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भगवई
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जाव महाघोसस्स॥
महाघोषस्य।
श. १० : उ. ४ : सू. ५६-६० इसी प्रकार भूतानन्द की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् महाघोष की वक्तव्यता।
५७. भंते! देवराज देवेन्द्र शक के त्रायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं ?
५७. अत्थि ण भंते! सक्कस्स देविंद-स्स अस्ति भदन्त! शक्रस्य देवेन्द्रस्य
देवरण्णो तावत्तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवराजस्य तावत्रिंशकाः देवाः-तावत्- देवा?
त्रिंशकाः देवाः? हंता अत्थि॥
हन्त अस्ति।
हां, हैं।
५८. से केणटेणं जाव तावत्तीसगा तत् केनार्थेन यावत् तावत्त्रिंशकाः ५८. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा देवातावत्तीसगा देवा?
देवाः-तावत्रिंशकाः देवाः? एवं खलु है-देवराज देवेन्द्र शक्र के त्रायस्त्रिंशक देव एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव त्रायस्त्रिंशक देव हैं? समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे पालकः नाम गौतम! उस काल और उस समय पालए नाम सण्णिवेसे होत्था-वण्णओ। सन्निवेशः आसीत्-वर्णकः। तत्र पालके जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में पालक नाम तत्थ णं पालए सण्णिवेसे तायत्तीसं सन्निवेशे तावत्रिंशत सहायाः 'गाहावई ___ का सन्निवेश था-वर्णक। उस पालक सहाया गाहावई समणो-वासया जहा श्रमणोपासकाः यथा चमरस्य यावत् सन्निवेश में तैतीस परस्पर सहाय्य करने चमरस्स जाव विहरति॥ विहरन्ति।
वाले गृहपति श्रमणोपासक रहते थे। चमर की भांति वक्तव्यता यावत् अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे।
५९. तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई तत्र ते तावत्त्रिंशत् सहायाः 'गाहावई' समणोवासया पुब्बिं पि पच्छा वि उग्गा श्रमणोपासकाः पूर्वम् अपि पश्चादपि उग्गविहारी, संविग्गा संविग्गविहारी उग्रा: उग्रविहारिणः, संविग्नाः संविग्नबहूई वासाइं समणोवासगपरियागं विहारिणः बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपाउणिता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं पर्यायं प्राप्य, मासिक्या संलेखनया झूसेत्ता, सढि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आत्मानं जोषित्वा, षष्टि भक्तानि आलोइय-पडिक्कंता समाहिपत्ता अनशनेन छित्त्वा, आलोचित-प्रतिक्रान्ताः कालमासे कालं किच्चा सक्कस्स समाधि प्राप्ताः कालमासे कालं कृत्वा देविंदस्स देवरणो तावत्तीसगदेवत्ताए शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य तावत्उववन्ना। जप्पभिई च णं भंते! ते त्रिंशकदेवत्वेन उपपन्नाः। यत्प्रभृति पालगा तायत्तीसं सहाया गाहावई भदन्त ! ते पालकाः तावतत्रिंशत् सहायाः समणोवासगा, सेसं जहा चमरस्स जाव 'गाहावई' श्रमणोपासकाः, शेषं यथा अण्णे उववज्जति॥
चमरस्य यावत् अन्ये उपपद्यन्ते।
५९. वे त्रायस्त्रिंशक परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक पहले और पश्चात् उग्र, उग्रविहारी, संविग्न, संविग्नविहारी थे। वे बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन कर मासिकी संलेखना से शरीर को कश बना, अनशन के द्वारा साठभक्त (भोजन के समय) का छेदन कर, आलोचना प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त कर, कालमास में काल (मृत्यु) प्राप्त कर देवराज देवेन्द्र शक के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए। भंते! जिस समय से वे पालक वायस्त्रिंशक परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक देवराज देवेन्द्र शक के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए, शेष चमर की भांति वक्तव्य है यावत् कुछ च्यवन करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं।
६०. भंते! देवराज देवेन्द्र ईशान के त्रायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं ?
देवा?
६०. अत्थि णं भंते! ईसाणस्स देविंदस्स अस्ति भदन्त! ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवरण्णो तावत्तीसगा देवातावत्तीसगा देवराजस्य तावत्त्रिंशकाः देवाः तावत्-
त्रिंशकाः देवाः? एवं जहा सक्कस्स, नवरं चंपाए नयरीए एवं यथा शक्रस्य, नवरं-चम्पायां नगर्यां जाव उववण्णा जप्पभिइं च णं भंते! ते यावत् उपपन्नाः यत्प्रभृति च भदन्त ! ते चंपिज्जा तायत्तीसं सहाया, सेसं तं चेव चंपिज्जा' तावत्रिंशत् सहायाः शेष
शक्र की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-चंपानगरी में यावत् देवराज देवेन्द्र ईशान के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न
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