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________________ भगवई श. ८ : उ. ५ : सू. २३७-२४० से ३९. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, काया से ४०. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से, काया से ४१. एक योग का एक करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता है मन से ४२. अथवा न करता है वचन से ४३. अथवा न करता है काया से ४४. अथवा न करवाता है मन से ४५. अथवा न करवाता है वचन से ४६. अथवा न करवाना है काया से ४७, अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से ४८. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से ४९.. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है काया से। २३८. पडुप्पन्नं संवरेमाणे किं तिविहं तिविहेणं संवरेइ? एवं जहा पडिक्कममाणेणं एगणपन्नं भंगा भणिया एवं संवरमाणेण वि एगणपन्नं भंगा भाणियव्वा॥ प्रत्युत्पन्नं संवृण्वन किं त्रिविधं त्रिविधेन संवृणोति? एवं यथा प्रतिक्रामता एकोनपञ्चाशत् भंगाः भणिताः एवं संवृण्वता अपि एकोनपञ्चाशत भंगाः भणितव्याः। २३८. वर्तमान का संवरण करने वाला क्या तीन योग का तीन करण से संवरण करता है? जैसे प्रतिक्रमण करने वाले के उनपचास भंग कहे गए हैं उसी प्रकार संवरण करने वाले के उनपचास भंग वक्तव्य हैं। २३९. अणागयं पच्चक्खमाणे किं तिविहं तिविहेणं पच्चक्खाइ? एवं एते चेव भंगा एगूणपन्नं भाणि-यव्वा जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा॥ अनागतं प्रत्याख्यान किं त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्याति। एवम् एते चैव भंगा एकोनपंचाशत् भणितव्याः यावत् अथवा कुर्वन्तं नानुजानाति कायेन। २३९. अनागत का प्रत्याख्यान करने वाला क्या तीन योग का तीन करण से प्रत्याख्यान करता है? इस प्रकार उनपचास भंग वक्तव्य हैं यावत अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है काया से। २४०. समणोवासगस्स णं भंते ! पुव्वामेव थूलए मुसावाए अपच्चक्खाए भवइ, से णं भंते! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेइ? एवं जहा पाणाइवायस्स सीयालं भंगसयं भणियं, तहा मुसावायस्स वि भाणियव्वं । एवं अदिन्नादाणस्स वि, एवं थूलगस्स वि मेहुणस्स, थूलगस्स वि परिग्गहस्स जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा। श्रमणोपासकस्य भदन्त ! पूर्वमेव स्थूलः २४०. भन्ते ! श्रमणोपासक के स्थूल मृषामृषावादः अप्रत्याख्यातः भवति. सः वाद का पहले प्रत्याख्यान नहीं होता। भदन्त ! पश्चात् प्रत्याख्यान किं करोति? भन्ते! फिर वह उसका प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है? एवं यथा प्राणातिपातस्य सप्तचत्वारिंशत् जैसे प्राणातिपात के एक सौ संतालीस भंगशतंभणितं. तथा मृषावादस्यापि भंग कहे गए हैं वैसे ही मृषावाद के भी एक भणितव्यम। एवम अदत्तादानस्यापि. एवं सौ सैंतालीस भंग वक्तव्य है। इसी प्रकार स्थूलकस्यापि मैथुनस्य. स्थूलकस्यापि स्थूल अदत्तादान. स्थूल मथुन और स्थूल परिग्रहस्य यावत् अथवा कुर्वन्तं परिग्रह की वक्तव्यता. यावत अथवा न नानुजानाति कायेना करने वाले का अनुमोदन करता है काया से। एते खलु एरिसगा समणोवासगा भवंति, एते खलु ईदृशकाः श्रमणोपासकाः भवन्ति, नो खलु एरिसगा आजीविओवासगा नो खलु ईदृशकाः आजीविकोपासकाः भवंति॥ भवन्ति। श्रमणोपासक ऐसे होते हैं. उक्त विधि से प्रतिक्रमण, संवर और प्रत्याख्यान करने वाले होते हैं। आजीवक के उपासक ऐग नहीं होते। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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