कृष्टतः असंख्येय भव-ग्रहण करता है। काल की अपेक्षा जघन्यतः दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः असंख्येय काल। इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है।
भाष्य १.सू. २९-३०
वर्तमान काय से च्युत होकर तुल्य काय में अथवा किसी दूसरे काय प्रस्तुत आलापक में उत्पल पत्र की स्थिति का विचार अनुबंध में उत्पन्न होता है। वहां से च्युत होकर पुनः पूर्ववर्ती काय में जन्म और काय-संवेध की दृष्टि से किया गया है उत्पल की स्थिति जघन्यतः लेता है। इस प्रक्रिया का नाम काय-संवेध है। दो मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्य काल है। यह अनुबंध की दृष्टि से काय-संवेध का विचार दो दृष्टियों से किया जाता है-भवादेश विवक्षित है।
और कालादेश अनुबंध का अर्थ है-विवक्षित पर्याय में अविच्छिन्न रूप से भवादेश-एक उत्पल पत्र का जीव वनस्पतिकाय से च्युत अवस्थान करना, उत्पल जीव का उत्पल के रूप में पुनर्जन्म। होकर पृथ्वीकाय जीव के रूप में उत्पन्न होता है। वहां से च्युत होकर पुनर्जन्म के अनेक नियम हैं, उनमें एक है काय-संवेध। एक प्राणी फिर उत्पल पत्र के रूप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार भवादेश की
मा
१. भ. वृ. ११.२९-३०-अणुबंधोत्ति विवक्षितपर्यायण अविच्छिन्नेन अवस्थानम्। २. (क) भ. ३२/११
(ख) भ.वृ.११/२९-३०-कायसंवेहात्ति विवक्षितकायात कायान्तरे तुल्यकाये वा गत्वा पुनरपि यथासंभवं तत्रैवागमनम्।
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