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________________ भगवई श.८: उ.९ : सू. ३९५-३९८ जहा बाउक्काइयाणं, असुरकुमार. यावत्अनुत्तरोपपातिकानां यथा नैरयिकानागकुमार जाव अणुत्तरोव-वाइयाणं णाम्, नवरं-यस्य या स्थितिः सा जहा नेरइयाणं, नवरं-जस्स जा ठिती सा भणितव्या यावत् अनुत्तरोपपातिकानां भाणियव्वा जाव अणुत्तरोववाइयाणं सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः जघन्येन सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे जहण्णेणं एकत्रिंशत् सागरोपमानि त्रिसमयोनानि, एक्कतीसं सागरोवमाई तिसमयूणाई, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समयोनानि। समयूणाई॥ चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यकयोनिक और मनुष्यों की वायुकायिक की भांति वक्तव्यता। असुरकुमार, नागकुमार यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों की नैरयिक की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिसकी जो स्थिति है, वह वक्तव्य है यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों के सर्वबंध एक समय, देशबंध जघन्यतः तीन समय न्यून इकत्तीस सागरोपम, उत्कृष्टतः एक समय न्यून तैतीस सागरोपम है। भदन्त! ३९६. वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते! कालओ केवच्चिर होइ? वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धान्तरं कालतः कियच्चिरं भवति? ३९६. भंते ! वैक्रिय शरीर प्रयोग के बंध का अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन एकं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं- समयम्. उत्कर्षेण अनन्तं कालम्अणंताओ ओसप्पिणीओ उस्स- अनन्ताः अवस-र्पिणीः उत्सर्पिणीः प्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता कालतः, क्षेत्रतः-अनन्ताः लोकाःलोगा-असंखेज्जा पोग्गल-परियट्टा, ते असंख्येयाः पुगल परिवर्ताः, ते पुगलणं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए परिवर्ताः आवलिकायाः असंख्येयतमः असंखेज्जइभागो। एवं देसबंधंतरं पि॥ भागः। एवं देशबन्धान्तरमपि। गौतम ! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः अनंतकाल-अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा अनंत लोक-असंख्येय पुद्गल परिवर्त, वे पुद्गल परिवर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग जितने हैं। इसी प्रकार देश बंध के अंतर की वक्तव्यता। ३९७. वाउक्काइयवेउब्वियसरीर-पुच्छा। वायुकायिकवैक्रियशरीरपृच्छा। गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अन्तअंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पलिओवम-स्स मुंहतम, उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयअसंखेज्जइभागं। एवं देस-बंधंतरं पि॥ तमः भागः। एवं देशबन्धान्तरमति। ३९७. 'वायुकायिक वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के अंतर की पृच्छा। गौतम! सर्व बंध का अंतर जघन्यतः अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। इसी प्रकार देश बंध के अंतर की वक्तव्यता। भाष्य १.सूत्र ३९७ वायुकाय का मूल शरीर औदारिक होता है। उसमें वैक्रिय शरीर का निर्माण करने की शक्ति भी होती है। उसने वैक्रिय शरीर का निर्माण किया। वह प्रथम समय में सर्वबंध होकर मरा। पुनः वायुकायिक में उत्पन्न हुआ। अपर्याप्त अवस्था में वैक्रिय शक्ति प्रकट नहीं होती। वह अन्तर्मुहूर्त के बाद पर्याप्तक होकर वैक्रिय शरीर का निर्माण करता है। वैक्रिय शरीर निर्माण के प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है। इस प्रकार सर्वबंध का जघन्य अंतर काल अंतर्मुहूर्त है। कोई वायुकायिक वैक्रिय शक्ति को प्राप्त कर प्रथम समय में सर्वबंधक हुआ। द्वितीय समय में देशबंधक होकर मरा। उससे आगे औदारिक शरीरी वायुकाय में पल्योपम के असंख्येय भाग को बिताकर अवश्य वैक्रिय करता है। उसके प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है। इस प्रकार सर्वबंध का उत्कृष्ट अंतर काल पल्योपम असंख्येय भाग होता है। ३९८. तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउब्विय- तिर्यगयोनिकपञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग- ३९८. 'तिर्यकयोनिक पंचेन्द्रिय वैक्रिय सरीरप्पयोगबंधंतरं-पुच्छा। बन्धान्तरम्-पृच्छा। शरीर प्रयोग बंध के अंतर की पृच्छा। गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अन्तर्मुहर्तम् गौतम! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडीपुहत्तं। उत्कर्षेण पूर्वकोटि पृथक्त्वम्। एवं देश- अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पृथक्त्व पूर्व कोटि है। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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