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श.८ : उ. ९ : सू. ३९८-४००
भगवई एवं देसबंधंतरं पि। एवं मणसस्स वि॥ बन्धान्तरमपि। एवं मनुष्यस्यापि।
इसी प्रकार देशबंध के अंतर की वक्तव्यता। इसी प्रकार मनुष्य वैक्रिय
शरीर प्रयोग बंध के अंतर की वक्तव्यता!
भाष्य १.सूत्र ३९८
तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव वैक्रिय कर प्रथम समय में सर्वबंधक बना। दूसरे सर्वबंध का जघन्य अंतर काल-कोई तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव समय में देशबंधक होकर कालान्तर में मरा। वह पूर्व कोटि आयु वाले वैक्रिय कर प्रथम समय में सर्वबंधक बना। अंतर्मुहर्त्त तक देश बंधक तिर्यंच पंचेन्द्रिय में ही उत्पन्न हुआ। वहां उसने पूर्व जन्म सहित पूर्व रहकर पुनः औदारिक शरीर में सर्वबंधक बना अंतर्मुहर्त्त तक देश कोटि आयु वाले सात-आठ भव किए। सातवें या आठवें भव में वैक्रिय बंधक रहा। फिर उसके मन में वैक्रिय करने की श्रद्धा उत्पन्न हुई। शरीर का निर्माण किया। वहां प्रथम समय में सर्वबंध करता है। इस पुनः वैक्रिय शरीर का निर्माण करता हुआ वह प्रथम समय में प्रकार सर्वबंध का उत्कृष्ट अंतर काल प्रत्येक पूर्व कोटि होता है। सर्वबंधक होता है। इस प्रकार सर्वबंधक का जघन्य अंतर काल देशबंध का अंतर काल सर्वबंध की भांति वक्तव्य है। मनुष्य पंचेन्द्रिय अंतर्मुहूर्त होता है।
वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध का अंतर काल तिर्यंच पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीर सर्वबंध का उत्कृष्ट अंतर काल-पूर्व कोटि आयु वाला कोई प्रयोग बंध के अंतर काल की भांति वक्तव्य है।' ३९९. जीवस्स णं भंते! वाउक्का-इयत्ते, जीवस्य भदन्त! वायुकायिकत्वे, नोवायु- ३९९. भंते! वायुकायिक जीव नो नोवाउकाइयत्ते, पुणरवि वाउकाइयत्ते कायिकत्वे, पुनरपि वायुकायिकत्वे वायु- वायुकायिक में जन्म लेकर पुनः वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियपुच्छा। कायिकएकेन्द्रियवैक्रियपृच्छा।
वायुकायिक में जन्म लेता है। उस अवस्था में वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय
शरीर प्रयोग बंध के अंतर की पृच्छा। गोयमा! सव्वबंधतरं जहणणेणं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अन्त- गौतम! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं- मुंहतम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालं-वनस्पति- अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनंतकाल-वनस्पति वणस्सइकालो। एवं देस-बंधंतरं पि॥ कालः। एवं देशबंधान्तरमपि।
काल है। इसी प्रकार देशबंध के अंतर की वक्तव्यता
४००. जीवस्स णं भंते! रयणप्पभा- जीवस्य भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकत्वे, ४००. भंते ! जीव रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक से पुढविनेरइयत्ते, नोरयणप्पभापुढवि. नोरत्नप्रभापृथिवीनरयिकत्वे, पुनरपि रत्न- नोरत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक में जन्म लेकर नेरइयत्ते, पुणरवि रयणप्पभापुढवि. प्रभापृथिवीनैरयिकत्वे पृच्छा।
पुनः रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक में जन्म लेता नेरइयत्ते-पुच्छा।
है। उस अवस्था में रत्नप्रभा पृी नैरयिक वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के अंतर
की पृच्छा। गोयमा' सव्वबंधंतरंजहण्णेणं दसवास- गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन दशवर्ष- गौतम ! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः सहस्साइं अंतोमुहत्तमब्भ-हियाई, सहस्राणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, उत्कर्षेण अन्तर्मुहर्त अभ्यधिक दस हजार वर्ष, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। देसबंधंतरं वनस्पतिकालः। देशबन्धान्तरं जघन्येन उत्कृष्टतः वनस्पति काल है। देश बंध का जहण्णेणं अंतोमुहृत्तं, उक्कोसेणं अणतं अन्तर्मुहर्तम्. उत्कर्षेण अनन्तं कालं- अंतर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कालं-वणस्सइ-कालो। एवं जाव वनस्पतिकालः। एवं यावत् अधःसप्तमम्याः, अनंतकाल-वनस्पति काल है। इसी अहेसत्तमाए, नवरं-जा जस्स ठिती नवरं-या यस्य स्थितिः जयन्यिका सा प्रकार यावत् अधःसप्तमी की वक्तव्यता, जहणिया सा सव्वबंधंतरं जहण्णेणं सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अन्तर्मुहर्ताभ्यधिका इतना विशेष है-जिसकी जो जघन्य अंतोमहत्त-मब्भहिया कायव्वा, सेसं तं कर्त्तव्या, शेषं तच्चैव। पञ्चेन्द्रियतिर्यग- स्थिति है, उसमें सर्वबंध का अंतर चेव। पंचिंदियतिरिक्खजोणिय- योनिकमनुष्याणां च यथा वायु-कायिका- जघन्यतः अंतर्मुहूर्त अभ्यधिक कर देना मणुस्साण य जहा वाउक्काइयाणं। नाम्।असुरकुमार-नागकुमार यावत् चाहिए, शेष उसी प्रकार वक्तव्य है। असुरकुमार-नागकुमार जाव सहस्सार- सहस्रारदेवानाम्-एतेषां यथा रत्नप्रभा- पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक और मनुष्य देवाणं-एएसिं जहा रयणप्पभा-पुढवि. पृथिवीनैरयिकाणाम्, नवरं--सर्वबन्धान्तरं वायुकायिक की भांति वक्तव्य हैं। नेरझ्याणं, नवरं-सव्वबंधंतरं जस्स जा यस्य या स्थितिः जघन्यिका सा अन्त- असुरकुमार, नागकुमार यावत् सहस्रार
१. म. वृ.८.३०.८।
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