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________________ १०८ श.८ : उ. ७ : सू. २८५-२८७ प्रस्तुत आलापक में निर्दिष्ट अन्ययूथिक किस परम्परा के थे, इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं है। किन्तु असंजय, अविरय, सकिरिय. असंवुड इन पदों के आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि ये अन्ययूथिक श्रमण परंपरा के थे। इन पदों का प्रयोग बौद्ध, सांख्य, तापस अथवा आजीवक परंपरा के साहित्य में ही उपलब्ध हो सकता है। सातवें, सतरहवें और अठारहवें शतक में उपलब्ध नाम सूची के आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि ये अन्ययूथिक सांख्य अथवा आजीवक परम्परा के थे। अधिक संभावना आजीवक संघ की है। राजगृह के बाहर जेतवन के पीछे आजीवकों का बड़ा संघ रहता था। अन्ययूथिकों ने स्थविरों के पास आकर एक चर्चा शुरू की- आप अदत्त का ग्रहण कर रहे हैं, अदत्त का उपभोग कर रहे हैं। गृहस्थ भगवई के द्वारा जो दीयमान है, वह दत्त नहीं होता। दीयमान वर्तमान काल है और दत्त अतीत काल। वर्तमान और अतीत अत्यंत भिन्न होते हैं। गृहस्थ दे रहा है और वह आहार पात्र में अभी गिरा नहीं है। उसे यदि दत्त मानो तो दत्त का ग्रहण माना जा सकता है।' स्थविरों ने इसका प्रतिवाद किया। उन्होंने कहा-क्रिया काल और निष्ठाकाल में अभेद होता है इस सिद्धांत के आधार पर दीयमान दत्त है। हम अदत्त का उपभोग नहीं करते। तुम दीयमान को अदत्त मानते हो, अतः तुम अदत्त का उपभोग कर रहे हो। अन्ययूथिकों ने वर्तमान और अतीत के कालभेद के आधार पर जो आक्षेप किया, स्थविरों ने क्रियाकाल और निष्ठाकाल के अभेद के आधार पर उसे समाहित कर दिया। हिंसं पडुच्च२८५. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जो! तिविहं तिविहेणं अस्संजय-विरयपडिहय-पच्च-क्खायपावकम्मा जाव एगंतबाला या वि भवह।। हिंसा प्रतीत्यततः ते अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान् भगवतः एवमवादिषुः- यूयम् आर्य! त्रिविधं त्रिविधेन असयंत-अविरत-प्रतिहतप्रत्याख्यातपाप-कर्माण: यावत् एकान्तबालाश्चापि भवथ। हिंसा की अपेक्षा २८५. 'उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों से इस प्रकार कहा-आर्यो! तुम तीन योग और तीन करण से असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत एकान्त बाल भी हो। २८६. तए णं ते थेरा भगवंता ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो? ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् अन्य- यूथिकान एवमावादिषु-केन कारणेन आर्य! वयं त्रिविधं त्रिविधेन यावत् एकान्त- बालाश्चापि भवामः? २८६. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! कैसे हम तीन योग और तीन करण से असंयत यावत् एकान्त बाल भी हैं? २८७. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे ततः ते अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान् २८७. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जो! भगवतः एवमवादिषुः-यूयं आर्य! तं से इस प्रकार कहा-आर्यो! तुम गमन रीयं रीयमाणा पुढविं पेच्चेह अभि-हणह रीयमाणाः पृथिवीम् आक्रमथ अभिहथ करते हुए पृथ्वी को आक्रांत, अभिहत, वत्तेह लेसेह संघाएह संघट्टेह परितावेह वर्त्तयथ श्लेषयथ संघातयथ संघट्टयथ क्षुण्ण, श्लिष्ट, संहत, स्पृष्ट, परितप्त, किलामेह उद्दवेह, तए णं तुब्भे पुढवि परितापयथ क्लमयथ उद्वयथ, ततः यूयं क्लान्त और उपद्रुत (प्राण रहित) करते पेच्चेमाणा अभिहण-माणा वत्तेमाणा पृथिवीम् आक्रामन्तः अभिहन्तः वर्तमानाः हो। तुम पृथ्वी को आक्रांत, अभिहत, लेसेमाणा संघाए-माणा संघट्टेमाणा श्लिष्यन्तः संघातयन्तः संघट्टयन्तः परिता- क्षुण्ण, श्लिष्ट, संहत, स्पृष्ट, परितप्त, परितावेमाणा किला-मेमाणा उद्दवेमाणा पयन्तः क्लाम्यन्तः उद्रवन्तः त्रिविधं क्लान्त और उपद्रुत करने के कारण तिविहं तिविहेणं अस्संजय-विरय- त्रिविधेन असंयत-अविरत-प्रतिहत-प्रत्या- तीन योग और तीन करण से असंयत, पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मा जाव ख्यात-पापकर्माणः यावत् एकान्त- अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन एगंत-बाला या वि भवह।। बालाश्चापि भवथ। न करने वाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत् एकान्त बाल भी हो। १. बौन्द्र धर्म और बिहार, श्री धवलदार त्रिपाठी 'सहृदय'-पृ. १९। २. भ. वृ. ८/२७७-दीयमानमदत्तं, दीयमानस्य वर्तमानकालत्वाद् दत्तस्य चातीतकालवर्तित्वाद् वर्तमानातीतयोश्चात्यन्तभिन्नत्वाद्दीयमानं दत्तं न भवनि दलमेव दत्तमिति व्यपदिश्यते एवं प्रतिगृह्यमाणादावपि, तत्र दीयमानं दायकापेक्षयाः प्रतिगृह्यमाणं ग्राहकापेक्षया। ३. वही, ८/२८०-दिज्जमाणे दिन्नं इत्यादि यदुक्तं तत्र क्रियाकालनिष्ठा कालयोरभेदाद्दीयमानत्वादे दत्तत्वादि समवसेयमिति। अथ दीयमानमदनमित्यादेर्भवन्मत-त्वाद् यूयमेवाऽसंयतत्वादिगुणा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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