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भगवई
श. ८ : उ. १ : सू. ६२-६५ ६२. जई आहारगसरीरकायपयोग- यदि आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणतः किं परिणए किं मणुस्साहारगसरीर- मनुष्याहारकशरीरकायप्रयोगपरिणतः? कायपयोगपरिणए? अमणुस्सा-हारग अमनुष्याहारक यावत् परिणतः? जाव परिणए। एवं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इड्डि एवं यथा अवगाहनासंस्थाने यावत पत्तपमत्त-संजयसम्मदिद्वि-पज्जत्तग- ऋद्धिप्राप्तप्रमत्त-संयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्सकसंखेज्जवासाउय जाव परिणए, नो संख्येयवर्षायुष्क यावत् परिणतः नो अणिड्डिपत्तपमत्त-संजयसम्मदिट्ठि- अनृद्धिप्राप्तप्रमत्तसंयतसम्यगदृष्टिपर्याप्तपज्जत्तसंखेज्जवासाउय जाव परिणए॥ संख्येयवर्षायुष्क यावत् परिणतः।
६२. यदि आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत है तो क्या मनुष्य आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? अथवा अमनुष्य आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? इस प्रकार जैसी अवगाहनासंस्थान नामक प्रज्ञापना के २१वें पद में आहारकशरीर की वक्तव्यता है वैसा यहां भी वक्तव्य है यावत ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्येयवर्ष आयुष्य वाला आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत है, ऋद्धि- अप्राप्त प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्ष आयुष्य वाला आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत नहीं है।'
६३. जइ आहारगमीसासरीरकाय- यदि आहारकमिश्रकशरीरकायप्रयोग- ६३. यदि आहारक मिश्रशरीरकायप्रयोगपयोगपरिणए कि मणुस्साहारग- परिणतः किं मनुष्याहारकमिश्रकशरीरकाय- परिणत है तो क्या मनुष्य आहारकमीसासरीरकायपयोगपरिणए? प्रयोगपरिणतः?
मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है? एवं जहा आहारगं तहेव मीसगं पि एवं यथा आहारकं तथैव मिश्रकमपि इस प्रकार जैसी आहारकशरीर की निरवसेसं भाणियव्वं॥ निरवशेष भणितव्यम्।
वक्तव्यता है वैसे आहारकमिश्रशरीर के विषय में भी अविकल रूप से वक्तव्य है।
६४. जइ कम्मासरीरकायपयोग-परिणए यदि कर्मकशरीरकायप्रयोगपरिणतः किम किं एगिदियकम्मासरीर-कायपयोग- एकेन्द्रियकर्मकशरीरकायप्रयोगपरिणतः? परिणए ? जाव पंचिंदिय-कम्मा- यावत् पञ्चेन्द्रियकर्मकशरीरकायप्रयोगसरीरकायपयोग-परिणए?
परिणतः? गोयमा! एगिदियकम्मासरीरकाय- गौतम! एकेन्द्रियकर्मकशरीरकायप्रयोगपयोगपरिणए, एवं जहा ओगाहण- परिणतः, एवं यथा अवगाहनासंस्थाने संठाणे कम्मगस्सभेदो तहेव इह वि जाव कर्मकस्य भेदस्तथैव इहापि यावत् पर्याप्तकपज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो-ववाइय सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिककल्पातीतक कप्पातीतगवेमाणियदेव-पंचिंदिय- -वैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियकर्मकशरीरकायकम्मासरीरकायपयोग-परिणए वा, प्रयोगपरिणतः वा, अपर्याप्तकसर्वार्थसिद्धअपज्जत्तासव्वट्ठसिद्ध-अणुत्तरोववाइय अनुत्तरौपपातिक यावत् परिणतः वा। जाव परिणए वा॥
६४. यदि कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है तो
क्या एकेन्द्रिय कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है? यावत पंचेन्द्रिय कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है? गौलम! एकेन्द्रिय कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है। इस प्रकार जैसी अवगाहनासंस्थान नामक प्रज्ञापना के २१वें पद में कर्म के भेद की वक्तव्यता है वैसे यहां भी वक्तव्य है यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिन्द्र अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रिय कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है, यावत् अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रिय कशरीरकायप्रयोगपरिणत है।
मीसपरिणति-पदं
मिश्रपरिणति-पदम ६५. जइ मीसापरिणए किं मणमीसा- यदि मिश्रकपरिणतः किं
परिणए? वइमीसापरिणए? काय- मनोमिश्रकपरिणतः? वाभिश्रकपरिणतः? मीसापरिणए?
कायमिश्रकपरिणतः? गोयमा! मणमीसापरिणए वा, गौतम ! मनोमिश्रकपरिणतः वा, वाभिश्रकवइमीसापरिणए वा, कायमीसा-परिणए परिणतः वा, कायमिश्रकपरिणतः वा। वा॥
मिश्रपरिणति-पद ६५. यदि मिश्रपरिणत है तो क्या मन मिश्र परिणत है? वचन मिश्रपरिणत है ? अथवा काय मिश्रपरिणत है? गौतम! वह मन मिश्रपरिणत है अथवा वचन मिश्रपरिणत है, अथवा काय मिश्रपरिणत है।
१. (क) पण्ण. २१/५०-५५
(ख) सम. प. १६४
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