SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 384
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूल सुहम्मा सभा-पदं ९९. कहि णं भंते! सक्कसस देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरम- णिज्जातो भूमिभागातो उड्ढं एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पंच वडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा -- असोगवडेंसए, सत्तवण्णवडेंसए, चंपगवडेंसए, चूयवडेंस, मज्झे सोहम्मवडेंस से णं सोहम्मवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरसजोयणसय सहस्साई आयामविक्खंभेणं, एवजह सूरिया, तहेव माणं तहेव उववाओ। सक्करस य अभिसेओ, तहेव जह सूरियाभस्स । अलंकार अच्चणिया, तहेव जाव आयरक्ख त्ति ॥ १ ॥ दो सागरोवमाई ठिती ॥ सक्कं पदं १००. सक्के णं भंते! देविंदे देवराया महिड़िए जाव महासोक्खे। गोयमा ! महिडिढए जाव महा- सोक्खे। से णं तत्थ बत्तीसा विमाणावाससयसहस्साणं जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरs | एमहिड्दिए जाव एमहा- सोक्खे सक्के देविंदे देवराया ॥ १०१. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।। Jain Education International छट्टो उद्देसो : छठा उद्देशक संस्कृत छाया सुधर्मा सभा-पदम् कुत्र भदन्त ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सभा सुधर्मा प्रज्ञप्ता? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे अस्याः रत्नप्रभायाः पृथ्व्याः बहुसम - रमणीयात् भूमिभागात् ऊर्ध्वम् एवं यथा राजप्रश्नीये यावत् पञ्च अवतंसकाः प्रज्ञप्ताः तद् यथा - अशोकावतंसकः, सप्तपर्णावंतसकः, चम्पकावतंसकः, चूतावतंसकः मध्ये सौधर्मावतंसकः, महाविमानम् अर्द्धत्रयोदश योजन- शतसहस्राणि आयामविष्कम्भेन, एवं यथा तथैव मानं तथैव शक्रस्य तथैव यथा सूर्याभ, उपपातः । चाभिषेकः, सूर्याभस्य ॥ अलङ्कार अर्चनिका, तथैव यावत् आत्मरक्ष इति ॥ १ ॥ द्वे सागरोपमे स्थितीः । शक्र-पदम् शक्रः भदन्त ! देवेन्द्रः देवराजा कियन्महर्धिकः यावत् कियन्महासौख्यः । गौतम ! महर्धिकः यावत् महासौख्यः । सः तत्र द्वात्रिंशत् विमानावासशतसहस्राणाम् यावत् दिव्यानि भोगभोगानि भुञ्जानः विहरति । इयन् महर्द्धिकः यावत् इयन्महासौख्यः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । For Private & Personal Use Only हिन्दी अनुवाद सुधर्मा सभा-पद ९९. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र की सुधर्मा सभा कहां प्रज्ञप्त है ? गौतम! जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत के दक्षिण भाग में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुत सम और रमणीय भूभाग से ऊर्ध्व में स्थित है, इस प्रकार रायपसेणइय की भांति वक्तव्यता यावत् पांच अवतंसक प्रज्ञप्त हैं, जैसे- अशोकावतंसक, सप्तपर्णावतंसक, चंपकावतंसक, चूतावतंसक, मध्य में सौधर्मावतंसक है। वह सौधर्मावतंसक महाविमान साढ़े बारह लाख योजन लंबा चौड़ा है, इस प्रकार जैसे सूर्याभ की वक्तव्यता वैसे ही उसके मान और उपपात की वक्तव्यता । शक्र का अभिषेक सूर्याभ (रायपसेणइय सूत्र १२५ ) की भांति वक्तव्य है। अलंकार अर्चनिका यावत् आत्मरक्षक सूर्याभ की भांति वक्तव्य हैं। शक्र की स्थिति दो सागरोपम प्रमाण है। शक्र पद १००. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र कितनी महान् ऋद्धि वाला यावत् कितने महान सुख वाला है ? गौतम ! वह महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् सुख वाला है। वह बत्तीस लाख विमानावास यावत् दिव्य भोगाई भोगों को भोगता हुआ विहरण करता है। वह देवराज देवेन्द्र शक्र इतनी महान् ऋद्धि वाला यावत् इतने महान सुख वाला है। १०१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy