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भगवई
श.८ : उ.९ : सू. ३९१-३९५ वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे एवं चेव। शरीरप्रयोगबन्धः एवं चैव। असुरकुमारअसुरकुमारभवणवासि - देवपंचिंदिय- भवनवासिदेवपञ्चेन्द्रिय-वैक्रियशरीरवेउब्वियसरीरप्पयोग-बंधे जहा रयण- प्रयोग-बन्धः यथा रत्नप्रभा-पृथिवीप्पभापुढविनेरइ-याणं। एवं जाव नैरयिकाणाम्। एवं यावत् स्तनित-कुमाराः। थणियकुमारा। एवं वाणमंतरा। एवं एवं वानमन्तराः। एवं ज्योतिष्काः। एवं जोइसिया। एवं सोहम्मकप्पोवया सोधर्म-कल्पोपकाः वैमानिकाः। एवं यावत् । वेमाणिया। एवं जाव अच्चुय- अच्युतग्रैवेयक-कल्पातीताः वैमानिकाः। गेवेज्जकप्पातीया वेमाणिया। अणुत्तरो- अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीताः वैमानिकाः ववाइयकप्पातीया वेमाणिया एवं चेव। एवं चैव।
वायुकायिक की भांति वक्तव्य है। इसी प्रकार मनुष्यपंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग बंध की वक्तव्यता। असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग बंध रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक की भांति वक्तव्य है। इसी प्रकार यावत् स्तनित-कुमार, वानव्यंतर और ज्योतिष्क की वक्तव्यता। इसी प्रकार सौधर्म कल्पोपपन्न वैमानिक यावत् अच्युत ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक और अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक की वक्तव्यता।
३९२. वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! किं किं देसबंधे? सव्वबंधे?
देशबन्धः ? सर्वबन्धः? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि। गौतम! देशबन्धोऽपि, सर्वबन्धोऽपि। वाउक्काइयएगिदिय - वेउब्वियसरीर- वायुकायिक-एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगप्पयोगबंधे वि एवं चेव। रयणप्पभा- बन्धोऽपि एवं
चैव। पुढविनेरइया एवं चेव। एवं जाव रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः एवं चैव। एवं अणुत्तरोववाइया॥
यावत् अनुत्तरोपपातिकाः।
३९२. भंते! वैक्रियशरीरप्रयोग बंध क्या देश बंध है? सर्व बंध है? गौतम ! देश बंध भी है, सर्व बंध भी है। इसी प्रकार वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरप्रयोग बंध की वक्तव्यता। इसी प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक यावत् अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक की वक्तव्यता।
३९३. वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते। वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कालतः कालओ केवच्चिरं होइ?
कियच्चिरं भवति? गोयमा! सव्वबंधे जहण्णेणं एक्कं गौतम! सर्वबन्धः जघन्येन एकं समयम, समयं, उक्कोसेणं दो समया। देसबंधे। उत्कर्षेण द्वौ समयौ। देशबन्धः जघन्येन एक जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं समयम, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि तेत्तीसंसागरोवमाई समयूणाई॥ समयोनानि।
३९३. भंते ! वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध काल
की अपेक्षा कितने काल का है? गौतम! सर्वबंध जघन्यतः एक समय उत्कृष्टतः दो समय है। देशबंध जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः एक समय न्यून तैतीस सागरोपम है।
३९४. वाउक्काइयएगिदियवेउब्विय- वायुकायिक-एकेन्द्रियवैक्रियपृच्छा। पुच्छा । गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे गौतम! सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं जघन्येन एकं समयम् उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्त्तम्। अंतोमुहुत्तं॥
३९४. वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के कालमान की पृच्छा।। गौतम! सर्वबंध एक समय, देशबंध जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः अंतर्मुहूर्त
३९५. रयणप्पभापुढविनेरइयपुच्छा।
रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकपृच्छा।
गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समय, देसबंधे गौतम! सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः जहण्णणं दसवाससहस्साई तिस- जघन्येन दशवर्षसहस्राणि त्रिसमयोनानि, मयूणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं उत्कर्षेण सागरोपमं समयोनम्। एवं यावत् समयूणं। एवं जाव अहेसत्तमा, अधःसप्तमी, नवरं-देशबन्धः यस्य या नवरं-देसबंधे जस्स जा जहणिया ठिती जघन्यिका स्थितिः सा त्रिसमयोना कर्त्तव्या सा तिसमयूणा कायव्वा जाव यावत् उत्कर्षिता सा समयोना। पञ्चेन्द्रिय- उक्कोसिया सा समयूणा। पंचिं. तिर्यग्योनिकानां मनुष्यानां च यथा वायु- दियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य कायिकानाम्. असुरकुमार-नागकुमार
३९५. रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के कालमान की पृच्छा। गौतम! सर्वबंध एक समय, देशबंध जघन्यतः तीन समय न्यून दस हजार वर्ष, उत्कृष्टतः एक समय न्यून सागरोपम है। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी की वक्तव्यता, इतना विशेष है-देशबंध में जिसकी जो जघन्य स्थिति है, उसमें तीन समय न्यून कर देना चाहिए यावत् उत्कृष्टतः उसे एक समय न्यून कर देना
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