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भगवई
सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुब्विं चरमाणे गामाग्गामं दुइज्जमाणे जेणेव सावत्थी नयरी जेणेव कोट्टए चेइए तेणेव उवागच्छइ उवाग- च्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्es, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥
२२३. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णा कयाइ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाग्गामं दूइज्माणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहा- पडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।
२२४. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहि य, विरसेहि य अंतेहि य, पंतेहि य, लूहेहि य, तुच्छेहि य, काला - इक्कंतेहि य, पमाणाइक्कंतेहि य पाणभोयणेहिं अण्णया कयाइ सरीरगंसि विउले रोगातंके पाउब्भूए- उज्जले विउले पगाढे कक्कसे कडुए चंडे दुक्खे दुग्गे तिब्वे दुरहियासे । पित्तज्जरपरिगतसरीरे, दाहवक्कंतिए या वि
विहरइ ॥
२२५. तए णं से जमाली अणगारे वेयणाए अभिभू समाणे समणे निग्गंथे सहावे, सहावेत्ता एवं वयासी - तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सेज्जा - संथारगं
संथरह ||
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पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं दवन् यत्रैव श्रावस्ती नगरी यत्रैव कोष्ठकं चैत्यं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य यथाप्रतिरूपं अवग्रहं अवगृह्णाति अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ।
ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा कदाचित् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं दवन् सुखंसुखेन विहरन् यत्रैव चंपानगरी यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य यथाप्रतिरूपं अवग्रहं अवगृह्णाति, अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन विहरति ।
१. सूत्र - २२४
१. कालातिक्रांत, प्रमाणातिक्रांत- (कालाइक्कंतेहि य पमागइक्कंतेहि य)
भगवती ७/२४ में कालातिक्रांत और प्रमाणातिक्रांत का प्रयोग भिन्न अर्थ में हुआ है। प्रस्तुत प्रकरण में कालातिक्रांत का अर्थ
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ततः तस्य जमालेः अनगारस्य तैः अरसैः च विरसैः च अन्त्यैः च प्रान्त्यैः च, रूक्षैः च, तुच्छैः च, कालातिक्रान्तैः च, प्रमाणातिक्रान्तैः च प्राणभोजनैः अन्यदा कदाचित् शरीरे विपुलः रोगांतङ्कः प्रादुर्भूतः - 'उज्जले' विपुलः प्रगाढः कर्कशः कटुकः चण्डः दुक्खः 'दुग्गे' तीव्रः दुरध्यासः । पित्तज्वरपरिगतशरीरः, दाहावक्रान्तिकः चापि विहरति ।
भाष्य
ततः सः जमालिः अनगारः वेदनया अभिभूतः सन् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-यूयं देवानुप्रियय! मम शय्या संस्तारकं स्तृणीत ।
श. ९ : उ. ३३ : सू. २२२-२२५ क्रमानुसार विचरण ग्रामानुग्राम मैं परिव्रजन करते हुए जहां श्रावस्ती नगरी थी. जहां कोष्ठक चैत्य था, वहां आया। वहां आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह
रहा था।
२२३. श्रमण भगवान महावीर किसी समय क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां चंपानगरी थी, जहां पूर्णभद्र चैत्य था, वहां आए। आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे।
है - प्यास और भूख के काल का अतिक्रमण हो जाने पर काम में लिया जाने वाला पानी और आहार ।
प्रमाणातिक्रांत का अर्थ है-प्रमाण से अतिरिक्त जल और आहार का प्रयोग।
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२२४. उस जमालि अनगार के अरस, विरस, अंत, प्रांत, रूक्ष, तुच्छ, कालातिक्रांत प्रमाणातिक्रांत, ' पानभोजन से किसी समय शरीर में विपुल रोग- आतंक प्रकट हुआ- उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःखद, कष्टसाध्य तीव्र और दुःसह। उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया। और उसमें जलन पैदा हो गयी।
१. भ. वृ. ९ / २२४-कालाइक्कंनेहिं य त्ति तृष्णाबुभुक्षाकालाप्राप्तेः पमाणाइक्कंते हिं य नि बुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः ।
२२५. जमालि अनगार ने वेदना से अभिभूत होकर श्रमण-निर्ग्रथों को संबोधित किया। संबोधित कर इस प्रकार कहादेवानुप्रिय ! तुम मेरे शय्या संस्तारक बिछा दो ।
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