________________
श. १० : उ. ४ : सू. ६०-६३
३५२
भगवई
जाव अण्णे उववज्जति॥
तच्चैव यावत् अन्ये उपपद्यन्ते।
हुए। भंते! जिस समय से वे चंपानगरी में त्रायस्त्रिंशक परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति रहते थे, शेष पूर्ववत् यावत् कुछ च्यवन करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं।
६१. भंते! देवराज देवेन्द्र सनत्कुमार के त्रायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं?
६१. अस्थि णं भंते! सणंकुमारस्स देविं. दस्स देवरण्णो तावत्तीसगा देवा, ता. वत्तीसगा देवा? हंता अत्थि॥
अस्ति भदन्त ! सनत्कुमारस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य तावत्रिंशकाः देवाः, तावत्रिंशकाः देवाः? हन्त अस्ति।
हां, हैं।
६२. से केणटेणं?
तत् केनार्थेन ?
६२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा
जहा धरणस्स तहेव, एवं जाव पाणयस्स, एवं अच्चुयस्स जाव अण्णे उववज्जति॥
यथा धरणस्य तथैव, एवं यावत् प्राणतस्य, एवम् अच्युतस्य यावत् अन्ये उपपद्यन्ते।
धरण की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् प्राणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार अच्युत की वक्तव्यता यावत् कुछ च्यवन करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं।
६३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
६३. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org