Book Title: Vaktritva Kala ke Bij
Author(s): Dhanmuni
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मु. विनोद म. सन्मति € वक्तृत्व-कला के ง ਕੀਹ श्री धनमुनि "प्रथम " Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । आ स्म नि वे द न 'मनुष्य को प्रकृति का बदलना अत्यन्त कठिन है' यह मूक्ति मेरे लिए सवा सोलह आना ठीक साबित हुई । बचपन में जब मैं कलकत्ता-श्री जनेश्वेताम्बर-तेरापंथी-विद्यालय में पढ़ता था, जहाँ तक याद है, मुझे जलपान के लिए प्रायः प्रतिदिन एक आना मिलता था। प्रकृति में संग्रह करने की भावना अधिक थी, अतः मैं खर्च करके भी उसमें से कुछ न कुछ बचा ही लेता था । इस प्रकार मेरे पास कई रुपये इकाट्ठे हो गये थे और मैं उनको एक डिब्बी में रखा करता था । विक्रम संवत् १६७६ में अचानक माताजी को मृत्यु होने से विरक्त होकर हम (पिता श्री केवलचन्द जी, मैं, छोटी बहन दीपांजी और छोटे भाई चन्दनमल जी) परमकृपालु श्री कालुगणीजी के पास दीक्षित हो गए। यद्यपि दीक्षित होकर रुपयों-पैसो का संग्रह छोड़ दिया, फिर भी संपत्ति नहीं छूट सकी । वह धनसंग्रह से हटकर ज्ञानसंग्रह की ओर झुक गई। श्री कालुगणी के चरणों में हम अनेक बालक मुनि आगमयाकरण-काव्य-कोष आदि पढ़ रहे थे । लेकिन मेरी प्रकृति इस प्रकार की बन गई थी कि जो भी दोहा-छन्द-श्लोक-ढाल. व्याख्यान-कथा आदि सुनने या पढ़ने में अच्छे लगते, मैं तत्काल । इन्हें लिख लेता या संसार-पक्षीय पिताजी से लिखवा लेता । फलस्वरूप उपरोक्त सामग्री का काफी अच्छा संग्रह हो गया । उसे देखकर अनेक मुनि बिनोद की भाषा में कह दिया करते कि "धन्न तो न्यारा में जाने की (अलग विहार करने को) स्यारी कर रहा है।" उत्तर में मैं कहा करता-"क्या आप गारंटी सकते हैं कि इतने (१० या १५) साल तक आचार्य श्री हमें अपने साथ हो रखेंगे ? क्या पता, कल ही अलग बिहार करने Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन | . मानव जीवन में प्राची की उपलब्धि एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । हमारे प्राचीन आचार्यों की दृष्टि में चाचा ही सरस्वती का अधिष्ठान है, वाचा सरस्वती मिषग्'-बाधा ज्ञान' की अधिष्ठात्री होने से स्वयं सरस्वती रूप है, और समाज के विकृत आचार-विचारवरूप रोगों को दूर करने के कारण यह कुशल वैद्य भी है। अन्तर के भावों को एक दूसरे तक पहुंचाने का एक बहुत बड़ा माध्यम वाचा ही है। यदि मानव के पास वाचा न होती तो, उसकी क्या दशा होती ? क्या वह भी मुकपशुओं की तरह भीतर हो भीतर घुटकर समाप्त नहीं हो जाता ? मनुष्य, जो गूगा होता है, वह पने भावों की अभिव्यक्ति के लिए कितने हाथ-पैर मारता है, फितना छटपटाता है फिर भी अपना सही आशय कहां समझा पाता है दूसरों को ? बोलना वाचा का एक गुण है, किंतु बोलना एक अलग चीज से और वक्ता होना वस्तुतः एकः अला चीज है । बोलने को हर कोई बोलता है, पर वह कोई कला नहीं है, किंतु वक्तृत्व एक कला है। वक्ता साधारण से विषय को भी कितने सुन्दर और मनोहारी म से प्रस्तुत करता है कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। वक्ता के योल श्रोता के हृदय में ऐसे उतर जाते हैं कि वह उन्हें जीवन भर नहीं भूलता। कर्मयोगी श्रीकृष्ण, भगवान्महावीर, तथागतबुद्ध, व्यास और दयाहु आदि भारतीय प्रबचन-परम्परा के ऐसे महान् प्रवक्ता थे, १ यजुर्वेद १९१२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ६ ) जिनकी वाणी का नाद आज भी हजारों-लाखों लोगों के हृदयों को आप्यायित कर रहा है । महाकाल की तूफानी हवाओं में भी उनकी वाणी की दिव्य ज्योति न बुझी है और न बुझेगी । हर कोई दाचा का धारक, वाचा का स्वामी नहीं बन सकता वाचा का स्वामी हो वाग्मी या वक्ता कहलाता है। वक्ता होने के लिए ज्ञान एवं अनुभव का आयाम बहुत ही विस्तृत होना चाहिए । विशाल अध्ययन, मनन-चिंतन एवं अनुभव का परिपाक वाणी को तेजस्वी एवं चिरस्थायी बनाता है । विना अध्ययन एवं विषय की व्यापक जानकारी के भाषण केवल भषण (भोंकना ) मात्र रह जाता है, वक्ता कितना ही चोखे-चिल्लाये, उछले कूदे यदि प्रस्तावित विषय पर उसका सक्षम अधिकार नहीं है, तो वह सभा में हास्यास्पद हो जाता है, उसके व्यक्तित्व की गरिमा लुप्त हो जाती है। इसीलिए बहुत प्राचीनयुग में एक ऋषि ने कहा था-वक्ता शतसहस्रबु अर्थात् लाखों में कोई एक वक्ता होता है । शतावधानी मुनि श्री धनराज जी जैनजगत के यशस्वी प्रवक्ता हैं। उनका प्रवचन वस्तुतः प्रवचन होता है। श्रोताओं को अपने प्रस्तावित विषय पर केन्द्रित एवं मंत्र-मुग्ध कर देना उनका सहज कर्म है । और यह उनका वक्तृत्व — एक बहुत बड़े व्यापक एवं गंभीर अध्ययन पर आधारित है। उनका संस्कृत - प्राकृत भाषाओं का ज्ञान विस्तृत है, साथ ही तलस्पर्शी भी ! मालूम होता है, उन्होंने पांडित्य को केवल छुआ भर नहीं है, किंतु समग्रशक्ति के साथ उसे गहराई से अधिग्रहण किया है। उनकी प्रस्तुत पुस्तक 'वक्तृत्वकला के बीज' में यह स्पष्ट परिलक्षित होता है । मादि प्राचीन प्रस्तुत कृति में जैन आगम, बौद्धवाङ्मय, वेदों से लेकर उपनिषद ब्राह्मण, पुराण, स्मृति आदि वैदिक साहित्य तथा लोककथानक, कहायतें, रूपक, ऐतिहासिक घटनाएँ, ज्ञान-विज्ञान की उपयोगी चर्चाएँ- Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १६। सप्रकार शृंखलाबद्ध रूप में संकलित है कि किसी भी विषय पर हम बहुत कुछ विचार सामग्री प्राप्त कर सकते हैं। सचमुच यस्तृत्वकला के अगणित बीज इसमें ग़ निहित हैं । सूक्तियों का तो एक प्रकार से यह रत्नाकर ही है । अंग्रेजी साहित्य व अन्य धर्मग्रंथों के उद्धरण : भी काफी महत्वपूर्ण हैं। कुछ प्रसंग और स्थल तो ऐसे हैं, जो केवल सूक्ति और सुभाषित ही नहीं है, उनमें विषय की तलस्पर्शी गहराई भी है और जमपर गे कोई भी अध्येता अपने ज्ञान के आयाम को और अधिक व्यापक बना सकता है । लगता है, जैसे मुनि श्री जी वाङ् मय के रूप में विराट् पुरुष हो गए हैं। जहां पर भी हष्टि पड़ती भाई हैं, कोई-न-कोई मन ऐसा हो जाता है जो हृदय को छू जाता है और यदि प्रवक्ता प्रसंगत: अपने भाषण में उपयोग करें, तो अवश्य ही श्रोताओं के मस्तक झूम उठेंगे । । प्रश्न हो सकता है—'वक्तृत्वकला के बीज' में मुनि श्री का अपना क्या है ? यह एक संग्रह है और संग्रह केवल पुरानी निधि होती है; परन्तु मैं कहूँगा कि फूलों की माला का निर्माता माली जब विभिन्न जाति एवं विभिन्न रंगों के मोहक गुरुपों की माला बनाता है तो उसमें उसका अपना क्या है ? विखरे फूल, फूल हैं, माली नहीं । । माला का अपना एक अलग ही विलक्षण मौन्दर्य है । रंग-बिरंगे फूलों इ. का उपयुक्त चुनाव • करना और उनका कलात्मक रूप में संयोजन करना- यही तो मालाकार का कर्म है, जो स्वयं में एक विलक्षण एवं विशिष्ट कलाकर्म है। मुनि श्री जी वक्तृत्वकला के बीज में ऐसे ही विलक्षण मालाकार हैं । विषयों का उपयुक्त चयन एवं तत्सम्बन्धित सूक्तियों आदि का संकलन इतना शानदार हुआ है कि इस प्रकार का संकलन अन्यत्र इस रूप में नहीं देखा गया। एफ वात और---श्री चन्दनमुनि जी की संस्कृत-प्राकृत रचनाओं ने मुझं ग्रयावसर काफी प्रभावित किया है। मैं उनकी विद्वत्ता का । प्रशंसक रहा है। श्री धनमुनि जी उनके बड़े भाई हैं—जब यह मुझे Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात हुआ तो मेरे हर्ष की सीमाओं का और भी अधिक विस्तार हो गया। अब मैं कैसे कहूं कि इन दोनों में कौन बड़ा है और कौन छोटा ? अच्छा यही होगा कि एक को दूसरे से उपमित कर दूं। उनकी बहुचतता एवं इनकी संग्रह-कुशलता से मेरा मन मुग्ध हो गया है । ___ मैं मुनि श्री जी, और उनकी इस महत्वपूर्णकृति वा हृदय से अभिनन्दन करता है। विभिन्न भागों में प्रकाशित होने वाली इस विराट् कृति से प्रवचनकार, लेखक एवं स्वाध्यायप्रेमीजन मुनि श्री के प्रति ऋगी रहेंगे । वे जब भी चाहेंगे, वक्तत्व के वीज में से उन्हें कुछ मिलेगा ही, ये रिक्तहस्त नही हो ऐसा मेरा विश्वास प्रवक्त-समाज-मुनि श्री जी का एतदर्थ आभारी है और आभारी रहेगा। जैन भवन आश्विन शुक्ला-३ जागा --उपाध्याय अमरमुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तृत्रमुप एक कला है, और वह बहुत बड़ी साधना की अपेक्षा करता है। आगम का ज्ञान, लोकव्यवहार का ज्ञान, लोकमानस का ज्ञान और समय एवं परिस्थितियों का ज्ञान तथा इन सबके साथ निस्पृहता, निर्भयता, स्वर की मधुरता, ओजस्विता आदि गुणों की साधना एवं विकास से ही वक्तृत्वकला का विकास हो सकता है, और ऐसे वक्ता वस्तुतः हजारों लाखों में कोई एकाध ही मिलते है । तेरापंथ के अधिशास्ता युगप्रधान आचार्य श्रीतुलसी में वक्तृत्वकला के ये विशिष्ट गुण चमत्कारी ढंग से विकसित हुए हैं। उनकी वाणी का जादू श्रोताओं के मन-मस्तिष्क को आन्दोलित कर देता है । भारतवर्ष की सुदीर्घ पदयात्राओं के मध्य लाखों नर-नारियों ने उनकी ओजस्विनी वाणी सुनी है और उसके मधुर प्रभाव को जीवन में अनुभव किया है । प्रस्तुत पुस्तक के लेखक मुनि श्री धनराजजी भी वास्तव में वक्तृत्वकला के महान गुणों के बनी एक कुदाल प्रवक्ता संत हैं। वे कवि भी हैं, गायक भी हैं, और तेरापथ शासन में सर्वप्रथम अवधानकार भी है; इन सबके साथ-साथ बहुत बड़े विद्वान तो हैं ही। उनके प्रवचन जहां भी होते हैं, श्रोताओं की अपार भीड़ उमड़ आती है। आपके बिहार करने के बाद भी श्रोता आपकी याद करते रहते हैं । आपकी भावना है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी बक्तृत्वकला का विकास करें और उसका सदुपयोग करें, अतः जनसमाज के लाभार्थं आपने वक्तृत्व के योग्य विभिन्न सामग्रियों का यह विशाल संग्रह प्रस्तुत किया है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) बहुत समय से जनता की, विद्वानों की और वक्तृत्वकला के अभ्यासियों की मांग थी कि इस दुर्लभ सामग्री का जनहिताय प्रकाशन किया जाय तो बहुत लोगों को लाभ मिलेगा । जनता की भावना के अनुसार हमने मुनिश्री की इस सामग्री को धारणा प्रारंभ किया । इस कार्य को सम्पन्न करने में श्री डोंगरगढ़, मोमासर, भादरा, हिसार, टोहाना, नरवाना. कैथल, हांसी, भिवानी, तोसाम, ऊमरा, सिसाय, जमालपुर, सिरसा और भटिंडा आदि के विद्यार्थियों एवं युवकों ने अथक परिश्रम किया है। फलस्वरूप लगभग सौ कापियों व १५०० विषयों में यह सामग्री संकलित हुई है। हम इस विशाल संग्रह को विभिन्न भागों में प्रकाशित करने का संकल्प लेकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुए हैं । वक्तृत्वकला के बीज का यह चौथा भाग पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है । इसके प्रकाशन का समस्त अर्थभार श्री एस० बी० ० एंड कंपनी, अहमदाबाद ने वहन किया है । से इस अनुकरणीय उदारता के लिए हम उनके हृदय आभारी हैं । इसके प्रकाशन एवं प्रूफ संशोधन आदि में श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' तथा श्री ब्रह्मदेवसिंह जी आदि का जो हार्दिक सहयोग प्राप्त हुआ है— उसके लिए भी हम हृदय से कृतज्ञता-ज्ञापित करते हैं। आशा है यह पुस्तक जन-जन के लिए, बक्ताओं और लेखकों के लिए एक इनसाइक्लोपीडिया ( विश्वकोश ) का काम देगी और युग-युग तक इसका लाभ मिलता रहेगा... Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का फरमान करदं । व्याख्यानादि का संग्रह होगा तो धर्मोपदेश या धर्म-प्रचार करने में सहायता मिलेगी।" समय-समय पर उपरोक्त साथी मुनियों का हास्य-विनोद चल ही रहा था कि वि० सं० १९८६ में श्री कालुगणी ने अचानक ही श्रीकेबलमुनि को अग्रगण्य बनाकर रतननगर (थेलासर) चातुर्मास करने का हुक्म दे दिया। हम दोनों भाई (मैं और चन्दन मुनि) उनके साथ थे। व्याख्यान आदि का किया हुआ संग्रह उत्त चातुर्मास में बहुत काम आया एवं भविष्य के लिए उत्तमोत्तम ज्ञानसंग्रह करने की भावना बलवती बनी । हम कुछ वर्ष तक पिताजी के साथ विचरते रहे । उनके दिवगत होने के पश्चात दोनों भाई अग्रगण्य के रूा में पृथक्-पृथक् विहार करने लगे। विशेष प्रेरणा-एक बार भने "वक्ता बना नाम की पुस्तक पढ़ी । उसमें वक्ता बनने के विषय में खासी अच्छी बातें बताई हुई थीं। पढ़ते-पढ़ते यह पंक्ति दृष्टिगोचर हुई कि "कोई भी ग्रन्थ या शास्त्र पढ़ो, उसमें जो भी बात अपने काम को लगे, उसे तत्काल लिख लो।" इस पंक्ति ने मेरी संग्रह करने की प्रवत्ति को पूर्वापेक्षया अत्यधिक तेज बना दिया । मुझे कोई भी नई युक्ति, सुक्ति या कहानी मिलती, उसे तुरंत लिख लेता । फिर जो उनमें विशेष उपयोगी लगती, उसे औपदेशिक भजन, स्तवन या व्याख्यान के रूप में गूथ लेता । इस प्रवृत्ति के कारण मेरे पास अनेक भाषाओं में निबद्ध स्वरचित सैकड़ों भजन और सैकड़ों व्याख्यान इकट्ठे हो गए | फिर जैन-कथा साहित्य एवं तात्त्विकसाहित्य की ओर रुचि बढ़ी । फलस्वरूप दोनों हो विषयों पर अनेक पुस्तकों की रचना हुई । उनमें छोटी-बड़ी लगभग २६ पुस्तकें तो प्रकाश में आ चुकी, शेष ३०-३२ अप्रकाशित ही हैं। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) एक बार संगृहीत- सामग्री के विषय में यह सुझाव आया कि यदि प्राचीन संग्रह को व्यवस्थित करके एक ग्रन्थ का रूप ये दिया जाए, तो यह उत्कृष्ट उपयोगी चीज बन जाए। मैंने इस सुझाव को स्वीकार किया और अपने प्राचीन संग्रह को व्यवस्थित करने में जुट गया। लेकिन पुराने संग्रह में कौन-सी सूक्ति, श्लोक या हेतु किस ग्रन्थ या शास्त्र के है अथवा किस कवि, वक्ता या लेखक के हैं - यह प्रायः लिखा हुआ नहीं था । मतः ग्रन्थों या शास्त्रों आदि को साक्षियां प्राप्त करने के लिए इन आठ-नौ वर्षों में वेद, उपनिषद्, इतिहास, स्मृति, पुराण, कुरान, बाइबिल, जैनशास्त्र, बौद्धशास्त्र, नीतिशास्त्र, विद्यकशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, शकुनशास्त्र, दर्शनशास्त्र, संगीतशास्त्र तथा अनेक हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, राजस्थानी, गुजराती मराठी एवं पंजाबी सूक्तिसंग्रहों का ध्यानपूर्वक यथासम्भव अध्ययन किया। उससे काफी नया संग्रह बना और प्राचीन संग्रह को साक्षी सम्पन्न बनाने में सहायता मिली। फिर भी खेद है कि अनेक सूक्तियाँ एवं श्लोक आदि बिना साक्षी के ही रह ए प्रयत्न करने पर भी उनकी साक्षियां नहीं मिल सकीं । मिन-जिन की साक्षियां मिली हैं, उन-उनके आगे वे लगा दी हुई हैं। जिनकी साक्षियां उपलब्ध नहीं हो सकीं, उनके आगे आन रिक्त छोड़ दिया गया है। कई जगह प्राचीन संग्रह के आधार पर केवल महाभारत वाल्मीकि रामायण, योग-शास्त्र दि महान् ग्रन्थों के नाममात्र लगाए हैं: अस्तु ! 5 त या FRE - इस ग्रंथ के संकलन में किसी भी मत या सम्प्रदाय विशेष खण्डन- मण्डन करने की दृष्टि नहीं है, केवल यही दिखलाने प्रयत्न किया गया है कि कौन क्या कहता है या क्या मानता यद्यपि विश्व के विभिन्न देशनिवासी मनीषियों के मतों सिंकलन होने से ग्रन्थ में भाषा की एकरूपता नहीं रह Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकी है । कहीं प्राकृत-संस्कृत, पारसी, उर्दू एवं अंग्नेजी भाषा है तो कहीं हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, पंजाबी और बंगाली भाषा के प्रयोग हैं, फिर भी कठिन भाषाओं के श्लोक, वाक्य आदि का अर्थ हिन्दी भाषा म कर दिया गया है । दूसर प्रकार से भी इस नन्थ में भाषा की विविधता है। कई ग्रन्थों, कवियों, लेखकों एवं विचारकों ने अपने सिद्धान्त निरवद्यभाषा में व्यक्त किए हैं तो कई साफ-साफ सावद्यभाषा में ही बोले हैं । मुझे जिस रूप में जिसके जो विचार मिले हैं, उन्हें मैंने उसी रूप में अंकित किया है, लेकिन मेरा अनुमोदन केवल निर्वद्य-सिद्धान्तों के साथ है। ग्रन्थ की सर्वोपयोगिता-इस ग्रन्थ में उच्चस्तरीय विद्वानों के लिए जहाँ जैन-बौद्ध आगमों के गम्भीर पद्य हैं, वेदों, उपनिषदों के अद्भुत मंत्र हैं, स्मृति एवं नीति के हृदयनाही श्लोक हैं वहाँ सर्वसाधारण के लिए सीधी-सादी भाषा के दोहे, छन्द, सुक्तियाँ, लोकोक्तियाँ, हेतु, दृष्टान्त एवं छोटी-छोटी कहानियाँ भी हैं । अतः यह नन्थ निःसंदेह हर एक व्यक्ति के लिए उपयोगी सिद्ध होगा- ऐसी मेरी मान्यता है । वक्ता, कवि और लेखक इस ग्रन्थ से विशेष लाभ उठा सकग, क्योंकि इसके सहारे वे अपने भाषण, काव्य और लेख को ठोस, सजीव, एवं हृदयग्नाही बना सकेंगे एवं अद्भुत विचारों का विचित्र चित्रण करके उनमें निखार ला सकंग, अस्तु ! प्रन्थ का नामकरण-...इस ग्रन्थ का नाम वक्तृत्वकला के बीज रखा गया है । वक्तृत्वकला की उपज के निमित्त यहाँ केवल बीज इकट्ठे किए गए हैं। बीजों का वपन किसलिए, कैसे, कब और कहां करना-यह बप्ता (बीच बोनेवालों) की भावना एवं बुद्धिमत्ता पर निर्भर करेगा । फिर भी मेरी मनोकामना तो यही है कि वप्ता परमात्मपदप्राप्ति रूप फल । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए शास्त्रोक्तविधि से अच्छे अवसर पर उत्तम क्षेत्रों में इन बीजों का वपनं करेंगे । अस्तु ! यहाँ मैं इस बात को भी कहे बिना नहीं रह सकता कि जिन ग्रन्थों, लेखों, समाचार पत्रों एवं व्यक्तियों से इस सन्थ के संकलन में सहयोग मिला है-वे सभी सहायक रूप से मेरे लिए चिरस्मरणीय रहेंगे। यह ग्रंथ कई भागों में विभक्त है एवं उनमें सैकड़ों विषयों का संकलन है । उक्त संग्रह बालोतरा मर्यादा-महोत्सव के समय मैंने आचार्य श्रीतुलसी को भेंट विया । उन्होंने देखकर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की हर पारायः कि इस छोट-छोटी कहानि एवं घटनाएँ भी लगा देनी चाहिये ताकि विशेष उपयोगी बन जाए । आचार्य श्री का आदेश स्वीकार करके इसे संक्षिप्त कहानियाँ तथा घटनाओं से सम्पन्न किया गया। मुनिश्री चन्दनमलजी, डूगरमलजी, नथमलजी, नगराज जी, मधुकरजी, राकेशजी, रूपचन्दजी आदि अनेकः साधु एवं साध्वियों ने भी इस ग्रन्थ को विशेष उपयोगी माना। बीदासरमहोत्सव पर कई संतों का यह अनुरोध रहा कि इस संग्रह को अवश्य धरा दिया जाए। सर्व प्रथम वि० सं० २०२३ में श्री गरगढ़ के श्रावकों ने इसे धारणा शुरू किया । फिर थली, हरियाणा एवं पंजाब के अनेक ग्रामों-नगरों के उत्साही युवकों ने तीन वर्षों के अथकपरिश्रम से धारकर इसे प्रकाशन के योग्य बनाया । __ मुझे दृढविश्वास है कि पाठकगण इसके अध्ययन, चिन्तन एवं मनन से अपने बुद्धि-वैभव को क्रमशः बढ़ाते जायेंगेवि० सं० २०२७ मृगसर बदी ४ मंगलवार, रामामंडी, (पंजाब) -धनमुनि 'प्रथम' Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पहला कोष्ठक पृष्ठ १ से ७७ १ विवेक, २ विवेक-महिमा, ३ विवेकी, ४ अविवेकी, ५ विवेकहीन, ६ चिन्तन-मनन, ७ विचार, ८ सम्मति-सलाह, ६ आवश्यकसलाहूँ, १० सलाह के विषय में विविध, ११ उपदेश, १२ कला, १३ विविध कलाएँ, १४ कविता, १५ कविता का महत्व, १६ अच्छी कबिता, १७ कविता-विरोध, १८ कवि, १६ कवि-प्रशंसा, २० कावियों की प्रकृति, २१ कवियों की शक्ति, २२ कवियों के लिये विचारणीय बातें, २३ निन्दनीय कवि, २४ विभिन्न भाषाओं के महान् कबि, २५ रसिक श्रोताओं के अभाव में कषि, २६ निर्भीक कवि गंग, २७ प्राचीन एवं आधुनिक कपि, २८ महान् कवि, २६ कल्पना, ३० कल्पना के उदाहरण, ३१ कहावतें, ३२ साहित्य, ३३ इतिहास, ३४ संयोजक, ६५ लेखक , ३६ बुरे लेखक, ३७ लेखनी, ३८ अध्ययन, ३६ स्वाध्याय, ४० अनाध्याय, ४१ अधिक अध्ययन' । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा कोष्ठक पृष्ट ७८ मे १४.५ १ पुस्तक शास्त्र, २ पुस्तको का चयन, ३ विभिन्न दर्शनों के धर्मग्रन्य, ४ प्रामाणिक ग्रन्थ, ५ युक्ति एवं न्याय में अन्धों की प्रामाणिकता, ६ पुस्तक प्रकाशन, ७ विश्व के प्रख्याल पुस्तकालय, ८ अनु'मन, ६ अनुभवहीन, १० परीक्षा, ११ परीक्षा आवश्यक, १२ परीक्षाविधि, १३ परीक्षा का समय, १४ दर्शन, १५ आस्तिक, १६ नास्तिक, १७ नास्तिकों का कथन, १८ सम्यगदर्शन-सम्यक्त्व, १६ सम्यकत्व को दुर्लभता, २० सम्यकत्व से लाभ, २१ सम्यक्त्व का महत्व, २२ सम्यग दृष्टि, २३ श्रद्धा, २४ श्रद्धावान, २५ अश्रद्धावान् शिकापील) २६ संशय (का), २७ विश्वास, २८ विश्वास के अयोग्य, २६ विश्वासपात, ३० मिन्यादर्शन (मिथ्यात्व), ३१ मिथ्यात्व के भेद ३२ मिथ्यादृष्टि । तीसरा कोष्ठक पृष्ठ १४८ से १२१ १ तत्व, २ द्रव्य, ३ नय-प्रमाण, ४ निश्चय व्यवहार राय, ५ स्पायाय, ६ उताग-'अपवाद, सिद्धान्त, ८ चारित्र, ६ चारित्र को महत्व, १० ज्ञान के साथ चारित्र आवश्यक, ११ चारित्र की रक्षा, । १२ चरित्र से लाभ, १३ त्याग, १४ त्याग के भेद, १५ त्यागी, १६ प्रत्याख्यान, १७ आचार (आचरण), १८ आचरण' बिना ज्ञान, १६ आचारधान, २० आचारहीन, २१ कायन के समान आचरण आवश्यक, २२ शील, २३ वत, २४ महायत, २५ सभ्यता, २६ योग, ९७ योग महिमा, २८ योगी, २६ योगियों के चमत्कार । बौथा कोष्ठक पृष्ठ २२२ से ३३६ । १ संयम, २ संयम से लाभ, ३ संयम की दुष्करता, ४ संयम में सुख-दुख, ५ संयम दीक्षा का समय आदि, ६ संयम से भ्रष्ट होने के अठारह स्थान, ७ संयम के भेद, ८ साधना, ६ साधु, १० मुनि, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अनगार, १२ भिक्षु, १३ श्रमण, १४ निग्रन्थ, १५ स्थदिर, १६ तापस, १७ फकीर, १८ संत, १६ कतिपय जगप्रसिद्ध संत महात्मा, २० माधुओं के गुण, २१ साधु संगति, २२ संतों का संताप, २३ साधुओं की गोवरी, २४ गोचरी के भेद, २५. गोचरी के नियम, २६ साधु का आहार, २७ आहार किसलिए, २८ साधुओं का निवास स्थान, २६ साधुओं के वस्त्र ३० साधुओं के पात्र ३१ साधुओं का विहार, ३२ माधु की भाषा, ३३ साधुओं के लिए कल्प-अकल्प, ३४ माधुओं के सुख, ६५ साधुओं के बारह तभी का कि ३६ साधुओं को शिक्षा, ३७ नामधारी साधु, ३८ पापी साघु, ३६ कंदादि में लीन साघुओं की गति । चार कोष्ठकों में कुल १४१ विषय तथा इस भागों में लगभग १५०० बिषय हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला कोष्टक विवेक हेयोपादेयज्ञानं विवेकः । त्यागने योग्य एवं ग्रहण करने योग्य वस्तु के ज्ञान को विवेक कहते हैं। २. विवेक केवल सत्य में पाया जाता है। —गेटे ३. उड़ने की अपेक्षा जब हम झुकते हैं, तब विवेक के अधिक निकट होते हैं। -वसवर्ष ४. अपने विवेक को अपना शिक्षक बनाओ ! शब्दों का कर्म से और कर्मों का शब्दों से मेल कराओ। -शेक्सपीयर विवेक के नियमों को सीखकर, जो उन्हें जीवन में नहीं उतारता, उसने खेत में मेहनत करके भी बीज नहीं डाला। --शेखसादी समझा-समझा एक है, अनसमझा सब एक । समझा सो ही जानिए, जाके हृदय विवेक ।। —कबीर * ईर्ष्या हि विवेकपरिपन्थिनी । -कथासरित्सागर हया ही विवेक की शत्र है। मदमूढ-बुद्धिषु विवेकिता कुतः ! ---शिशुपालवध मस से मोहित बुद्धिवालों में विवेक कहां ! यौवन और सौन्दर्य में विवेक कदाचित् ही होता है। -होमर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेक-महिमा १. विवेगे धम्ममाहिए। विवेक में धर्म कहा गया है । २. विवेको मुक्तिसाधनम् । विवेक मुक्ति का साधन है। ३. विवेको गुरुवत् सर्वं, कृत्याकृत्यं प्रकाशयेत् । विधेक गुरु की तरह इला इत्य का दिगवाता है । ४. निर्वातहृद्-गेहगतः प्रकाशयेत्, सर्वेप्सितं वस्तुविचारदीपकः । ब्रह्मानन्व चञ्चलतारूप वायु से रहित हृदयमंदिर में विवेकरूप दीपक समस्त इच्छित वस्तुओं को प्रकाशित करता है । ५. एको हि चक्ष रमलः सहजो विवेकः । विवेक एक स्वाभाविक निर्मल नत्र है । कोर्टसी कोस्टस् नथिंग एडवाइज एबीथिंग । -अप्रेमी हहावत विवेक के लिए एक पाई भी नहीं लगती, किन्तु इससे हरएक चीज खरीदी जा सकती है । ७. न विवेक विना ज्ञानमः । विवेक के बिना ज्ञान नहीं होता । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा भाग पहला कोष्ठक म. अग्नि के अंश बिना फूंक नहीं लगती, श्वास के बिना दवा नहीं लगती और कान आदि के बिना सुनना - देखना आदि कार्य नहीं होता – ऐसे ही विवेक के बिना व्यवहारिक या धार्मिक उन्नति नहीं होती । खाना पीना, पहनना, ओढ़ना, सोना, उठना बैठना, बोलना, चलना, पढ़ता, लिखना, हंसना, रोना आदि व्यवहारिक कार्य तथा ज्ञानचर्चा, व्याख्यान, सामायिक, पौषध, गुरुवन्दन, सेवा-भक्ति, तपस्या एवं दान, आदि धार्मिक कार्य करना, इन सभी कार्यों में विवेक की जरूरत है। किसी ने कहा भी है आलस्य में पशुला, क्रिया में जीवन और विवेक में मनुष्यता है । ववकी को उपदेश नहीं लगता । " } Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ विवेकी १. कायं परोपकाराय, धारयन्ति विवेकिनः । -धर्मफल्पत्रम विधेकी पुरुष परोपकार के लिए ही शरीर धारण करता है । २. विवेक दृष्ट्या चरतां जनानां, श्रियो न किचिद् विपदो न किंचिद् । विवेकपूर्वक आचरण करनेवालों के लिए संपत्ति हर्षदायक नहीं होती और विपत्ति दुःखदायफ नहीं होती। विवेकिनमनुप्राप्ता, गुणा यान्ति मनोजताम् । सुतरां रत्नमाभाति, त्रामीकरनियोजितम् ।। -चाणक्यनीति १६९ मोने में जड़े हुए. रत्नों की तरह गुण विवेकी को पाकर अत्यधिक चमकने लगते हैं। ४. विवे किनां विवेकस्य, फलं ह्यौचित्यबर्तनम् । ... त्रिषष्टिशलाका ३१ उचित व्यवहार करना हो विवेकियों के विवेक का फल है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अविवेकः परमापदां पदम् । अविवेक आपत्तियों का मुख्य स्थान है । २. नास्त्य विवेकात् परः प्राणिनां शत्रुः । ४. अविवेक - महाकवि मारवि अविवेक से बढ़कर प्राणियों का कोई शत्रु नहीं है । ३. जड़ जड़ता के वश पड़े करते क्रिया अनेक | क्रिया विक्रिया हो रही, चन्दन बिना विवेक ! , - नीतिवाक्यामृत १०१४५. ५ - तावती: धन जोवन अरु ठाकरी, तिण ऊपर अविवेक । ऐ च्यारू' मेला हु, (तो) अनरथ करें अनेक || Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ विवेकहीन १. विवेकान्धो हि जात्यन्धः । -योगवाशिष्ठ १४।४१ जो पुरुष विवेकान्ध (विवेकरूपी नेत्रों से हीन) है, वह जन्मान्ध है। शिरः शावं स्वर्गात् पतति शिरसस्तत्क्षितिधरं । माहीध्रादुत्त ङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।। अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा । विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।। -मर्तृहरि-नीतिशतक १० स्वगं से घ्युत होकर शिवजी के सिर पर, शिवजी के सिर से हिमालय पर, हिमालय मे पृथ्वी पर और फिर पृथ्वीतल से समुद्र में गिरती हुई घही गंगा लघुपद को प्राप्त हुई । वास्तव में विवेक भ्रष्ट पुरुषों का पतन सफड़ों प्रकार से होता है । ३. पुरेसा विवेकहीनानां, सेक्या न धनार्जनम्। विवेकहीन पुरुषों की सेवा करने से धन नहीं हुआ करता । ४. फूटी आंख विवेक की, लखै न सन्त-असन्त । जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तन-मनन १. आत्मा का अपने साथ बात-चीत करना ही मनन है । -लेटो २. मनन विचार की परिचारिका है और विचार मनन का भोजन । -सी० सिमन्स ३. धर्मशास्त्रों का मात्र पाठ करना दूसरों की गायें गिनने के समान है। ४. कालेण य अहिज्जित्ता, तओ झाइज एगगो । -उत्तराध्यवन १।१० पथासमय अध्ययन करके फिर उसमे तत्त्व का ध्यान-चिन्तनमनन करना चाहिए। चिन्तन की तीन भूमिकाएँ१. जो सोच नहीं सकता, वह मूर्ख है। २, जो सोचना नहीं चाहता, वह अन्धविश्वासी है। ३. जिसमें सोचने का साहस नहीं, वह गुलाम है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 विचार १. कोहं कथमयं दोषः, संसाराख्य उपागतः । न्यायेनेति परामों, विचार इति कथ्यते ।। ___ - योगवाशिष्ठ २।५० में कौन हूं? मेरे में यह संसाररूपी दोष कैसे आया ? शास्त्रिकन्याय से-ऐसे सोचने को विचार कहा जाता है । श्रोतव्ये च कृतौ कणों, वागबुद्धिश्च विचारणे । यः च तं न विचारत, स कार्य विन्दते कथम् ।। कान सुनने के लिए किए गये हैं और वाणी एव बुद्धि निचारने के लिए । जो मनुष्य सुनी हुई बात पर विचार नहीं करता, उसे कार्यरूप फल कैसे मिल सकता है ! ३. विचाराद् ज्ञायते तत्त्वं, तत्त्वाद्विश्रान्तिरात्मनि । - योगवाशिष्ठ २१४५३ विचार से तत्त्वज्ञान होता है और उससे आत्मा को विथाम मिलता है । ४. बलं बुद्धिश्च तेजश्च, प्रतिपत्तिः क्रियाफलम् । फलन्त्येतानि सर्वाणि, विचारेणब धीमताम् ।। ---योगवाशिष्ठ २ विद्वानों के बल, बुद्धि, तेज, समय के योग्य स्फूति, क्रिया एवं उसके फल-ये सभी कार्य विचार से ही सफल होते हैं। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग पहला कोष्ठक ५. महान् विचार जब कार्य के रूप में परिणत होते है तो वे महान् कार्य वन जाते हैं । - हैजलिट संसार न कुछ भला है, न कुछ बुरा है । हमारे विचार ही उसे भला-बुरा बनाते हैं । - शेक्सपियर ७. आत्मा के विचार पानी हैं। उसमें गन्दगी मिलना पाप - एवं सुगन्धि मिलना पुण्य है । ८. मनुष्य वैसा ही बन जाता है, जैसे उसके विचार होते हैं। बाइबिल ६. विचार जब आचार की देहली में प्रविष्ट होते हैं, तब सुरक्षित बन जाते हैं। - जीवनसौरभ १०. विचार मर्यादापूर्ण, सहानुभूतिमूलक और परिमित होने से हो समाहत होता है । - हरिऔध - एमर्सन ११. हमारे सर्वोत्तम विचार दूसरों की देन हैं । १२. वह मुझे सुन्दर उपहार देता है, जो मुझे अपूर्व विचार सुनाता है। नवी १३. जैसे आप महान् विचारवान है, वैसे ही करके दिखाने वा बनें । - शेक्सपियर १४. सोचना शान्ति से और करना तेजी से । - जवाहरलाल नेहरू Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्विचार 4. सद्विचार नमक है और आचार भोजन है, सद्विचार सिकोरा है और दानादि क्रियाएं उसमें तेल-बत्ती हैं। २. सद्विचारों की दृढ़ता से शारीरिक विकारों का नाश, सत्कर्म में प्रेम और दृढ़ विश्वास होता है। सविश्वास की दृढ़ता से मलिनवासनाओं का नाश, क्षमा, दया, घोरज, अनुराग की उत्पत्ति और सग्निदध्यास-प्रभुनाम की स्मृति में दृढ़ प्रयत्न होता है । सन्निदध्यास की दृढ़ता से अशुभकामनाओं का नाश, निष्कामभाव में वृद्धि, नश्वर-भोगों से पूर्ण वैराग्य और सत्तत्त्वों का अनुभव होता है । सततस्वानुभव की दृढ़ता से समर्पणबुद्धि, अहंभाव का सवनाश होता है और सस्थिति की प्राप्ति होती है व स्थूलसंसार का मोह नष्ट होता है । सस्थिति से तमाम दुर्मति नष्ट होकर आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप में लीन हो जाती है । यह अवस्था निन्द, गुणातीत, अतर्क व अद्ध त कहलाती है। -एक वैविक विद्वान Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग: पहला कोष्ठक असद्विचार ३. हमें अपने फोड़ों-गिल्टियों से छुटकारा पाने की चिन्ता न करके अपने गलत विचारों से पिंड छुड़ाने की परवाह करनी चाहिए। - वार्शनिक एपिक्टेट्स ४. खुराक की बदहजमी के लिए तो दवा है, पर विचारों की बदहजमी आत्मा को बिगाड़ देती है । - गांधी ५. विचारों की शुद्धि तब हो सकती है, जब वे हवा की तरह उड़कर सबके हृदय लगें, चांदनी की तरह सबकी ऑंखें ठंडी करदें । --- एक विचारक विचारों का परिवर्तन- ६. अनुभव, ज्ञान, उन्मेष और वयस् मनुष्य के विचारों को - हरिऔष बदलते हैं । केवल मूर्ख और मृतक दो ही अपने विचारों को नहीं बदल सकते | -- लावेल 19. ११ · Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मति (सलाह) १. नेवरगिव एडवाइस अनलेस आस्कड़ । -जर्मन-लोकोक्ति जब तक पूछा न जाय, कभी सलाह मत दो ! २. शुभं वा यदि वा पाप, दुष्यं वा यदि वा प्रियम् । अपृष्दस्तस्य तद् ब्रूयाद्, यस्य नेच्छेत् पराभवम् ॥ -विदुरनीति २।४ मनुष्य को चाहिए कि वह जिसकी पराजय नहीं चाहता, उसको बिना पूछे भी कल्याण करनेवाली या अनिष्ट-करने बाली प्रिय अथवा अप्रित्र जो भी वान हो, बता दे ! ३. भीड़ के स्थल पर सलाह मत दो ! --अरबी-लोकोक्ति ४. कोई सलाह ले तो युधिष्ठिर की तरह उसके हित की दो, न कि अपने हित की, क्योंकि वह अपने हित के लिए पूछता है, न कि तुम्हारे हित के लिए। जैसे किसी के हाथ, पैर, कान, नाक, जीभ आदि काटना एवं आंखें फोड़ना महापाप है, उसी प्रकार बुरी सलाह देकर किसी का हिया फोड़ना भी महापाप है । १२ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थप भाग : पहला कोष्ठक ६. सीख देकर व्यक्ति को सन्मार्ग पर चढ़ाना जितना बड़ा पुण्य है, उन्मार्ग पर चढ़ाना उससे भी बढ़कर पाप है। ७. न तो किसी को युद्ध में जाने की सलाह दो, न विवाह - ... करने को। -स्पेनी-सोकोक्ति 6 ... जिसे हर कोई देने को तैयार रहता है, पर लेता कोई नहीं—ऐसी चीज है-उपदेश और सलाह । -रामती Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलाह लेना जरूरी ! १. एकश्चार्थान्न चिन्तयेत्। -विदुरनीति १०५१ मनुष्य को चाहिए कि अकेला किसी विषय का निश्चय न कारे ! अर्थात् दूसरे की सलाह ले । धन स्वालगे हुज नॉट मेक ए समर। -अंग्रेजी कहावत अकेला चना माड़ नहीं फोड़ता ! ३. एक ही एक सौ एकला, बे मिल बाबन बीर ! सह काहै अन्न ऊपर मुदो, पिण न सरै विण नीर ! ४. एक पर एक ग्यारह। -हिन्दी कहावत ५. पुराने जमाने में पगड़ी सुधने का रिबाज था । तत्व यह था-कोई सलाह देनेबाला न हो तो पगड़ी स ही सलाह ले लो अर्थात् काम करने से पहले कुछ समय सोचलो ! ६. सलाह तो अनेक लेते हैं, पर उससे लाभ उठाना तो बुद्धिमान ही जानता है। --साइरस Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलाह के विषय में विविध ११ १. अनायुक्तो मन्त्रकाले न तिष्ठेत् ॥ - नीतिवाक्यात १०.३२ कोई भी व्यक्ति मन्त्रणा के समय बिना बुलाया हुआ उस स्थान पर न ठहरे ! २. न तैः सह मन्त्र कुर्यात्, येषां पक्षीयेष्वपकुर्यात् । नीतिवाक्यामृत १०।१ जिसने जिनके बन्धु आदि कुटुम्बियों का अपकार-अनिष्ट (वधबंधनादि) किया है, उसे उन विशेधियों के माथ गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिए। ३. आकाशे प्रतिशब्ददति चाश्रये मन्त्र न कुर्यात् । - नीतिवाक्यामृत १०/२६ जो स्थान चारों तरफ से खुला हो, ऐसे स्थान पर तथा पर्वत व गुफा आदि में जहाँ प्रतिध्वनि निकलती हो, वहां मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए । ४. दिवा नक्तं वाऽपरीक्ष्य मन्त्रयमाणस्याभिमतः प्रच्छन्नो वा भिनत्ति मन्त्रम् | - नीतिवाक्यात १०।२९ जो व्यक्ति दिन या रात्रि में योग्य स्थान की परीक्षा किए बिना ही मन्त्रया करता है, उसका गुप्तमन्त्र प्रकाशित हो जाता है । १५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तृत्वकला के बीज ५. इंगितमाकारो मदः प्रमादो निद्रा च मन्त्रभेदकारणानि । –नौतिवाक्यामृत १०॥३५ गुप्तमन्त्र का भेद निम्नप्रकार पांच बातों में होता है, अतएब उनसे सदा सावधान रहना चाहिए यथा—(१) इंगित (गुप्तमन्त्रणा करनेवाले की मुखचेष्टा), (२) शरीर की सौम्य या रौद्र आकृति (३) शराब पीना, (४) प्रमाद (असावधानियाँ करना) (५) निद्रा । . पटको भिद्यते मन्त्रश्चतुष्कर्ण; स्थिरी भवेत । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन षट्कर्ण वर्जयेत् सुधीः ।। -पञ्चतन्त्र श१०८ 'छ: कन्नी' (तीन व्यक्तियों के सन्मुख की हुई) बात फूट जाती है किन्तु 'चौकन्नी' गुप्त रह सकती है । अतः बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे तीन व्यक्तियों के सामने कोई गुप्तमन्त्रणा न करें ! ७. दो व्यक्ति सलाह करते हों तो तीसरे को बहां बिना बुलाये नहीं जाना चाहिए। रजा भोज एक दिन अचानक महल में चला गया । रानी उस समय दासी से बात कर रही थो । राजा को आता देखकर वह वोली-आओ मूर्ख ! राजा क्रुद्ध एवं विस्मित होकर लौट पड़ा। दरबार में पण्डित आते गए और राजा उन्हें कहता गया-"आओ मूर्ख ! आओ मुर्ख !" अन्त में कालिदास ने निम्नलिखित श्लोक कह कर राजा का समाधान किया । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम : पहला कोष्ठक बापन्न गच्छामि हसन्न जल्पे, ४ गतं न शोचामि कृतं न मग्ये । माभ्यां तृतीयो न भवामि राजन् ! के कारणं भाग ! भवा भे भूखंः ।। -~मोजप्रबन्ध ) मैं खाता हुया चलता नहीं, (२) कोलसे समय हंसता नहीं, (2) गई बात को सोचता नहीं, (४) किए उपकार को स्मरता पी . (५) दो यक्तियों की बात के बीच में जाता नहीं, फिर है. राजा भोज ! मैं मूर्ख कैसे हुआ ? मूर्ख बनने के तो ये हो पांच कारण हैं । वास्तविकता को समझकर राजा प्रसन्न हुआ। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ उपदेश १. जो उपदेश आत्मा से निकलता है, वही आत्मा पर सबसे ज्यादा कारगर होता है । - फुलर २. वह उपदेश उत्तम नहीं, जिसे सुनकर श्रोता लोग बातें एवं वक्ता की तारीफ करते जाए, बल्कि उत्तम तो वह है, जिसे सुनकर विचारपुर्ण एवं गंभीर होकर जाए, तथा एकान्तवास की तलाश करें । - विशेष बनेंट ३. मेरे उपदेशों में खास बात यह है कि मैं सख्त दिल को तोड़ता हूं, और टूटे हुए को जोड़ता हूं । - जॉनन्यूटन ४. मुझे वह उपदेश पसन्द है, जो मेरे लिए बोलता है, न कि अपने लिए। जिसे मेरी मुक्ति बांछनीय है, न कि अपनी थोथी शान | - मेसीसम ५. किसी उपदेशक के दोषों पर प्रायः जल्दी ही ध्यान आकर्षित होता है। - लम्बर ६. कोई अच्छा उपदेश दे, उसका मानो ! लेकिन वह क्या करता है, उसे मत देखो ! जैसे हलवाई की मिठाई लेते हैं, किन्तु यह नहीं देखते ही हलवाई खाता है या नहीं । उपवेशदान- ७. उपदेश पापियों और धर्मियों दोनों को देना चाहिए। १८ | मह Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषा भाग : पहला कोष्ठक पापियों को इसलिए कि वे पाप से निवृत्त हो, और मियों को इसलिए कि वे धर्म में सदा सुदृढ़ रहें । __-आचार्य श्रीतुलसी १८. नीति का उपदेश दो तो संक्षेप में दो। -हारेस है आधा घंटा से ज्यादा उपदेश देने के लिए आदमी या तो खुद फरिश्ता हो या सुनने के लिए फरिश्ता रखे। -हाइट फील्ड १० हजार टन उपदेश देने को अपेक्षा एक ओंस पालन करना श्रेष्ठ है। - विवेकानन्द हम उपदेश देते हैं टन भर, सुनते हैं मन भर, और ग्रहण करते हैं कण भर । –अलबर १२. जैसा हम कहते हैं, वैसा करना चाहिए; जैसा करते हैं, वैसा नहीं। ___ - वॉकेशियो १३. परोपदेशे पाडित्यं से ही दरिद्रता आती है। – रामतीर्घ १४. एक पढ़े-लिखे बाबू नाव द्वारा नदी पार कर रहे थे। उन्होंने नाविक से पूछा--- क्या तुम व्याकरण जानते हो ? नाविक-नहीं। बाबू-तुम्हारी चार आने जिन्दगी निकम्मी है। थोड़ी देर बाद क्या तुम्हें काव्य करना आता है ? नाविक नहीं। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज बाबू-फिरतो तुम्हारी जिन्दगा आठ आने बेकार हो गई। अच्छा तो तुम्हें गणित आता है ? नाबिक-नहीं। बाबू तब तो तुम्हारी बारह आने जिन्दगी व्यर्थ ही है । संयोग नदी में (पा.१६ 5 और नाव जगाने लगी। नाविक ने पूछा--बाबू जी ! आप तैरना जानते हैं ? बावु-नहीं। नाविक ने कहा-फिर तो आपकी जिन्दगी इस समय सोलह आने पानी में है ! अन्ततः तुफान की चपेट में बाबूजी को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा कला वही है जो सौन्दर्य का सबक सिखाती है । कला विश्वार को मूर्तिमान् करती है । सच्ची 'कला' ईश्वर का भक्तिमय अनुसरण हैं । कला है जो कला आत्मा के दर्शन की शिक्षा नहीं देती, वह कला -गामधी कला ही नहीं हैं । - एमर्सन - ट्राईन एडवर्डस् सर्वोच्च कला हमेशा धर्ममय होती है और महत्तम कलाकार भक्त होता है । कला तो सत्य का केवल शृंगार है । हरिभाऊ उपाध्याय कला – कला के लिए नहीं बल्कि समाज को उन्नत बनाने के लिये है । २१ कला की परिपूर्णता कला को छिपाने में है । उपयोगी कलाओं की जननी है 'आवश्यकता' और ललित कलाओं की जननी है ' विलासिता '। पहली बुद्धि से उत्पन्न हुई है और दूसरी प्रतिभा से पैदा हुई है । - शोपेनहोर सत्य की भूमि पर मायासृजन यही है ललितकलाओं का रहस्य | निरा सत्य उनका ध्येय नहीं हो सकता । लोगों को खुश करने की कला दुनियां में आगे बढ़ने की कुंजी है । - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ विविध-कलाए (क) लेखनकला१. ऋषभ प्रभु ने ब्राह्मी के बाए हाथ पर अपने दाहिने हाथ से अ-आ-इ-ई आदि वर्णमाला के ४४ अक्षर लिखे एवं लेखनकला का प्रारंभ किया। ब्राह्मी के हाथ पर लिखने से ब्राह्मी लिपि कहलाई । सुन्दरी के दाहिने हाथ पर अपने बायें हाथ से १, २, ३, आदि अंक लिखे अतः अंकों की वामगति हुई, कहा भी है—अङ्गानां वामतो गतिः । २. बम्बई-निवासी अनन्त भट्ट ने एक पोस्टकार्ड में जवाहर जीवनचरित्र लिखा । उसमें लगभग २ लाख अक्षर हैं।' जेम्स जाहारी ने १६२६ में दो सेंट (अमेरीका का एक सिक्का) की टिकिट पर २० हजार अक्षर लिखे । १६३५ में एक चावल पर ६००८ अक्षर लिखे । फिर वालों पर उससे भी बारीक अक्षर लिखे । वे चावलों वाले अक्षरों से १/३ सूक्ष्म थे । १ १४ ननम्बर १६४४ (नेहरु जन्म-दिवस) पर प्रधानमंत्री श्रीजवाहरलालजी को यह काई भेंट किया गया । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : पहला कोष्ठक २३ । ४. भूतपूर्व भमुनि ने सं० २००२ में ऐनक की सहायता के बिना एवं लकड़ी की कलम से चार इच चौड़ा और नौ च लम्बा एक पत्र लिखा । उसके दोनों ओर हजार अक्षर थे। उससे भी सूक्ष्मअक्षरों वाले दो पत्र पुनः लिखे । उनके एक वर्ग-इच में करीब १४०० अक्षर हैं । -धनमुनि ५. आशुलिपिकर्ता हिन्दी में प्रति मिनिट २३० शब्द तक लिख सकते हैं । नई दिल्ली ३० जून केन्द्रीय सचिवालयहिन्दीपरिषद द्वारा आयोजित हिन्दी-आशुलिपिकर्ताओं की सातवीं प्रतियोगिता में यह प्रमाणित हुआ। - हिन्दुस्तान २१ जनवरी १९७० (ख) वस्त्र बुनने को अद्भुत कला१. ढाके-चन्देरी आदि की, कारीगरी अब है. कहां ? हा । आज हिन्दुनारियों की, कुशलता सब है कहां? थी वह कला या क्या कि,ऐसी सूक्ष्म थी अनमोल थी । सौ हाथ लम्बे सूत की, बस आध रत्ती तोल थी'। रक्खा नली में बांस की, जो थान कपड़े का नया। १. काका जिले के सुनारी गांव में हाथ के कते हुए १७५ हाथ सूत का वजन एक रत्ती था, तथा आधसेर रुई में २५० मील लम्बा सूत बनाया गया था —ढाका रेजिडेन्ट, सन् १८४६ से उधत Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वक्तृत्वकला के बीज आश्चर्य ! अंबारीसहित हाथी उसीसे ढंक गया 11 वे वस्त्र कितने सूक्ष्म थे, करलो कई उनकी तहें । शहजादियों के अंग, फिर भी झलकते उनमें रहे । * मैथिलीशरण गुप्त (भारत-भारती ) २. वस्त्र बुनने की कला से राजा अपने घर पहुंचा--- प्रसंग - राजकन्या से मोहित एक राजा ने उसकी मांग की, कन्या ने कुछ कला सीखने की शर्त रखी। राजा ने वस्त्र बुनने की कला सीखी एवं विवाह हुआ । वक्रशिक्षित अस्व के कारण एक बार राजा भीषण वन में पहुंचा। भीलों ने वहां उसे कैद कर लिया। इधर मन्त्री खोज कर रहे थे, किन्तु पता न चल सका | बुद्धिमान राजा ने कई रुमाल बुने एवं उनमें शहर में नाम लिखा । भील बेचने सेनासहित मन्त्री आया और राजा को (ग) गायन कला १. नास्ति नादसमो रसः । संगीत के समान कोई रस नहीं है । गुप्तरूप से अपना गये। पता पाकर छुड़ाकर ले गया । १. डाके की मलमल १० गज लम्बी एवं १ हाथ चौड़ी होती थी, जिसका वजन ८ तोले ४ || माझे होता था । अकबर की एक कारीगर ने बांस की नली में डालकर एक मलमल का यान भेंट किया था, जिससे हौदासहित हाथी ढका जा सकता था | औरंगजेब की लड़की ने मलमल की कई तहें करके उस वस्त्र को जोड़ा फिर भी उसका बदन दीखता ही रहा । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : पहला कोष्ठक २. कहा जाता है कि फारस में मिरजा मुहम्मद बीन बजाकर बुलबुलों को सचेत तथा अचेत कर देत थे। बैजूबावरा मालकोश राग गाकर हिरणों को आकृष्ट कर लेते थे। • तानसेन मेघमल्हार गाकर पानी बरसा देते थे एवं दीपकराग से दीपक जला देते थे। ३. तानसेन के गुरु स्वामी हरिदासजी ने प्रभुभक्ति में लीन होकर एक बार ऐसा गीत गाया, जिसे सुनकर शहनशाह अकबर आनन्दमग्न होकर मूच्छित हो गया। ४. मदनमोहन चटर्जी ने तीन वर्ष दो महीने की आयु में ताल-स्वर संयुक्त सर्वप्रथम गाना गाया एवं श्रोताविस्मित हुए। सात वर्ष की आयु में वे अच्छे गये बन गये। ५. गोगो गायो र गीतां रो छेह आयो । ---राजस्थामी कहावत ६. गोत के १८५ अङ्ग-- सप्त स्वरास्त्रयो मामा, मुच्छनाश्चैकविंशतिः । तालास्त्वेकानपञ्चाशत्, तिस्रो मात्रा लयास्त्रयः ।। स्थानत्रयं यतीनां च, षडास्यानि रसा नव । रागाः विशतिर्भावा-श्चत्वारिशत्ततः स्मृताः ।। पञ्चाशीत्यधिक ह्य तद्, गीताङ्गानां शतं स्मृतम् । स्वयमेव पुर। प्रोक्त भरतेन श्रुतेः परम् ।। -पछतन्त्र २५३-५४-५५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज गौत के स्वर सात होते हैं-(१) षड्ज (२) ऋषभ (३) गान्धार (४) मध्यम (५) पंचम (६) धैवल (७) निषध । प्राम (स्वर समुह) लीन होते हैं—(१) षड्जग्राम (२) मध्यमग्राम (३) निषादग्राम । स्वर का आरोह–अवरोह-द्वारा मम्यक् प्रकार से मूछित हो जाना पूछना कहलाती है । उग़के २१ भेद हैं । ताल उनचास हैं । मात्राएँ तीन हैं- (१) ह्रस्व (२) धीर्घ (३) प्लुत । लय तीन होते हैं । (गीत-नृत्य-वाद्य की एकतानता रूप साम्पभाष का नाम लय है) यति निराम-स्थान) तौन हैं । आस्य हहै । रस श्रृंगार आदि नौ हैं। रागः भैरव, कौशिकी, हिण्डोल, दीपक, श्री, और मेघ आदि ३६ हैं । माय ४४ हैं । इस प्रकार नाटयाचार्य भरत ने गीत के १८५ अंग कहे हैं । ७. बाह्यार्थालम्बनो यस्तु, विकारो मानसो भवेत् । स भावः कथ्यते सद्भिस्तस्योत्कर्षों रसः स्मृतः ।। वाद्यवस्तुओं के सहारे से जो मन में विकार उत्पन्न होते हैं, उन्हें भाव कहते हैं। भाव जब उत्कर्ष को प्राप्त कर लेते हैं तो वे रस कहे जाते हैं। ८. रस नो हैं--(१) बीर, (२) शृङ्गार, (३) अद्भुत (४) रौद्र, (५) ब्रीड़ा, (६) बीभत्स, (५) हास्य, (4) करुण, (:) प्रशान्त । .. अनुयोगहार गाया ६३ से ५१, सूत्र १२६ (घ। नत्य-कला अफ्रोका में आइवरो-कोस्ट को आदिम जाति, लोबो, में नर्तक एक हाथ में एक कटार और दूसरे हाथ में एक खंजर लेकर इन तीक्ष्ण हथियारों की नोक पर एक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ मा. माग : पहला कोष्ठक - लड़के को संतुलित कर घंटों तक विद्य तगति से नाचता रहता है। गोलकुडा (भारत) के शासक, अबुल हसन तानाशाह के दरबार में एक अनोखी नर्तकी थी, तारामती वह प्रति दिन शाह को अपना नृत्य दिखाती थी। लेकिन यह नृत्य बड़ा अद्भुत होता था। पहाड़ पर बने शाह के महल से नर्तकी का निवास करीब आधा मील दूर नीचे पड़ता था । एकजबूत रस्सा महलस नतका के निवास तक तान दिया जाता था। इस रस्से पर नाचती हुई सारामती अपने निवास की छत से महल की छत पर पहुंच जाती थी । यह क्रम सन् १६७२ से १.७७, पाँच वर्षों तक चलता रहा । -विचित्रा, वर्ष ३, अंक ४, १९७१ (घ) तरने की कला-- गत रविवार को सायं को सबसे छोटा तैराक साढ़ेचार साल का था, जो एक ऊँचे पत्थर से तेज यमुनाप्रवाह में छलांग लगाता था । नव वर्ष की एक लड़की नदी के पाट को पार कर गई । चार लड़कियां तैरतो हुई फूलों के आकार बना रही थीं एवं नृत्य कर रही थीं। एक लड़की के हाथ-पैर रस्सी से बांधकर उसे पानो में फेंका गया फिर भी वह तैरकर बाहर आ गई। एक लड़की ने खड़ों लारी दिखाई, वह ऐसी लग रही थी, मानो ! पानी पर चल रही है। एक उस्ताद ने आधे Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज दर्जन बच्चों को कंधों पर बिठाकर खड़ी तारी का प्रदर्शन किया । तैराकों के उस्ताद ८० वर्षीय पंडित लल्लु भाई का कहना है कि तैरना सब रोगों की अचूक दवा है। -नवभारत टाइम्स १२ अक्टूबर १९६१ से । छ: मास का एक बच्चा नौ मिनट तक बिना किसी और के सहारे पानी में तैरता रहा । पांच महीने की एक लड़की साढ़े तीन मिनट तक पानी में तैरती रही। ----मिलाप १६ नवम्बर ७१ (छ) बाणकला१. बड़ौदा आर्यकन्या-महाविद्यालय की कन्याओं ने राज्यपाल मंगलदास पकवासा के स्वागत में, सोकर पैरों से तीर चलाए । उन तीरों ने सामने रखी हुई पुष्पमाला लेकर राज्यपाल के गले में पहना दी। २. अमरापुर का लक्ष्यवेधी चम्पा वणिक ऊँट पर चढ़ा हुआ परदेश से धन कमाकर आ रहा था । तीन डाकू मिले, धन मांगा। उसने कहा-दानरूप में दे सकता हूं। डाकु-हो जा लड़ने को तैयार। वणिक नीचे उतरा एवं दो तीर तोड़ डाले । (उसके पास कुल पांच तीर थे) पूछने पर वोला-तुभ पैदल हो और तीन हो, एक बाण से अधिक न मारने की प्रतिज्ञा है । विस्मित डाक बोले-पक्षी मारकर परीक्षा दे। वणिक-व्यर्थ हिसा कौन करे ! Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषा भाग : पहला कोष्ठक यों कहकर अपनी मोतियों की माला एक डाकू के सिर पर रखो, वाण चलाया, वह माला को ले गया, लेकिन सिर के बाल हिले तक नहीं। महम्मद गोरी ने कारगरनदी के किनारे भीषण युद्ध में हरा प्याराज हाल को पपाड़ लिया और हथकड़ी बेड़ी एवं गले में तोक पहनाकर गजनी में कैद कर लिया। इतना ही नहीं उसको दोनों आँखे भी निकलवा दी । पृथ्वीराज के परमसखा चन्द्रकवि भी योगी के रूप में वहां जा पहुंचे । अपने अद्भुत व्यक्तित्व और बुद्धिमत्ता से बादशाह के प्रीतिपात्र बने । मौका लगाकर अपने स्वामी से मिले और दुःख-सुख की बातें की। वैर का बदला लेने की ठानकर एक दिन बादशाह मे कहने लगे-कि पृथ्वीराज जैसे बहादुर नरेश को इस प्रकार दुःख देना आप जैसे बादशाह को झोभा नहीं दता । जनसे अनेक अद्वितीय - शस्त्रविद्याएँ सीखनी चाहिए। वे इतने अद्भुत शब्दवेत्री हैं कि सौ-सौ मन के सात तवे तलाऊ पर रखकर कंकर मारने के साथ ही उन्हें फोड़ सकते हैं । दुर्भाग्यवश गोरी के जंच गई एवं एक तरफ तलाक पर सात तवे रखे गये । तथा एक तरफ ऊंचे मचान पर बादशाह बैठा । पृथ्वीराज आये, हरकड़ी-बेड़ी हटा दी गई । प्रत्यंचा चढ़ाते समय कई धनुष टूट गए । आखिर उन्हें उनका मूल धनुष लाकर Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज दिया गया। तुरन्त प्रत्यंचा चढ़ाई एवं धनुष-बाण लेकर तैयार हुए। उस समय चन्द्रकवि ने अपनी भाषा में यह दोहा सुनायाचार बांस बोईस गज, अंगुल अE प्रमाण : मार-मार मोटे तधे, मत चूके चौहान ! चौहान सारा मर्म समझ गया । ज्योंहो तबों पर कंकर मारे गये और बादशाह ने उत्साह-वर्धक शाबाश शब्द कहा, शब्दवेधी वीर पृथ्वीराज ने उसी शाबाश शब्द के आधार पर इतना जोरदार बाण मारा कि बादशाह मरकर ओंधे मुह गिर पड़ा। रंग में भंग हो गया और हाहाकार मच गया। मुसलमान ज्योंही पृथ्वीराज को मारने दौड़े । चन्द्र-पृथ्वीराज परस्पर एक-दूसरे को तलवार से मर गये। -राजपूतो कमाओं से (ज) धर्मकला१. सव्वा कला धम्मकला जिणाइ। धर्मकला सब कलाओं को जीतने वाली है। २. बावत्तरिकलाकुसला, पंडियपुरिसा अपंडिया चेव । सवकलाणं पबरं, धम्मकला जे न हाणति ।। बहत्तर कलाओं में निपुण पण्डित पुरुष भी यदि सब कलाओं में श्रेष्ठ धर्मकला को नहीं जानते तो वे वास्तव में अपठित Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माग : पहला कोष्ठक कलाकार-- जीवन सब कलाओं में श्रेष्ठ है । जो अच्छी तरह जीना "जानता है, यही सच्चा कलाकार है। -महात्मा गांधी कलाकार बनने के लिए शर्त है-मानमा ने म, न कि कला-प्रेम। -टालस्टाय कलाकार जैसी वस्तुएं हैं, वैसी नहीं देखता, अपितु वैसी देखता है. जैसा वह स्वयं है। - अल्फेबटानेस इस भरतक्षेत्र के आदि कलाकार श्री आदिनाथ भगवान् थे। उन्होंने ही पुरुषों की २ तथा स्त्रियों की ६४ कलाएं बतलाई हैं। (समबायांग ७२ तथा कल्पसूत्र में कलाओं का वर्णन है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. १. वाक्य रसात्मकं यम् । रसयुक्त वाक्य को काव्य - कविता कहते हैं । २. कविता भावनाओं से मंजी हुई बुद्धि है। - प्रो० विल्सन ३. कविता सर्वोत्तम मनस्वियों के सर्वाधिक आनन्द के क्षणों का रिकार्ड है । - शैली कविता ५. कविता केवल कहने का सुन्दर और प्रभावशाली तरीका है मैथ्यु आर. नोल्ड ४. कविता थोड़े शब्दों में महान् शक्ति बताती है । - एमर्सन ६. चउब्वेि पण्णत्तं तं जहा गद्दे, पद्द, कत्थे, गए । - स्थानांग ४।४।३७६ — - ३२ - साहित्यदर्पण काव्य चार प्रकार का कहा है- (१) नद्य, (२) पद्य, (३) कथामय, (३) गेय (गर मे योग्य) । * Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ १. नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा । कवित्वं दुर्लभ लोके, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ॥ कविता का महत्त्व जैसे मनुष्यजन्म दुर्लभ है, और उसमें विद्याप्राप्ति सुदुर्लभ है— उसी प्रकार कवित्व दुर्लभ है, लेकिन कवित्वशक्ति का मिलना तो बहुत ही दुर्लभ है। २. कविता सु संसार में अमर वर्ण है नाम, कवि मरे, पण नहीं मरे, कविवाणी अभिराम । ३. का विद्या कवितां विना ! IT कविता के बिना विद्या में क्या है ! ४. कविता का जामा पहनकर सत्य और भी चमक उठता है । - पोप ५. केषां नैषा कथय कविता- कामिनी कौतुकाय ? बताओ! यह कवितारूपी कामिनी किसके लिए कौतुक का कारण नहीं बनती ? ३३ -- सावधानी से समुद्र १८८ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ५. सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम् । अच्छी कविता -- म हरि-नीतिशतक २१ यदि श्रेष्ठ कविता है तो फिर राज्य में क्या है। २. सरसा सालङ्कारा, सुपदन्यासा सुवर्णमय मूर्तिः । आर्या तथैव भार्या, न लभ्यते पुण्यहोनेन ॥ - प्रसंग रस्नावली सरस, अलङ्कारसहित अर्थात् अच्छे वाक्य को सलानेवाली गुणसहित, अच्छे पदों की रचनावाली एवं अच्छे वर्णों-अक्षरोंवाली ऐसी आर्या (एक प्रकार की पद्यमय कविता ) और भार्या पुण्यहीन को नहीं मिलती । भार्या के पक्ष में अलंकार का अर्थ आभूषण है, सुपद का अर्थ अच्छे पग हैं और सुवर्णमभूर्ति का अर्थ सोने की-सी पुतली है। (यह यर्थ काव्य है ) | सा कविता सा वनिता यस्याः श्रवणेन दर्शनेनापि । कविहृदयं विहृदयं, सरलं तरलं च सत्त्वरं भवति ॥ वही कविता, कविता है, जिसे सुनने से कवियों का हृदय सरल हो जाये । वही वनिता, वनिता है, जिसको देखते ही मनुष्य का हृदय चंचल हो जाय | ४. सहज और सोधी हुवै, ऊंचा भाव यथेष्ट | रस बरसे मुख बोलतां वाही कविता श्रेष्ठ । 1 २४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवा भाग पहला कोष्ठक 1 स्वर पूरा बैठे नहीं, मटकै भाव जग्यां बिना तुक्का मिलण न पाय || ५. कूर्पासकेनार्धतिरोहितो तो फिर कविता नांय ॥ J - सावधानी से समुद्र १८।२१-२२ कुत्री, रम्यौ रमण्याः कविताक्षराणि च । ३५ अर्धं निगूढानि सुशोभितान्यलं, नात्यन्तगूढानि न वा स्फुटानि ॥ कंचुकी से आधे ढके हुए स्त्री के स्तनवत् कविता के अक्षर भी अर्धाच्छादित ही शोभा देते हैं । अत्यन्त गूढ़ अथवा अत्यन्त स्पष्ट अच्छे नहीं लगते । ६. कविता ऐसी चाहिए, ज्यों कांसे का थाल । तनिक ठेस से अति सरस ध्वनि गंजे चिरकाल || ७. वास्तविक हार्दिकता से पैदा हुई कविता हमेशा शरीफ और ऊंची बनती है । - ऐ. ए. हाफकिन्स ८. किसी उत्कृष्ट कवि की कविता भी यदि रामनाम से रहित हो तो नग्न स्त्री की तरह वह शोभा नहीं देती । - रामचरितमानस ६. पुराणमित्येव न साधु सर्वं, न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते, मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः पुराना होने से सभी काव्य अच्छा नहीं होता और नया होने मात्र से खराब नहीं होता । अतः सत्पुरुष दोनों की परीक्षा || - मालविकाग्निमित्र नाटक १२ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज करके अच्छे को स्वीकार करते हैं, किन्तु मूर्ख व्यक्ति दूसरों के विश्वास पर पलता है। कि कवेस्तस्य काव्येन, किंकाण्डेन धनुष्मता। परस्थ हृदये लगा, न धूर्णांत यांच्छरः ।। -शाङ्ग पर क्या है उस कवि के काव्य से और क्या हैं उस धनुष्य-बाण से, जो हृदय में लगकर दूसरे का सिर न हिला सके । कविता समझने वालों की अपेक्षा करनेवाले ज्यादा हैं। एक अच्छा पद्य समझने की अपेक्षा एक रद्दी-सा पद्य लिखना आसान है। ११. -माटेन Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता-विरोध १८ १. काव्यं करोषि किमुतं सुहृदां न सन्ति ये त्वामुदीर्णपवनं न निवारयन्ति । गव्यं घृतं पिब ! निवातगृहं प्रविश्य, वाताधिका हि पुरुषाः कवयों भवन्ति ॥ सुभाषितरत्नभाण्डागार ३६ क्या बढ़ती हुई वायु को रोकनेवाले तेरे कोई मित्र नहीं हैं, जो तू कविता करने लगा है। जहां हवा न लगती हो, ऐसे मकान में घुसकर गाय का भी पीले ! अधिक वायुवाले पुरुष ही कवि होते है | काव्य में दोष देखनेवाले व्यक्ति--- अतिरमणीये काव्ये, पिशुनो दूषणमन्त्रेषयति । अतिरमणीये वपुषि व्रणमिव मक्षिकानिकरः ॥ J - इन्दुशेश ख जैसे अति सुन्दर शरीर में भी मविखयां व्रण घाव को खोजती हैं, उसी प्रकार नाहे काव्य कितना ही मनोहर क्यों न हो, दृष्टव्यक्ति उसमें दोष देखा करता है | ३. अतिरमणीये काव्ये, पिशुनो दूषणमन्वेषयति । सुन्दरमणिमयभुवने, पश्यति रन्धं पिपीलिका सततम् ।। जैसे रत्नों के सुन्दर महल में भी चींटिया बिलों को देखती ३७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ वक्तृत्वकला के बीज रहती हैं, उसी प्रकार सुन्दर काव्य में दुष्टव्यक्ति दोष ही देखता है। ४. कर्णामृतं काम्यरसं विहाय, दोषेषु यत्नो सुमहान खलस्य । अवेक्षते केलिवनं प्रविष्ट, क्रमेलम्कण्टकजालमेव ।। कानों में अमृततुल्य काव्यरस को न सेकर दुष्टपुरुष दोष देखने का ही महान् प्रयत्न करते हैं । जैसे—केलियन में घुसकर भी ऊंट कांटोंवाले वृक्ष की ही खोज करता है । ५. जानाति हि पुनः सम्यक, कबिरेच कवेः श्रमम् । कविता करने में कवियों को कितना परिश्रम करना पड़ता है, वह कवि ही जानता है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कवि १. हमारी अन्तस्थ भावनाओं को जागृत करने की जिनमें शक्ति हो, वे कवि हैं। गांधी २. पापि -जो फूलों से महकते विचारों को उत्तने ही रंगीन शब्दों में लिखते हैं। -श्रीमती ऋजनर ३. वे कवि हैं जो प्रेम करते हैं, जो महान् सत्यों की अनुभूति करते हैं और उन्हें कहते हैं। -बेली ४. कवि का सबसे बड़ा गुण नई-नई बातों का सूझना है। –महावीरप्रसाद द्विवेदी ५. कवि बणाया नहि वर्ण, सहज - स्वभावी होय । स्वाभाविकला कवि तणी, अजब चीज जग जोय ।। -सावधानो रो समुद्र १८१ ६. कोई भी अच्छा आदमी हुए बिना अच्छा कवि नहीं हो, सकता । -अनजऑन्सन ७. ऐसा कोई भी व्यक्ति आज तक महान् कवि नहीं हुआ, जो कवि होने के साथ-साथ दार्शनिक न हुमा हो । -कोलरिज ८. कवि करोति पद्यानि, लालयत्युत्तमो जनः । तरु: प्रसूते पुष्पाणि, मरूद्वहति सौरभम् ।। -प्रसंगरत्नावलो Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० वक्तृत्वकला के बीज कवि पद्यों को बनाता है और उत्तम व्यक्ति उन्हें लाता है। जैसे - वृक्ष पुष्पों को उत्पन्न करता है और हवा उनकी सुरभि को फैलाती है । ८. संग्रामेषु भटेन्द्राणां कवीनां कविमण्डले । दोतिर्वा दीप्तिहानिर्वा, मुहूर्तेनैव जायते || 1 भोजप्रबन्ध १५० सुभटों का संग्राम में और कवियों की कवि समूह में शोभा या कुशोभा मुहूर्तमान में ही हो जाती है । - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि-प्रशंसा १. जयन्ति ते सुकृतिनों, रससिद्धाः कवीश्वराः । नास्ति येषां यशः - काये, जरा-मरणजे भयम् ॥ -शाई गधर १६६ तथा भर्तृहरि-नौतिशतक २४ धे पुण्यशाली एवं रससिद्ध कविराज विश्व में विजयी होते हैं, जिनके मश:रूप शरीर को कभी जरा-मरण का भय नही है । अपारे काव्यसंसारे, कविरेकः प्रजापतिः । यथास्मै रोचते विश्व, तथेदं परिवर्तते 11 उत्तर-रामचरित उदाहारः पृ. ६ इस अपारकाव्य-संसार में कवि एक प्रजापति है। इसे जैसा रुचता है, संसार वैसा ही बन जाता है । कवयो ह्यर्थ विनापीश्वराः। कवि लोग धन के बिना भी ईश्वर हैं। ४. सच्चा कवि बहुत कुछ पैगम्बर के समान है। ५. कवि आत्मा का चित्रकार है। --- आइजक जिंजराइली ६. रामायण-महाभारत के रचयिता शब्द के चित्रकार नहीं थे, मानव-स्वभाव के चित्रकार थे । धी ७. कवि की अंगुलियों से शब्द चमक उठते हैं। - जोवर्ट * Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवियों की प्रति वर्तमान का आनन्द लेना, भविष्य के प्रति लापरवाही, समझदार की-सी बातें और बेवकूफ को-सी हरकतें, हर देश में कवि का यह एक ही स्वरूप है । ____ोल्डस्मिथ २. चरन धरत चिन्ता करत, चित्त न भावत और । सुवरण को शोधत फिरै, कवि व्यभिचारी चोर ।। ३. कवयः किं न पश्यन्ति, किन कुर्वन्ति योषितः । मद्यपाः किं न भाषन्ते, कि न भक्षन्ति वायसाः ।। -चाणक्यनीति १०१४ कत्रि क्या नहीं देखते, स्त्रियों क्या नहीं करती, शराबी क्या नहीं कह्ते तथा क्राफ (कौवा) क्या नहीं खाने ? Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ कवियों की शक्ति १. कवि की आँख स्वर्ग से भूतल और भूतल से स्वर्ग तक को देख लेती है । - शेक्सपियर २. जहाँ न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि । 7. ४. - हिन्दी कहावत कनकलि । मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम् ॥ स्रवन्मूत्रक्लिन्नं करिवरकरस्पधि जघनमहो ! निद्य ं रूपं कविजन विशेषगुरुकृतम् ॥ - हरिवंशग्यशतक २० स्त्रियों के स्तन मांस की गायें हैं, उन्हें स्वर्ण कलश के समान कह दिया । मुख थूक खंखार का घर है, उसे चन्द्रमा तुल्य कह दिया तथा जायें, जो मूत्र से भींगी रहती हैं, उन्हें हाथी की सूंड से भी बढ़कर बतला दिया । अहो ! कविजनों ने ऐसे निदनीय रूप को भी कितना बढ़ा-चढ़ाकर बताया है ? लापतेः संकुचितं यशो वद्, यत्कीर्ति पात्र रघुराजपुत्रः । स सर्वमेवादिकवेः प्रभावो, न कोपनीयाः कवयः क्षितीन्द्रः ॥ ४३ - विल्हूणकषि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तृत्वकला के बीज रावण का यश संकुचित रहा और राम सुम के पात्र बने । यह मारा आदिकवि श्री वाल्मीकि का ही प्रभाव है। अतः राजाओं को चाहिए कि वे कवियों को कभी नाराज न करें । ५. भीमा तू भाठोह, मोटा भाखर मांयलो । __ कर राखू फलोह, शंकर ज्यू मेवा करू ।। ६. राणा तू तो राख', मोटा चूल्हा मायली। कुल उजवालण काख, कासी ज्यू करणो शरां ।। ७. घर स भवा नोकल्या, चक गया सल्ला । खाटु भाटा नीपजे, अन्न कठं अल्ला ॥ -राजस्थानी सोरठे ८, यह काम है केवल कवियों का, पानो में आग लगा देना। पत्थर को मोम बना देना और आग में बाग लगा देना ।। ----पृथ्वीराज नाटक Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ कवियों के लिए विचारणीय बातें - १. कविता करणी खेल नहि, खरो खिलाणों साँप । भूल कां मुख पर लग, आ चनपट चुपचाप ।। दग्धाक्षर रो राखणो, पूरी-पूरी ख्याल । रतनचन्दजी नी परै हुवे अन्यथा हाल' ।। नहीं करणी लेम-इ-र-भ-ख, ग़न्य की कमान । फ्ण स्तुतियां में खासकर, नहिं राखीजै स्यांत ।। -सावधानी से समुद्र, १६.४-५-६ "रतनचन्द नागोर में रे चेनियां !"-.इस पद्म की रचना के वाव अनि रतनचन्द जी ने बिहार विया एवं जङ्गल में चोरों ने उन के कपड़े छीन लिए । यहाँ नागोर में अर्थात् नागोर शहर में-यह अर्थ है, लेकिन 'नागो-रमें' अर्थात् नङ्गा खेल रहा है--यह अर्थ भी निकलता है । इस प्रकार अनिष्ट अर्थ निकल सके-ऐसो पद्यरचना से कवि को बचना चाहिए । ४५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निन्दनीय कवि १. विद्वत्कवयः कवयः, केवल कवयस्तु केवलं कपयः । कुलजा या सा जाया, केवलजाया तु केवलं माया ।। __ -प्रसंग-रत्नावली विद्वान् कवि ही वास्तव में कवि हैं । नाम के कवि तो काम अर्थात् बन्दर के तुल्य हैं । कुलीन-पत्नी ही पत्नी है. दूसरी तो केवल मायारूप हैं। २. गणयन्ति नापशब्दं, न वृत्तभङ्ग क्षयं न चार्थस्य । रसिकत्वेनाकुलिता, वेश्यापतय: कुकवयश्च ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३६ जो रसिकता से आकुल होकर अपशब्द, वृत्तभङ्ग एवं अक्षय को नहीं गिनते, वे या तो वश्यापति है या कुकवि हैं। ३. कविरनुहरति च्छायां, पदमेक पादमेकमधं वा । सकलप्रबन्धहर, कविताक नमस्तस्मै ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३६ कपि छाया का हरण करता है, समस्यापूर्ति आदि में एक पद अथवा आधा पद भी ग्रहण कर लेता है, किन्तु वह कधि तो नमस्कार करने के ही योग्य है, जो दुमरों के काम से ममुचा प्रवन्ध ही उठा लेता है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : पहला कोष्ठक ४. इन-बिनें रा हर्फ ले, अपणो नाम लगाय । जे जग में बाजे कवि, ते तो चोर कहाय ।। दुजारा काव्यां तणी, नकल करो मत कोय । नकल करणवाला कवि, जग में नकली होय ॥ —सावधानो रो समुद्र १०३-२२ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ रसिकश्रोताओं के अभाव में कवि १. इतरपापशतानि यदृच्छया, वितर तानि सहे चतुरानन ! निवेदनं, सिरसि मा लिख मा लिख ! मा लिख !! अरसिकेषु कवित्व - दे, मैं सहन कर लूंगा, लेकिन सुनाना मेरे भाग्य में कभी मत कभी मत लिख !! हे ब्रह्म भगवन् ! दूसरे सैकड़ों पापों की बक्शीस भले ही कर अरसिकों के आगे कविता लिख ! कभी मत शिख ! २. कविराजां! खेती करी, हल स्युं गीत जमीं में गाड दयो, ऊपर ४६ राखो हेत । रालो रेत ॥ - राजस्थानी दोहा ★ — Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्भीक कवि 'गंग' संसार से विरक्त होने के पश्चात् 'कवि गंग' को एक बार बादशाह र ने एच: समस्या "करो मिलि आश अकबर की" को पूर्ति के लिए कहा- कवि गंग ने तत्काल उक्त छन्द द्वारा समस्या की पूर्ति कर दी। एक कु छोड़ दूजे कु भजे, ___रसना जु कटो उस लब्बर की। अब के गुनियां दुनियां कु भजे, सिर बांधत पोट अदब्बर की ।। कवि गंग तो एक गोविन्द भजे, कछु शंक न मानत जब्बर की। जिनको हरि की परतीत नहीं, सो 'करो मिलि आस लकब्बर की' ।।१।। अफब्बर बे अकब्बर ! नरहंदा नर । के होजा मेरी स्त्री, के होजा मेरा बर । एक हाथ में घोड़ा, और एक हाथ में खर। कहना है सो कह दिया, अब करना है सो कर ॥२॥ उक्त छंद को सुनते ही बादशाह क्रोधित हो उठा और उसने कवि 'गंग' को हाथी के पैरों तले कुचलवाकर ४६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० वक्तृत्वकला के बीज मरवा दिया। कवि के पुत्र को जब यह समाचार सुनाया गया तो उसने निम्नलिखित छन्द रचकर लोगों को चकित कर दिया । देवन को दरबार भयो जब पिंगल काहू सो अर्थ दियो न गयो, तब नारद ने परसंग बतायो ॥ मृत्युलोक में गंग गुनी इक, ताहि को नाम सभा में सुनायो । चाह भई परमेश्वर के तब, गंग कु लेन गणेश पठायो ||३|| छन्द बनाय सुनायो । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन एवं आधुनिक कवि १. सर्वज्ञकल्पः कविभिः पुरातनै रबीक्षितं वस्तु किमस्ति साम्प्रतम् । ऐर्दयुगीनस्तु कुशाग्रेधीरपि, प्रवक्ति यत्तत्सदृशं स विस्मयः ।। सार्वज्ञतुल्य पुराने कवियों ने न देखी हो, ऐसी वस्तु आज है ही क्या ? आज के तुच्छ-बुझिवाले व्यक्ति यदि उनके समान भी कुछ कह दें, तो वह आश्चर्य है। २. सर सूर तुलसो शशी, उडुगण केशवदास | अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकाश ।। ३. आधुनिक कवि स्याही में पानी ज्यादा मिलाते हैं । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ १. अनुसिद्धसेन कवयः । कवियों में सर्वश्रेष्ठ सिद्धसेन दिवाकर हैं । २. कविरमरः कविरचलः, कविरभिनन्दनश्च कालिदासश्च । अन्ये कवयः कपयः, श्चापलमात्र परं दधति || -- सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३६ कवि तो वास्तव में अमर, अचल, अभिनन्दन और कालिदास हैं। दूसरे कबि तो मात्र चपलता धारण करते हैं, अतः बन्दर के समान हैं । ३. कवयति पण्डितराजे, कवयन्त्यन्येऽपि भूरिविद्वांसः । नृत्यति पिनाकपाणी, नृत्यन्त्यन्येऽपि भूत बेतालाः ॥ - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३६ कविता करते हैं, तब अन्य अनेक किन्तु वे ऐसे लगते हैं मानो ! भूत- वेताल नाच रहे हैं । जब 'पंडितराज जगन्नाथ' विद्वान् भी कविता करते हैं, शंकर के नाचते समय अन्य महान् कवि - हेमचन्द्राचार्य ५२ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विभिन्न भाषाओं के महान् कवि १. संस्कृत-कालिदास, हिन्दी-तुलसीदास, उर्दू-गालिब, बंगाली-रवीन्द्रनाथ टैगोर, अंग्रेजी-शेक्सपियर, फारसी-शेखसावी, जर्मन-गायथे, ग्रीक-होमर, इटालियन-दाते, फ्रांसीसी-सुलोप्राद होमें। २. प्राचीनकाल के प्रमुख हिन्दी कवि चन्द्रबरदाई, कबीर, सुरदास, तुलसीदास, जायसी, केशवदास, बिहारी, भूषण आदि । ३. आधुनिक हिन्दी के प्रमुख कवि-- भारतेन्दु-हरिश्चन्द्र, जयशंकरप्रसाद, निराला, सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह 'दिनकर', बच्चन', नरेन्द्र शर्मा, नीरज आदि । ४. उर्दू के प्रसिद्ध कवि गालिव, जौक, इकबाल, हाली, जोश, जिगर आदि । ५. इंग्लिश के प्रसिद्ध कवि बेन जॉनसन, जोहन ड्राइडन, रोबर्ट ब्रिजिज, विलियमवर्डजवर्थ, लाई अलफर्ड, टेनिसन, शेक्सपियर जोहन मेन्सफोल्ड आदि । --विश्ववर्पण, पृष्ठ ६२ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ कल्पना १. 'इतिहास' की अपेक्षा 'कल्पना' का स्थान ऊँचा है। तुलसीदासजी ने कहा है-'राम' की अपेक्षा 'नाम' बड़ा है। -गांधी २. कल्पना ज्ञान से भी अधिक महत्वपूर्ण है। आईस्टीन ३. मानवता अपनी कल्पना से ही शासित होती आ रही है। -नेपोलियन ४. कल्पना आत्मा का नेत्र है । -गुर्टम ५. कवित्व जैसी सुन्दरता न तो अप्सरा में है, न नन्दनवन के पारिजात में है, न पूणिमा के चन्द्र में है, न प्रातःकाल के दिग्मण्डल में है और न संध्या के अरुणित आकाश में है । कवित्व अंधकार में दीपक है, दरिद्र का धन है, भूख में अन्न है, प्यास में घन है, अंधे की लाठी है, थके की सवारी है, दु:ख में अंर्य है और बिरह में मिल न है । बुरे को भला और भले को बुरा करना इसके लिए मामूली बात है । भाषा-अभाव इसका मुख्य शत्र था। बाद में भाषा प्रकट हुई। उसने अभाच को मारा। पुण्डरीक गणधर ने भाषा से विवाह किया। द्वादशअङ्ग बनाए। इतने में मिथ्या नाम की कन्या प्रकट Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -:.: ... .....- बौथा भाग : पहला कोष्टक ५५ हुई। कवित्व ने उससे विवाह किया, उसका नाम कल्पना रखा। कवि लोग इसका आदर करने लगे। जिस समय यह पति (कवित्व) के साथ बन-ठनकर निकलती है, बड़ों-बड़ों का सिर चक्कर खाने लगता है। ६. जो बिना अध्ययन के केवल कल्पना का आश्रय लेता है, उसके पांखें तो हैं, किन्तु पग नहीं है। -कुबर्ड ७. अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितना बुरा अपवित्र कर्म। -विमेकानम्ब . . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पना के उदाहरण १. पान और कं पल पान पड़तो देख नै, हंसी जु क पलियाँ । मो बीती तो बीतसी, धीरी बप्पडियाह । --अनुयोगद्वार प्रमाणाधिकार के आधार पर कली और फूलहंसती हुई कली से फूल ने कहा- कैसे हंस रही हो ? कली-फूल जो बनने जारही हूं। फूल-फूल बनने पर माली तोड़ लेगा। कली--खैर ! मिट्टी में तो मिलना ही है, किन्तु मरने से पहले किसी को सुवासित तो कर दूंगी। ३. द्वार और प्ररोखा मैं बड़ा हूं, मेरा सम्मान है, मेरे द्वारा ही प्रवेश-निर्गम होता है-ऐसे द्वार ने कहा । झरोखा बोला-क्या अभिमान करते हो ! बड़े होने पर भी स्वामी को तुम्हारा विश्वास नहीं है । रात पड़ते हो अथवा बाहर जाते ही तुम्हें बन्द कर दिया जाता है, क्योंकि तुम चार-डाकुओं को भी आने से नहीं रोकते, मैं स्वामिभक्त और विश्वासी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या भाग : पहला कोष्ठक ५७ होने के कारण हरवक्त खुला रहता हूं, और स्वामी को धूप-हवा आदि देता हूं। ४. सुई से चलनी ने कहा तेरे में तो छिद्र है । सुई बोली-मेरे में सिर्फ एक छिद्र है, तेरे में तो सारे छिद्र हा चिद्र है, पहले उनको तो देख! ५. टैगोर की कल्पनाएँ ऊपर से गिरता हुआ पानी गाता है कि जब मैं स्वतन्त्र हुआ तभी तो मधुर गान कर रहा हूं। (ऐसे ही विकार मुक्त आत्मा आत्मिक संगीत कर सकता है।) (ख) फूल ने फल से पूछा-तू मेरे से कितना दूर है ? फल ने कहा-मैं तेरे दिल में ही छिपा हूं। (इससे कर्म के पीछे फल निश्चित है . यह समझो !) (ग) सत्ता ने विश्व से कहा--तू मेरा है । विश्व ने मान लिया : किन्तु प्रेम ने सत्ता को कैद करके फिर विश्व से कहा कि मैं तेरा हूं । नम्रवाणी सुनकर विश्व ने प्रेम को अपना संपूर्ण साम्राज्य सौंप दिया। (सत्ता प्रजा के शरीर को और प्रेम प्रजा के दिल कोअधीन करता है। नौकर भी सत्ता के बजाय प्रेम से काम ज्यादा देते हैं।) ६. गलगनिया के गद्य चित्र(क) सिंझ्या हूंता ही मिनख उठ्यो' र दीये रै मूडे ऊपर तूली मेल दी । दीयो चट्ट-चट्ट कर' र बोल्यो-बड़ा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बक्तृत्वकला के बीज आदमी इको का है ? मिस है जोलो-..'मरे तु हो के ? मने अंधेरे में सूझ्यो ही कोनो ! (ख) बायरै कयो- पीपल रा पानड़ा, मैं आऊँ जणां ही थाँके हताई हुवै के ? पानड़ा बोल्या-पूठ पाछै बात करणरी म्हारी आदत कोनी ! (ग) तिरियाँ-मिरियाँ भरी तलाई र दूबढ़ी आ' र गलबाथ घालली। लेरों चिड़' र बोली- तनै कुण । ती ही ? बीच में ही मीडको टर-टर कर' र बोल्यो.-मली, अपणायत हुवै जका न त ने की अड़ीकै नौं ! (घ) मेणबत्ती कयो-डोरा मैं थारैस्यू कत्तो मोह राखू हूं? सीधी ही कालजं में ठौड़ दीन्हो है । डोरो बोल्यो म्हारी मरवण, जणां ही तिल-तिल बलू हूं। (च) मिनख कयो-उलझ्योड़ी जेवड़ी, मैं तनै सुलझा र थारो कत्तो उपगार करू हूं ! जेवड़ी वोली नू किस्यो' क उपमारी है जको म्हारै स्यूछानु कोनी । कोई और नै उलझाणे खातर मन्ने सुलझातो इसी ! (छ) पानड़ा कयो-डाला म्हे नहीं हूंता तो थे कत्ती अपरोगी लागती ? फूल कयो - पानडाँ, म्हे नहीं हूंता तो थे कत्ता अडोला लागता? फल कयो-फलां म्हे नहीं हूंता तो थारो जलम ही अकारथ जातो? फूल में छिप' र बैठ्यो बीज सगला री बात सण' र बोल्यो-भोला, मैं नहीं हूंतो तो थे कोई कोनी हूंता। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : हुमा गोष्ठ (ज) जगत रो दोष देखता-देखता अाख अघाईजी ही कोनी। एक दिन एक छोटो सो' क रावलियो आँख ने देखण नै आंख में बड़ायो। आँख रीस स्यू लाल हुगी पण राबलियो क्याँ रो डरै हो ? आखर में आँख रोवण __ लागगी जद लार छोड़ी। ' (स) दही पूछ्यो-.-झेरणा, रोजीनां मथ-मथ' र म्हारो माजनों बिगाड़ो, की धार ही पल्ले पड़े है क नी ? झेरणों वोल्योकीड़ याँ तो कालजो रात्यू चूटे ही है और' स की देख्यो नी ! (ङ) हंसतो-हँसतो ही फुल अचाणचूको झडग्यो, पानड़ा बेली ताप कर' र पूछ्यो—आचानड़ी मौत कुने स्यूं आई ? रूख रो' र बोल्यो-कठीनै स्यू बताऊँ ? को आती रा खोज मँडै न को जाँती रा! (ट) तू तडा बोल्या-देख्यो रे छाजला थारो स्थाय ! म्हाने तो फटक' र परै बगा दिया' र आं सागो छोड़णियाँ दगावाज दाणां ने कालजिय री कोर कर र राख्या है ? छाज लो कयो-डोफा, थां ने तो हूं बे कसूर मान' र ही छोड्या है, आँ (विसवासघात्याँ) ताई तो चाको' र ॐखली त्यार है। कांटो बोल्यो-मन काढणे तांई तो तू' नागी सुई नै हो ले भाग्यो, की मिनखाचारो तो राख्यां कर ? मिनख कयो-म्हारो कोई दोष ? नामै री रग नाग सू' ही दबै । सुरड़ा देव' र मनसूरड़ा पुजारा । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज (ड) बांस कयो--मनख ! म्हारै फूल लागे न फल फर, भने । किस्य लालच जड़ा-मूल स्यू काट है ? मिनख बोल्यो--- मुणहोण री थोथी ऊँचाई म्हारै' स्यू कोनी देखीजै । (ढ) कुम्हार काचे घड़े ने चाक स्यू उत्तार' र न्यावड़े री उकलती भोभर में ल्या नाख्यो । घड़ो रो' र बोल्योविधाता आ काई करी ? कुम्हार हंस' र कयो-पणि हारी र सिर पर इयां सीधो ही चढ़णों चाचै हो के ? (ण) नोमड़े रो रूख मतीरै री चेल में हँस' र कयो-म्हारो - टोखी तो आभै नैं नावई है' रतू' धूल पर ही पसर्योड़ी पड़ी है ? मतीरै री बेल बोली, पैली थार फल कानी देख, पछै म्हारै स्यूँ बात करीजे ! –'गलगधिया' पुस्तक से । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहावतें १. 'कहावता' को 'लोकोक्ति एवं किवदन्ती भी कहते हैं । २. हरएक देश में अपनी-अपनी भाषा की कहावतें होती हैं। कहावतों के अन्दर सीधे-सादे शब्दों में गंभीर ज्ञान निहित होता है। ४. कई पुरानी कहावतों के निर्देशों में आज कुछ परिवर्तन भी हुआ है जैसे—(१) दोकरी ने गाय, दोरे त्यां जाय । (२) दरजीनों दीकरो जीवे, त्यांसुधी सीवे । (३) घोटो बाजे घम-घम, विद्या आवे छम-छम, (४) स्पष्टवक्ता सुखी भवेत् । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य १. साहितस्य भावः साहित्यम् । –बाबू गुलावराय जो हित के साथ हो अथवा जिससे हित का संपादन हो, उसे साहित्य कहते हैं। विचारों का प्रकाशितरूप ही साहित्य है। प्रकाशन हृदय से, स्पर्श में, मुस्कान ने, बाणी गे एवं मौन मे होता है। . .-जमनालाल जैन ३. साहित्य दो प्रकार का होता है....सामयिक और शाश्वत । ४. वहीं काव्य और वहीं साहित्य चिरंजीवी रहेगा, जिसे लोग सुगमता से पाकर पचा सकेंगे। .. महात्मा गांधी ५. तात्त्विक-साहित्य को सरस एवं सरल भाषा में लिखना बहुत कठिन है। -धनमुनि साहित्य संगीतकलाविहानः | साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीनः, तृणं न खादन्न जीवनानस, तद्भागधेयं परम पशुभाम् । —भर्तृहार-नीतिसत १२ जो मनुष्य साहित्य एवं संगीत की कला से शून्य है, वह बिना सींग-पूछ का साक्षात् पास है । जो तृण-घास खाये बिना ही ६२ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : पहला कोष्ठ जीता है, वह पशुओं का सौभाग्य है अन्यथा उन बचारों को खाने के लिए तृण कहां से मिलते ! ७. अंधकार है वहाँ, जहां आदित्य नहीं है, मुर्दा है वह देश, जहां साहित्य नहीं है । --मैमिलीशरण गुप्त साहित्यपाथोनिधिरतलबध्यैः, केषां कवीनां न करप्रसारः । लभ्येत वा नेति निजस्य भाग्यं. उद्योगिनी ना जति प्रयत्नम् ।। - सुभाषितरत्नभाणामार, पृष्ठ ३६ साहित्य-रत्नाकर के रत्नों की प्राप्ति के लिए कौन कवि हाथ नहीं पनारले ? मिलना न मिलना तो भाग्य की बात है, लेकिन उद्यमी प्रयत्न करना नहीं छोड़ते । इंग्लिश के कुछ प्रसिद्ध साहित्यकार शेक्सपियर, मिल्टन, शैले, कोटस्, वईसवर्थ, ब्राउनिग, वर्नार्डशा, कोलरिज, थामसहार्डी, चार्लस डिक्कज, स्काट, आदि । —धिश्वर्पण Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ १. इतिहासः पुरावृत्तम् । पुराने वृत्तान्त का नाम इतिहास है । २. वास्तव में इतिहास क्या है ? लेखामात्र । - हेमकोष० २०१७३ इतिहास परिवर्तन का एक - जवाहरलाल नेहरू ३. इतिहास केवल श्रतकथाओं का लेखामात्र है । कार्लाइल ४. मानव इतिहास प्रधानरूप से विचारों का इतिहास है । - एन० जी० वेल्स ५. इतिहास - पुराणानि वेदानां पञ्चमो वेदः । इतिहास - पुराण पाँचवें वेद के तुल्य हैं । ६४ ६. ऐतिहासिक घटनाएँ राष्ट्र की अमूल्यनिधि बनकर भावी पीढ़ियों की युग-युग तक प्रेरणा और चेतना देती रहती हैं । ७. जीवनकथाओं के अतिरिक्त और कोई सत्य - इतिहास - एमर्सन — नहीं है । ८. संपूर्ण इतिहास असत्य है । राबर्ट वालपोल ६. इतिहासज्ञ एक ऐसा भविष्यवक्ता है, जो भूत को देखता रहता है । - - श्लोग्लेल -- Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोजक 1 १. अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । अयोग्य: पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः ॥ -शुक्रनीति मन्त्र के बिना कोई अक्षर नहीं, औषधि के बिना कोई जड़ी नहीं और आदमी कोई अयोग्य नहीं, लेकिन उन्हें यथास्थान जोड़नेवाला व्यक्ति दुर्लभ है। २. काचं मणि काञ्चनमेकसूत्र, थ्नासि बाले ! तव को विवेकः । महामतिः पाणिनिरेकसूत्र, श्वानं युवानं मघवानमेति ।। हे बाले ! कांच, मणि थौर कांचन को एक सूत्र में क्यों पिरो रही हो ! ऐसे एक विद्वान के पूछने पर उस स्त्री ने कहा--- मुझे क्या टोक रहे हो ? महाबुद्धिमान पाणिनि ऋषि ने श्वान, युवान एवं मघवान को भी एक सूत्र में पिरो दिया। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यसूत्वकला के बोज कनकभूषण संग्रहणोचितो, यदि मणिस्त्रपुणि बिनियुज्यते । न च विरोनि न चाप्ययभाषते, भवति योजयितुर्वचनीयता । -हितीपधेश २१७२ सोने के आभूषण में जोड़ने योग्य मणि यदि शीशा आदि धातु के आभूषण में लगाया जाय, तो न वह मधुर ध्यनि करता है और न हि सुशोभित होता है, प्रत्युत संयोजया की निन्दा होती है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लखक १. यदि तुम लेखक बनना चाहते हो तो लिखो ! -इमिटेटस २. विचारो अधिक, बोलो अत्यल्प और लिखो उससे भी थोड़ा। –इटालियन लोकोक्ति ३. : फालतू चीज मत लिखो ! जिसमें पूरा मन लगे, पूरा रस मिले और पूरी झुबकी आये, वही लिखो ! लिखकर सम्पादक की दृष्टि से पढ़ो और कमियां सुधार दो ! कुछ दिन बाद फिर पढ़ो और नई बातें सूझें, उन्हें उसमें .. बढ़ादो ! पढ़ते समय सूझे की यह कुछ नहीं है, तो उसे तुरत फाड़कर फैक दो ! । ४. पंचमजाज ने २० पृष्ठ का एक भाषण लिखा । सेक्रेटरी उसे पढ़ता गया और जार्ज कम करता गया। शेष पांच पृष्ठ रखे ! जार्ज का वह भाषण सर्वोत्कृष्ट माना गया। ५. जो लेखक व वक्ता अपने भावों को छोटा करना नहीं जानता वह कभी सफल नहीं होता। –एमसन लिखते वे लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, विचार है। जिन्होंने धन, भोग और विलास को लक्ष्य बना लिया, वे क्या लिखेंगे ! ---प्रेमचन्द Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बक्तृत्वकला के बीज ७. महान लेखक अपने पाठक का मित्र व शुभचिन्तक होता है। -मैकाले ८. लेखकों को मसी शहीदों के रक्तबिन्दुओं से अधिक पवित्र है। - हजरत मुहम्मद ६. लेखक ये चीजें प्रायः कम ही लिखते है, जो सोचते हैं। ब केवल वे ही चीजें लिखते हैं, जो दूसरे सोचते हैं या सोचते होंगे। --एल्वर्ट हु गाई १०. विश्वविख्यात लेखक होमर और सुकरात बिल्कुल अनपढ़ थे। उनकी सभी रचनाएँ सुनकर अन्य लोगों ने लिखी थीं। –बन्द पृष्ठ १६ ११. ग्रन्थ को संक्षिप्त करनेवाले अन्ठे लेखक सुप्रतिष्ठित नगर के राजा जितशत्र की सभा में चार ऋषि आये (1) अत्रि-आयुर्वेद के ज्ञाता (२)बृहस्पतिनीतिशास्त्र के वेत्ता (३) कपिल-धर्मशास्त्र के विशेषज्ञ (४) पञ्चाल-अध्यात्मज्ञानी। ये सब अपने अपने विषय के ग्रंथ बनाकर लाये थे। प्रत्येक ग्रंथ में एक-एक लाख श्लोक थे। समयाभाव के कारण राजा ने उन ग्रयों को छोटेरूप में बनाने को कहा । ऋषि उन्हें ज्यों-ज्यों संक्षिप्त करते गये, राजा अधिक संक्षिप्त करने की प्रार्थना करता गया। अन्त में वे ग्रंथ चार पद्यों के रूप में प्रस्तुत किये गये । पद्य निम्नलिखित थे-- Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : पहला कोष्ठक (१) जी भोजनमात्रेयः, हजम हो जाने के बाद भोजन करना--अत्रि ऋषि ने यह आयुर्वेद का सार कहा । (२) न्याय्या वृत्ति हस्पतिः, मनुष्य को प्रत्येक प्रवृत्ति न्याययुक्त हो-वृहस्पति ऋषि ने यह नीतिशास्त्र का तत्त्व बतलाया । (३) कपिलः प्राणिनां रक्षा, प्राणिमात्र की रक्षा करनी चाहिए-कपिल मुनि ने यह धर्मशास्त्र का निचोड़ सुनाया। (४) पाञ्चालः साम्यभावना । प्राणिमात्र पर समभाव रखना चाहिये--पञ्चालऋषि ने यह अध्यात्मवाद का मूल मन्त्र दिखलाया । (राजा एवं राज्यसभा पहित) १२. इंग्लिश के प्रसिद्ध भारतीय लेखक स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सरोजिनी नायड़, चारूदत्त, जवाहरलाल नेहरू, हरीन्द्रनाथ चटर्जी, अरविन्द घोष, मुल्कराज आनन्द, डाक्टर राधाकृष्णन् । - विश्ववर्पण १३. बुरे लेखक--- (क) बुरे लेखक वे हैं, जो अपने असक्त विचारों की अभिव्यक्ति दुसरों की सुन्दरभाषा के माध्यम से करते हैं। –ी० सी० सिंवदेनश्वर्ग (ख) अपनी पुस्तकों की प्रशसा करनेवाले लेखक अपने बच्चों की प्रशंसा करनेवाली माता के समान है। --द्विजरायली Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ लेखनो १. लेखनी मस्तिष्क की जिह्वा है । - सर्वेस्टिस २. दुनिया में दो तरह की ताकते हैं- तलवार और कलम । आखिर तलवार हमेशा कलम से शिकस्त खाती है । -नेपोलियन ३. रीडिंग मेक्स ए फुल मैन, स्पीकिंग ए परफेक्ट मैन, राइटिंग एन एग्जेक्ट मैन । . --कन अध्ययन मनुष्य को पूर्ण बनाता है, भाषण परिपूर्ण बनाता है और लेखन प्रामाणिक बनाता है । ४. लिखावट को देखकर व्यक्ति का स्वभाव जाना जाता है। ....- आत्मविकास पष्ठ ३०६ ५. विज्ञान के अनुसार लिखते समय शरीर की पांच सौ नसें संयुक्त होती हैं। . नेपोलियन लेखनी पुस्तिका रामा, परहस्ले गता गता । कदाचित् पुनरायाति, नष्टा भ्रष्टा च चुम्बिता ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ १६४ कलम-पुस्तक-स्त्री-ये तीनों चीजें, दूसरे के हाथों में जाने के बाद प्रायः चली हो जाती हैं । कदाचित् वापस आती हैं तो क्रमवा: नष्ट, भ्रष्ट एवं बुबित होकर आती हैं । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन 7. मस्तिष्क के लिए अध्ययन की उतनी ही आवश्यकता है। शरीर को जितनी व्यायाम की। - जे. एफ. एगेसन २. प्रकृति की अपेक्षा अध्ययन द्वारा अधिक व्यक्ति महान् बने हैं। –सिसरो ३. इलाहीमलिकन, ननिशा में मोर ने स्कूल में विशेष शिक्षा नहीं पाई। चासंडारविन सर विलियम स्काट, व न्यूटन स्कूलों में नंबरी भोंदू थे 1 नेपोलियन अपनी कक्षा के छात्रों में ४२ वें नंबर का था। इन सभी ने पुस्तकों के अध्ययन से हो योग्यता प्राप्त की थी। ४. नेपोलियन व सिकंदर लड़ाई में भी पुस्तकें पढ़ते _रहते थे। ५. अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति रूजवेल्ट ह्वाइटहाउस के आवासकाल में मध्याह्न तक आगंतुकों से पाँच-पाँच मिनट मिला करते थे। लेकिन पढ़ने के इतने प्रेमी थे कि एक व्यक्ति मिलकर जाता एवं जब तक दूसरा व्यक्ति मिलने के लिए नहीं आता, उस अत्यल्प अन्तरफाल में ने पुस्तक पढ़ने लग जाते । इस प्रकार उन्होंने अनेकानेक पुस्तकें पढ़ डालो। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ वक्तृत्वकला के बीज ६. चीन के अध्येता संचिग नीद म आजाय-अतः अपनी चोटी को एक लम्बी रस्सी द्वारा छत से बाँधकर पढ़ा करते थे। -हिन्दुस्तान, बनबरी ७, १९६८ ७. पढ़ने से सस्ता कोई मनोरन्जन नहीं और न कोई खुशी उतनी स्थायी। -लेसी मोंटेम्यू ८, अध्ययन हमें आनन्द और योग्यता देता है एवं अलंकृत करता है। –कांसिस बेकन ६. मनुष्य को प्रतिदिन पर साक्षी मह मिटि ही । प्रतिदिन १५ मिनट पढ़ा जाय एवं प्रतिमिनिट ३०० शब्द की रफ्तार से पढ़ा जाय तो प्रतिमास १ लाख ३५ हजार शब्दों की एक पुस्तक (लगभग २२५ पृष्ठ को पढ़ी जा सकती है। -मममुनि १०. तेज पढ़िये ! इसका अभ्यास करानेवाली अमेरिका में ४०० प्रयोगशालायें हैं। विशेषज्ञों का कथन है कि साधारण व्यक्ति प्रतिमिनिट २५० शब्द पड़ले तो अच्छा ही है, किन्तु ४०० शब्द प्रतिमिनिट पढ़ने से आनन्द आता है। बुद्धिमान को हजार से १८०० तक का अभ्यास करना चाहिए। आपका व्यक्तित्व, पृष्ठ १६४ अध्ययनकाले व्यासन-पारिप्लवमन्यमनस्कतां च न भजेत् । -नीतिबाक्यामृत १११८ विद्याध्ययन के समय शारीरिक व मानसिक चपलता तथा चित्तवृत्ति को अन्यत्र ले जाना—ऐसे कार्य नहीं करने चाहिए । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ १. सुष्ठु आ-मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः । २. ४. स्वाध्याय सशास्त्र को मर्यादासहित पढ़ने का नाम स्वाध्याय है । सपोहि स्वाध्यायः । स्वाध्याय स्वयं एक तप है । ३. सज्झायं कुब्बतो, कुतो पंचेदियसंबुडो पंवेदिय संबुडो तिगुत्तो य हवद य एगग्गमणो, विणएण समाहिओ भिक्खू । -मूलाचार ५।२१३ 1 स्वांग ५/३१४६५ टीका सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तबे विसुज्झइ जसि मलें पुरे कडं, पञ्चेन्द्रियसंवृत, त्रिगुप्तिगुप्त एवं विनयसमाधियुक्त मुनि स्वाध्याय करता हुआ एकाग्रमन हो जाता है । - संत्तिरीय आरण्यक २११४ ७३ रयस्स । समीरियं रूपमलं व जोडणी 11 - कालिक ८६३ r जैसे अग्नि द्वारा तपाये हुए सोने-चांदी का मैल दूर हो जाता है, वैसे ही स्वाध्याय-सदध्यान में लीन षट्कारक्षक, शुद्धअन्तःकरण एवं तपस्या मे रक्त साधु का पूर्वसंचित कर्म - मैल नष्ट हो जाता हैं । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यक्तृत्वकला के बीज ५. नबि अस्थि नवि य होई, सज्झाएण समं तबोकम्म । --चन्द्र प्रज्ञप्ति २६ स्वाध्याय के समान न तो कोई तपस्पा है और न ही भविष्य में हो सकती। ६. बहुभवे संचियं खलु, सज्झाएण स्खणे खवेई । -- चन्द्रप्रनप्ति ६१ अनेक भावों में संचित दुष्कर्म को स्वाध्याय द्वारा व्यक्ति क्षण भर में खपा देता है। ७. सज्झाए वा "सध्वदुक्खविमोक्खणे । -उसराध्यत २६१० स्वाध्याय सब दुःखों से मुक्त करनेवाला है । सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ । -उसराध्ययन २६११८ स्वाध्याय से व्यक्ति ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। ६. स्वाध्यायादिष्टदेवता- संप्रयोगः । ..पातंजलयोग दर्शन २।४४ स्वाध्याय मे इष्टदेव का साक्षात्कार होता है । १०. स्वाध्याय के अभाव में अनेक आगम विच्छिन्न हो गये। और जो विद्यमान हैं, यह स्वाध्याय की ही देन है। ११. स्वाध्याय के लिए तीन बातें आवश्यक हैं एकाग्रता, नियमितता और विषयोपरति-निविकारिता १२. सज्झाए पंचविहे पण्णत्त, तं जहा–बायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा । - भगवती २५।७।८०२ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : पहला कोष्ठक स्वाध्याय पाँच प्रकार का है—(१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परिवर्तना (४) अनुप्रेक्षा (५) धर्मकथा । १३. सज्झायरए समिक्सू - कालिक १०६ जो स्वाध्याय में अनुरक्त हैं, वह साधु हैं । १४. स्वाध्यायान्मा प्रमदः ! -तैत्तिरीयोपनिषत् १।११।१ स्वाध्याय करने में प्रमाद मत करो! Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. शिष्टागमनेऽनाध्यायः । शिष्ट पुरुषों के जाने पर कुछ समय अध्ययन-अध्यापन बन्द कर देना चाहिए । २. पडवा पाटी भांजणी र बीज पाटी सांमणी । अनाध्याय - राजस्थानी कहावत : ३. अस्वाध्याय के समय शास्त्र न पढ़ना चाहिए। जैनशास्त्रों में ३४ अस्वाध्याय कहे हैं । ( देखो, मानप्रकाश पुञ्ज २ प्रश्न ३० * ७६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ १. अत्यधिक अध्ययन भी शरीर की क्लान्ति है । -- बाइबिल २. किताबें बुद्धि का कैदखाना है । अधिक किताबें पढ़ लेने पर स्वतन्त्र विचार करने की शक्ति गायब हो जाती है । अनन्तशास्त्र' बहुला च विद्या, अल्पश्चकालो बहुविघ्नता च । तदुपासनीय, यत्सारभूतं अधिक अध्ययन हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् || पञ्चतंत्र कथामुख ६ शास्त्र अनन्त हैं, विद्याएं अनेक हैं, समय थोड़ा है और विघ्न बहुत हैं । अतः हंस की तरह पानी से दूधवत् शास्त्रों का सार तत्त्व ग्रहण करके उसकी उपासना में लग जाना चाहिए । ४. ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी, ज्ञान-विज्ञानतत्त्वतः । पलालमिव धान्यार्थी त्यजेद् ग्रंथमशेषतः । - ब्रह्मबिन्दूपनिषद् ग्रन्थ को पढ़कर बुद्धिमानों को उसके तत्व रूप धान्य को ले लेना चाहिए एवं शेष पलालरूप ग्रंथ को छोड़ देना चाहिए । ५. स्थाणुरयं भारहार: किलाभूद्, अधीत्य वेदं न जानाति योऽर्थम् । - निक्क्त ११८ जो वेद को पढ़कर उसके अर्थ को नहीं जानता, वह बोझ से लवे हुए स्थाणु स्तंभ के समान है । ७७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा कोष्ठक पुस्तक-शास्त्र १. यस्माद् रागद्वेषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति सद्धर्भ । संत्रायते च दुःखा-च्छास्त्रमिति निरुच्यते सद्भिः ।। --प्रशमरति १८७ राग-द्वेष से उद्धत चित्तवालों को धर्म में अनुशासित करता है एवं इन्हें दुःख से बचाता है, अतएघ बह गत्पुरुषों द्वारा 'शास्त्र' कहलाता है (शास्त्र शब्द में दो धातुएं मिली हैंशाशु और बेङ्- इनका अर्थ क्रमशः अमुशासन' करना और रक्षा करना है 1) श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रम् । -सुभाषितरत्नमंजुषा शास्त्र सुनना ही कान का आभूषण है। आलोचनागोचरे ह्मणे शास्त्र तृतीयं लोचनं पुरुषाणाम् । -नीतिवाश्यामृत ५।३५ आलोचना योग्य पदार्थों को जानने के लिए शास्त्र मनुष्य का तीसरा नेत्र है। अनेक संशयोच्छेदि, परीक्षार्थस्य दर्शकम् । सर्वस्य लोचनं शास्त्र, यस्य नास्त्यन्ध एव सः ।। -हितोपदेश-प्रास्ताविका १० शास्त्र अनेक संशयों का नाश करनेवाला है, पिलो हुए अर्थ को ७. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीथा भाग : दूसरा कोष्ठक दिखानेवाला है एवं सारे जगत का नेत्र है, जिसके पास शास्त्र रूप नेत्र नहीं है, यह अंधा है । ५. बुक्स आर अवर वेस्ट फ्रेन्ड्स । -टपर किताबें हमारे सर्वश्रेष्ठ मित्र हैं। पुस्तके ज्ञानियों की समाधि हैं-किसी में ऋषभ, अरिष्टनेमि एवं महाबीर हैं तो किसी में राम, कृष्ण और युधिष्ठिर । किसी में वाल्मीकि, सूरदास, तुलसीदास एवं कबीर हैं तो किसी में ईसा, मुसा, और हजरतमुहम्मद । उन्हें खोलते ही वे महापुरुष उठकर हमारे से बोलने लग जाते हैं। . एक विचारक ७. मनुष्य ने जो कुछ किया, सोचा और पाया, वह सब पुस्तकों के जादूभरे पृष्ठों में सुरक्षित है। -कासि विचारों के युद्ध में पुस्तके ही अस्त्र हैं। -मनामा ६. पुस्तक ही एकमात्र अमरत्व है। -म्पसकोयेट १०. पुस्तकों का संकलन ही आज के युग का वास्तविक विद्यालय है। -कार्लाइल ११. विना किताबों का कमरा विना आत्मा का शरीर है। १२. पुराना कोट पहनो और नई किताब खरीदो ! --पोरो १३. तुम्हारे पास दो रुपये हों तो एक की रोटी खरीदो और दूसरे से अच्छी पुस्तक | रोटी 'जीवन' देती है और अच्छी पुस्तक 'जीवनकला। - जीवनसोरम .. १४. मैं नरक में उन पुस्तकों का स्वागत करूगा, क्योंकि उनमें वह शक्ति है कि वे जहाँ होंगी, वहाँ अपने आप स्वर्ग बन जायगा। महात्मा तिलक Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकों का चयन १. आज पढ़ना सब जानते हैं, लेकिन क्या पढ़ना है ? यह कोई नहीं जानता। बर्नार्डशा २. कुछ किताबें चखने के लिए हैं, कुछ निगल जाने के लिए हैं और कुछ थोड़ी सी-चबाये जाने एवं हजम किए जाने के लिए हैं। फत ३. बुरी पुस्तकों का पढ़ना जहर के समान है। --टास्साय ४. बुरी किताबों से बढ़कर कोई डाकू नहीं है। - इटली कहावत ५. अच्छी किताब वह है, जो आशा से खोली जाय और लाभ से बन्द की जाय। -एमो० प्रॉसन अल्काट ६. जो पुस्तकें हमें अधिक विचारने को बाध्य करती हैं, वे ही हमारी सच्ची सहायक हैं। -ओडोर पार्कर ८ . Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : का विभिन्न दर्शनों के धर्मग्रन्थ जैनों के मुख्य धर्म-ग्रन्थ आचाराङ्ग सुत्रकृताङ्गसमवायाज-भगवती आदि बारह अङ्ग है । T - बौद्धों के विनयपिटक सुत्तपिटक अभिधम्मपिटक, ऐसे तीन पिटक -प्रन्थ हैं। प्रथम में साधुओं के नियम हैं, दूसरे में बाद्धसिद्धान्त है— इसके पांच निकाय ( दोघं - निकाय आदि) हैं। तीसरे में धार्मिक क्रिया-कलापों का वर्णन है । वैरिकों के वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, श्रुति स्मृति महाभारत, रामायण एवं पुराण आदि हैं। यहूदियों के पुरानी वाइबल, ( OLD TESTAMENT) के तोरा, नवी, नविश्ते ये तीनों भाग एवं तालमुद है । ईसाइयों का - बाइबल मरकूस, मत्ती, लूका तथा यूहन्ना के सुसमाचार - इन चार भागों में विभक्त हैं । ताओ तथा कन्फ्युसियस धर्मवाले चीनियों का - ताओतेहकिंग ( ताओ उपनिषद् ) हैं | ८१ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्य कला के बीज मुसलमानों के-कुरानशरीफ एवं हदीसशरीफ-बुखारीमुस्लिम आदि हैं। सिखों के--गुरुग्रंथसाहेब. जपुजीसाहेब, एवं सुखमणिसाहेब हैं। पारसियों के-अवेस्ता हैं। इसके यस्न, वीस्परत्, यस्त, बेंदीदाद आदि अनेक भाग हैं। आर्यसमाजियों का मुख्य ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश है। -विभिन्न वर्शनों की धार्मिक पुस्तकों से Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाणिक ग्रन्थ + १ प्रमाणं परमं श्रुतिः । —मनुस्मृति २०१३ धर्म को जानने की इच्छा करनेवालों के लिए अति-वेद हा प्रमाण है। २. तमेव सच्चं निस्संक, जं जिणेहि पवेइयं । -आचारांग | वही बात सत्य एवं नि:संदेह है, जो 'जिन' भगवान् ने कही है। ३. देश-कालानुरूपं धर्म कथयन्ति तीर्थंकराः । -उत्तराध्ययन चूणि २३ तीर्थयार देश और काल के अनुरूप धर्म का उपदेश करते हैं । ४. अत्थं भासंति अरहा, सूत्तं गंथं ति गणहरा निउणं । सासणस्स हियठाए, तओ सुत्त पवत्त । -आवश्यक-नियुक्ति ६२ अरिहन्तदेव अर्थरूप वाणी बोलते हैं और निपुण गणधर उस वाणी को सूत्ररूप से गूथते हैं । तत्पश्चात् शासन के हितार्थ सूत्र का प्रवर्तन होता है। ५. सुत्तं गणहरइयं, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च । सुयके वलिणा रइयं अभिन्नदसपुग्विणा रइयं ।। -वसाधु तस्कन्धवृत्ति Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज गणधर, प्रत्येकबुद्धि. श्रुतकेवली एवं अभिन्नदशपूर्वधारी का रचा हुआ प्रन्थ 'सूत्र' कहलाता है।' ६. अस्थधरो तु पमाणं, तित्थगरमुहग्गतो तु सो जम्हा । -निशीषभाष्य २२ सूत्रधर (शब्दपाठी) की अपेक्षा अर्धधर (सूत्र रहस्य का ज्ञाता) को प्रमाण मानना चाहिए, क्योंकि अर्थ साक्षात् तीर्थंकरों की वाणी से निःसृत है। ७. अत्थेण य बंजिज्जइ, सुत्तं तम्हा उ सो बलवं । -व्यवहारमाष्य ४।१०१ सूत्र (मूल शब्दपाठ) (व्याख्या तेही पाक नोता है अत: अर्थ सुत्र से बलवान (महत्त्वपूर्ण) है। १ सूत्र के तीन अर्य-सुत्त-जिससे अर्थ की सूचना की जाए। मुत्र अर्थात् सुप्त-सोए हुए की तरह, इसे टीका-भाष्यादि द्वारा जगाया जाता है । सूत्र अर्थात् धागा जिसमें अर्धरत्न पिरोये जाएँ। मूत्र के तीन भेद- संज्ञासूत्र. कारकमूत्र तथा प्रकरणसूत्र । संज्ञासूत्र में अर्थ का सामान्य निर्देश होता है। जैसे "जे छेए से सागारियं (मेहुणं) न सेवेइ" । कारकसूत्र में क्रियाकलाप का वर्णन होता है । जैसे---"अहाकम्म भुजमाणे आउवज्जाओ सत्त कम्मपगडोओ बंधति" | प्रकरणसूत्र में नमिप्रव्रज्या एवं केशी-गौतम आदिवत् प्रसंग वर्णित होते हैं। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ युक्ति एवं न्याय से ग्रंथों की प्रामाणिकता १. अपि पौरुषमादेयं, शास्त्र वेद् युक्तिबोधकम् | अन्यस्त्वार्थमपि त्याज्यं भाव्यं न्याय्ये कसेविना ॥ 1 प्रोमा २१९० — सामान्य पुरुष द्वारा कहा हुआ शास्त्र भी यदि युक्ति-युक्त सत्य का बोध देनेवाला हो तो वह ग्रहण कर लेना चाहिये । अन्य इसके विरुद्ध चाहे ऋषियोक्त भी क्यों न हो, त्याज्य है । २. पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ , हरि बन्ययोग० ३८ न तो मुझे महावीर का पक्षपात है और न कपिल आदि मतों से द्वेष है। जिसका वचन युक्तिसंगत है, उसी के वचन को ग्रहण करना चाहिए । ८५ केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यो विनिर्णयः, युक्तिहीने विचारे तु धर्महानिः प्रजायते । —बृहस्पति केवल शास्त्र का आश्रय लेकर निर्णय नहीं कर लेना चाहिये, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ स्वकला के बीज साथ-साथ युक्ति भी आवश्यक है, क्योंकि युक्तिहीन विचारों से हानि होती है । ४. जुत्तं अजुतं जोगं न प्रमाणमिति बाहुकेण अरहता इसिणा ऋषिभाषित १४ बुइयं । युक्त बात भी यदि अयुक्त विचार के साथ है तो वह प्रमाणस्वरूप नहीं है -- ऐसे बाहुक आहेतयि ने कहा है । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक प्रकाशन १. युनेस्को के अनुसार दुनियां में प्रतिवर्ष लगभग चार लाख पुस्तकें छपती हैं, उसमें तीन-चौथाई पुस्तकें तो १२ देशों में छपती हैं और १७ प्रतिशत जापान को छोड़कर शेष एशियाई देशों में छपती हैं। भारत में १३६४-६५ में सिर्फ २१ हजार २६५ नई पुस्तकें छपीं । -भवभारत टाइम्स, २६ नवम्बर १९६५ २. विश्व में प्रथम पुस्तक १४४५ में छपी । ३. आकार की दृष्टि से सबसे बड़ी पुस्तक ब्रिटेन की 'एटलस' जो हॉलैण्ड में बनी, ५ फुट साढ़े ६ इंच ऊँची और ३ फुट ढाई इंच चौड़ी है | ४. विश्व में सबसे मोटी पुस्तक चीनी शब्दकोष है, इसके ५०२० भाग हैं । प्रत्येक भाग में १७० पृष्ठ हैं । यह सन् १६०० में छपा था । -- विश्वदर्पण, पृष्ठ २२-२३ ५. सबसे छोटी पुस्तक एगरगेस्ट का 'कविता संग्रह वर्ग इंच के आकार की । -- जन्य, पृष्ठ १९ ६. सबसे मंहगी पुस्तक अमीर अफगानीस्तान को फारस के शाह की दी हुई 'कुरान' की प्रति है, वह सोने के पत्र में 6.5 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ३६८ रत्नो स जड़ी हुई है। उसका मूल्य तीन हजार पौंड है, उसमें १६८ मोती, १३२ लाले, व १०६ हीरे हैं। --जयभारत टाइम्स १ मई, १९५५ संसार की सबसे बड़ी पुस्तक का प्रकाशनकैम्ब्रिज, १२ मई (१६६८) दुनियां की आज तक की सबसे बड़ी किताब कैम्ब्रिजशायर के विस्बेच स्थित वाल्डिग तथा मैनसल लिमिटेड छापेखाने में छप रही है। यह पुस्तक जब छप कर तैयार होगी तब इसका वजन होगा--डेढ़ टन ! यह पुस्तक ६१० जिल्दों में होगी। प्रत्येक जिल्द होगी–७०४ पृष्ठों की। इस पुस्तम की दो हजार प्रतियां छप रही हैं । इन प्रतियों के छपने में दो साल लगेंगे। यह पुस्तक है अमरीकी कांग्रेस के पुस्तकालयों की सूची । अमरीका के दो हजार पुस्तकालयों की तमाम पुस्तकों की सूची इसमें दी जाएगी । ब्रिटिश-छापाखाना इस पुस्तक को छापने के लिए ५० लाख पौण्ड ले रहा है। -वभारतटाइम्स. १३ मई, ११६८ ८. समाचारपत्र १६६६ के अन्त में भारत में कुल १०६७५ समाचारपत्र और नियतकालिक पत्र-पत्रिकाएँ थीं, जबकि १६६५ के अन्त में इनकी संख्या १००८५ थीं। हिन्दी में सबसे अधिक १६३१ पत्र-पत्रिकाएँ थीं। इसके बाद अंग्रेजों में Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : दूसरा कोष्टक ८६ १८४३, उर्दू में ७८५, बंगला में ५५० और गुजराती में ५१४ थीं । दैनिक समाचार पत्र २० भाषाओं में और अन्य नियतकालिक पत्र-पत्रिकाएँ ४६ भाषाओं में प्रकाशित हो रही थीं। दैनिक समाचारपत्र १५ प्रमुख भाषाओं के अलावा चीनी, पुर्तगालो, कोंकणी, लुशाई (मिजा) ओर मणिपुरी में छप रहे थे । नियतकालिक पत्र-पत्रिकाएँ भारतीय भाषाओं के अलावा आठ विदेशी भाषाओं, (नेपाली, अरबी, फ्रांसीसी, तिब्बती, बर्मी, इन्दोनेशियाई, पश्तो और फारसी) में भी छप रही थीं । प्रारम्भिक अनुमानों के अनुसार १६६६ में समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की कुल प्रचार- संख्या २ करोड़ १६ लाख ६० हजार थीं। दैनिक समाचारपत्रों में सबसे पुराना गुजराती का 'बम्बईसमाचार' है, जो १८२२ भें स्थापित हुआ एवं हिन्दी का सबसे पुराना समाचारपत्र कलकत्ते का 'विश्वमित्र' है जो १६१७ में स्थापित हुआ था । --- नवभारत टाइम्स, ९ अगस्त १६६७ प्रेसरजिस्ट्रार की रिपोर्ट के आधार पर E. भारत में सवप्रथम समाचारपत्र २६ जनवरी सन् १७३१ को कलकत्ता में छपा था । -- विश्वमर्पण, पृष्ठ-३८ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ विश्व के प्रख्यात पुस्तकालय १. क्षेत्र नाम एवं संख्याक्षेत्र नाम संख्या १ मास्को (रूस) –लेनिन लायब्ररी -१,१०,००,००० २ लेनिनग्राड (रूस) –माल्टिकोश्त्रेडिन पब्लिक लाइब्ररी -६०,००,००० ३ लन्दन (इंगलैंड) —ब्रिटिश म्युजियम -५०,००,००० ४ पेरिस (फ्रांस) -निविलियो थेक नेशनल-५०,००,००० ५ न्यूयार्क-(संयुक्तराज्य अमरीका) न्यूयार्क पब्लिक लाइब्रेरी -५०,००,००० ६ क्लोरेस (संयुक्तराज्य अमरीका) -बिबलियोटे का नेजिओनेल सेन्ट्रल --३४,००,००० ७ नेपुल्स (इटली), –विवालियोटेक नेजिओनेल सेन्ट्रल -१३,३०,००० ८ लिपजिग (जर्मनी)--बुचेरी ड्यूसे –२०,००,००० कवियेना (आस्ट्रिया)- नेशनल विबलियोथेक -१६,००,००० Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीया भाग : दूसरा कोष्ठक १० मड्रिड (स्पेन) -बिबिलयोरेकानेशनल --१५,००,००० ११ एम्सटरडस -युनिवसिदी लाइबरी (नीदरलैण्ड) -94,००,००० १२ टोकियो (जापान)-म्पीरियल युनिवर्सिटी-लाइक री-१०,००,००० -हिग्नुस्सान, २१ जुलाई, १९६३ (रामरतनशर्मा) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव १. पढ़ाई की अपेक्षा अनुभव का विशेष महत्त्व है। डॉक्टरवैद्य, न्यायाधीश, वकील, ज्योतिषी, अध्यापक आदि ही अन्य कार्य कर जोधक अनुभवी होते हैं । ८ २. अनुभव की पाठशाला का अभ्यास किताब पढ़ने की अपेक्षा ज्यादा उपयोगी होता है । ३. ज्ञान अनुभव से अलग है, अनुभव चाहिए । - महात्मा गांधी के लिए चारित्र - समबंद - रामदास ४. जो मनुष्य न तो अपने अनुभव का लाभ उठाता और न दूसरों के अनुभव का, वह मूर्ख है । • जवाहरलाल नेहरू ५. यदि दो घटनाओं की अनुभूति एक ही साथ हो तो जब भी एक प्रकार के संस्कार उत्तेजित होते हैं । दूसरे भी होने लगते हैं । बचपन में एक कुमारी के कन्धों पर चोट लगी । दाई ने उससे सांत्वना के साथ कामजागृति की बातें भी की। फिर जब भी काम जागृत होता, कंधों में दर्द होने लग जाता । एक मनुष्य के पेट में रात को तीन बजे मरणान्त दर्द ६२ A Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : दूसरा कोष्ठक ६३ हुआ । भय के संस्कारों से रात को तीन बजे नींद उड़ने लगी। -सरलमनोविज्ञान अनुमवी वैद्य-डॉक्टर-कोल आवि१. एक स्त्री के प्रसव-समय बच्चे का हाथ बाहर निकल आया। सारे चिन्तित हो गये । एक अनुभवी वैद्य ने उसके हाथ से बत्ती का स्पर्श किया, वस, बच्चे ने अपना हाथ वापस खींच लिया। २. युरोप में एक लड़की नींद के समय भयभीत हुआ करती थी । अनुभवी डाक्टर ने पूछा-क्या दीखता है ? लड़की ने कहा-सिंह । हंसकर डाक्टर ने समझाया कि वह तो मुझसे भी मिलने रोज आया करता है । तुम डरा मत करो, उसके साथ प्रेम किया करो ! लड़की रात को ज्योंही सोई, उसे सिंह दीखने लगा। वह उससे बाहें पसारकर प्रेम की चेष्टा करने लगी। फिर सदा के लिए उसका डरना बन्द हो गया । ३. सेठ का पेशाब बन्द हो गया । वैद्य ने तरबूज के छिलके घोटकर पिलाए, ठीक हो गया । पुन: बन्द हुआ । वहीं प्रयोग किया, लेकिन लाभ नहीं हुआ । अनुभवी ने गर्म करके पिलाने को कहा कारण सर्दी का मौसम था । ४. मावली (उदयपुर) में प्रभुलालजी वैध की पुत्री के पेट में असह्य दर्द था अतः खिला-पिलाकर उसे दवा से बेहोश करके सुलाना पड़ता था । वैद्यजी ने अन्त में वमन द्वारा उसके पेट से लाल सर्प-सर्पिणी निकाले । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज दिल्ली में डॉक्टर जोशी ने तीन लाख रुपये लेकर अजमेर निवासी एक धनिक के मस्तक से जीवित मेढ़क निकाला । रोगी विलायतों तक भटक आया था । ६. कोटले के नबाब ने पर्दे के अन्दर बिल्ली के पैर के डॉग बाँधकर उसका एक किनारा यति जी को पकड़ाकर पूछा- देखिये बेगम साहिबा की नाड़ो क्या कहती है ? यतिजी ने कहा-चूहा खाऊँ । चूहा खाऊँ ! ७. सरपुरा गांव में हरजामलजी गोलछा के यहां देशनोका निवासी रमजॉन तेली ने चाँदी को वाती स धी का दीप जलाकर उसके काजल से संग्रहणी तथा लाल मकोड़ों के राबलियों को उबालकर उस पानी से पेट का दर्द मिटा दिया । (रमजान छ: मास पूर्व का खाया हुआ बता देता था ।) ८. अबादा गांव में एक स्वामी आनन्दपुरी हैं । वह रोगा के हाथ में तिनका पकड़ा कर नाड़ी देखते हैं तथा उससे रोग का निदान करते हैं। है. सिरसा निवासी श्रावक श्री भगवानदासजी पारख नाड़ी के आधार पर कितना दिन जीएगा-यह वता देते थे । श्री केवल मुनि की नाड़ी देखकर उन्होंने यह कहा था कि इनकी उत्कृष्ट स्थिति सोलह प्रहर है-बात बिल्कुल ठीक निकली। १०. एक मुसाफिर के हाथ पर रेल की खिड़की गिर पड़ो। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग दूसरा कोष्ठक ६५ साधारण चोट आयी। उसने रेल्वे कंपनी पर मुकदमा किया, कंपनी के वकील "फिरोजशाह मेहता" थे। मुसाफिर ने हाथ को पट्टा लगा रखा था एवं कहता था कि मेरा हाथ ऊँचा नहीं उठ रहा है। वकील ने मजिस्ट्रेट के सामने बहस करते हुए उसको धीरे से पूछा- भाई ! चोट लगने से पहले तुम्हारा हाथ कैसे रहता था ? मुसाफिर ने बातों में भूलकर कह दिया कि ऐसे रहता था ! कहते-कहते हाथ भी उठा कर दिखा दिया। बस, केस हार गया । J एक व्यापारी कपड़े की भारी गटड़ी टॉड पर रख रहा था । भावीवण उसके हाथ ऊगर के ऊपर ही रह गये । अनेक उपचार किये गये सब निष्फल हुये । विवाह के प्रसंग में स्त्रियों के बीच एक अनुभवी ने उसकी धोती की लांग खींची। वस, खींचते ही हाथ ठिकाने आ गये । ११. एक बहन उठ नहीं सकती थी. एक अनुभवी ने उसके पास अचानक एक सांप छोड़ा, भयभीत बहन तत्काल उठ खड़ी हुई । १३. एक धनिकपुत्र ने कहीं रुई का बहुत बड़ा ढेर देख! | पागल होकर कहने लगा-कौन धुनेगा ? कौन करतेगा ? कौन बनेगा ? अनुभवी योगी ने कहा- वह तो जल गई। दिमाग ठीक हो गया । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभवहीन १. सावण र जायोड़े (गधै) ने हर्यो ही हो दोसै तथा सावण ₹ आंधे में हों ही हर्यो दीस । २. पढ्यांहां पण कठ्या कोनी, भण्याहां पण गुण्या कोनी ! -राजस्थानी कहावतें ३. सन १८५६ में जब वम्बई के अन्दर मरी का राग चला था, तब बहुत से लोग भागकर गाँवों में चले गए थे । उस वक्त बड़ी-बड़ी सेठानियां भी पंखा हिलाती हुई सिंघड़ियों के पास बैठती थीं और उनके जेंटिलमैन । पति पाकशास्त्र का सहारा लेकर उनकी मदद करते थे। मूंग की दाल के बड़े बनाने की विधि में लिखा था कि आधा सेर मूंग की दाल को चार घंटा पानी में भिगो कर शिला पर पीसना । फिर इसमें नमक दो तोला, हींग दो बाल, धनिया-जीरा आदि का संभार चार तोला, इमली दो तोला, हल्दी आधा तोला, गुड़ दो तोला, कोथमीर-अदरख-हरी मिर्च आदि चार तोला, नारियल' Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौचा भाग दूसरा कोष्ठक ६७ का खमन एक तोला, गर्म मसाला एक तोला, मांण तीन तोला – इन सबमें एक पाव पानी मिलाकर फिर तेल उबलने पर दाल का बड़ा उसमें डालना । सेठानी को विधि का पूरा ज्ञान न होने से सेठजी किताब देखकर बोल रहे थे एवं सेठानी डिब्बों में से सामान निकाल रही थीं। लेकिन तराजू न होने के कारण अनुमान से काम लिया गया । नमक दो तोले के बदले चार तोला, हींग दो वाल की जगह सवा पाँच तोला एवं पानी पाव के बदले डेढ़ छटांक ही लिया गया। कोथमीर मिर्च आदि मिले नहीं और मोण डालना भूल से रह गया। इधर तेल पूरा गर्म हो ही नहीं पाया था, सेठानी ने उतावल करके ज्योंही उसमें बड़े डाले, तेल को कड़ाही फेन से भर गई। अब बड़े तले गये या नहीं-यह जानना कठिन हो गया । नौकर ने कहा- इसमें नींबू का रस डालिये । सेठजी ने जल्दी से उठकर नींबू निचोए तो तेल के छींटे उछलकर सेठानी के मुंह पर लगे और "हाय रे जल गई - जल गई" पुकारती हुई वह दूर भाग गई। अब सेठ ने खुद बैठकर वड़े उतारे लेकिन किसकी ताकत कि वह उन्हें खा सके । ( यह सब अनुभवहीनता का ही परिणाम है ।) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ४. जाके पाँव न फटी विवाई, सो क्या जाने पीर पराई। -हिन्दी कहावत ५. मैं पियां क ऐसी प्यारी, पिया मैंने देखे दिन च सौ-सौ बारो, मैं हंसा पिया मुख मोड़े, गया सियाला आया हाड़, पिया मैनु भुल्या बारंबार । —पंजाबी कहावत अद्भुत अनुभवीएक आदमी इलाज करवाता-करवाता हार गया लेकिन सिर दर्द नहीं मिटा । एक भील ने जड़ी घिसकर दोदो नीद-नीट न उसके बादी में डालीं: मोदी देर बाद जोर से छों के आईं और कई गोल-गोल नाड़े उसके नाक में से निकले । उसी दिन से सिर-दर्द मिट गया। ___-. मेवाड़ की घटना एक गर्भवती स्त्री को छींक आई और गर्भस्थित बच्चे की मुट्ठी खुली । वाफ्स बन्द होते समय माता की एक खास नाड़ी मुट्ठी के बीच में आगई । माता को भयंकर पीड़ा होने लगी । एवं थोड़ी देर में वह बेहोश होगई। मृत समझकर घरवाले रोने-पीटने लगे । एक अनुभवी पड़ोसी ने सारा हाल सुना और उस स्त्री के कान के पास जाकर बंदूक का धड़ाका किया ! बस डर से बच्चे की मुट्ठी पुनः खुली एवं नाड़ी मूलरूप में आ गई और स्त्री बच गई। -हाड़ोती प्रवेश की घटना Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा - १. विरुद्धनानायुक्तिप्राबल्यदौर्बल्यावधारणाय प्रवर्तमानोविचार: परीक्षा 1 -न्यायदीपिका, पृष्ठ ८ स्वविरुद्ध विविधयुक्तियों की प्रबलता की दुर्बलता का निर्णय करने के लिये जो विचार की प्रवृसि होती है उसका नाम परीक्षा है। २. परीक्षा मनुष्य को मापने का एक थर्मामीटर है। -धनमुनि ३. परीक्षा गुणों को अवगुण और सुन्दर को असुन्दर बनानेवाली वस्तु है । प्रेम इससे उल्टा है। -प्रेमचन्द व्यक्ति के अन्दर भी उतना ही झांकना चाहिए, जितना उसके ऊपर । -चेस्टर फोड ५. रत्न बिना रगड़ा खाये नहीं चमकता, मनुष्य बिना परीक्षा के पूर्ण नहीं होता । –धौनी कहावत Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १. न लोगेस्सेसणं चरे । गड्डरी प्रवाह दुनियां के अनुसार आचरण मत करो ! २ कोई कितना भी महान् क्यों न हो, अंधों की तरह उसके पीछे मत चलो। -- विवेकानन्द ३. दमड़ीरी हांडी भी बजा लेणी । परीक्षा आवश्यक ५. हरदरख शिन्द तिला नेस्त । ६. ऑल दैट गिल्टर्स इज नॉट गोल्ड | ४. जौहरशनास देखने, जौहर कमाल के | कागज पर रख दिया, कलेजा निकाल के । - शेर - पारसी कहावत - अंग्रेजी कहावत ८. - आचारांग ४|१ चमकनेवाला सब सोना नहीं होता । (अर्थ - ५ - ६ ) ७. पीलु एटलु सोनु नहि, ऊजलु एटल दूध नहि, काला एटला भूत नहि, जनोई एटला ब्राह्मण नहि । - गुजराती कहावत काला - काला सब जामुन नहीं, धोला धोला सर्व दूध - १०० - राजस्थानी कहावत । नहीं । - हिन्दी कहावत Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२ 9. यश्रा चतुभिः कनकं परीक्ष्यते, निर्धर्षणच्छेदन ताप ताड़नः । तथा चतुभिः पुरुषः परीक्ष्यते, त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा ॥ - सानोति शर बसना वनातवाना, पीटना इन चारों प्रकार से जैसे सोने की परीक्षा की जाती है, वैसे ही दान, शील, गुण और कर्म ( आचारण) – इन चारों से पुरुष की परीक्षा की जाती है । २. बालः पश्यति लिङ्ग, मध्यमबुद्धिविचारयति वृत्तम् । आगमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षते सर्वयत्नेन ॥ हरिभवसूरि -- अशानी मात्र बाह्य चिन्ह देखता है। मध्यमवुद्धिवाला आचरण पर विचार करता है और जानो व्यक्ति प्रयत्नों द्वारा सैद्धान्तिक तत्त्वों की परीक्षा करता है । ३. राहु पया जानीए जां बाहृ पया | ४. लाल गोदड़ियां बिच ही पछानें जांदे परीक्षाविधि पूतां रा पग पालणं पिछाणी जं । १०१ हन् । - पंजाबी कहावतें - राजस्थानी कहावत Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथ । १७२ वक्तृत्वकला के बीज ५. ज्ञानीपुरुष महात्माओं की पहचान आँख से ही कर लेते हैं, क्योंकि रुपयों की तरह हीरों-पन्नों को बजाने की जरूरत नहीं पड़ती, उनकी परीक्षा नज़र से ही होती है। ६. सिल्थेण दोणपागं, कवि च एक्काए गाहाए ! - अनुयोगवार ११६ एक कण से ट्रोणभर पाक बी और एका गाथा मे कवि की परीक्षा हो जाती है। ७ संत शबहां परखिए, विपत पड़े घर-नार 1 शूरा तबही जाणिये, रण बाजे तलवार ।। -- राजस्थानी दोहा ८. जानीयात् प्रेषण भृत्यान, बान्धवान् व्यसनागमे । मित्र चापत्तिकाले तु, भार्यां च विभव - क्षये ।। -चाणक्यनीति १।११ काम के लिए भेजते समय सेवकों की, दुःख आने पर स्वजनों की, आपत्ति के समय मित्रों की और धन-क्षय होने पर स्त्री की परीक्षा करनी चाहिये । ६. शस्त्र की पहचान धार से होती है. वस्त्र की पहचान तार से होती है। इन्सान का धैर्य कैसा है ? इसकी पहचान जीत से नहीं, हार से होती है । __-.-स्वरसाधना से १०. प्राचीनकाल में सत्य-शील की जांच के लिये कई प्रकार की परीक्षाएं की जाती थीं । जैसे--(१) शीशी उबालकर Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ पिलाना, (२) अग्नि में तपाकर लोह का फाला या गोला हाथ या जीभ पर रखना, (३) खाली तुला पर चढ़ाना, ( ४ ) प्रज्वलित अग्निकुंड में डालना आदिआदि । ( इसको धीज भी कहा जाता था ।) चौथा भाग दूसरा कोष्ठक राज्य किसे दिया जाय इस निर्णय के लिये पांच दिव्य (हथनी - घोड़ा - छत्र चामर- कृष्णा गो) प्रकट किये जाते थे । आजकल विधानसभा -लोकसभा आदि में शक्ति परीक्षार्थं सदस्यों के मत लिये जाते हैं । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा का समय १. हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नी, विशुद्धिः स्यामिकापि वा।। ...- रघवंश १५१० सोने की विद्धि एनं मिलावट का पता अग्नि में लगता है, ऐसे ही सत्पुरुषों की परीक्षा भी विपत्ति में ही होती है। . لله २. अत्यधिक विरोधी परिस्थितियों में ही मनुष्य की परीक्षा होती है। - धी मन्त्रिणां भिन्नसंधाने, भिषजां सन्निपातके । कर्मणि व्यज्यते प्रज्ञा, सुस्थे को वा न पण्डितः ।। -हितोपदेश ३।१२१ संधि-भंग होने के समय मन्त्रियों को एनं सन्निपात के समय बंधों की बुद्धि का पता लगता है। स्वास्थ दशा में तो हर एक बुद्धिमान बन बैठता है। काकः कृष्णः पिकः कृष्णः, को भेदः पिक-काकयोः । वसन्तसमये प्राप्ते, काकः, काक: पिकः पिकः ॥ कावा और कोकिल दोनों काले हैं। उनके भेद की परीक्षा वसन्त ऋतु आने पर हो जाती है । १०४ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग दूसरा कोष्टक ५. मणिलुठति पादाग्रे, काचः शिरसि धार्यते । क्रय-विक्रयवेलायां. काचः काचो, मणिः मणिः २३ 1 चाणक्यनीति १५/६ चाहे मणि पैरो की जूतियों में और कांग किन्तु शय-विषय के समय परीक्षक की ब कांच और मणि-म के रूप में प्रकट हो जाता है । जाः। १०५ ६. फूटी हांडी आवाज म्युीिजं । में लगा लिया - राजस्थानी कहावत Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन १. दर्शन का अर्थे ज्ञान, मनन, चिन्तन, विचार, कल्पना या गंभीरविषय हो सकता है, किन्तु वास्तविक अर्थ तत्त्वज्ञान है। वैदिक विचार-विमर्शन-प्रकरण-५ २. दर्शन का सीधा अर्थ है देखना या दृष्टि । उसका तात्त्विक अर्थ है-सत्य का साक्षात्कार या सत्य का सामीप्य । -आचार्य तुलसी . दर्शन दृष्टि है, धर्म उसको देखने का प्रयास । दर्शन साध्य का निश्चय है, धर्म उसको पाने का प्रयास । पर आज दर्शन का अर्थ आग्रह और धर्म का अर्थ रूढ़ि हो रहा है। .आचार्य तुलसी ४. सारा दर्शन दो शब्दों में है-जीवित रहने के लिए खाओ और अनावश्यक वस्तु से बचो। -इपिष्टेट्स ५. कहां से ? किधर ? कैसे ? और क्यों ?—ये प्रश्न संपूर्ण दर्शन को आत्मसात् कर लेते हैं। ..-जूबर्ट जो कुछ सत्य है, उसका अन्वेषण और जो उचित है, उसको कार्य में परिणति-दर्शन के ये दो महान् ध्येय -~~वास्टेयर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : दूसरा कोष्ठक १०७ ७. एक शताब्दी का दर्शन ही दूसरी शताब्दी का सामान्यज्ञान होता है। ___ -हेनरीमार्ड मोडर . . दर्शन के अभाव में धर्म केवल अंधविश्वास मात्र रह जाता है और धर्म का बहिष्कार करने पर दर्शन केवल शुष्क नास्तिकवाद बना रहता है। --विवेकानम्ब दर्शन से लाभ१. सणेण य सद्दहे। - उत्तरराध्ययन २८-३५ जोव दर्शन' से तत्त्वों की श्रद्धा करता है । २. दर्शन जीवन के सभी भागों में उपयोगी है-कहीं वह उत्तेजक है, कहीं अवरोधक है और कहीं व्यापक है । वह सत्प्रवृत्ति का उत्तेजक है, असत्प्रवृत्ति का अवरोधक है । और सदाचार की दिशा में व्यापक है । -आचार्य तुलसी ३. श्रोड़ी दार्शनिकता मनुष्य को नास्तिकता की ओर झुकाती है, किन्तु उसकी गहनता मुक्ति की ओर ले जाती है। –बेकन दर्शन के भेषदुविहे देसणे पण्णत्ते, त जहा–सम्मदसणे चेव, मिच्छादसणे चेव । -स्थानांग-२१ दर्शन दो प्रकार का पाना है—सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन । बौद्ध नैयायिक सांख्य, जैनं वैशेषिक तथा । जैमनीयं च नामानि, दर्शनानामिमान्यहो ! -पदर्शनसमुन्वय ३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ वक्तृत्वकला के बीज भारतीय आस्तिकदर्शन मुख्यलया छः हैं - (१) बोड, (२) नैवावि, (३) सांख्य, (४) जैन, (५) वैशेषिक, (६) जैमनीय (नास्तिक दर्शन इनमें नहीं गिना गया है) दर्शनों का उद्भव - १. बानामृजुसून तो मतमभूद् वेदान्तिनां संग्रहात्, सांख्यानां तत एव नैगमनयाद् योगश्च वैशेषिकः । शब्दं ब्रह्नाविदोऽपि दृष्टिरिती जैनी शब्दनमतः सारतरना ऋजुसूजन की अपेक्षा से बौद्ध संग्रहनय से वेदान्त सांख्य, नैगमनय से नैयाविक वैशेषिक और शब्दन की अपेक्षा से ― JA सर्वर्नयेगुम्फिता, अत्यक्षमुद्वीक्ष्यते । ब्रह्मविदों का शब्द दर्शन उत्पन हुआ, किन्तु जैन दर्शन सभी नयों से गुम्फित है अतः इसकी श्रेष्ठता प्रत्यक्ष देखी जा रही है । दर्शनों के प्रमाण १. चार्वाकोऽध्यक्षमेकं सुगतकणभुजी सानुमानं सशाब्दं, तद्वं तं पारमर्षः सहितमुपमया तत्त्रयं चाक्षपादः । अर्थापत्त्या प्रभाकुद् वदति तदखिलं मन्यते भट्ट एतत्, साभावं द्वे प्रमाणे जिनपतिसमये स्पष्टतोऽस्पष्टतश्च ।। चार्वाक एक प्रत्यक्ष प्रमाण को मानते हैं । बौद्ध और सांख्य तीन प्रमाणों को स्वीकार करते हैं— प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ( आगम ) । पारमर्षः-- वैशेषिक दो प्रमाणों को ग्रहण करते हैं- प्रत्यक्ष और अनुमान । नैयायिकों ने पांच प्रमाण मान्य किये हैं- प्रत्यक्ष अनुमान, शब्द, उपमा ओर अपत्ति । भट्टानुयायि - जैमनीयों के पांच तो पूर्ववत् एवं एक अभाव प्रमाण – ऐसे छः प्रमाण है तथा जनों के दो प्रमाण हैं--- प्रत्यक्ष और परोक्ष | Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... .+ PM' . .. चौथा भाग : दूसरा कोष्ठक १०६ वर्शनकार१. भारतीय दर्शनकारों में मुख्य जैसे--महावीर, बुद्ध, कपिल, गौतम, कणाद एवं जैमनीय आदि हुए हैं । वैसे ही चीन में लाओत्से और कन्फ्यूसियस, मिश्र में प्रोफिरी, रेमिसस, इंगलैंड में बेकन-जान, स्टुअर्ट, स्पेन्सर, वर्कले, ग्रीस में सामोटोस प्लेटा-पीयागोरस, जर्मनी में कान्ट और फ्रांस में कामट् आदि माने गये हैं। -वविविधार-विमर्शन, प्रकरण ५ २. दाड़ी रखने मात्र से कोई दार्शनिक नहीं हो सकता। -एक विचारक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक 4. ऑस्त पुण्य कामाले मतियस्य स आस्तिकः । -सिद्धान्तकौमुको पुन्य है, पाप है—ऐसी जिसकी मान्यता हो, वह आस्तिक है । २. अत्थि मे आया उबवाइए."."... से आयावादी, लोयानादी, कम्मवादी, किरियादी। ..-आसारोग १११११ यह मेरी आत्मा औपपातिब है, न.र्मानुसार पुनर्जन्म ग्रहण करती है--आत्मा के पुर्नजन्म-सम्बन्धी मिहान्त को स्वीकार करनेवाला ही वस्तुतः आत्मवादी, लोकरा दी एवं क्रियायादी हैं अर्थात आस्तिक है। ११० Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्तिक १. नास्ति पुण्यं पापभिति मतिर्यस्य स नास्तिकः । - सिद्धान्तकौमुदी न' पुण्य है, न पाग है--ऐसी जिगकी मान्यता हो, वह नास्तिक नास्तिको वेदनिन्दकः । -मनुस्पति २।११ वैद की निन्दा करनेत्राला मास्तिक होता है । (यहाँ वेद का अर्थ ज्ञान समझना चाहिए ।) 1. पृराने जमाने में ईश्वर पर विश्वास नहीं करनेवाला नास्तिक होता था और नये धर्म में स्वयं पर विश्वास न करनेवाला नास्तिक कहलाता है। ___ - विवेकानन्द ४. परमात्मा को न माने वह नास्तिक है, पर जो श्रद्धाहीन है, वह महानास्तिक है। --- आचार्य तुलसी ५. बेदना और भय के समय कोई प्रकृति नास्तिक नहीं रहती। ___ - एच. मोर ६. रात्रि के समय एक नास्तिक ईश्वर में आधा विश्वास करने लग जाता है। –यंग ७. सर्व प्रथम मैं ईश्वर से भय मानता हूं और फिर नास्तिक से । -शेषसाची Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ८. नास्तिकता का मूल कारण आज की पढ़ाई पुरानी पढ़ाई में तीनों दशाओं का विचार होता था, आज केवल जागृतदशा का होता है। पुरानी पढ़ाई में दृश्यद्रष्टा दोनों का विचार था, आज मात्र दृश्य का है । पुरानी पढ़ाई में आत्मा और शरीर दोनों भिन्न समझाये जाते थे, आज आत्मा का लक्ष्य प्राय: नहीं है तथा पुरानी पढ़ाई में विनय की मुख्यता थी आज विनय की कमी होती जा रही है-इन सभी कारणों से नास्तिकता बढ़ रही है । HRMDiwan . .. . .......-uri Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्तिकों का कथन १. नत्थि पुष्णे व पावे बा, नस्थि लोए इओबरे । सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ।। - सूत्रकृतांग-१२१२ न' पुण्य है, न पाप है और न इस दृश्यमान-लोक के अतिरिक्त कोई संशार है। भारीर का नाश होते हो जीव का नाश हो जाता है। २. लोकयिता वदन्त्येवं, नास्ति जीवो न निर्व तिः । धर्माधमों न विद्यते, न फलं पुण्यपापयोः । -षड्वर्शन २० नास्तिक लोग वाहते हैं कि न जीव है, न मोक्ष है, न धर्म है. न अधर्म है और न ही पुण्य-गाप का कुछ फल मिलता है। ४. यावज्जीवेत् सुखं जीवेद्, ऋणं कृत्वा वृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्व, पुनरागमनं कुतः । नास्तिकों का कहना है कि जहाँ तक जीना हो, सुख से जीना चाहिये । ऋण करके भी घी पीते रहना चाहिए. क्योंकि भस्मीभूत यह शरीर दुबारा नहीं मिलता । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्व १. तहियाणं तु भावाण, सम्भावे उवएसण । भावेण सहिंतस्स मम्मत्त तु त्रियाहियं ।। - उत्तराध्ययन २०१५ स्वयं या उपदेश रो जीव-अजीव आदि सद्भावों में आन्तरिक हार्दिक न होना स -सामगदर्भग है ! २. यथार्थतत्त्वश्रद्धा सम्यक्त्वम् । - जनसिद्धान्तदीपिका ५॥३ जीवादि तत्त्वों की यथार्थश्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है । ३. या देवे देवताबुद्धि गुरौ च मुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधी : शुद्धा, सम्यक्श्रद्धानमुच्यते ।। —योगशास्त्र २ वीतरागदेव में देव-बुद्धि का होना, सद्गुरु में गुरु-बुद्धि का होना और मच्चे धर्म में धर्म-बुद्धि का होना मन्त्री श्रज्ञा कहलाती है। ४. अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिणपन्नत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मर गहियं ॥ -आवश्यक ४ अरिहन्त भगवान मेरे देव हैं, पावजीवन शुद्धसाधु मेरे गुरु हैं, जिनेश्वर देव का बताया हुआ तत्व मेरा धर्म है-यह सम्बक्व भने ग्रहण किया है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग दूसरा कोष्ठक ५. मिथ्यात्वत्यागतः शुद्ध, सम्यक्त्वं जायतेऽङ्गिनाम् । -अध्यात्मसार ७. मिथ्यात्व का त्याग करने से प्राणियों को शुद्ध सम्यक्त्व मिलता है ! सम्यकत्व के भेद- ६. दुविहे सम्मदंसणे पण्णत्तं तं जहा निस्सगसम्मदंसणे चैव, अभिगमसम्मदंसणे चेव । HAL ११५ -A · स्थानाग २।१।७० सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा है – स्वाभाविक अपने आफ उत्पन्न होनेवाला और उपदेश से उत्पन्न होनेवाला । तच्च स्यादोपशमिक, सास्वादनमथापरम् । क्षयोपशमिकं वेद्य' क्षायिक चेति पञ्चधा ॥ · सम्यक्त्व पांच प्रकार का है -- (१) ओमिक, (२) सास्वादन, (३) क्षायोपशमिक, (४) वेदक, (५) क्षायिक । ८. निसग्गुबएस रुई, अणारुई सुत्त - बीयरुईमेव । अभिगम - वित्थाररुई, किरिया - संखेब-धम्मरुई || - उत्तराध्ययन २६।१६ सम्यक्त्व के देश भेव भी हैं -- (१) निसर्गरुनि, (२) उपदेशरुचि (२) आज्ञारुचि, (४) सूत्ररुचि, (५) बीजरूचि, (६) अभिगमरुचि, (७) बिस्तार रुचि, (८) क्रियारुचि, (६) संक्षेपरुचि, (१०) धर्म रुचि । १ सम्यक्त्व के अन्य भेवों का वर्णन देखिए 'मोक्ष प्रकाश ८' में । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ 5. समकत्व के लक्षण, भूषण, दूषण और विशुद्धिशमसंवेग निर्वेदानुकम्पा स्तिस्थल वक्तृत्वकला के बीज लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक्, सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते । - - योगशास्त्र २०१५ ( १ ) शम - क्रोध आदि कषाय की शान्ति, (२) संवेग - मोक्ष कीअभिलापा, (३) निवेद संसार से विरक्ति, (४) अनुकम्पा - दया, (५) आस्तिकता - आत्मा कर्म परलोक आदि पर विश्वास — ये पांच सम्यक्त्व के लक्षण हैं । १०. परमत्थसंभवो वा, सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वाचि । वावन्नकुदंसणबज्जणा य, सम्मत्तसद्दहणा उत्तराध्ययन २८ २८ (१) जीवादि पदार्थों का सही ज्ञान (२) तत्त्वज्ञानी गुरुओं की मेवा, (३) शिथिलाचारी एवं ( ४ ) कुदर्शनियों से बचते रहना – ४ सम्यक्त्व के अज्ञान हैं । ११. स्थैर्यं प्रभावना भक्ति कौशलं जिनशासने । तीर्थसेवा च पञ्चापि भूषणानि प्रचक्षते || योगशास्त्र २११६ (१) धर्म में स्थिरता, (२) धर्म की प्रभावना व्याख्यानादि द्वारा, (३) जिनशासन की भक्ति, (४) कुशलता - अज्ञानियों को धर्म समझाने में निपुणता, (५) चार तीर्थ की निबंध सेवा - ये पांच सम्यक्त्व के भूषण हैं । - १. पात्रयणी धम्मकड़ी, बाई निमित्त तवस्सी । विज्जा सिद्धो य कवी, अठ्ठेव पभावगा भणिया || - योगशास्त्र १२/१६ टीका Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग दूसरा कोष्ठक ११७ १२. शङ्का काङ्क्षा विचिकित्सा मिध्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्च पञ्चापि सम्यक्त्वं दूषयन्त्यमी ॥ योगशास्त्र २०१७ r (१) शङ्खा तवों में संदेह, (२) कांक्षा अन्यमत की अभि लाषा (३) विचिकित्मा धर्मफल में संदेह, (४) मिथ्यादृष्टि एवं व्रतभ्रष्टों की प्रशंसा ( ५ ) उन का संस्तव, प्रेम अथवा संसर्ग - ( ये पांन्त्र सम्यक्त्व को दूषित करनेवाले हैं - सम्यक्त्व के अतिभारदोष है ।) 1 १३. चउबीसत्थएणं दंसणविसोहि जणयई । -- उस सध्ययन २६०६ चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करने से आत्मा सम्यक्त्व को विशेषरूप से शुद्ध करता है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ . सम्यक्त्व की दुर्लभता १. संबुज्झह किं न बुज्ज्ञह, संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा । जो हु वर्णमति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ।। – सूत्रकृतांग २०१ समझो ! तुम क्यों नहीं समझते, आगे सबोघि सम्यक्त्व का मिलना कठिन है । दोती हुई रातें वापस नहीं आतीं। मनुष्य जन्म बार-बार सुलभ नहीं है । ईओ विद्ध समाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लहा । -सूत्रकृतांग १५५१८ यहां से भ्रष्ट हो जाने के बाद पुनः सम्यगदर्शन का मिलना कठिन है। ३. णो सुलभं बोहियं च आहियं । --सूत्रकृतांग २।३।१६ " . सम्यग् शान-दर्शनरूप बोधि वा मिलना सुलभ नहीं है । ४. मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा कण्हलेसमोगाढा । इय जे मरति जीवा, तेसि पुण दुल्लहा बोही । -उत्तराध्ययन ३६।२५२ जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त हैं, निदानसहित कर्म करने वाले है और कृष्णलेश्या से युक्त हैं, उनको मृत्यु के पश्चात् अन्य जन्म में बोधि-सम्यक्त्व की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व से लाभ १. दसणसंपन्नयाएणं भवमिच्छत्तछेयणं करेई । .... उत्तराध्ययन २९८६० सम्यग्दर्शन की संपन्नता से आत्मा भवभ्रमण के हेतुभूत मिथ्यात्व का छंदन करता है। २. सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य, ध्रुवं निर्वाणसंगमः । ___-तत्वामत सम्यक्त्वयुक्त आत्मा को अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है। अंतोमुत्तमित्त पि, फासियं हुज्ज जेहि सम्मत्त तेसि अवड्ढपुग्गल-परियट्टो चेव संसारो। -धर्मसंग्रह अधिकार २।२१ टीका जो जीव अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व को स्पर्श कर लेते हैं, उन के केवल अद्ध पुद्गल–परावर्तन संसार घोष रह जाता है । ११६ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ सम्यकत्व का महत्व १. दसणमूलो धम्मो। -दर्शनपारड, शर घमं का मूल दर्शन (सम्यक श्रद्धा) है । २. मूलं धर्मस्य सम्यक्त्वम् । --हिंगुल प्रकरण सम्यक्त्व ही धर्म का मूल है । ३. कनौनिकेव नेत्रस्य, कुसुमस्येब सौरभम् । सम्यक्त्वमुच्यते सारं, सर्वेषां धर्मकर्मणाम् ।। आम्स की क्रीकी एवं फलों की सुरभिवत् सभी धर्मकर्मों का सार सम्यक्त्व हैं। सम्यक्त्व मुलानि महाफलानि । -धर्मपरीक्षा यथाख्यातचारित्र - केवलज्ञानप्राप्ति आदि महाफलों का मूल सम्यक्त्व ही है। सम्यक्त्वसहिता एव, शुद्धा दानादिका क्रियाः । - अध्यात्मसार दानादि प्रियाएँ सम्यवस्त्र होने से ही पूर्णतया शुद्ध होती है । पात्र चारित्रवित्तस्य, सम्यक्त्वं श्लाध्यते न कः । ___सूक्तमुक्तावलि चारित्ररूप धन को रखने के लिये सम्यक्त्व ही एक पात्र है। उसकी प्रशंसा कौन नहीं करता ! Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग दूसरा कोष्ठक ६. नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयन्वं । सम्मत्तचरिताई, जुगवं पुब्बं तु सम्मत्त । नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुति वरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निब्बाण' । - उत्तराध्ययन] २८/२६-३० उप: सम्यक्त्व के त्रिभा चारित्र न तो कभी था, न वर्तमान में है और न कभी होगा । सम्यवत्य में चारित्र की भजना है। सम्यक्त्व चारित्र कदाचित् साथ उत्पन्न हों तो भी पहले सम्यक्त्व होगा और बाद में चारित्र होगा । ||२६|| ८. सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के बिना पाँच महाव्रत रूप चारित्र के (करण चरण सप्ततिरूप - पिण्डविशुद्धि आदि) गुण प्राप्त नहीं होते। चारित्रगुणों के बिना कर्मों का मोक्ष नहीं होता और अमुक्त को निर्वाण शाश्वत मुक्तिसुख नहीं मिलता । 112011 F ७. दंसणभट्ठो भट्ठो, दंसण भट्टस्स नथि निव्वाणं । सिज्झति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिज्यंति ।। -भक्तिपरिता गाथा ६६ सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति वस्तुत' 'भ्रष्ट है, उसको मोक्ष नहीं मिलता । द्रव्यचारित्र - रहित सिद्ध हो जाते है, किन्तु दर्शन रहित नहीं होते । नाणभट्ठा दंसणलू सिणो । -- आचारांग ६.४ सम्यग्दर्शन से पतित सम्यग्ज्ञान से भी भ्रष्ट हो जाता है । ६. जीवविमुक्का सबओ, दंसणमुक्को य होइ चलसवओो । सबओ लायअपुज्जो, लोउत्तरयम्मि चलसओ || - भाव १४३ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ वक्तृत्वकला के योज जीव से रहित शरीर शव [मुर्दा-लाश ] है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति चलता-फिरता शव है । शव लोक में अनादरणीय होता है और वह चौकोर अर्थात् धर्मसाधना के क्षेत्र में अनादरणीय रहता है । --दर्शन पाहुड २ जो दर्शन से हीन (सम्यकश्रद्धा से रहित या पतिल ) है वह वन्दनीय नहीं है । १०. दंसणहोणो ण बंदिब्बो । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीज सम्यग्दृष्टि २२ १. भूयत्थमस्सिदो खलू, सम्माइट्ठी हवइ जीवो । समयसार ११ जो भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ — शुद्धदृष्टि का अवलम्बन करता है, नहीं सम्यष्टि है | २. हेयायं च तहा, जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी । —सुलपाहूड, ५ जो हेय और उपादेय को जानता है, वहीं वास्तव में सम्यग् - दृष्टिवाला है। ३. सम्मत्तदंसी न करेइ पावं । - आचारोग ३१२ सम्यग्दृष्टि परमार्थ को जानकर (आत्मध्यान में रमण करता हुआ ) पाप नहीं करता । ४. सम्यग्दर्शन संपन्न, कर्म भिर्ननिबद्धयते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते || - मनुस्मृति ६।७४ सम्यग्दर्शन के बिना प्राणी संसार में भटकता है, किन्तु सम्यम्दृष्टि अज्ञान के कर्मों से लिप्त नहीं होता । ५. सम्मदिट्ठी सया अमूढं । - वशवेकालिक १०/७ सम्महष्टि सदा अमुक है, वह बाह्यवस्तु में मूर्च्छित नहीं होता । ६. जे मणन्नदंसी से अणन्नारामे, जे अणन्नारामे से अणन्नदंसो । १२३ -- आचारांग २६ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ वक्तृत्वकला के बीज जो अनन्यदर्शी - सम्यग्दृष्टि है, वह अनन्य आराम - परमार्थ में रमण करनेवाला है। जो अनन्य क्षारामवाला है, चह्न अनन्यदर्शी है । तत्त्व यह है कि सम्यग्दृष्टि जीन अद्वितीय आनन्द में रमण करता है | ७. जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं । - समयसार १६३ सम्यग्दृष्टि आत्मा जो कुछ भी करता है, वह उसके क्रमों की निर्जरा के लिए ही होता है । ८. खवेंति अप्पाणममोहद सिणो । ६६२ तत्वदर्शी पुरुष अपने पूर्व कर्मों का क्षय कर डालते हैं । ६. सम्मदिट्ठी जीवो, गच्छई नियमं विमाणवासिसु । जह न विगयसम्मतो, अह नवि बढाउयपुब्बं || सम्यग्दृष्टिजीब निश्चित रूप से वैमानिकदेवों में जाता है, लेकिन शर्त यह है कि मरने के वक्त सम्यक्त्व विद्यमान हो और सम्यक्त्र के पूर्व आयुष्य का बंधन पडा हो ! १०. सम्यग्दृष्टि जीव तरते हुए जहाज के समान समुद्र में नहीं डूबता । वह नटों के समान जय-पराजय में सुख-दुःख नहीं मानता। वह संसार को जेल समझता है न कि राजमहल | वह काली कोठरी में न होकर काँच की कोठरी में है, जिसमे स्व-पर को देख सकता है। वह खुद को घर का मालिक न मान कर मैनेजर मानता है । वह बस्तु को यथावस्थित रूप में देखता है, रोगी नेत्रवत् विकृतरूप में नहीं । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग दूसरा कोष्ठक १२५ ११. सम्यग्दृष्टि को इन १२ बोलों का चिन्तन करते रहना चाहिए - मैं भव्य हूं या अभव्य, सयम्ग्रद्दष्टि हूं या मिथ्यादृष्टि, परित हूं या अपरित सुलभबोधि हूँ या दुर्लभबोधि, चरम हूँ या अचरम, आराधक हूं या विराधक । - राजप्रश्नीय सूर्यामाधिकार १२. सम्यग्दृष्टि जीवों को ऐसा विश्वास कभी न करना चाहिए कि लोक आलोक, जीव-अजीव पुण्य-पाप, आस्रव संवर, वेदना - निर्जरा, बन्ध-मोक्ष, धर्म-अधर्म, क्रिया-अक्रिया, क्रोधादि कषाय, राम-द्वेष, चतुर्गतिरूपसंसार, मोक्ष-अमोक्ष, एवं सिद्धस्थान नहीं हैं, किन्तु निश्चितरूप से मानना चाहिए कि उक्त वस्तुएँ बिद्यमान हैं । - सूत्रकृतांग पुस २, २०५, गाथा १२ से आगे १३. निस्संकिय- निक्केखिय निष्वितिमिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल - पभावणे अद्य ॥ - उत्तराध्ययन] २८|३१ - (१) सर्वज्ञ भगवान् की वाणी में संदेह नहीं करना, (२) असत्य भतों का चमत्कार देखकर उनकी अभिलाषा नहीं करना, (३) धर्म फल की प्राप्ति के विषय में शंका नहीं करना, (४) अनेक मत-मतान्तरों के विचार सुनकर दिग्मूढ़ न बनना अर्थात् अपनी सच्ची श्रद्धा से न डोलना, (५) गुणिजनों के गुणों की प्रशंसा करना और गुणी बनने का प्रयत्न करना, (६) धर्म से विचलित होते हुए प्राणी को समझाकर पुन: धर्म में स्थापित करना, (७) बोतरागभाषित धर्म का हित करना, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ वक्तृत्वकला के बीज और स्त्रमि-बन्धुओं के साथ धार्मिकप्रेम रखना एवं उन्हें धार्मिक सहायता देना, (4) सद्धर्म की प्रभाव ना करना ये आ सम्पष्टि जीवों के अचारने योग्य कार्य हैं अर्थात् सम्यवाद के आठ आचार है । १४. मिच्छत परियाणामि, सम्मतं उपसंपज्जामि ।। - आवश्यनियुक्ति मैं मिय्यास्त्र का त्याग करता हूं एवं सम्पत्य को अंगीकार करता है। १५. दिद्विमं दिछि म लसएज्जा। - सूत्रकृतांग १४६५ सम्यग्दृष्टि को चाहिए कि वह अपनी दृष्टि को दूषित न करे ५. १६. अवच्छलत्तं य बसणे हाणी। .- महत्कल्पमाष्य २७११ धामियाना में परस्पर वास मात्र ही की होने पर सम्यगदर्शन की हानि होती है। १७. ते धन्ना सुकयस्था, ते सुरा तेवि पंडिया मणुया । सम्मत्त सिद्धियर, सुविणे विण मइलियं जेहिं ।। जिन्होंने समस्त अर्थ को सिद्ध करवाल महत्व को स्वप्न में भी मैला नहीं किया वे मनुष्य धन्य है, वृतार्थ हैं, शूर हैं एवं वे ही पण्डित हैं । जिण बयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेणं । अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी ।। -उत्तराध्ययन ३६।२६१ जो व्यक्ति जिनवाणी में अनुरक्त हैं एवं उसके अनुसार सद्भावों से किया करते हैं तथा जो मिथ्यात्वादि मल और रागादि कलश से रहित है, वे परित्तसंसारी होते हैं । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३० मिथ्यादर्शन-मिथ्यात्व १. विपरीततत्त्वधद्धा मिथ्यात्वम् । - जैनसिद्धान्तदीपिका ४१६ जीवादि तन्वों को विपरीत समझना मिघ्यास्य है । . अदेवे देवबुद्धिर्या, गुरुधीरगुराबपि । अधर्म धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ।। -योगशास्त्र २३ राग-द्वेषयुक्त देव में भगवद्बुद्धि का होना, महाव्रतहीन गुरु में मद्गुरुबुद्धि का होना और अधर्म में धर्म बुद्धि का होना मिथ्यात्व, है क्योंकि यह विपरीत धारणा है । मिथ्यात्वं परमो रोगो, मिथ्यात्वं परमं तमः । मिथ्यात्वं परम: शत्र-मिथ्यात्वं परमं विषम् ।। -योगशास्त्र मिथ्यात्व बड़ा भारी रोग है, घोर अन्धकार है, उत्कृष्ट शत्र है और हलाहल जहर है। ४. मिच्छादिछि न सेवेय्य । -धम्मपद १६७. मनुष्य को मिथ्याधारणा से बचना चाहिए । ५. मइरस्य मिथ्यात्वयुतं न जीवितम् । मिध्यात्ययुक्त जीना मनुष्य के लिए उचित नहीं है । १४३ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व के भेद मिच्छादसण दुविहे पण्णत्ते , त जहा-अभिग्गयिमिच्छादशणं चेव, अणभिरग हियमिच्छादसणे वेब । -स्थानांग २११ मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा है ... आभिग्रहिन और अनाभिअहिक । अभिम्गहियमणभिगाहिय, तह अभिनिवेसियं चेव।। संसइयमणाभोग, मिच्छत पंचहा होई ।। -योगशास्त्र २ श्लोक ३ के अन्तर में तथा धर्मसंग्रह अधि० २ मिथ्यात्व पात्र प्रकार का होता है (१) आभिग्रहिक, (२) अनाभिनहिक, (३) आभिनिवेसिक, (४) सांसायिक, (५) अनाभोगिक । (१) हमारे शास्त्रों में जो कुछ कहा है, वही सच्चा है बाकी सब झूठ है—ऐसा मानना आभिग्रहिकमिथ्यिारव है । (२) सब देव, सब गुरु और सभी धर्म सच्चे हैं । विवेकशून्यता मे ऐसा मानना अनाभिहिमिथ्यात्व है । (३) अभिमानमश जान लेने पर भी जमालि की तरह झूठा आग्रह करना अनामिनिधेसिकमिथ्यात्व है। १४४ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ चौथा भाग : दूसरा कोष्ठक (४) देव-गुरु-धर्म में 'यह सच्चा है या वह सच्चा है। ऐसे शंकामील रहना सांशपिकमिथ्यात्व है। (५) एकेन्द्रियादि जीवों की तरह विशेषज्ञानरहित जीथों की अशानदशा अनामोगिकमिथ्यात्व है। ३. दसविहे मिच्छतं पण्णत्ते , तं जहा (१) अधम्मे धम्मसन्ना, (२) धम्मे अधम्मसना, (३) उमग्गे मग्गसना, (४) मग्गे उम्मग्गसन्ना, (५) अजीवेसु जीवसन्ना, (६) जीवेसु अजीवसन्ना, (७) असाहुसु साहुसन्ना, (८) साहुसु असाहुसन्ना, (६) अमुत्तेसु मुत्तसन्ना, (१०) मुत्ते सु अमुत्तसन्नर । -स्थानांग १०१७३४ दस प्रकार का मिथ्यात्व कहा है... (१) अधर्म को धर्म समझना, (२) धर्म को अधर्म समझना (३) अमुक्तिमार्ग को मुक्तिमार्ग समझना, (४) मुक्तिमार्ग को अमुक्ति मार्ग समझना, ६५) आवाश-परमाणु आदि अजीवों को जीव समझना, (६) पृथ्वी-पानी आदि जीवों को अजीव समझना, (७) असाधुओं को साधु समझना, (८) साधुओं को असाधु समझना, (6) अमुक्तों को मुक्त समझना, (१०) मुक्तों को अमुक्त समझना। ४. दुविहं लोइयमिच्छं, देवगयं गुरुगयं मुणेयध्वं । लोउत्तरं पि दुविहं. देवगयं गुरुगयं चेष । -वर्शमसुडि-प्रकरण ३५ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज दो प्रकार का मिथ्यात्व है-लौकिक मिथ्यात्व और लोकोत्तर मिथ्यात्व । ५. लौकिकमिथ्यात्व दो तरह का है-देवसम्बन्धी और गुरुसम्बन्धी। लोकोत्तरमिथ्यात्व भी दो प्रकार का है-देवसम्बन्धी और गुरुसम्बन्धी । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यादृष्टि-मिथ्यात्वी १. मिच्छादिछि समादाना, सत्ता गच्छति दुग्गति । -धम्मपद ३१६ मिध्याहृष्टि को धारण करनेवाले जीव दुर्गति में जाते हैं । २. मिच्छादिट्ठी अणारिया,""संसारमणुरियति । -बहतांग २३२ मिथ्याहृष्टि अनार्य संसार में चक्र लगाते रहते हैं । ३. मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा। इय जे मरंसि जीषा, तेसिं पु] दुलहा वही ।। - उत्तराध्ययन ३६।२५५ जो जीव मिथ्यादर्शन में रक्त है, निदानसहित है एवं हिंसा में प्रवृत्त है .- ऐसी स्थिति में मरनेवालों को अग्रिम जन्म में सम्यक्त्य का मिलना कठिन है। ४. कूप्पवयणपासंडी, सन्थे उम्मग्गपदिठया । --उत्तराध्ययन २३१३३ 'फु' अर्थात् असत्य प्ररूपणा करनेवाले सभी पाखण्डी उन्मार्गगामी हैं। १४७ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा कोष्ठक १. तत्त्वं पारमार्थिक वस्तु ! -जनसिद्धान्तदीपिका २०१ पारमार्थिक वस्तु का नाम तत्त्व है । जिणपन्नत्त तत्त। -आवश्यक ४ जिनेश्वर देव प्ररूपित संवर-निर्जरारूप धर्म ही तत्त्व है । ३. जीवाऽजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा । संबरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव । -उत्तराध्ययन २८।१४ (१) जीव, (२) अजीष, (३) बंध, (४) पुण्य, (५) पाप, (६) आस्रव (७) संवर, (८) निर्जरा, (९) मोक्ष—ये नवतत्त्व सत् पदार्थ हैं। (स्थानांग ।।६६५ में भी नव सभाव पक्षार्थ कहे हैं) १. अंतरतच्चं जीवो, बाहिरतच्चं हवंति सेसाणि । -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३३४ जीव (आत्मा) अन्तस्तत्त्व है, बाकी सब द्रव्य बहिस्तत्त्व है। ५. एकाग्रो हि बहिर्वृत्ति-निवृत्तस्तत्त्वमीष्यते । एकाग्र होकर बाह्मवृत्तियों से निवृत्त होनेवाला व्यक्ति ही तत्त्व (वस्तु के रहस्य) को पाता है। १४६ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक ६. यथा-यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा-तथा न रोचन्ते, विषया: मुलभा अपि । यथा-तथा न रोचन्ते, विषया: सुलभा अपि । तथा-तथा समायाति, संवित्तो तत्वमुत्तमम् । - इष्टोपदेश ३७-३८ बुद्धि में ज्यों-ज्यों उत्तमतत्व प्रवेश करता है त्यों-त्यों सुलभ होने पर भी इन्द्रियों के शब्दादि विषयों में रुचि नहीं रहती एवं ज्यों-ज्यों वह रुचि हटती है, त्यों-त्यों आत्मतत्त्व बुद्धि में प्रविष्ट होता है। ७. गहे तत्त्व ज्ञानी पुरुष, बात विचारि-विचारि । मथनहारि तजि छाछ को, माखन लेत निकारि | ८. समियंति मन्नमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होइ । -आचारांग ॥५ आत्मापिता से जिस सत्त्व को सत्य माना जाए, उसके लिए वह तत्त्व सत्य ही है, फिर चाहे यह सत्य हो या असत्य । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ १. दव्वं सल्लवखणयं, उप्पादव्ययधुवत्त संजुत्त । द्रव्य का लक्षण सत् है और वह सदा उत्पाद, व्यय एवं प्रवत्वभाव से युक्त होता है। J द्रव्य - पञ्चास्तिकाय १० २. सव्वं चिय पड्समयं उपज्जइ नासए य निच्चं च । -विशेषावश्यक माध्य ५४४ - विश्व का प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और साथ ही नित्य भी रहता है । - सूत्रकृतांग १|१|१६ ३. नो य उप्पज्जए असं । असत् कभी सत् नहीं होता । ४. अत्थित्त अत्थित्तं परिणमइ, नत्थित्त नत्थित्तं परिणमइ । -- भगवती ११३ अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तिरक में परिणत होता है अर्थात् सत् सदा सत् ही रहता है और असत् सदा असत् 1 ५. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा, जं जीवा अजीवा भविस्संति । अजीवा वा जीवा भविस्संति || १५० - स्थानाङ्ग १० Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग: तीसरा कोष्ठक १५१ न ऐसा कभी हुआ है, न होता है और न कभी होगा ही कि जो चेतन हैं, वे कभी अचेतन (जड़) हो जाएँ, और जो जड़ अचेतन हैं, वे चेतन हो जाएं ! J ६. गुणाणमासओ दव्वं एगदव्वस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ॥ ६. - उत्तराध्ययन २८।६ पुद्गल में वर्ण- गंध आदि को तरह जिसमें गुण अवश्य रहे, वह द्रव्य है । जीव में चेतनता को तरह जो सदा द्रव्य के साथ ही रहे, वे गुण हैं तथा जो एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, आकार व संयोग - विभाग की तरह द्रव्य-गुण दोनों में रहे वह पर्याय है । 3. धर्माधर्माकाश- पुद्गुल- जीवास्तिकाया द्रव्याणि कालश्च । - जनसिद्धान्तदीपिका १४१-२ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय — ये द्रव्य हैं, और काल भी द्रष्प है । द्रव्यं पर्यायविद्युत, पर्याया द्रव्यवजिताः । क्व कदा केन किं रूपा दृष्टा मानेन केन च ॥ पर्यान के बिना द्रव्य और द्रव्यरहित पर्यायें कहाँ, कब, किसने, किस स्वरूप एवं प्रमाण से देखी ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं मिलती । ६. निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् । विशेषास्तद्र देव हि ॥ सामान्य रहितत्वेन, विशेष के बिना सामान्य गदद्दे के सींगवत् है और सामान्यरहित विशेष भी वैसा ही है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ वक्तृत्वकला के बीज ६. गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मी ठाणलक्षणों । भापणं सनदा महं भोगाहा क्सणं ६॥ वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उवओगलक्खणो । नाणणं दसणेण च, सुहेण य दुहेण य ||१०|| सहन्धयार-उज्जोओ, पभा छायातबो वि य । बन्न-रस-गन्ध-फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥१२।। -उत्तराध्ययन २८ गति में अपेक्षित सहायता करना धर्मद्रव्य का लक्षण है । ठहरने में अपेक्षित सहायता करना अधर्मद्रव्य का लक्षण है । आकाश सभी द्रव्यों का भाजन है । अवगाहन करना एवं दूसरे द्रव्यों को अवकाश देना उसका लक्षण है ।।६।। पदार्थों के परिवर्तन में सहायक होना कालप्रन्य का लक्षण है । जीवद्रव्य का लक्षण उपयोग है तथा शान, दर्शन, सुख और दुःख से भी जीव पहचाना जाता है ।।१०॥ शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श-ये पुग्गलद्रव्य के लक्षण हैं ॥१२॥ उत्पाद-व्यय-प्रौष्यघटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिब्बलम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम् ॥५६।। पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोत्ति दधिव्रतः । अगोरसनतो नोभे, तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ||६०॥ __-आप्तमीमांसा / सीन मनुष्प सुनार की दूकान पर गए । एक को स्वर्णपट लेना था, दूसरे को स्वर्णमुकुट की आवश्यकता थी एवं तीसरा केवल Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग तीसरा कोष्ठक १५३ स्वर्ण का इच्छुक था | सुनार स्वर्णघट को तोड़कर स्वर्णमुकुट बना रहा था। उसे देखकर पहला शोकातुर हुआ दूसरा खुश हुआ और तीसरा मध्यस्थ भाव में रहा । इनका कारण क्रमशः घट का नाश, मुकुट की उत्पत्ति और स्वर्ण की ध्रुवता थी ।। ५६ ।। दूध मात्र के व्रतवाला दही नहीं खाता, दही के सतयाला दूध नहीं पीता और गोरस के व्रतवाला दूध-दही दोनों नहीं खा सकता - इसलिएं वस्तु उत्पाद-व्यय-प्रोव्य तीनों गुणों से 'युक्त है || ६०|| Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय-प्रमाण अर्थस्यानेकरूपस्य, धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी, दुर्णयोस्तन्निराकृतिः ॥ प्रमाण वस्तु के अनेक प्रमों का ग्रहण करता है और नय अन्य धमों की अपेक्षा रखता हुआ वस्तु के एक धर्म का ग्रहण करता है तथा दुनय एक धर्म का मण्डन करके दूसरे धमों का खण्डन करता है। २. सप्तभङ ग्यात्मक वाक्यं, प्रमाण पूर्णबोध कृत् । स्यात्पदादपरोल्लेखि, वचोयच्चकधर्मगम् ॥ --उपाध्याय यशोविजयजी मातभंगीरूप वाक्य स्यात्पद से युक्त होने के कारण पूर्णबोध अर्थात् वस्तु के राब धर्मों का ज्ञान करता है अत: वह प्रमाण है और जो एक धर्म विशेष का उल्लेख करता है, वह नय है । ३. सत्त नया पण्णत्ता, तं जहा.- नंगमे, संगहे, ववहारे, उजुसुते, स, समभिरूडे, एवंभूते। - स्थानांग ७५५२ सात नय कहे हैं--- (१) नंगम (२) संग्रह, (३) व्यवहार, (४) ऋजुसूत्र, (५) शब्द, (६) समभिरूत(७) एवंभूत । * Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय व्यवहार नय १. जई जिणमयं पवज्जह, ता मा बबहार-च्छिए मुयह ! एकेण विणा छिज्जई, तित्थं अण्णेण उण तच्चं ॥ समयसारवृत्ति, आगमसार यदि तुम जिनमत स्वीकार करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों में से एक का भी त्याग न करी । व्यवहार के बिना तीर्थ एवं आचार का उच्छेद हो जाता है और निश्चय के बिना तत्त्व का हो नाश हो जाता है । ४ २. ववहारणयो भसदि, जीवो देहो य हवदि खलु इक्को ! णदु णिच्छयस्स जीवो, देहो य कदापि एकट्ठो ॥ - समयसारवृत्ति २७ व्यवहार नय से जीव (आत्मा) और देह एक प्रतीत होते है, किन्तु निश्चयदृष्टि से दोनों भिन्न हैं, कदापि एक नहीं हैं । ३. तह ववहारेण विणा परमत्युवएसणमसक्कं । -- समयसारवृत्ति व्यवहार (नय ) के बिना परमार्थ (शुद्ध आत्मतत्व) का उपदेश करना अशक्य है । ४. कत्ता भोत्ता आदा, पोग्गलकम्मस्स होदि बबहारो । - नियमसार १८ ― आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्जा और भोक्ता है, यह मात्र व्यवहारदृष्टि है । * १५५ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद जण विणा लोगस्स वि, बवहारो सम्वहा ण णिघडइ । तस्स भुवणेमगुरुणो, णमो अणेगंत वायस्स ।। -सम्मतिप्तप्रकरण ३७० जिसके बिना विश्व का कोई भी व्यवहार सम्यग्रूप से घटित नहीं होता अतएव जो निभूत का एक मात्र मुकुरु सशाना उपदेशक है)—उस अनेकान्तबाद को मेरा नमस्कार है । जैनों का स्यादाद, वेदों में दृष्टि-सृष्टिवाद एवं पाश्चात्य विद्वानों के मत में थिओरी ऑफ रिलेटीविटी कहलाता ३. न याऽसियावाय विआगरेज्जा। -सूत्रकृतांग१४।१६ साधक स्याद्वाद से रहित (निश्चयकारी) वचन न बोले । विभज्जवायं च वियागरेज्जा, संकेज्ज याऽसंक्तिभावभिक्खू । —सूत्रकृतांग १४॥२२ यदि साधु किसी विषय में संदेहरहित हो तो भी उस विषय में अनाग्रही रहे तथा अनेकान्तवाद (भङ्गवाद-नयवाद) का अवलंबन लेकर कथन कर ! ५. भागे सिंहो मरो भागे, योऽर्थो भागद्वयात्मकः । तमभागं विभागेन, नरसिंहः प्रचक्षते ।। -शास्त्रवार्तासमुच्चय १५६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक १५७ नृसिंहावतार शरीर के एक भाग में सिंह के समान है और दूसरे भाग में पुरुष के समान है । परस्पर दो विरुद्ध आकृतियों के धारण करने से प्रद्यपि वह भागरहित है, फिर भी विभाग करके लोग उसे "नरसिंह" कहते हैं। उत्पन्न दधिभावेन, नष्टं दुग्धतया पयः । गोरसत्वात स्थिरं जानन्, स्याद्वाद द्विड् जनोपि कः ।। __ .- अध्यारमोपनिषद् गोरस में दही के भाव की उत्पत्ति है, दूध के भाव का नाम है और गोरसत्व की स्थिरता है, इस तत्त्व को समझनेवाला कोई भी व्यक्ति स्याद्वाद का विरोधी नहीं हो सकता । देखिएइच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्य - विरुद्ध गुम्फितं गुणैः । सख्यिः संख्यावतां मुख्यो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥१॥ - वीतरागस्तोत्र सांपदर्शन प्रधान-प्रकृति को सत्त्व आदि अनेक विरुद्ध गुणों से गुंफित मानता है। यह अनेकान्त (स्याद्वादी सिद्धान्त का खण्डन नहीं कर सकता। चित्रमेकमने के च, रूपं, प्रामाणिकं वदन् । योगो विशेषिको वापि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥१॥ विज्ञानस्यैकमाकार, नानाकारकरम्बितम् । इच्छेस्तथागतः प्राशो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥।। जातिवाक्यात्मकं वस्तु, वदन्ननुभवोचितम् । भट्टो वापि मुरारि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।।३।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज अबद्ध परमार्थेन, बद्ध च व्यवहारतः । व वाणो ब्रह्मवेदान्ती, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत ॥४॥ अवाणा भिन्न-भिन्नार्थान्, नयभेदव्यपेक्षया । प्रतिक्षिपेयुनों वेदाः, स्याद्वादं सार्वतन्त्रिकम् ॥५।। -अध्यारमोपनिषद न्याय-वैशेषिक एक चित्र को अनेक रूपों में परिणत मानते हैं, वे बनेकान्त सिद्धान्त' का खण्डन नहीं कर सकते ।१।। विज्ञानवादि-चौद्ध एक आकार को अनेक आकारों से करंबित (युक्त) मानते हैं, वे 'अनेकान्त सिद्धान्त' का खण्डन नही कर सकते ॥२॥ भट्ट और मुरारी के अनुयायी प्रत्येक वस्तु को सामान्यविशेषात्मक मानते हैं, वे 'अनेकान्त सिद्धान्त का खण्डन' नहीं कर सकते ॥३॥ ब्रह्म वेदान्ती परमार्थ से ईश्वर को बद्ध और व्यवहार से उलको अबद्ध मानते हैं, ये अनेकान्त सिद्धान्त का खण्डन नहीं कर सकते ॥४॥ बंद भी स्थावाद का खण्डन नही कर सकते क्योंकि वे प्रत्यक अर्थ (विषय) को नयकी अपेक्षा से भिन्न और अभिन्न दोनों मानते हैं। इस प्रकार प्रायः सभी मतावलम्बी स्यावाद को स्वीकार करते हैं ।।५।। ७. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरीधेन स्याल्लास्छिता विधिनिषेधकल्पना सप्तभनी । -जैनसिद्धान्तदीपिका १६ प्रश्नकर्ता के अनुरोध के एक वस्तु में अविरोधरूप से 'स्यात्' शब्दयुक्त जो विधि-निषेध की कल्पना की जाती है, उसे सप्तभंगी कहते हैं । सप्तभंगी के सात भांगे इस प्रकार हैं Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या भाग तोस कोष्ठक १५६. १ कथञ्चित् घट है, २ कथञ्चत् घट नहीं है, ३ कथंचित् घट है और कथंचित घट नहीं है, ४ कथंचित् घट अवक्तव्य है, ५ घंट कथंचित है और कथचित् अवक्तव्य है, ६ घट कथंचित् नहीं है और कथंचित् अवस्तब्ध है, ७ वट कथंचित् है, कथंचित नहीं है और कथंचित् अस्तव्य है । 5. तु गिया नगरी में ५०० शिष्यों युक्त स्थविर पधारे । श्रावक दर्शनार्थ गए एवं प्रश्न किया संजमेण भंते कि फले ? तवे किं फलं ? ( भगवन् ! संयम का क्या फल है एवं तप का क्या फल है ?) स्थविर 'संजमेणं अणण्हफले, तवेणं बोदाणफले । ( संयम का फल अनासव होना है और तप का फल कर्मबुद्धि है ! ) श्रावक - यदि ऐसा ही है तो साधु देवलोक में किससे उत्पन्न होते हैं ? — कालियपुत्त ने कहा - पूर्वतप से, महिल ने कहा - पूर्वसंयम से, आनन्द ने कहा -- पूर्वकर्म शेष रह जाने से, काश्यप ने कहा- द्रव्यादि विषय के संग से । भिन्न-भिन्न उत्तर सुनकर श्रावक कुछ सोच ही रहे थे कि ज्येष्ठस्थविर ने कहा- पूर्वसंयम, पूर्वतप, पूर्वकर्म और संग, स्वर्ग में उत्पन्न होने के ये चारों ही कारण है, अतः चारों मुनियों का उत्तर सत्य है | मात्र अपेक्षाभेद है । सुनकर श्रावक संतुष्ट हुए । : Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज उपरोक्त चर्चा सुनकर गौतम ने महावीर प्रभु से पूछा, उन्होंने भी यही उत्तर दिया । (आज यदि भिन्न-भिन्न संप्रदाय एक-दूसरे का खण्डन न करके स्याद्वाददृष्टि से चिन्तन करने लग जायें तो वैर-विरोध नष्ट होकर एकता हो जाय।) -भगवती सूत्र २२५ के आधार पर तीन देवों के मामांकित द्वारों से तीन मनुष्य मंदिर में गए—ब्रह्मा, विष्णु र महेश का पृथक-पृ पक्ष मेकर वाद-विवाद करने लगे । अन्त में पुजारी द्वारा (शिल्पी की कारीगरी से ही तीन रूप दीखते हैं, वस्तुतः एक ही मूर्ति है 1) समझाये जाने पर शान्त हुए। रेल में भिन्न-भिन्न देशों के यात्री अंगूरखाना चाहते थे, लेकिन भाषा भिन्न होने से अरबी उसे एनब, तुर्की उजम, अंग्रेजी प्रेप्स और हिन्दुस्तानी अंगूर नाम से पुकार रहा था। स्टेशन आया और सबने एक ही वस्तु (अंगूर) खाई । वास्तव में भाषा की अपेक्षा से भिन्नता थी। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सर्ग-अपवाद १. जावइया उस्सग्गा, ताबड्या चेव हुति अववाया। जाव इया अववाया, उस्सगा तत्तिया चेव ।। महतत्कल्पमाष्य ३२२ जितने उत्सर्ग (निषेधवचन) हैं, उतने ही उनके अपवाद (विधि-वचन) भी हैं। और जितने अपनाद हैं, उतने उत्सर्ग भी हैं। २. उस्सग्गेण णिसिद्धाणि, जाणि दव्वाणि संथरे मुणिणो । कारणजाए जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पति ।। -निशीथमाय ५२४५ तथा बृहत्फल्पभाष्य ३३२७ उत्सर्गमार्ग में समर्थ मुनि को जिन बातों का निषेध किया गया है, विशोष कारण होने पर अपवादमार्ग में वे सब कर्तव्य रूप में विहित हैं। ३. णवि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्ध बावि जिणवरिंदेहि । एसा तेसि आणा, कज्जे सच्चेण होयव्वं ।। -निशीयभाष्य ५२४८ तथा बृहत्कल्पभाष्य ३३३० जिनेश्वरदेव ने न किसी कार्य की एकान्त अनुज्ञा दी है और न एकान्त निषेध ही किया है। उनकी आज्ञा यही है कि साधक जो भी करे, बहू मच्चाई, प्रामाणिकता के साथ करे । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ಕ वक्तृत्वकला के बीज निक्कारणम् दोसा कारणमणिदोसा | - निशीथभाव्य ५२८४ बिना विशिष्ट प्रयोजन के अपवाद दोषरूप है, किन्तु विशिष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिए वही निर्दोष है । ५. एगंतेण निसेहो, जोगेसु न देसिओ विही वाऽपि । दलिअं पप्प निसेहो होज्ज विही वा जहा रोगे || - मोघनियुक्ति ५५ जिनशासन में एकान्तरूप से किसी भी क्रिया का न तो निषेध है, और न विधान ही है। परिस्थिति को देखकर ही उनका निषेध या विधान किया जाता है, जैसा कि रोग में में चिकित्सा के लिए । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १. अनुभव के आधार पर ही सिद्धान्त बनते हैं। -नाथजी २. सिद्धान्त सड़क है, व्यक्ति उस पर चलनेवाला है। सिद्धान्त बड़ा क्यों ? रास्ता है। व्यक्ति बड़ा क्यों ? बतानेवाला है। हीरा बड़ा क्यों ? रत्न है ! जौहरी बड़ा क्यों ? परीक्षक है । ऐसे ही गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र अ.र राजा-प्रजा के विषय में भी समझना चाहिये। ३. जं मयं सब्यसाहूणं, तं मयं सल्लकत्तणं । – कृतांग १५:२४ जो सिद्धान्त ममी साघुओं द्वारा मान्य है—वही माया, निदान एवं मिथ्यादर्शनरूप शल्य को छेदनेवाला है। ४. महत्वपूर्ण सिद्धान्त लचीले होने आवश्यक हैं। ..-लिंकन ५. वास्तविकता के द्वारा ही सिद्धांत कार्यरूप में परिणत हो पाते हैं। -कपर ६. मनुष्य की सच्चाई का एकमात्र प्रमाण यह है कि वह अपने सिद्धान्त पर अपना सब कुछ स्वाहा करने को तत्पर रहे। -लावेल ७. कोई भी मनुष्य सत्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में एक साथ नहीं रह सकता। -काइल Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ८. भुङ्क्ते न केवलो न स्त्री- मोक्षमाहु दिगम्बराः । वक्तृत्वकला के बीज ६. मैं मानता हूं धर्मशास्त्रों में, दिगम्बर जैन कहते हैं कि केवलज्ञानी भोजन नहीं करते और स्त्री को मोक्ष नहीं मिलता । -- विवेक- विलास १०. वेद पौरुषय -- ऊँचे-ऊँचे और अच्छे विचार धार्मिक लोग पूजा-पाठ और क्रियाकाण्डों में वैसे बरकरार हैं । लेकिन बात तो सारी इसी सवाल पर आकर अटक जाती है, कि उन सिद्धान्तों पर कुर्बान होने के लिए कौन-कौन तैयार हैं ? - 'खुले आकाश' से ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गों, वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च । पुंसश्च ताल्वादि ततः कथंस्थादपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः ।। वर्णों का समूह तालु आदि से उत्पन्न होता है। वेद वर्णात्मक है - यह स्पष्ट है । तालु आदि पुरुष के होते हैं फिर वेद अपौषेय (पुरुष के वगैर उत्पन्न होनेवाले ) कैसे कहे जा सकते हैं ? 冲 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 15 १. चरितकरं चारितं होइ । -उत्तराध्ययन २८ ३३ कर्मों के चय-राशि को रिक्त करने के कारण चारित्र कहलाता है ! २. चर्यते प्राप्यते मोक्षोऽनेनेति चारित्रम् | ३. चरिताऽऽज्ञ व चारित्रम् । चारित्र इसके द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जाता है न यह चारित कहलाता है। ४. चारितं समभावो । ६. समभाव ही चारित्र है । ५. सद्वाविरियसाधनं चारितं । - उत्तराध्ययन २८ २ टोका प्रहण की हुई प्रतिज्ञा को शुद्ध पालना ही चारित्र है । योगसार - पचास्तिकाय १०७ - विशुद्धिम- १।२६ श्रद्धा और वीर्य (शक्ति) का साधन (स्रोत) छारित्र है । तत्त्वरुचिः सम्यक्त्व, तत्त्वप्रख्यापकं पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रमुक्त भवेज् ज्ञानम् । जिनेन्द्र ेण ॥ --- ..- ज्ञानार्णव, पृष्ठ ६१ जिनेन्द्र भगवान ने तत्त्वविषयक रुचि को सम्यग्दर्शन तत्त्वविषयक विशेषज्ञान को सम्यगुझान और पापमय क्रिया से निवृत्ति को सम्धकुचारित्र कहा है । १६५ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ७. सवंसायमानां, लामचाविग्रीि । -- योगशास्त्र सब प्रकार के सावायोगों का त्याग करना ही चारित्र है। ८. चारित्र दो प्रकार से बनता है आपकी विचारधारा से और आपके अपने समय विताने के ढंग से । -जो० हाज २. चारित्रनिर्माण उससे होता है, जिसके लिए आप दृढ़ता पुर्वक खड़े होते हैं । सम्मान उससे मिलता है, जिसके लिए आप गिर पड़ते हैं। -धूलकोट चारित्र सम्बन्धी उन्नति का अर्थ है खुदी से खुदी को मिटाने की तरफ बढ़ना ! -हाईस्ले ११. चारित्र संग (साथ) में विकसित होता है और बुद्धि एकान्त में। -गेटे १२. प्रत्येक मनुष्य के चरित्र के तीनरूप होते हैं-एक तो जैसा कि वह स्वयं समझता है। दूसरा जैसा कि उसे दूसरे व्यक्ति समझते हैं और तीसरा जैसा कि वह वास्तव में है। –अल्फान्सीकर १३. चारित्र के लिए उतनी कोई घातक चीज नहीं, जितने अपूर्ण कार्य । ___ - ला जाऊं १४. चारित्र एक श्वेत कागज है जो एक बार कलंकित होने पर पूर्ववत् उज्ज्वल होना कठिन है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है चारित्र का महत्व १. कि मुत्तम ? सच्चरितं यदस्ति । -शंकर-प्रश्नोत्तरी क्या वस्तु उत्तम है ? जो सच्चरित्र है, यही । २. बुद्धि से चारित्र बढ़कर है । ___ -इमर्सन ३. चारित्र एक ऐसा हीरा है जो अन्य सभी पाषाणखंडों को काट डालता है। -बारटल ४. जिनेश्वरैस्तद् गदितं चरित्र, समस्तकर्मक्षयहेतुभूतम् । __ -सुभाषितरत्नसम्वोह चारित्र समस्त कर्मों का क्षय करनेवाला है--ऐसा जिनेश्वर देवों ने कहा है। ५. चारित्र वृक्ष है और प्रतिष्ठा छाया। –बाहिम लिंकन ६. जीवन का लक्ष्य सुख नहीं, चारित्र है। -वीधर चरितं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो ति णिहिटो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो।। -प्रवचनसार १७ चारित्र ही वास्तव में धर्म है, और जो धर्म है, वह समत्व है । मोह और. क्षोभ से रहित आत्मा का अपना शुद्ध परिणमन ही समत्व है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वक्तृत्वकला के बीज ८, मनुष्य की सफलता-असफलता का द्योतक चारित्र ही है यदि वह सफल है तो जीवन सफल है अन्यथा असफल । -रोमो ६. कुलीनमकुलीनं बा, वीरं पुरुषमानिनम्, चारित्रमेव व्याख्याति, शुचि वा यदि वा शुचिम् । --वाल्मीकिरामायण ॥१०६४ मनुष्य के चारित्र (आचरण) से ही पता चलता है कि यह कुलग्न है वा कुलहीन, सच्चा वीर है या यों ही डींगे मारने. घाला तथा पवित्र है या अपवित्र । १०. सम्यकचारित्र के बिना इन्सान बिना छत का मकान है। ११. चारित्र के बिना जीवन रोमन की हुई खोखली लट्ठो १२. धर्म, उपदेश, कविता, चित्र, नाटक आदि किसी भी चीज का बिना चारित्र के मूल्यांकन नहीं होता। -जे० जी० हालेख १३. शिक्षा नहीं अपितु चारित्र ही मनुष्य को सर्वोच्च आवश्यकता है। -स्पेन्सर १४. स पुमान् पटावृतोऽपि नग्न एव, यस्य नास्तिसच्चारित्रमावरणम् । स नग्नोऽप्यनग्न एव, यो भूषितः सच्चारियण ।। —नीतिवाक्यामृत २६।५१-५२ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : नोसरा कोष्ठक जो सदाचाररूप वस्त्र से अलंकृत नहीं है, वह सुन्दर वस्त्रों से वेष्टित होने पर भी नग्न ही हैं। सदाचार से विभूषित शिष्टपुरुष नग्न होने पर भी नग्न नहीं गिना जाता । १५ चारित्र शुद्धिस्तु मता दुरापः । चारित्र की शुद्धि दुष्प्राप्य है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ज्ञान के साथ चारित्र आवश्यक १. विना तारित का ज्ञान शीशे की आँस्न के समान केवल दिखाने के लिये है। -स्विनॉक २. चारित्रहीन-बौद्धिकज्ञान सुगन्धित शव के समान है। -गोधी ३. No Knowledge In power Unless put in-10 Action, नो नलिज इन पावर अनलेस पृट इन-द ऐक्सन । -अग्ने जो कहायत कियाशान्य ज्ञान शक्तिशाली नहीं है। ४. सौ रुपयों की नौली में निन्नानवें रुपये चारित्र हैं और एक रुपया ज्ञान है। –श्रीकालूगणी ५. सुबहु पि सुयमहीयं, कि काही चरणविप्पहीणस्स । अंधस्स जहा पलिता, दीवसयसहस्स - कोडीवि ।। --विशेषावश्यकभाष्य, गरथा ११५२ चारित्रहीन पुरुष को बहुत से शास्त्रों का अध्ययन भी क्या लाभ दे सकता है ? क्या लाम्ब्रों दीपकों का जलना भी कहीं अंधे को दीखने में सहायक हो सकता है ? क्रियाविहीनाः खरवद्वहन्ति । --सुभत क्रिया-चारिषहीन व्यक्ति गदहे के समान मात्र ज्ञान का बोझा ढोनेवाला है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था भाग : तीसरा कोष्ठक . १७१ 3. जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागो नहु दणस्स, एवं खु नाणी चरणेण हीणो, भारस्स भागी नहु सुमाईए। -विशेषावस्या , गामा ११५८ जैसे चन्दन' का भार ढोनेवाला गदहा केवल भार का ही भागी है । बन्धन की शीतलता उसे नहीं मिल सकती। ऐसे ही चारित्रहीन झानी का ज्ञान केवल भाररूप है । यह सुगति का अधिकारी नही होता । -- --- - -- - --- -- - -- Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र की रक्षा १. जाइमरणं परिलायं, घरे संकमणे दढे । -आचारांग २१३ जन्म-मरण के स्वरूप को भलीभांति समझकर चारित्र में हल होकर विचरना चाहिए । २. वृत्तं यत्नेन संरक्ष द्, वित्तमायाति याति च । अक्षीणो वित्ततः क्षीणो. वृत्ततस्तु हतो हतः ।। .. विदुरनीति ४।१३० यन्नपूर्वक चारित्र की रक्षा करो, धन तो आता है, चला जाता है । धनहीन व्यक्ति वास्तव में क्षीण नहीं है, किन्तु जो चारित्र से क्षीण हो गया, वह तो सचमुच ही मर गया । ३. If wealth is lost nothing is lost. If health is lost something is lost. If chractor is lost everything is lost. इफ वैल्थ इज लोस्ट नथिंग इज लोस्ट । इफ हैल्थ इज लोस्ट समथिंग इज लोस्ट । इफ करेक्टर इज लोस्ट एवरीथिंग इज लास्ट । --अंग्रेजो कहावत धन खोत्रा कुछ भी नहीं खोया, तन' खोया कुछ खोया । अगर खो दिया सच्चरित्र को, तो धन ! सब कुछ खोया । -वोहा-संवोह Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग: तीसरा कोष्टक ४. ॐ गिरि से जो गिरे, मरे एक ही बार । चरित्र गिरि से जो गिरे, बिगड़े जन्म हजार ॥ -आचार्य उमाशंकर ५. प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत, नरश्चरितमात्मनः । किं तु मेपशुभिस्तुल्यं, कि नु सत्पुरुपैरिति ॥ - शाङ्गधर चाहिए और मनुष्य को प्रतिदिन अपना आचरण देखना सोचना चाहिए कि मेरा आचरण पशुओं के समान कितना है और सत्पुरुषों के समान कितना है ? ६. मां जाति पुच्छ, चरणं च पुच्छ । कट्ठा हवे आरति जातवेदो । संयुक्तमिकाय १२७१६ जति मत पूछो, आचरण (कर्म) पूछो ! लकड़ी से भी आग पैदा हो जाती है । ७. क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । . यतः स्त्री-भक्ष्य-भोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखभाग् भवेत् ॥ ८. शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, वास्तव में क्रिया ही फल देनेवाली है, ज्ञान नहीं, क्योंकि स्त्री, भोजन और भोग का जानकार भी मात्र ज्ञान से सुखी नहीं होता, उसे क्रिया करनी ही पड़ती है । १७३ यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । चौषधमातुराणां सुचिन्तितं न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૪ बक्तृत्वकला के बीज 15 शास्त्र पढ़कर भी वे मूर्ख हैं, जो तदनुसार क्रिया (चारिण) का अनुसरण नहीं करते। वास्तव में जो ज्ञानपूर्वक क्रिया करता है, वाकेन बागियों का रोग नहीं मिटता, उसका सेवन करना जरूरी है । ८. गति बिना पथज्ञोपि नाप्नोति पुरमीस्तिम् । गन्तव्य स्थान की ओर गमन किये बिना मार्गज्ञाता भी मन चाहे शहर में नहीं पहुंच सकता, वैसे ही क्रिया चारित्र के बिना मनुष्य केवल ज्ञान से ही मुक्ति नहीं पा सकता | १०. नाविरतो दुश्चरितान् नाशान्तो नासमाहितः । नाशान्तमनसो वापि, प्रज्ञानेनंनमाप्नुयात् ॥ कठोपनिषद् ११३०१४ जो बुरे आचरणों से नहीं हटा है, जो अशान्त ( उच) है, असमाधियुक्त अशान्तमनवाला है, वह केवल प्रज्ञान- बुद्धिवाद से इस आत्मतत्त्व को नहीं पा सकता । — ११. चरणगुण विप्पड़ीणो, वुड्डद्द सुबहृषि जाणतो । - आवश्यक नियुक्ति ६७ जो साधक चारित्र के गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार समुद्र में डूब जाता है । १२. देशोन चोदपूर्वधारी मुनि भी चारित्र से हीन होकर नरक - निगोद में चले जाते हैं और मात्र अष्ट प्रवचनमाता के आराधक मुनि चारित्र के बल जाते हैं । से मुक्त हो जैनशास्त्र १३. जानन्ति तत्त्वं प्रभवन्ति कतु", — ते केपि लोके विरला मनुष्याः । - हृदयप्रवीप Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्टक १७५ तत्त्व को जैमा जानते हैं, उसी प्रकार आचरण कर सकनेवाले व्यक्ति विरले हैं। १५. सुननेवाले करोड़ों हैं, सुनानेवाले लाखों हैं, समझनेवाले हजारों हैं, किन्तु समझे मुताबिक आचरण करनेवाले विरले ही हैं। १५. आज धर्म का मात्र लेबल है। सोल मोहर कायम रहते हुए भी माल गायब है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र से लाभ १. चरितण निगिलाइ । --उत्तरध्ययन २८।३५ चारित्र से आत्मा आत्रवों का निग्रह करती है। २. चरित्तसंपन्नयाए सेलेसीभाव जणयइ। -उत्तराध्ययन ६६१ चारित्र की संपन्नता से जीव शैलेशीभाव अर्थात चौदहवें गुण स्थान की अडोलस्थिति को प्राप्त होता है। ३. अपनी अपूर्णता दूर करनेवाला व्यक्ति एक दिन समाज __ की अपूर्णता दूर करने में भी समर्थ हो सकता है। –धूमकेतु ४. उत्तम व्यक्ति शब्दों में सुस्त और चारित्र में चुस्त होता ___ - फन्पमूसियस ५. यदि मैं अपने चारित्र की परवाह करूगा तो कीर्ति __ स्वयं अपनी परवाह करेगी। -डी० एस० मूजी ६. चारित्रवान व्यक्ति अपना दोष सुनना पसन्द करते है, चारित्रहीन नहीं। १७६ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग १, त्याग एव हि सर्वेषां, मुक्तिसाधनमुत्तमम् । —माल्लवीय श्रुति सभी के लिये त्याग ही मुक्ति-प्राप्ति का उत्तम साधन है। त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् । त्याग से शाश्वत शान्ति मिलती है । ३. त्याग कियां आवे तुरत, जो कोई वस्तु जरूर । आश कियां थी, 'आशिया' ! जाती देखो दूर । -राजस्थानी वोहा ४. नास्ति विद्यासमं चक्ष :, नास्ति सत्यसमं तपः । नास्ति रागसमं दुःखं, नास्ति त्यागसमं सुखम् । -महाभारत शान्तिपर्व १२ विद्या के समान चक्ष नहीं, सत्य के समान तप नहीं, राग के समान दुःन नहीं और त्याग के समान सुख नहीं । ५. मेवे खाओ त्याग के, जो चाहो आराम । इन भोगों में क्या धरा, (है) नकली आम-बदाम ॥ -दोहा-संदोह ६. चिकनी पट्टी पर खडिया लगाए बिना लिखा नहीं जाता, भोगी आत्मा पर त्याग की खड़ी लगाओ ! त्याग नाग नहीं, सिंह-बाघ नहीं, माग नहीं भयवारो रे। हृदय-विराग भाग-जागरणा, क्यू' कंप मन थारो रे । श्रावकवत धारी! -आचार्य तुलसी Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ त्याग के भेद । १. निघतस्य तु संन्यासः, कर्मणो नोपपद्यते । मोहात्तस्य परित्याग - स्तामसः परिकीर्तितः ॥७॥ दुःखमित्येव यत्कर्म, कायक्लेशभयात्त्यजेत् । स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ||८|| कार्यमित्येव यत्कर्म, नियतं क्रियतेऽर्जुन । सङ्ग त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ||६|| + 1 - अध्याय १८ शास्त्रोक्त विधि से निश्चित जिस कर्म का त्याग करना योग्य नहीं है। मोहवश उस कर्म को छोड़ देता तामसत्याग कहा गया है | ||७|| जो कर्म है यह सब दुखरूप ही है ऐसे सोचकर शारीरिकक्लेश के भय से जो व्यक्ति कर्मों का त्याग करता है, वह राजस त्याग है। त्याग करने पर भी उसका फल नहीं मिलता || 5 || आसक्ति एवं फल का त्याग करते हुए मात्र कर्तव्य समझकर जो शास्त्रोक्तविधि मे निश्चित कर्म किया जाता है, वह सात्विकत्याग है || ण हि णिरवेक्खो चागो, हवदि भिक्खुस्स आसय विसुद्धी । अविसुद्ध हि चित्ते, कह णु कम्मबखओ होदि ॥ १७ = --प्रवचनसारोबार ३।२० Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक १७६ जब तक निरपेक्ष त्याग नहीं होता, तब तक साधक की चित्तशुद्धि नहीं होती और जब तक चित्तशुद्धि (उपयोग की निर्मलता नहीं होती. तब तक कर्मक्षय कैसे हो सकता है ? ३. बाहिरचाओ विहलो, अब्भतरगंथजुत्तस्स । जिसके आभ्यन्तर में ग्रन्थि (परिग्रह) है, उसका बाह्मत्याग व्यर्थ है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ त्यागी १. वत्थागंघमलंकारं इत्थिओ सणाणि य । अच्छन्दा जे न भुजंति, न से चाइति बुच्चइ ॥ जेय कते पिए भोए, लद्ध विपिट्ठि कुब्बइ, साहीणे चयइ भोए, से हु चाइति बुच्चद || - दशवेकालिक २।२-३ वस्त्र, सुगंधित द्रव्य, अलंकार, स्त्री और शयन, जो इन चीजों को विवशता से नहीं भोगता - वह त्यागी सच्चा त्यागी वही है, जो मनोहर एवं प्रिय होकर भी पीठ दिखाता है । २. नहि देहभृतां वाक्यं त्यक्तु कर्माण्यशेषतः । " किंतु कर्मफलत्यागी, स त्यागी त्यभिधीयते ॥ - - गीता० १८१११ समस्त कर्मफलों का त्याग कर देना देहधारियों के लिये वाक्य नहीं है, अतः कर्मफलों में ज्ञासक्ति ममता का त्याग करनेवाला ही वास्तव में त्यागी है ! ३. त्याग करता हूं फिर भी जो जलता क्यों रहता है ? देख ! फल की आशा तो नहीं है ? ४. क्रोध-लोभ- भय आदि के वश त्याग करनेवाला वास्तव में त्यागी नहीं है ! : अप्राप्तेऽर्थे भवति सर्वोऽमि त्यागी | नहीं है, लेकिन भोगों को प्राप्त - नीतिवाक्यामृत अप्राप्त वस्तु का त्यागी हर एक हो सकता है । १८० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान ११. परिहरणीय वस्तु प्रति-आख्यानं प्रत्याख्यानम् । - आवश्यक मलयगिरि, अ० १ त्याज्य वस्तु के प्रति गुमसाक्षी से निषेधात्मक कथन को प्रत्याख्यान वाहते हैं ! २. सेणं पच्चखाणे किं फले ? गोयमा ! संजमे फले । -भगवती २२५ भगवन् ! प्रत्याख्यान से क्या फल ? गौतम ! प्रत्याख्यान से संयम का फल मिलता है। पच्चरखाणेणं यासक्दाराइ निरु भइ, पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोई जणयइ । -उराराश्ययन २६११३ प्रत्याख्यान से आश्रवद्वारों का तथा इच्छा-अभिलाषा का निरोध होता है। जो जीवादिपदार्थों का ज्ञान किए बिना जोवहिंसा का प्रत्याख्यान करता है, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है एवं जो ज्ञानपूर्वक करता है, उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। -गवती ७२ १८१ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ वक्तृत्वकला के बीज ५. पंचविहे पच्चवखाणे पण्णत्ते, तं जहा - (१) सद्दहणसुद्ध, (२) विणयसुद्ध, (३) अणुभासणासुद्ध, (४) अणुपालणा सुद्ध, (५) भावसुद्ध। -स्थानांग ५।३ प्रत्याख्यान पांव प्रकार का कहा है(१) श्रद्धान् शुद्ध-प्रत्याख्यान में पूरी पूरी श्रद्धा रखना । (२) विनय शुद्ध-प्रत्याख्यान गुरु के सम्मुख विनयपूर्वक करना। (३) अनुभाषणाशुभु--गुरु के पीछे से प्रत्याख्यान का पाठ शुद्धरूप से स्पष्ट बोलना । (४) अनुपालनाशुद्ध-संकट के समय प्रत्याख्यान का शुद्ध पालन करना तथा विपत्तिकाल में भी उसे नहीं तोड़ना । (५) भावशुद्ध .. प्रत्याख्यान के प्रति शुद्धभाव रखना, दूषितभान न होने देना। दसबिहे पच्चखाणे पण्णत्ते, तं जहाअणागय-मइक्कतं, कोडीसहियं नियंटियं चेव । सागामणागारं, परिमाणकार्ड निरवसेसे । संकेयं चैव अद्वाए, पच्चक्खाणं भवे दराहा ।। .-स्थामांग १०१७४८ तया भगवती ७।२ दस प्रत्यास्थान कहे हैं-- (१) अनागतप्रत्यारूपान', (२) अतिक्रान्तप्रत्याख्यान, (३) कोटिसहितप्रत्याख्यान, (४) नियन्त्रितप्रत्याख्यान, (५) सागारप्रत्याख्यान, (६) अनागारप्रत्याख्यान, (७) परिमाणकृतप्रत्याख्यान', (८) निरवशेषप्रत्याख्यान, (९) संकेतप्रत्याख्यान, (१०) अद्धाप्रत्याख्यान । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक ७. णमुक्कारं पोरसोए, पुरिमड्ढेगासणेगठाणे य । आयंबिले भत्तठे, चरमे य अभिग्गहे विगइ ।। -आवश्यकनियुक्ति ६३१५६७ कान की अपेक्षा से दस प्रत्याख्यान'(१) नमुक्कारसी, (२) पौरुषी, (३) पुरिमाई, (४) एकासन, (५) एकस्थान, (६) आचामाम्ल, (७) उपवास, (८) धरमप्रत्याख्यान, (९) अभिग्रह. (१०) निविकृति (नीवी) । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार (आचरण) १. शीलवृत्तफलं श्रु तम् । महाभारत, सभापर्व ५।१२३ ज्ञान का फल शील एवं आचार है। २. सारो परूवणाए चरणं, तस्स वि य होइ निब्वाणं । -माचारांगनियुक्ति, गाथा १७ परूपणा का सार है-चग और आच२५ का सार (अन्तिमफल) है—निर्माण । अंगाणं कि सारो ? आयारो। -आधारांगनियुक्ति गाथा १६ जिनवाणी (अंगसाहित्य) का क्या सार है ? 'आचार' ! ४. जीवाहारो भषणइ आयारो। —वशवकालिक नियुक्ति २१५ तप-संयमरूप आचार का मूल आधार आत्मा (आत्मश्रद्धा) ही है। ५. आचार: प्रथमो धर्मो, नृणां श्रेयस्करो महान् । –यजुर्वेद, मनुस्मृति १११३८ उत्तम आचार ही सबसे पहला धर्म है और मनुष्यों के लिए महानकल्याणकारी है। आचारलक्षणो धर्मः, सन्तश्चारित्रलक्षणाः । साधूनां च यथावृत्त-मतदाचारलक्षणम् ।। --महाभारत अनुशासनपर्व, अध्याय १०४ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग: तीसरा कोष्ठक १८५ धर्म का स्वरूप आचार है। सदाचार से युक्त पुरुष ही संत है । संतों का जो जीवनक्रम है, वही आचार है । ७. आचाराल्लभते ह्यायु- राचासदीप्सिताः प्रजाः । आचाराद्धनमक्षय्य -माचारो हन्त्यलक्षणम् ।। --- मनुस्मृति ४।१५६ उत्तम आचार से पूर्णआयु इच्छित सन्तान और अक्षयधन प्राप्त होता है एवं बुराइयों का नाश होता है । ८. सदाचार के तीन फल हैं (१) लोक में कोर्ति बढ़ती है, (२) सम्पत्ति की वृद्धि होती है, (३) मरने के बाद सुगति मिलती है । 2. आचारः कुलमारख्याति, वपुराख्याति भोजनम् । संभ्रमः स्नेहमाख्याति देशमाख्याति भाषणम् ॥ P आचार व्यक्ति का कुल बतलाता है और शरीर भोजन (खुराक) बतलाता है । संभ्रम स्नेह का और भाषण देश का परिचय देता है। १०. मनुष्यों के कर्म उनके विचारों के सर्वाधिक परिचायक हैं । सदाचार बुराचार - ११. पंचविहं आयारे पण्णत्ते, तं जहा णाणायारे, दसंणायारे, विरियायारे । चरितायारे, तवायारे, - स्थानांग ५।२२४३२ . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ वक्तृत्वकला के बीज पाँच प्रकार का आचार कहा है (१) ज्ञानाचार – ज्ञान को विधियुक्त पढ़ना । (२) दर्शनाचार - शंका आदि दोषों को त्यागकर शुद्ध सम्यक्त्व का आराधन करना । (३) चारित्राचार – समिति गुप्ति का शुद्ध पालन करना । (४) तपआचार - आत्मकल्याण के लिए बारह प्रकार की तपस्या करना | (५) वीर्याचार-- धार्मिक कार्यों में शक्ति लगाना । १२. सदाचार- दुराचार - सदाचार सोना है, दुराचार कथीर ( रांगा ) है | सदाचार स्वर्ग की सड़क है, दुराचार नरक का द्वार है । सदाचार सुख का खजाना है, दुराचार दुःख का पहाड़ है । सदाचार सच्चा श्रृंगार है, दुराचार जाज्वल्यमान अंगार है । सदाचार सच्ची श्रीमत्ता है, दुराचार दरिद्रता है । सदाचार सच्चा भूषण है, दुराचार भारी दूषण है । सदाचार सच्ची विद्वित्ता है, दुराचार निरीमूर्खता है । सदाचार सच्चा मित्र है, दुराचार कट्टर शत्रु है । - एक विचारक १३. सदाचार के बिना जीवन विटामिनशुन्य भोजन है । १४. सुना है- बूढ़े सत्य ने अपने जवान और इकलौते बेटे सदाचार की आकस्मिक मौत से दुखी होकर आत्महत्या करली है । 7 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक और यह भी सुना है कि बड़े सबेरे ही राजभवन में एक शपथग्रहणसमारोह में जवान और लोकप्रिय असत्य के लाडले सपूत भ्रष्टाचार ने राष्ट्र के प्रति पूरी ईमानदारी बरतने की शपथ ले ली है। -श्री रविदिवाकर Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचरण बिना ज्ञान अध्यात्मशास्त्र की बड़ी-बड़ी बातें बनानेवाले बोड़ीसिगरेट गूम होते ही लाल-पीले होने लगते है, भगलती के भांगे अंगुलियों पर गिन लेने वाले धावक हराम का पैसा हजम कर जाते हैं, समयसार का निचोड़ निकालनेवाले भाई भाइयों से लड़ते नहीं शरमाते । वेद, उपनिषद्, गोता, पुराण, कुरान व बाइबिल के ज्ञाता रंडियो में भटकने से बाज नहीं आते । अब बतलाइए कि आच रण के सुधरे विना ज्ञान का क्या मूल्य ? २. जो कुछ नहीं करता, वह कुछ. नहीं जानता, अपने सिद्धान्तों को परखो कि वे आग्नपरीक्षा में खरे उतरते हैं या नहीं। - -एलोयासिस १८८ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारवान् १. अज्ञभ्या ग्रन्थिनः श्रेष्ठा, मन्थिभ्यो धारिणो वराः । धारिभ्यो ज्ञानिनः श्रेष्ठा, ज्ञानिभ्यो व्यवसायिनः । -मनुस्मृति १२६१०३ अजों से ग्रन्थ पढ़नेवाले श्रेष्ठ हैं, उनसे ग्रन्थों को धारनेवाले (याद रखनेवाले) श्रेष्ठ हैं, उनमें ग्रन्थों के रहस्प को जाननेवाले ज्ञानी थेट हैं और ज्ञानियों से तदनुकूल आचरण करने वाले श्रेष्ट होने हैं। २. जो नेक अमल करेगा, वह अपनी राह संवारेमा । -तुरान० ३०४४ ३. तिष्ठति प्रकृताचारे संब आर्य इति स्मृतः । जो प्राकृतिक आचरण का अनुसरण करता है, वही आर्य माना गया है। ४. आया रकुसले । आचार्यपद के अधिकारी को सबसे पहले आचार-कुशल होना आवश्यक है। ५. जो सीखो उसे अमल में लाओ। -पहेलवाटक्सट्स Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृत्वकला के बीज २. जिसने शान को आवरण में उतार लिया. उसने ईश्वर को मूर्तिमान कर लिया । -विनोबा द्रोणाचार्य ने क्षमाकुरु ने ७. कौरवां पाण्डवों का पढ़ाते समय यह पाठ पढ़ाया। सबने याद करके सुना दिया। युधिष्ठिर ने कहा- अभी याद नहीं हुआ । गुरु धमकाया। दूसरे दिन फिर पूछा। वही उत्तर मिला ! द्रोणाचार्य मे उन्हें खूब पीटा। इस प्रकार कई दिन मार खाते-खाते याद हुआ। गुरु के पूछने पर धर्मपुत्र ने रहस्य खोला कि जब तक क्रोध आता रहा तब तक याद हुआ यह कैसे कहूँ ? ८. चार वेदों के ज्ञाता को अपेक्षा उनको आचरण में लानेबाला बड़ा है । - एक विचारक 5. करनी करें सो पूत हमारा, कथनी करें सो नाती । रहणी रहे सो गुरु हमारा, हम रहणी के साथी || - कबीर १०. गांधी जी जब लन्दन में रहते थे, एक पादरी ने ईसाई बनाने की नीयत से उन्हें भोजन का निमन्त्रण देता तथा उनके लिए खाना अलग बनवाया करता । पादरी के बच्चों ने पूछा- खाना अलग क्यों बनाया जाता है ? पादरी ने कहा- ये अहिंसक है, मांस नहीं खाते, इसलिए खाना अलग बनाया जाता है। बच्चों ने फिर प्रश्न किया वे मांस क्यों नहीं खाते ? तब पादरी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग: तीसरा भाग १६१ ने गांधीजी की जीवनचर्या एवं उनको अहिंसा का विवेचन किया। बच्चे इससे काफी प्रभावित हुए और कहने लगे, पिताजी आज से हम लोग भी मांस नहीं खाएँगे । पादरी महोदय घबराए और उस दिन से गांधीजो को निमन्त्रण देना हो बन्द कर दिया। * Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 १. आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः । आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते । २. अनाचरतो मनोरथाः स्वप्न राज्यसमाः । आचारहीन ४. नोतिया क्यामृत आचरण नहीं करनेवालों के मनोरथ स्वप्नराज्य के समान है। ३. विचार की भूलवाला मूर्ख हैं तो आचार की भूलवाला दुष्ट (पापी) है ! - एक विचारक चन्दन जन परिचय बढ़ा, त्यों-त्यों बढ़ा विकार । हानि पड़ी आचार में, ज्यों-ज्यों बढ़ा प्रचार ॥ - वाशिष्ठस्मृति - ६३ १६२ ५. उसका इरादा अच्छा है, यह व्यर्थ है- यदि वह अच्छा काम न करे ! ६. मन राजा सों करम कमेड़ी सो । - राजस्थानी कहावत Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ कथन के समान आवरण आवश्यक १. यथा वाचि तथा क्रियायाम् । कथनी के समान करनी भी होनी चाहिए । कहनी करनी एकसार बना, तुलसी तेरापथ पाएँ हम । - आचार्य तुलसी २. करणी है रहणी नहीं, रहणी का घर दूर । कहणी तो कारा करे, चारों वेद मजूर | ३. हमें कहना आता है, करना नहीं आता । चलना नहीं आता । हमें बोलना आता है, ४. यह कितनी गलत बात है कि हम मैले रहें और दूसरों को साफ रहने की सलाह दें । गाँधी ५. यहि कथिरा तं हि वदे, यं न कथिरा न तं बदे । अकरोन्तं भासमानं, परिजानन्ति पण्डिता ॥ थेरगाथा ३।२२६ १३ -- राजस्थानी दोहा जो कर सके, वही कहना चाहिए, जो न कर सके, वह नहीं कहना चाहिए। जो कहता है पर करता नहीं उसकी विद्वान् निन्दा करते हैं । ६. ऐ ईमान वालो 1 क्यों कहते हो ऐसी बात जो करते 1 नहीं । - कुरान० ६१:२ १६३ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ etic १६४ वक्तृत्वकला के बीज ७. हैं विरले नर या जग में, जो कहें सो करें न, करें सो कहें नां । —बाल कवि ८, संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं .. (१) पाटल (कटहल) सइश, जो केवल फलते हैं । () रसाल (आमो मद्दम, जो जलते और फलते हैं । (३) पनस (आक) सदृश, जो केवल फूलते है। अर्थात् एक वे मनुष्य जो कहते नहीं, करते है । दूसरे कहते है और करते भी हैं । तीसरे केवल कहते हैं, करते नहीं। - रामचरितमानस ६./कणी मोठी खांड सी, करनी विष सम होय । कहणी सी करणी हुए, तो बिष ही अमृत होय ।। -राजस्थानी वोहा १०. शब्द पृथ्वी को पुत्रियाँ हैं और कार्य स्वर्ग के पुत्र । -मुएल जानसन ११. यदि वयस्कलोग उन उपदेशों पर अमल करें जो वे बच्चों को देते हैं, तो दुनियां अगले सोमवार को ही स्वर्गतुल्य बन जाए। --आर० किंग १२. न नश्यति तमो नाम, कृतया दीपवार्तया । म गच्छति विना पानं, ध्याधिरौषधिशब्दतः ॥ -विवेकचूडामणि दीपक की बात करने से अंधेरा नहीं मिटता और औषधि का पान किए बिना औषधि शब्द के उच्चारण करने से रोग नहीं आता। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा नोष्ठक १६५ १३. मिस रो-मिसरी कह्या स्यू मुह मोठो को हुवे नी । -राजस्थानी कहावत १४. लड्डू की बातों से मुंह मीठा नहीं होता, कम्बल की बातों से सर्दी नहीं उड़ती, व्यापार को बातों से लखपती नहीं बना जाता, विवाह की बातों से बहू घर नहीं आती, राज्य की बातों से राय नदी मेला दिसा की सातों से विद्वान् नहीं बना जाता । व्रतों को बातों से श्रावक नहीं होता अपितु तदनुसार क्रिया करने से इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है। --एक विचारक 47. Fine werds belter no Purs neurs. फाइन अर्डस बेटर नो पर्स नियम । --अंग्रेजी कहावत साली बातों से पेट नही भरता। कहाँ सूखी बातों से हो रेल-पेल, खली पेलने से न निकलेगा तल । न बाले बनाकर ही बहलाओ जी ! के पानी बिलौने से निकले न घी । अमल के मुताबिक सिला हो मुदाम, के इमली से इमली हो, आमों से आम ।। -उ शेर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील १. सील विसय विरागो। - शीलपाहर ४० ___ इन्द्रियों के विषय से विरक्त रहना शील है। २. सिरट्ठो सीलट्ठो, सीतलवो सीलहो । –विसुद्धिमग्गो १११६ शिराय (मिर के समान उत्तम होना) शील का अर्थ है । शीतलार्थ (शीतल-शान्त होना) शील का अर्थ है । सोलं सासनस्स आदि । –विसुद्धिमग्गो १७ ___ शील धर्म का आरम्भ है, आदि है। ४. सील मक्खिस्स सोवाणं । -शीलपाहल २० शीन (सदाचार) मोक्ष का सोपान है। सीलगन्ध समो गंधो, कुतो नाम भविस्सति । यो समं अनुवाते च, पदिवाते च वायति ।। –विसुद्धिमग्गो १२४ शील की गन्ध के समान दूसरी गंध कहाँ ? जो पनन की अनुफूल और प्रतिकूल दिशाओं में एवा समान बहती है । सीलं बलं अप्पटिम, सीलं आबुधमुत्तमं । सीलमाभरणं सेह, सील कवचमभुतं ।। -थेरगाथा १२।६१४ शील श्रेपर आभूपण है और शील रक्षा करनेवाला अद्भुप्त कवच है। १९६ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक १६७ ७. हिरोत्तप्पे हि सति सील उप्पज्जति चेव- तिति च । असति नेव उप्पज्जति, न तिठ्ठति । –विसुचिमणो श२२ सजा और संकोच होने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है । लजा और संकोच न होने पर शील न तो उत्पन्न होता है और न यहरला है। ८. सीलपरिधोता पञ्चा, पमा परिधोतं सील । यत्व सील तत्थ पन्ना, यस्थ पञ्चा तत्थ सील ।। -दीघनिकाय ११४४ शीन से प्रज्ञा (ज्ञान) प्रक्षालित होती है, प्रज्ञा से पील (आचार) प्रक्षालित होता है। जहां शील है, वहां प्रज्ञा है जहाँ प्रज्ञा है वहाँ गील है । ६. जीवदया-दम-सच्चं, अचोरियं बंभचेर-संतोसे । सम्म सण-णाणे, तओ य सीलस्स परिवारो। - शोलपाहड १८ जीव दया, दम, सत्व, अचीर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तप—यह सब शील के परिवार हैं अर्थात शील के अंग हैं। १०. किकीव अण्डं चमरीव बाल धि, पियं व पुत्त नयन ब एक । तथेव सीलं अनुरक्खमानका, सुपेसला होथ सदा सगारवा । –विसुद्धिमम्मो १६८ जैसे—टिटहरी अपने अण्डे की, चमरी अपनी पूछ की, माता अपने इकलौते पुत्र की, काना अपनी अकेली औख की सावधानी Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. वक्तृत्वकला के बीज के साथ रक्षा करता है, वैसे ही अपने शील की अविच्छिन्नरूप से रक्षा करते हुए उसके प्रति सदा गौरव की भावना रखनी चाहिए । ११. न संतसंति मरणते, सीलवंता बहुस्सुया । -उत्तराध्ययन ५।२६ जानी और सदाचारी आत्माएं मरणकाल में भी त्रस्त अर्थात् भयाक्रान्त नहीं होती। १२. सील-गुणवज्जिदाणं, णिरत्थयं माणुसं जम्म । —शीलपाड १५ शीलगुण से रहित व्यक्ति का मनुष्यजन्म पाना निरर्थक १३. सम्पन्नसीला, भिक्खवे विहरथ । -मज्झिमनिकाय ११६१ भिक्षुओ ! शील सम्पन्न होकर विचरो ! Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ १. व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् । दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥ यजुर्वेद १९।३० व्रत (आचरण) से मनुष्य को दीक्षा अर्थात् उन्नत जीवन की योग्यता प्राप्त होती है। दीक्षा से दक्षिणा यानी प्रयत्न की सफलता मिलती है। दक्षिणा से अपने जीवन के आदर्शो में श्रद्धा होती है । और श्रद्धा से मत्य की प्राप्ति होती है । २. ए वादिनं । - उत्तराध्ययन ५।२२ व्रत साधु हो, चाहे गृहस्य हो, अले व्रतोंवाला स्वर्ग में जाता है । ३. व्रताभिरक्षा हि सतामलं क्रिया । व्रतों को शुद्ध पालना ही सत्पुरुषों का श्रृंगार है । ४. व्रतों की विधि दुष्कर होने पर भी उसे पालने का प्रयत्न करें ! ५. रत्नों के आभूषणों से भी व्रतों की विशेष सम्भाल रखो, अन्यथा वे दूषित होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँगे ! ६. व्रत टूटने पर मनुष्य की शान नहीं रहती । ७. टूटने के भय से व्रत मत छोड़ो ! जैसे - जूओं के भय से वस्त्र पहनना नहीं छोड़ते, १६ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० वक्तृत्वकला के बीज भिक्ष ओं के भय से भोजन बनाना नहीं छोड़ते, टिड्डियों के भय से खेती करना नहीं छोड़ते, दुर्घटना के भय से मोटर या रेल आदि की सवारी करमा नहीं छोड़ते, नुकसान के भय से मार कर हों छोड़ सभा मक्खियों के भय से दूध पीना नहीं छोड़ते, वैसे ही टटने के भय से व्रत लना भी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि टूटे इंजन, फूटे बर्तन एव फटे वस्त्र की तरह दूषित व्रत भी प्रायश्चित्त द्वारा पुन: निर्मल हो सकते हैं। ८. सर्वप्रयत्नेन चातुर्मासे यती भवेत् । ... भविष्यासरपुराण चतुर्मास के समय सभी प्रकार के प्रयत्नों से कुछ न कुछ व्रत नियम अवश्य करना चाहिए । ६. गिहिबासे वि सुब्वए। __- --उत्तराध्ययन १२४ धर्मशिक्षासम्पन्न महस्य गृहबास में भी सुबती है। १०. एकादशीव्रत का ढोंग --- (क) भोर उठ स्नान कियो, सेर पस्को दुध पिया, सैंकड़ों सिंघाड़ें खाये, चित्त तो सवादी है। दोपहरी में भांग छानी, पाव चोनी सेर पानी, सोलह शक्करकंदी खाई, खोद्योड़ी नवादी है। पाब पक्की बरफी खाई, पाव पक्का पेड़ा खाया, बीसों अमरूद खाये, आई नी वादी है। कहे 'ब्रह्मदत्त' ऐसो त नित्य होय यारों । कहने की एकादशी पं द्वादशी की दादी है ।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक (ख) गिरि ने छुहारा खाय, किसमिस बिदाम खाय, सेव ने सिंघाड़ा खाय. सांठ को सवादी है। मुदपाक खंड-खीर, वरफी अकबरी रु, कलाकंद खाय, खूब लौटे पड़ यो गादी है । आम खरबूजा खाय, काकड़ी मनीरा खाय, मूली बोर सोगरी में, खूब प्रीति साधी है । माम तो आहार अल्प, कीन्हों भरपूर भार, कहने की एकादशी मै द्वादशी की दादी है । ... बापरलोक्सामः Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावत १. पंच महब्धया पपण त्ता, तं जहा—सब्वाओ पाणाइबायाओ वेरमणं । जाव सव्वाओ परिग्गहामी वरमणं ।। __ -भ्यानांग ५।१।३८४ भगवान ने पांच महाव्रत कहे हैं--(१) सर्वथा जीव-हिंसा से विरत होना, (२) सर्वथा झुठ मे विस्त होना, (३) सर्वथा चोरी से विरत होना, (४) सबंधा अब्रह्मचर्य मे घिरत होना, (५) सर्वधा परिग्रह से विरत होना। २. अहिंसा-मस्याऽस्तेय-ब्रह्मचर्याऽपरिपहा यमा: । पातंजल-योगवर्शन २०३० (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) ब्रह्मचर्य, (५) अपरिग्रह ये पांच यम हैं। ३. एते जाति-देश-काल-समयानवच्छिन्नाः । सार्वभौमा महाव्रतम् ।। • --पातंजल-योगवर्शन २१३१ ये यम जाति, देश, काल, समय के अपवाद से रहित हो और सभी अयस्थाओं में पाले जायें तो महायत कहलाते हैं । ४. इच्चेइयाई पंच महत्वयाइराइभायणवेरमणछट्ठाई। अत्तहियट्टयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ।। -..इंशकालिक ४ २०२ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "बौथा भाग : तीसरा कोष्ठक २०३ ये पांच महायत और छट्टा रात्रिभोजन-व्रत इनको आत्मा के हिल के लिए धारण करके विचरता हूँ । सांसारिक सुखों की से नहीं । ५. माहणेण मईमया जामा तिनि वियाहिया । - आचारांग ८।१ # सर्वज्ञ भगवान ने तीन याम अर्थात् महाव्रत कहे हैं - बहिसा सत्य और अपरिग्रह | Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ सभ्यता १. सभ्यता चारित्र का वह रूप है, जो मनुष्य को कर्तव्य का मार्ग दिखलाता है। -गांधी २. नोच्चेहसेत्, न शब्दबन्तं मारुतं मुञ्चेत्, नाऽनावृत मुखो जृम्भा क्षवथु हास्य वा प्रवर्तयेत्, न नासिका कुष्णीयात्, न दन्तान् विघट्टयेत्, न नखान वादयेत् ।। __ -चरकसंहिता सूत्रस्थान १६ सभ्य मनुष्य को चाहिए कि वह अधिक जोर से न हंसे, शब्दयुक्त अपानवायु का त्याग न करे, मुख को बिना ठेके जंभाई, छीक व खांसी को न निकाले, अंगुली से नासिका को न कुरेदे, दांतों को न किटकिटाने एवं नखों को न बजाये । (अत्रिऋषि द्वारा अग्निवेश को उपदेश ३. नान्नमद्यादेकबासा, न नग्नः स्नानमाचरेत् । न मूत्र' पथि कुर्वीत, न भस्मनि न गोनजे ।। -मनुस्मृति ४१४५ एक वस्त्र से भोजन, नान होकर नहाना, मार्ग में, राख के ढेर में तथा गोब्रज में भूत्र करना—मे काम निषिद्ध हैं। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरः दोला २३५ ४. यदि तुम मनुष्य को सभ्यता सिखाना चाहते हो तो उसका प्रारम्भ दादी से करो। -विक्टर ह्य गो ५. सभ्यता और धर्म की प्राचीनता की दृष्टि से कोई भी राष्ट्र आर्य-सभ्यता की समता नहीं कर सकता। --- हे० एन० थांग Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ योग १. मोक्मेण जोयणाओ, जोगो सम्बोवि धम्मववहारो। -हरिभर-योगविशिका जो आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ता है, वह सभी धार्मिक मार योग है ! २. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः -पातंजलयोगदर्शन ११२ - चित्तवृत्ति का निरोध योग है । ३. कुशलप्रवृत्तिर्योगः । –बौद्ध सत्प्रवृत्ति का नाम योग है । ४. समत्वं योग उच्यते । .- गीता समता को योग कहते हैं । ५. यं संन्यासमिति प्राहु-योग तं विद्धि पाण्डव ! -गीता ६२ पाण्टुनन्दन ! जिसको संन्यास कहते हैं, उसी को तू योग समझ । यम-नियमाऽऽसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-- समाधयोऽष्टावङ्गानि । . --पातंजल-मोगदर्शन २०१६ योग के आठ अंग हैं(१) यम, (२) नियम, (३) आसन, (४) प्राणायाम, (५) प्रत्याहार, (६) धारणा, (७) ध्यान', (८) समाधि । २०६ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग तीसरा कोष्ठप ७. योग की गाडियों हैं (१) मित्रा, (२) तारा, (३) बला (५) स्थिरा, (६) कान्ता, (७) प्रभा, (८) क्रमशः योग के आठों अंगों से युक्त होती हैं । प्र. योगदृष्टियों में क्रमशः नहीं होनेवाले ये आठ दोष हैं(१) खेद, (२) उद्वेग, (३) क्षेप, (४) उत्थान, ( ५ ) श्रान्ति, (६) अभ्युदय, (७) सङ्ग ( - ) आसङ्ग । है. योगदृष्टियों में क्रमशः होनेवाले आठ गुण ये हैं - (१) अद्वेष, (२) जिज्ञासा, (३) सुश्रूषा ( ४ ) श्रवण, (५) बोध, (६) मीमांसा, (७) प्रतिपत्ति (८) प्रवृत्ति | - योगरष्टि समुच्चय * २०७ (४) दीप्रा, परा – ये Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ १. मोक्षोपायो योगो ज्ञान चरणारुकः । योग - महिमा 1 योग ज्ञान दर्शन- चारित्रमय है एवं मोक्ष का उपाय है । २. यांगः कल्पतरुः श्रेष्ठो, योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणां योग: सिद्ध: स्वयं ग्रहः ॥ - योगबिन्दु ३७ यांग श्रेष्ट कल्पतरु है, योग दूसरा चिन्तामणि है। योग सभी धर्मो में उत्कृष्ट है एवं योग्य स्वयं सिद्धि-मुक्ति को ग्रहण करनेवाला है । ३. आत्मज्ञानेन मुक्तिः स्यात्, तच्चघोगाहते नहि । - अभिधानचिन्तामणि १४७७ स्कन्दपुराण आत्मा का ज्ञान होने से ही मुक्ति होती है, किन्तु वह ज्ञान योग के बिना नहीं होता । ४. स एवाहं स एवाह - मिति भावयतो मुहुः । योगः स्यात्कोऽपि निःशब्दः शुद्धः स्वात्मनि यो लयः ॥ २०८ मैं वही हूं । मैं वही है ! ऐसी भावना करते करते जो शुद्ध योग- शब्द रहित हो जाता है, उसे अपनी आत्मा में लय होना कहते हैं । - Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा भाग २०६ ५. नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति, न चैकान्तमनश्नतः । न चातिस्वप्नशीलस्य. जाग्रतो नैव चार्जुन ! १६ 11 /युक्ताहारविहारस्य, युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तम्तग्नावत धम्म लेगो भवति दुखदा ॥ १७ ॥ - गीता ६ अर्जुन ! न तो अधिवान्द्रानेवाले का योग सिद्ध होता है एवं न बिल्कुल न खानेवाले ना ! न अत्यधिक सोनेवाले का योग सम्पन्न होता है और न अत्यधिक जागनेवाले का ॥१६॥ उसी का योग दुःखनाशक होता है, जिसके आहार-यिहार नियमित हैं, वार्म करने में नेष्टा नियमित है तथा सोना और जागना नियमित हैं ।। १७ ।। ६. असंयत्तात्मना योगों, दुष्प्राप्य इति मे मतिः । वश्यात्मना तु यतता, क्योऽवाप्तुमुपायतः ।। -गोता ६।३६ मन को वश में न करनेवाले पुरुष को योग की प्राप्ति बहुत कटिन है। उपाय ने आत्मा वो वश करनेवाला योग को प्राप्त हो नाकाता है। 1. योगास्त्रयो मया प्रोक्ता, नृणां थेयो विधित्सया । ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च, नोपायोऽन्योस्ति कुत्रचित् ।। . भागवत ११।२०।६ मनुष्यों के बाल्याण की इच्छा में मैंने तीन योग कहे हैज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। इनके अलावा आत्मकल्माण का कहीं कोई उपाय नहीं है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. ० योगशब्द का दूसरे प्रकार में प्रयोग 5. कायवाङ - मनोव्यापारो योगः । T वक्तृत्वकला के बीज - जैन सिद्धान्तदीपिका ४१२६ — शरीर, वचन एवं मन के व्यापार को योग कहते हैं । ६. जोगसच्चेणं जोगं विसोहेइ । -उत्तराध्ययन २६-५२ योग - सत्य से जीव योगों की विशुद्धि करता है अर्थात् मनवचन-काय की प्रवृत्ति को शुद्ध बनाता है । १०. जोगं च समणधम्मंग जजे अनलसो हु । दशर्वकालिक ८|४३ आलस्य को छोड़कर योगों को सदा श्रमणधर्म में जोड़ना चाहिए । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ स. योगः समाधिः, सोऽस्यास्ति इति योगबान् । है -उत्तराध्ययन-बृहद्वति ११।४ * दृष्टिः स्थिरायस्य विनापि दृश्यं, वायुः स्थिरो यस्य विना तु । मनः स्थिरं मत्यं विनावलम्ब स एवं योगी स गुरुः रा सेव्यः । योगी योग का अर्थ समाधि है। जिराकी आत्मा में समाधि हो, वह योगवान योगी है। -गोरक्षशतक २० से किये बिना दृश्य पदार्थी के बिना जिराकी दृष्टि जिसका भवन स्थिर एवं सिमी नो अदमंचन के बिना जिसका मन स्थिर है, यही भोगी है, यही है और उसी की मैया करती नाहिए । ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा, कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इत्युच्यते योगा, समलोष्टारमकाञ्चनः ॥ - mate $15 जिसकी आत्मा ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो कूटस्थ है। विजितेन्द्रिय है एवं मिट्टी, पत्थर तथा सुत्र को समान समझता है, वह योगी युक्त ( भगवत्प्राप्तिकाला ) कहा जाता है । =११ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलतकला के बोष ५. कि आत्मौपम्येन सर्वत्र, समं पश्यति योऽर्जुन ! सुखं वा यदि वा दुःखं, स योगी परमो मतः ।। -पीता० ६३२ दूसरों के सुख-युःख को जो अपने सुख-दुःख के समान' समझता है, हे अजुन ! वह परमयोगी माना जाता है । किमिदं कीदृशं वास्य, कस्मात् क्वेत्यविशेषयन् । स्वदेहमपि नावति, योगी योगपरायणः ।। –इष्टोपदेश ४२ योग में लीन योगिराज यह क्या है ? किसका है ? वि.स कारण से है ? एवं कहां है ? अपने शरीर के प्रति भी ऐसा विशेष विचार नहीं करता। शुद् यदाचरितं पूर्व, तत् तदज्ञानचेष्टितम् । उत्तरोत्तरत्रिज्ञानाद् योगिनः प्रतिभासते ।। - आत्मानुशासन २११ उत्तरोत्तर विशेष ज्ञान होने से योगिजनों को पूर्वकाल में जो-जो आचरण किए थे, चै अज्ञान की चेष्टाएँ थी—ऐसे प्रतीत होने लगता है। ७. निर्भयः शक्रवद् योगी, मन्दत्यानन्दनन्दने । -शानसार इन्द्र की तरह निर्भय योगिराज यात्मानन्दरूप नन्दन वन में मौज करता है। ८. चाण्डाल; किमयं द्विजातिरथवा शद्रोऽथ कि तापसः, किंवा तत्त्वनिवेशपेशलमतियोगीश्वरः कोऽपि किम् ? Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक २१३ इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैः संम्भाष्यमाणो जनंर् न क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः ॥ म हरि-वैराग्यशतक २४ — क्या यह चाण्डाल है अथवा ब्राह्मण है? शुद्ध है या तपस्वी है ? अथवा क्या कोई तत्त्व के विवेक में चतुर योगिराज है ? ऐसे विचित्र प्रकार के विकल्पों द्वारा लोगों से सभाष्यमाण योगिराज राग-द्वेष करते हुए अपने सयममार्ग में विहरण करते रहते हैं । ६. तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मत्तोऽधिकः । कमिभ्यरचाधिको योगी, तस्माद् योगी भवार्जुन ! गीता ६।४६ तपस्वियों से योगी बड़ा है, शास्त्रज्ञानियों से भी योगी बड़ा है और कर्मकाण्डों से भी योगी बड़ा है अत: है अर्जुन ! तू योगी बन । १०. राजा जोगी दोनू ऊँचा, तांबा तुरंबा दोनू सुच्चा । तांबा डूबे तुरंबा तिरे राजा जोगी के पैरों पड़े ॥ राजा ने एक योगी को सम्मान एवं सुविधापूर्वक राजमहल में रखा ? फिर सन्देह हुआ कि मेरे में और इसमें क्या फर्क है। योगी समझकर महलों से निकल चला। राजा-रानी खोजते खोजते योगी के पास आए। वह वृक्ष के नीचे सूखी रोटी खा रहा था। राजा ने कहाचलिए महल में ! योगी ने कहा- पहले तुम यह ग्रामीण भोजन करो। सूखी रोटियां खाते ही राजा-रानी का गला छिल गया एवं उबकाई होने लगी । योगी ने तत्त्व 7 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ वक्तृत्वकला के बीज समझाते हुए कहा- तुम दो शस में हो बस गए और में जिस प्रसन्नता से तुम्हारा मोहनभोग खाता था, उसी प्रसन्नता से यहां सूखी रोटियां भी खा रहा हूं बस, तुम्हारे और मेरे में इतना ही अन्तर है । १२. ईहे प्रभुताको जो किशन, प्रभुता को त्यागे, छारी ना वित तो विभूति कहा बारी है। जो लीं भग तजो नाहि तो लौं भगनजी नांहि, काहे को गुसाई जो गुसाई से न यारी है। काहे को विरामन जोको नवि राहमन, कहा पीर जो पै पर पीर ना विचारी है । कैसो वह जोगी जन जाको न विजोगी मन, आसन ही मार जान्यो आस नहि मारी है । - किसन बावनी १३. जनेभ्यो वाक ततः स्पन्दो, मनस वित्तविभ्रमः । 1 भवन्ति तस्मात्संसर्ग, जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥ - समाविशतक जहाँ बहुतजनों से सम्पर्क हो, यहाँ बोलना पड़ता है। बोलने से मन में सदन पैदा होता है और स्पन्दग से संकल्प-विकल्प बढ़ते हैं। अतः योगी को जनसम्पर्क का त्याग करना चाहिए । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ योगियों के चमत्कार १६ गोरखनाथ---गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ असम में "महिलासृन्दरी" में फस, दो-तीन पुत्र भी हो गये । 'जाग मछेन्द्र र गोरख आया इस प्रकार का आह्वान करके गोरख ने जाकर उन्ना जागत किया एवं साथ लेकर देश को चले । महिलामन्दरी ने प्रियतम की झोली में एक सोने की ई डालदी। जंगल में मत्स्येन्द्रनाथ फिर-फिरकर पूछते थे-गोरख ! यहां हर तो नहीं है ? गोरख ने सत्व समझकर ईट को फेंक दिया और उत्तर दिया-डर तो पीछे रह गया । गुरु कुछ उदास हुए । शिष्य ने पेशाब करके शिला सोने की बनाई और गुरु का मोह शांत किया। पादलित और सिद्ध नागार्जुन दो भाई थे। सिद्ध नागार्जुन में स्वर्ण-सिद्धि-रस पी एक तुम्बी भेंटरूप में भाई को दो । पादलिप्त ने उसे फककर पशाव द्वारा पत्थर का सोना बनाकर दिखाया। ३. दिल्ली बिड़लामंदिर में एक योगी ने भन्न-शक्ति से पानी का दूध, ईट की मियी एव चम्मच को सोने का Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ वक्तृत्वकला के बीज बना दिया । अनेक विदेशी राजदूत भी दर्शकों में शामिल थे। __ - हिन्दुस्तान, सं० २००६, आसोज सुदी ४. हरिदास नामक एक भारतीय योगी अपनी जीभ को ऊपर उठाकर बड़ी आसानी से माथे को छू लेता है। – हिन्छस्तान, १३ जून १९७१ बद्रीनाथ (भारत) का वैरागी गिरि दिन में पांच बार प्रार्थना किया दराता रोकतार मे वो के डंडे को आग में तपाकर जीभ से चाट लिया करता था । कहते हैं, वह ५२ वर्षों तक इस साधना में संलग्न रहा 1 --विचित्रा, वर्ष ३ अंक ४, १९७१ लगभग साढ़े छः सौ वर्ष पहले की वात है। दिल्ली के तस्त पर तब सुलतान "मुहम्मद तुगलक' साह्न विराजमान थे। उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका के मरक्को नामक देश का एक यात्री “इब्नबतूता' दुनियाँ की सैर करता हुआ दिल्ली आ पहुंचा । मुहम्मद तुगलक ने उसका बहुत आदर-सत्कार किया, यहाँ तक कि उसे दिल्ली का काजी बना दिया। एक दिन दरबार में योगियों के चमत्कार की बात चलो और दो योगी (गुरु-शिष्य) उपस्थित हुए । गुरु ने अपने शिष्य को कुछ संकेत दिया । शिष्य ने पद्मासन लगाया, प्रणायाम किया और एक क्रिया ऐसी को कि चिना किसो सहारे के ऊपर उठ गया और उठता ही चला Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग तीसरा कोष्ठक L ८. २१७ गया। महल को छत बहुत ऊँची थी। वह उससे भी बहुत ऊँचे चला गया, और आकाश में अधर ठहर गया । फिर बादशाह के इशारे पर अपने शिष्य को नीचे उतारने के लिए गुरु ने कुछ कहा लेकिन शिष्य इतना ध्यानमग्न था कि उसने कुछ नहीं सुना । तब गुरु ने अपनी झोली में से एक बड़ाऊ निकालकर नीचे रखी और ध्यानमग्न होकर उस पर दृष्टि जमाई। खड़ाऊ ने ऊपर जाकर शिष्य के चारों ओर चक्कर लगाया और उसकी गर्दन पर कई बार तड़ातड वार किया। तब शिष्य का ध्यान भंग हुआ और वह धीरे धीरे नीचे उतरने लगा। अंत में वह उसी आसन में जमीन पर आ बैठा । खड़ाऊ पहले ही गुरु के पास वापस आ गई थी । इब्नबतूता आदि दर्शकों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । ७. सुना है कि स्वामी दयानन्द ने सोलह हॉर्स पावरवाली चार घोड़ों की गाड़ी का एक अंगूठे से रोक दिया था । यह देखकर जोधपुर नरेश उनके पैरों में पड़ गये एवं भक्त बन गये । पंजाब के योगिराज देबमूत्ति ने मेरठ में कई हजार की भीड़ में अपनी छाती पर दो हाथियों को खड़ा किया। लोहे की मोटी थाली का दिखलाकर उन्होंने उसे हाथों से कागज की तरह फाड़ डाला । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ बक्तृत्वकला के बीज एक बैलगाडी में वजन भरा गया। लगभग ५० मन वजन अवश्य होगा । योगीजी ने बैलगाड़ी में रस्सी बांधकर उसके छोर को अपने सिर के बालों से बाँध लिया । उस गाड़ी को वह काफी दूर तक अपने बालों स ही खींचते रहे। दो कार इधर-उधर खड़ी की गई। दोनों के पीछे दो रस्से बाँध दिये गये 1 दोनों रस्सों को उन्होंने पकड़ लिया । ड्राइवरों के अथक प्रयत्न करने पर भी कारें जरा मा हिल सकी। ३०० मन बजन से भरे हुए एक ट्रक को उन्होंने छाती पर बढ़ा लिया और उचक-उचक कर उसे हिलाते रहे। --विचित्रा वर्ष ३, अंक ४, १६७१ ६. कुभक-प्राणायाम के विशिष्ट अभ्यासी प्रो. राममूति ये इतने बलिष्ठ थे कि ४०-४० मन के पत्थर को छाती पर रखवाकर तुड़वा देते थे, मनुष्यों से भरी हुई गाई। छाती पर से निकलवा देते थे, छाती पर हाथी को खड़ा कर लेते थे, बड़ी-बड़ी मजबूत लोहे की जंजीरें हाथों मे या गल में लपेट कर तोड़ डालत थे एवं १६ हार्स पावरवाली दो-दो मोटरों को रोक लेते थे। इतना कुछ करने पर भी इनके शरीर पर कहीं निशान तक नहीं पड़ता था। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक २१६ १०. प्रोफेसर राममूति की शिष्या कुमारी ताराबाई छाती पर १३|| मन के भारी पत्थर रखवाकर हथौड़ों से तुड़वाना,बालों की सहायता से मन के पत्थर की चट्टान उठा लेना,मनुष्यों से भरी समुची गाड़ी को अपनी छाती पर से पार करा देना कुमारीताराबाई के लिए बाएं हाथ का खेल था । उनका सबसे अधिक आश्चर्यजनक काम अपने माथे की सहायता से गाड़ी को ठेलकर ले जाने का था। इस गाड़ी पर अनेक आदमी भी लदे रहते थे। इतना ही नहीं, पाली के आगे एक नछुर: ५. इस था और ताराबाई इसी छुरे की नोंक पर अपना माया भिड़ा देती थी तथा गाड़ी को ठेलकर दूर तक ले जाती थीं। ११. श्री सोमेशचन्द्र सु १८ अप्रेल रान् १६२१ को न्यूयार्क (अमेरिका) के वैनडाइक स्टूडिओं में बंगाल प्रान्तस्थ ढाका जिले के निवासी "श्रीसोमेश चन्द्र वसू' ने योगाभ्यास द्वारा गणितसम्बन्धी एक जटिल प्रश्न का आश्चर्यजनक समाधान किया। प्रश्न. का उक्त स्टुडिओ के कलाकार श्री जॉनओ नील ने कागज का एक टुकड़ा उनकी ओर बढ़ा दिया। उसपर लिखा था८५३१२४४६६३७६८४१३२५७२६१४ २५६२६७८१२६४७३६ ८२५७३१२४८७३६४६७१२५६५३२७३४७८१७२८६३५७२३ ७४८१२५२५७४६१२८३६८२४३७६१८५३ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० वक्तृत्वकला के बीज ७४६३८ १२५७३६४७६२८३७४३५ १७६६२६७६४३६८४१७८ ६६७६१२८५८४३५३५६८३८१४२८१२५६५६१८१५१२७६३ ६७८.२६५७८१६३६५३२८६६४१०२५:५३६३ से गुणा कीजिए ? इन अंकसमूहों पर एक दृष्टि डालकर वसु महोदय ने अपनी आँखें बंद करली और मूत्तिवत् बैठे हुए इस प्रश्न को मन ही मन लगाने लगे । स्टुडिओ की खिड़कियां खुली हुई श्रीं-वाहर सड़क पर मोटरें, लारियां फायरइंजन आदि शोर-गुल मचाते दौड़ रहे थे। लेकिन बसु महोदय की गणना में इन सबसे तनिक भी बाधा न पड़ी । वे चुपचाप बैठे हुए अपने प्रश्न को हल करते रहे । ५ मिनट ५.० संकिन्ड़ में उत्तर तैयार हो गया । उन्होंने इस प्रकार लिखा... ६३६४५८३५३२८५६३०६२५६३२८७७३६६२०१६१३१७२ ८२२०३२५६६७५४४०१७०८ १७७३५४६१८६७१६३६६७३८ २६५६५८५७२५०१०४३५७४५६६७६६१६८८३२०७२६४६७ ४१६२८२७०२७२८१५६२७८०८५४४३६६६७३५००५७७४२ ८५७६७१५८०४५७४१ ५७८२३७७४०७४१६८३४८१४८५२ ०६२३३३६३५९४.२७५७ । उत्तर मिल जाने के बाद नील महोदय ने श्री वसुजी से पूछा–६५वीं पंक्ति का ३३ वाँ अंक क्या है ? पलक Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घौमा भाग : सीसरा कोष्ठक २२१ मारते ही वसुजी ने उत्तर दिया-आठ अर्थात् १८ के ८ रखे गये और एक हासिल लगा। नील महोदय सहित सभी उपस्थित लोग आश्चर्य से स्तम्भित हो गये। केबल गुणन ही नहीं, लम्बे-चौड़े भाग, भिन्न, दशमलव, पुनरावर्त -दशमलव, समीकरण आदि के प्रश्न आप इतने थोड़े समय में मन ही मन लगा लेते थे कि लोग चकित रह जाते थे । लम्बी-चौडी सैकड़ों अंकों की पूर्ण गंख्याओं के वर्गमूल, घनमूल, चतुर्घातमुल पंचघातमूल आदि से लेकर १०६ वां मातमुल तक बिना कागज पंसिल के निकाल लेना आपके लिए एक दम साधारण और अधिक से अधिक एक मैकिंड का काम था। -विचित्रा वधं ३ अंक ४, १९७१ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा कोष्ठक संयम १. उवसमसारं खु सामपणं । बृहत्कल्प सूत्र ११३५ श्रमणत्व का सार ई उपशम । संयम: खलु जीवनम् । -आचार्य श्रीतुलसी संयम ही जीवन है। ३. संयमी दि महामन्त्र-स्त्राता मवंत्र देहिनाम् । तत्त्वामृत प्राणियों की रक्षा करनेवाला महामंत्र एक सयम ही है । , ४. श्रगणत्वमिदं रमणीयतरम । -सुभाषितरत्नसंदोह यह गाना -मंचम अनेवः गुण, गुक्त होने से बहुत रमगी। है । जाइ सद्धाइ निक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तम, तमेव अणुपालिज्जा। -वशवकालिक ८१ जिन श्रद्धा के साथ संसार में निकलकर उत्तम संयम लिया है। जमी श्रद्धा के साथ पालना चाहिए ! धम्म चरमाणस पंच निस्साटाणा पणत्ता, तं जहा-- छक्काए, गणो, राया, गिवई, सरीरं। -स्थानांग ५।३३।४४७ संयमधर्म, में विचरनेवाले (मुनि) को पांच निवास्थानअवलंबन कहे हैं- (१) छ: काया के जीव, (:) गण-गमछ, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा काष्ठरः (३) राजा, (४) गायापति, (५) शरीर (सप-संयम आदि के अनुष्ठान शरीर से होते हैं)। संयम का स्वरूप :-. निन्नेहा निल्लोहा, निम्मोहा निम्वियार-निक्कलुसा । निम्भय-निरासभावा, पवज्जा एरिसा भणिया ।। | सत्तु-मित्त य समा, पसंस-निंदा अलद्धि-लद्धिसमा । तण-कणए समभावा, पवज्जा एरिसा भणिया ।।४७ उत्तम-मज्झिमगेहे, दरिद्दे ईसरे निरापेक्खा । सबसगहितपिगड़ा, पवज्जा एरिसा भणिया ॥१८॥ षप्राभूत २ प्रव्रज्या अर्थात् रायम को गांव में, न म्लेन इ.ना, न लोभ होता, न मोह झोता, न किंवार होता, न कलुपभाव होता, न भए हाता खो न किसी में शा हो उसमें शत्रुमित्र, प्रशा-Ti::, लायन जर तुण-नम:: मम: । भात्र से दस जा। । । प्राय ग भी घरों से Fre. i है। वहाँ बह-शीत व और गरीब-धनवान पं. मदमही जाता । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंगाम से लाभ / १. संजमेणं अणण्हयत्तं जणयई। --उत्तराध्ययन २६२६ संयम से जीव अनासव अर्थात् आनव-निरोध को उत्पन्न करता है । २. सन्यासेनापहृत्यैनः, प्राप्नोति परमां गतिम् । --मनुस्मृति ६९६ आत्मा भन्यास से पापकर्म का नाश करके परमगति को प्राप्त होता है। ६. अपवित्रः पवित्रः स्याद्, दासो विश्वेशतां भजेत् । मूों लभेत ज्ञानानि, मडक्ष दीक्षाप्रसादतः ।। बग्दचरित्र, पृष्ठ १०६ दीक्षा के प्रभाव में अपवित्रभ्यक्ति पवित्र बन जाता है, दास जगन्नाथ बन जाता है और मुर्ख सीन ही ज्ञान प्राप्त कर लेता है। गीवन को ग्रीस का इतिहास लिखने में २० वर्ष लगे । होंगे लेकिन उसका सार इतना ही है कि ग्रीस का उत्थान संयम और सादगी से हुआ एवं पतन विलासिता रो। ५. लोगस्स सारं धम्मो, धम्म पि स माणसारियं बिति । नाणं संजमसारं, संजमसारं च निब्वाणं ।। -आचारांगनियुक्ति २४४ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक २२५ विश्व सृष्टि का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान (सभ्यग्-वोध ) है, ज्ञान का सार संयम है, और संयम का सार निर्माण । / ६. संजमहेउ देहो, घारिज्जइ सो कओ र सदभावे । संजमफाइ देहारिलाइ || -- ओषनियुक्ति गाथा ४७ १५ यह देह संयम के लिए हो धारा जाता है, क्योंकि देह विना संयम नहीं रह सकता का संयम की वृद्धि के लिए ही देहका पालन इष्ट है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम की दुष्करता १. जावज्जीवमविस्समो, गुणाणं तु महभरो। गुरुओ लोहमारुत्व, जो पुत्ता होइ दुबहो ॥३६।। वालुया कवले चेव, निरस्साए उ संजमे । असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउ तबो ।।३८।। अहीवेगंतदिट्ठीए, चरित्त पुत्त ! दुक्करे । जवा लोहमया चेव, चावेयवा सुदुक्करं ।।६।। जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउ होइ सुदुक्करा । तहा दुक्करं करेउ जे, तारुण्ण समणत्तणं ११४०॥ जहा भुवाहि तरि, दुक्करं रयणायरो। तहा अणुवसंतेणं, दुक्करं दमसागरी ॥४३॥ --उत्तराध्ययम १६ हे पुत्र ! इस संयम में जीवनपर्यन्तु विश्राम नहीं है । भारी मोहभार की तरह सदा गुणों का भार उठाना बहुत मुश्किल है ।। ३६ ।। बालुरेत के कवल के समान संयम निस्वाद है । तथा खङ्गधारा पर चलने के समान यह तय करना दुष्कर है ॥३८॥ २२६ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग चौथा कोष्ठक 7 २२७ जैसे- लोकेका काठ से ही सर्प तरह एकान्तदृष्टि से चारित्र का पालना भी कठिन है || ३६ ॥ जिस प्रकार प्रज्वलित अग्निशिखा का पीना कठिन है, उसी प्रकार तरुणावस्था में संयम पालना बहुत कठिन है ॥ ४० ॥ जैसे -- भुजाओं से समुद्र का तैरना दुष्कर है, वैसे शान्त आत्मा द्वारा संयमरूपी समुद्र तैरना कठिन है ||४३|| हो अनुपभी बहुत Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. देवलोगसभाणी उ परिआओ महेसिणं । महानरयसारियो | रयाणं अरवाणं च संयम में सुख-दुःख संयम में अनुरक्त महिषियों के लिए तो चारित्र-पर्याय स्वर्ग के समान है एवं अरक्तों के लिए घोर नरक के समान है । - - दशकालिक - चूर्णि १।१० — २. साधु मारग सांकड़ा, जैसा पिंडखजूर चढ़े तो चाखे प्रेम रस पड़े तो चकनाचूर । " २२८ हिन्दी वहा ३. नारति सहइ वीरे वीरे न सहइ रति -- आचारांग श६ वीरपुरुष न तो संग्रम में अरति (दार(जगी) को सहन करता है और न असंयम में रति (खुशी) को सहन करता है । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम-दीक्षा का समय आदि कप्पइ निम्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा खुटुगस्स डिडिया बा साइरेगट्ठ वा सजायं उपहाबितए धासंभ जित्तएवा। व्यवहार १०१३० साधु-साध्वियों साधिक आठ वर्ष (गर्भ सहित नव वर्ष) के बालक-बालिका को दीक्षा दे सकते हैं एवं उनके नाथ भोजन कर सकते हैं। २. वनेषु च वित्यैवं, तृतीयं भागमायुषः । चतुर्थमायुषो भाग, त्यक्त्वा सङ्गान् परिजजेत् ।। -मनुस्मति ॥३३ आयुष्य के तीसरे भाग में वन में विचर कर चौथे भाग में सब विषगों का त्याग करके संन्यास-दीक्षा ले । यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेद, ब्रह्मचर्याद्वा गृहाद्वा । अथ पुनरवती वा, ती स्नातको वोत्सनाग्निकोवा । —जाबालश्रुति जिस दिन वैराग हो, उसी दिन प्रजित हो जाना चाहिए । चाहे ब्रह्मचर्याश्रम रोको या गृहस्थाश्रम से हो। वह व्यक्ति चाहे अवनी हो, अती हो. स्नातक हो या उत्सनाग्निक 1 प्रनजेब ब्रह्मचर्यावा, प्रव्रजेद् वा गृहादपि । वनाता प्रमजेद् विद्वा-नातुरो वाथ दुःखितः । -अङ्गिरास्मृति २२६ ३. यम Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज विद्वान् ब्रह्मचर्यादि किसी भी आश्रम से, रुग्ण या दुःखित किसी भी अवस्था में प्रब्रजित हो सकता है । ५. दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पई निग्रगंधाणं वा निम्गंधीणं वा पब्वावित्तए तंजहा - पाईणं वा उदीणं वा । स्थानांग २०१ २३० दो दिशाओं में साधु-साध्वियों को दीक्षित करना कल्पता है— पूर्व और उत्तर । ६. तओ णो कप्पइ पन्दावेत्तए, जहा - पंडए, वाइए, कीवे । --धागा :४२ तीनों को दीक्षा देना नहीं कल्पता -जन्म के नंपुसक को, वायु की व्याधि से जिसका शरीर इतना मोटा बन गया हो कि वह उठ बैठ भी नहीं सकता हो, उसको तथा क्लीब को । (क्लीब चार प्रकार का होता है-- १दृष्टिक्लीब, २ शब्दक्लीब, ३ व्यादिग्धक्लीब, ४ निमन्त्रणाक्लीब | ) ग्रन्थों में १८ प्रकार के पुरुष तथा बीस प्रकार की स्त्रियाँ भी दीक्षा के अयोग्य कहे हैं । -- स्थानांग ३।४।२०२ ठीक ८. पच्चयत्थं चं लोगस्स, नाणाविहिविगप्पणं । - उत्तराध्ययन २३१३२ विकल्प जनसाधारण में प्रत्यय धर्मो के वेष आदि के नाना (परिचय पहिचान) के लिए हैं। ६. भावे अ असंजमो सत्यं । - आचारांगनियुक्ति १६ भावदृष्टि से संसार में असंयम ही सबसे बड़ा शस्त्र है । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौघा भाग : चौथा कोष्ठकः ७. चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-सीहत्ताए णामभेगे णिवखंति सीहत्ताए विहरति शीतारगाम्ने मिति: सियालत्ताए विहरंति । सियालत्ताए णाममेमें णिक्यंति, सीहत्ताए बिहति । सियालत्ताए णाममेगे णिवखंति । . .सिचालताए विहरति । ..-स्थानाग ४।३।३२७ दीक्षित व्यक्ति चार प्रकार के कहे हैं ... (3) संयन् (उन्नलभावों से) दीक्षा लेकर उगविहारादि द्वारा मिहदत् पालनेवाले (धन्नासेठवन्) । (२) सिंहवात् (जन्नत भावों में) दीक्षा लेकर गालवत् (दीनदृत्ति से) गालनेवाले (कण्डरीकबत्) (३) शृगालबत् दीक्षा लेकर सिंहवत् पालनेवाले (मेतार्य मुनिवत् । (४) शृगालवत् दीक्षा लेकर शृगालवत् पालनेवाले (मोमाचार्यवत्)। ८. चार अन्तक्रियाएं कही हैं.-- - (१) अल्पवेदना-दीर्घपर्याय-भरलवत् । (२) महावेदना-अल्पपर्याय-गजसुकुमालवत् । (३) महावेदना-दीर्घपर्याय सनत्कुमारचक्रवतिवत् । (४) अल्पवेदना-अल्पपर्याय-मरुदेवीमातावत् । स्थानांग ४११२३५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना १. साधना के बिना ईश्वर नहीं मिलता। -स्वामी रामकृष्ण २. नित्य साफ न करने से पीतल के पात्रों की तरह साधना का हृदय भी अपवित्र हो जाता है। तोतापुरी 7. पानी पर झिस्टी हो, लगी खूब, विस्ती में पानी हो, जायेगी ड्व । -उर्दू शेर भावार्थ-पानी पर किस्ती की तरह संसार में रहकर तो साधक तर सकते हैं, किन्तु किस्ती में पानी की तरह यदि साधकों के मन में मोह-मायारूप संसार घुस गया, तो फिर वे कभी नहीं तरेंगे । जैसे-शा में मक्खन का रहना अनाना है, किन्तु मक्खन में छाछ का रहना ठीक नहीं । उसी प्रकार संसारियों में साधुत्व की भावना का रहना अच्छा है, किंतु साधुओं में संसार की भावना का रहना ठीक नहीं। ४. पहली डुबकी में यदि रत्न न मिले तो रत्नाकर को रत्नहीन मत समझो ! -स्वामी रामकृष्ण ५. अणुवओगो दध्वं । ___ - अनुयोगद्वार-सूत्र १३ उपयोग शून्य साधना दहा है, 'भाव नहीं । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W साधु १. सम्यग्दर्शनादियोग रपवर्ग साधयतीति साधुः । -दशवकालक १५ टीका सम्यग्दर्शनादि द्वारा जो मोक्ष की साधना करता है, वह साधु है। २. साध्नोति स्व-पर कार्याणीति साधुः । जो अपने और दूसरों के आत्मिका-कार्यों को सिद्ध करता है, वह साधु है। आगमचक्खू साहू, इंदियचणि सबभूदाणि । -प्रजचनसार ३१३४ अन्य सब प्राणी इन्द्रियों की भांखवाले हैं, किन्तु साधु आगम की आँखवाला है। ४. धर्म वित्ता हि साधन : । -धाद्धविधि साधु धर्मरूपी धनयुक्त होते हैं । ५. साधवी दीनवत्सलाः । साधु दीनदयालु होते हैं। ६. विनिहकुलुप्पण्णा साहबो कप्परखा। नदीसूत्र पूणि २०१६ विविध कुल एवं जातियों में उत्पन्न हुए साधुपुरुष पृथ्वी के कल्पवृक्ष है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ७. जीवियास-मरणभयविष्पमुक्का । --औपपातिक समवसरण अधिकार तथा भगवती चार साधु जीने की आशा और मरने के भय से विनमुदत होते हैं । १. जात्यैबेते परिहितविधौ साधवो वद्धश्नाः । --पार्श्वनायचरित्र संत लोग स्वभाव से ही परहित करने के लिए तत्पर रहते हैं। ६. थेयः कुर्वन्ति भूतानां, साधबो दुस्त्यजासुभिः । –श्रीमदभागवत ८।२०१७ साधृजन अपने दुस्त्यज प्राणों को देकर भी प्राणियों का कल्याण मारते हैं। १०. साधनां च परोपकार-करणे नोपाध्यपेक्ष मनः । परोपकार करने के समय साधुओं का मन कष्टों की परवाह नहीं करता। ११. यथा चित्त तथा बाचो, यथा वाचस्तथा क्रिया । चित्ते वाचि क्रियायां च, साधनामेकरूपता। -सुभाषितरत्न भाण्डागार जैसा मन होता है, वैसा ही वचन बोलते हैं और वचन के अनुसार ही क्रिया करते हैं, क्योंकि साधुओं के मन-वचन मिया में एकरूपता होती है । १२, युगान्ते प्रचलेद मेरुः, कल्पान्ते सप्त सागरा: । साधवः प्रतिपन्नार्थाद, न चलन्ति कदाचन । ... - चाणक्य' १३३१६ युग के अन्दा में भेरु और वल्प के अन्त में सातों समुद्र चल जाते हैं. फिन्तु मन्त पुरुष स्वीकृत-सिद्धान्त से कभी विचलित नहीं होते। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौधा भाग : चौथा कोष्ठक २४१ १३. तप्यते लोकतापेन, साधवः प्रायशो जनाः । परमाराधनं हजि, पुरुषस्थाखिलात्मन: । -..श्रीमद्भागवत ८1७७४ साधुजन प्रायः संसार के ताप से संतप्त-खिन्न रहते हैं। उनके लिए यही विश्वपावन भगवान की उत्कृष्ट-आराधना है । १४. या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जागति संयमी। यस्यां जागति भूतानि, सा निला पश्यतो मुनेः । -गीता २।६६ जो आत्मविषयवा-बुद्धि संसारी जीव। के के लिए रात है, उसमें संयमी साधु जागता है-आत्म-साक्षात् करता है । जिस शब्दादि विषयों में लगी हुई बुद्धि में संसारी जीव जागते हैं सावधान रहते हैं, वह आत्मार्थिमुनि के लिए गत है । १५. चक्खुमास्स यथा अन्धो, सोतका बधिरो यथा । -थेरगामा ८५०१ साधवा चक्षुष्मान होने पर भी अन्धे की भांति रहे, श्रोत्रवान् होने पर भी बधिर को भांति आचरण करे ! १६. साधबो हृदयं मह्य, साधूनां हृदयं स्वहम् । मदन्यत्त न जानन्ति, नाहं तेभ्यो मनागपि । ...श्रीमद्भागवत है।४।६८ 'भगवान कहते हैं फि माघ्र मेरे हृदय है और मैं उनका हृदय हूँ । ने मेरे सिवाय किसी को नहीं जानते और मैं उनके सिवा किसी को नहीं जानता। - १७. पूजा-मान-बड़ाइयां. आदर मांगे मन । राम गहे सब परिहरे, सोही साधुजन ।। —दाजी Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ वक्तृत्वकला के बीच राजा और गरीब को, समझे एक समान । तिनको साधु कहत है,गुरु नानक निरवान।। साधु सत का सूपड़ा, सत ही सत भाखंत । पकड़ पछाड़े तूतड़ा, कण ही कण राखंत ।। मांठ दाम बांधे नहीं, नहिं नारी से नेह । मई कोर वा सा के, हम लग पो ह । ...कबीर साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं । जो धन का भूखा बने, वो फिर साधु नाहि । साधु व सो साधै काया, कोड़ी एक न राख माया । ल्यावै सो देवे चुकाय, वासी रहै न कुत्ता खाय । जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान । मोल' करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान । ---कबीर १८. सूफी साधु कौन ? सूफी वह है, जिसके दिल में सच्चाई और अमल में इखलास हो । ... -अब्दुलहसन १६. शैले-शैले न माणिक्य, मौक्तिक न गजे-गजे । साधवा नहि सर्वत्र, चन्दन म बने-बने । -चाणक्यनीति २ बैंस हर एक पर्वत पर माणिक नहीं होते. हर एक हाथी के सिर में मोती नहीं होते और हर एक बम में चन्दन नहीं होते । वैसे सभी जगह सच्चे मान भी नही होत । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १. वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुळे निरुच्यते । Thes २. णाणेण य सुणी होई । जान से मुनि होता है । -गीता २०५६ जिसने राग, भय और क्रोध को जीत लिया एवं जो निश्चलबुद्धियाला है, उसे 'मुनि' कहा जाता है । - उत्तराध्ययन २५/३२ ३. न मुणी रन्नवासेणं । जंगल में निवास करने मात्र से मुनि नहीं होता । ४. पुढवीसमो मुणी द्विज्जा । -- उत्तराध्ययन २५१३१ मुनि मुनि को पृथ्वी के समान दर्यवान होना चाहिये । : दशवेकालिक १००१३ ५. महमसाया इसिणो भवति । ऋषि महान् प्रमादगुणवाले होते हैं। ६. मौनं मुनीनां प्रशमन्त्र धर्मः । मौन और वैराग्य मुनियों के मुख्य धर्म हैं। ७. तैलपात्रधरो यद्वद् राधावेधोचतां क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद भवभीतस्तथा मुनिः । यथा । - उत्तराध्ययन १२।३१ जैसे - तेलभूत पात्र को लेकर चलनेवाला और राधावेध करते में उद्यत व्यक्ति अपनी क्रियाओं में अनन्यचित्त तल्लीन रहता ૨૪૬ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बक्तृत्वकला के बीज है, उसी प्रकार भवनमण से डरा हुआ आस्मार्थी-मुनि अपने संयम की क्रिया में न्यचित्त रहता है। णिम्ममो हिरहंकारो, णिस्संगो चत्तगारबो । समो य सव्व भएसु. तसेसु थावरेस् य ||६|| लाभालाभे मुहे दुक्खे, जीविए मरण तहा । समो णिन्दा-पसंसासु, तहा माणावमाणओ ।।१।। गारवेसु कसाएसु दंड-सल्ल-भएमु य । णियत्तो हास-सोगाओ, अणियाणो अबंधणो ।।२।। अणिस्सियो इह लोए, परलोए अणिस्सिओ। बासी-चदणकप्पो य, असणं अणसण तहा ।।६३।। अप्पसत्थेहिं दारेहि, सवओ पिहियासवो । अज्झप्पज्झाणजोगेहि, पसत्थदमसासणो 11६४|| -उत्तराध्ययन १६ मुनि निर्मम, निरहंकार, नि:संग और गर्वरहित होता है तथा त्रस-स्थावररूप समस्त जीवों पर समभाय रखता है ||१०|| मुनि लाभ, अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा तमा मान-अपमान में समान वृत्तियुक्त होता है !१९१।। मुनि गारब, झपाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त होता है तथा निदान एवं बंधन से मुक्त होता है ||१२|| मुनि इहलोक-परलोक के सुखों की इच्छा नहीं करता। उसे चाहे वसोले से काटा जाय या चंदन से चर्चा जाय तथा आहार मिले या न मिले, वह समानवृत्ति रखता है ।।६।। भूमि सभी अप्रशस्त द्वारा और सभी आभवों का निरोध कर Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २४५ आध्यात्मिक-शुभ ध्यान' के योग से प्रशस्तसंयमवाला होता है ||४|| ६. नाभिनन्देत मरणं, नाभिनन्देत जीवितम् ।।४।। दृष्टिपूत न्यसत्पाद, वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । सत्यतां वदेद्वाचं, मनः पूतं समाचरेत् ।।४६।। क्रुद्ध यन्तं न प्रतिक्रुद्ध ये-दाक्रुष्टः कुशलं वदेत् । सप्तद्वारावकीर्णी च, न वाचमनतां वदेत् ।।४८|| -मनुस्मृति अ०६ मुनि न तो जीने की अभिलाषा करे और न मरने की ।।४५॥ मुनि देख-देखकर पैर रखे, वस्त्र से छानकर जल पीवे, सत्य से पवित्र वाणी बोले और मन से पवित्र विचार करे ।।४६|| क्रोध करनेवाले पर क्रोध न करे, आक्रोश करनेवाले के प्रति भी अच्छे वचन बोने तथा पाँच इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इन सातों से व्याप्त-वाणी बोलें एवं असत्य वाणी न बोले ।४। १०. मही शय्या रम्या विपुलमुपधानं भुजलता, वितानं चाकाशं व्यजनमनुकलोयमनिलः । स्फुरदीपचन्द्रो विरतिबनिता संङ्गमुदिता, सुखं शान्त: शेते मुनिरतनुभूतिर्नुप इव ।। --महरि-वैराग्यशतक ७E भूमि सुन्दरशय्या है, भुजा तकिवा है, आकाश चंद्रवा है, अनुकूल हवा पंखा है और चन्द्रमा प्रकाशमान दोपक है। इन गीता के १२वें अध्याय में कहा हुआ भक्त का वर्णन भी इससे काफी कुछ मिलता-जुलता है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ वक्तृत्वकला के बीज सब सामग्रियों में युक्त शान्त मुनि महान् ऋद्धिशाली राजा की तरह विरक्ततारूप रानी के साथ आनन्दपूर्वक सोता है। ११. धीरज-तात क्षमा-जननी, परमारथ-मीत महारचि-मासी ! ज्ञान-सुपुत्र सुता-करुणा, मति-पुत्रवधू समता प्रतिभासी ।। उद्यम-दास विवेक-सहोदर, बुद्धि-कलत्र शुभोदय दासी। भाव-कुटुम्ब सदा जिनके ढिग, यो मुनि को कहिए गृहवासी ।। -बनारसीदास ५२. वेदान्तविज्ञान - सुनिश्चितार्थाः, सन्यासयोगाद् यतयः शुद्ध सत्त्वा । ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले, परामृता: परिमुच्यन्ति सर्वे ।। मुण्डकोपनिषद् ३।२।६ वेदान्त रहस्य से जिन यतिजनों ने तत्त्व का निश्चय कर लिया है, सन्यास-योग से जो शुद्ध अतःकरण हो गये हैं, वे अन्तिम देहावसान होने पर ब्रह्मलोकों में अमरत्व को भोगते हुए पूर्णरूप से छूट जाते हैं । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १. न विद्यते अगारं गृहं यस्य सः अनगारः । जिसने घर का त्याग कर दिया, वह अनगार हैं । भगवन्तो इरियासमिया २. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे अणगारा अममा, अभिचणा छिष्ण गंधा छिष्णसोया निरुबलेवा, निरुवलेवा, १ कंसपाईव मुक्कतोया, २ संख इव निरंगणा, ३ जीवो इब अप्पतिगई, ४ जच्च कणगमिव जायख्वा, ५ ( आदरि सफलगा इय पायडभावा) कुम्मो इव गुतिदिया, ६ पुक्खरपतं व निरुवसेबा ७ गगणमित्र निरालंबणा, ८ अणिलो इव निरालया, चंदो इव सोमलेस्सा, १० सूरो इव दित्ततेया, ११ सागरो इव गंभीरा, १२ विहग इव सदओ विध्यमुक्का १३ मंदर इव अप्पकंपा १४ सारयसलिल वसुद्ध हियया १५ खगि विसाणं व एगजाया, १६ भारंडपक्खी व अप्पमत्ता, १७ कुंजरो इव सोंडीरा १८ वसुभोइन जायत्थामा, १६ सिहो इव दुडरिसा, २० वसुंधरा इव सव्यफासविसहा, २१ मुहयहुयासणी इव तेयसा जलता, नत्थिणं तेसिणं भगवंताणं कत्थइ पडिबंधे २४७ अनगार TI. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪. वक्तृत्वकला के बीज विहरति । भवइ [........तणं भगवंतीवासीचंदणसमाणकध्या समहुकणा समसुह- दुक्खा इहलोग परलोग अप्प डिबद्धा संसारपारगामो कम्मणिग्धायणट्टाए अभुलिया औपपातिक समवसरणाधिकार श्रमण भगवान् महावीर के बहुत से अनगार भगवंत ईर्यासमितियुक्त हैं, ममल्ल रहित हैं, अविचन हैं, हिम्नग्रन्थ है, धन्नोत हैं, निरुपëप हैं एवं इक्कीस उपमाओं से उपमित हैं । १ बे कांस्यपात्रवत् स्नेहमुक्त हैं २ ख के समान उज्ज्वल (रामादिरंगहित) हैं, ३ जीव के समान अप्रतिहत - गतिवाले हैं, ४ अन्य कुधातुओं के मिश्रण से रहित सोने के समान जातरूप लिए हुए चारित्र को निरतिचार रखनेवाले हैं. ५ ( दर्पणपड़ के समान निर्मल भाववाले हैं), कच्छप के समान गुप्तेन्द्रिय हैं, ६ कमलगत्रवत् निर्लेप हैं, ७ आकाश के समान निरालंबन हैं. वायु के समान निरालय ( अप्रतिबद्धविहारी ) हैं २ चन्द्रमावत् सौम्यकान्तिवाले हैं, १० सूर्य के समान दीप्ततेजवाले हैं, ११ सागरवत् गंभीर है. १२ पक्षी के समान पुर्णतः विप्रमुक्त है, १३ गेरुपर्वत के समान बोल हैं, १४ शरदऋतु के जल के समान शुद्धहृदयवाले हैं। १५ गेंडे के सींग के समान एकजात अर्थात् रामादिभावरहित एकाकी हैं, १६ भारण्डपक्षी के समान अप्रमत्त हैं. १७ हाथी के समान शूर कामादि भावशत्रुओं को जीतने में समर्थ हैं, वृषभ के समान जातस्याम धैर्यवान है, १६ सिंह के समान दुध परीषादिमुगों से नहीं हारनेवाले हैं, २० पृथ्वी के समान शीत-उष्ण आदि सभी स्पर्धा को सहन करनेवाले हैं, २१ वृत आदि से अच्छी तरह हवन की हुई अग्नि के समान (ज्ञान और तपरूप) तेज से जाज्वल्यमान हैं । जनके कहीं प्रतिबन्ध नहीं होता। - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : नौथा कोष्ठक वे अनगार भगवंत चाहे वसोले से काटे जाएं, चाहे चन्दन से चर्च जाएं', समभाव रहते हैं। मिट्टी के लेले एवं कंचन के प्रति समानस्ति रखते हैं । सुखदुःख में समान रहते हैं । इहलोक-परलोक के विषय में प्रतिबन्धरहित हैं । संसार के पारगामी हैं एवं कामों को क्षय करने के लिए उद्यत होकर विहार करते हैं। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ १. संसारे भयं इक्खतीति भिक्खु । कासारखा क. पंच य फासे महबयाई, पंचासबसंवरे जे स भिक्खू । (x) भिक्षु - विसुमियो १४७ है। जो पांच महाव्रतों का पालन करता है एवं मिथ्यात्व आदि पाँच अत्रवों को रोकता है. 'वह भिक्षु हैं । 1 ख. सचित नाहारए जे स भिक्खू । ( ३ ) जो कभी बोजादि सचित्त का आहार नहीं करता, वह 'भिक्षु' है । ग. समसुह- दुक्खसहे य जे स भिक्खू । ( ११ ) जो सुख दुख को समभाव से सहन करता है, वह भिक्षु' है । घ. तवे रए सामणिए जे स भिक्खू । (१४) २५० - दशकालिक १० जो तप और संयम में रक्त होता है, वह भिक्षु ' है । २. मणवयकायसुसंवडे स भिक्खू । - उत्तराध्पयन १५।१२ मन-वचन-काया से जो संवृत है, वह 'भिक्षु' है । J ३. से वंता कोहं च माणं च मायं च एवं पासगस्स दंसणं । - आचारांग ३१४ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __चौथा भाग : चौथा कोष्टक २५१ मुमुक्षु-क्रोध-मान-माया-लोभ का वमन-स्याग करनेवाला होता है, यह सर्वज्ञ-भगवान् की मान्यता है । खंतो अ मद्दवऽज्जव-विमुत्तया तह अदीणया-तितिक्खा । आवस्सगपरिसुद्धि अ, होति भिक्खस्स लिंगाई ॥ -रावकालिक नियुक्ति ३४६ क्षमा, विनम्रता, सरलता, निर्लोभता, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक क्रियाओं की परिशुद्धि-वे सब भिक्ष के वास्तविक चिन्ह है। इह खलु थेरेहिं भगवंतेहि वारस भिक्खुपडिमाओ, पन्नत्ताओ। -भगवती ॥१ स्थविर-भगवन्तों ने बारह भिक्ष प्रतिमायें साधुओं की प्रतिज्ञायें कही हैं-१ मासिकी, २ द्विमासिकी, ३ निमामिकी, ४ चातुर्मासिकी, ५ पंचमासिको, ६ घणमासिकी, ७ सप्तमासिकी, ८ प्रथमासप्तरात्रिदिवा, ६ द्वितीया सप्तरात्रिदिवा, १० तृतीयासप्त रात्रिदिवा, ११ अहोरात्रिदिवा, १२ एक रात्रि वी। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण (समण) १. थाम्यतीति श्रमणस्तथा सम इति शत्र-मित्रादिषु प्रवर्तते इति समण : (अण् प्रत्ययः) --स्थानांग ४।४ टीका धम-तपस्या करता है अतः वह 'श्रमण' है । तथा शत्र -मित्रादिक पर समभाव रखता है, इसलिए वह 'समण' हैं. यहां अण् प्रत्ययः हुआ है। तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो। सयण असयण अ समो, समो अ माणावमाण सु ।। - अनुयोगद्वार १३२ जो मन' से सु-मन' (निर्मल मनवाला) है, संकल्प से भी कभी पापोन्मुख नहीं होता, स्वजन तथा अस्वजन में, मान एवं अपमान में सदा सम रहता है, वह समण होता है। ३, जह मम ण पियं दुक्खं, जाणि एमेव सब्वजीवाण । न हणइ न हणाबेइ, सममणइ तेन सो समणो ।। -अनुयोगद्वार १२६ जैसे--मुझे दुःख प्रिय नहीं लगता, वैसे दूसरों को भी नहीं लगता। यों जानकर जो किसी भी जीव को न मारता है, न मरवाता है एवं समभाव से रहता है, वह श्रमण है । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २५३ ४. उरग-गिरि-जलण-सागर-नहतल-तरुगण-समो यजो होइ। भमर-मिय-धरणि-जलरुह-रवि-पवणसमो यसो समणा।। -अनुयोगद्वार ५ श्रमण वह है, जो सर्पवत् परकुत निवास में रहता है. परीषहों में पर्वतवत् निष्प्रकम्प रहता है। अग्निवत् तप के तेज से युक्त होला है एवं सूत्रारूप ईनाम से तप्त नहीं होता। समुद्रवत् गम्भीर, ज्ञानादि रत्नों का घर एवं अपनी मर्यादा को नहीं तोड़नेवाला है। आकागवत् निरालम्बी होता है । वृक्षरामवत्-सुख-दुःख में समभाव होता है। श्रम रचत् अनियतवृत्ति से जीननिर्वाह करता है । मृगवत संसार से भयभीत रहता है । पृथ्वीवत रान काठ सदन करत' है। सूर्यवत् सबको समानरूप से प्रकाश देता है। कमलव तृ निलंप रहता है एवं पवनवत् अप्रतिवद्धनिहारी होता है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थ मन्थ: कर्माष्टविधं, मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । तज्जयहेतोरशठं, संयतते यः स निर्ग्रन्थः ।। -प्रमामरति १४२ आठ कर्म, मिथ्यात्व, अवत और दुष्टयोग-ये ग्रन्थ कहलाते हैं । जो इन्हें जीतने के लिए सरलभाव से प्रयत्न करता है, वह निर्ग्रन्थ है। २. आगमवलिया समणा निग्गंथा । —व्यवहारसूत्र १० श्रमण- नियों का बल 'आगम' (शास्त्र) हो है । ३. पंचासवपरिणाया, तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा, निगंथा उज्जुदंसिणी ।।११।। आया वयं ति गिम्हेसु, हेमन्तेसु अवाउडा । वासासु पडिसलीणा, संजया सुसमाहिया ।।१२।। परीसहरिऊदंता, ध्यमोहा जि दिया। सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणी ।।१३।। –दशवकालिक श.. निग्रंथ मुनि पांच आस्त्रत्रों को त्यागनेवाले, तीन गुप्तियों से गुप्त, छ: काय के जीधों के प्रति संयमी, पांच इन्द्रियों का Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरा भाग : चौथा कोष्ठक २५५ निग्नह करनेवाले, धौर एवं सरलहष्टि द्वारा देखनेवाले होते हैं ॥११॥ सुसमाधिस्य संयमी मुनि ग्रीष्मकाल में सूर्य की आतापना लेते हैं। शीतकाल में अल्पवस्त्रधारी होते हैं। वर्षाऋतु में प्रतिसंलोन-इन्द्रियों को वश करके एक स्थान पर रहते हैं ॥१२॥ महषि निर्मन्ध्र परीपह-शत्रओं को जीतनेवाले, धूतमोह एवं जितेन्द्रिय होते हैं तथा सर्वदुःखों के विनाशार्थ पराक्रम करते हैं ॥१३॥ ४. समणस्म भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बढे निम्गंथा भगवंतो अप्पेगइया आभिणिबोहियणाणी जाव केवलणाणी, अप्पेगइया मणबलिया वयबलिया कायलिया, अप्पेगइया मणे मावाणुग्गहसमत्था ३,अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता एवं जल्लोसहि०,विप्पोसहि,आमोसहित,सव्वोसहिपत्ता अप्पेगइया कोवुद्धी एवं बीयबुद्धी पडबुद्धी, अप्पेगइया पयाणुसारी अप्पेगइया संभिन्नसोया,अप्पेगइया खीरासवा,अप्पेगइया महुआसवा,अप्पेगइया सप्पिासवा, अप्पेगइया अक्खीणमहाणसिया एवं उज्जुमई, अपेगया विउलमई विउर्वाणदितपत्ता चारणा विज्जाहरा आगासाइवाइणो || अप्पेगइया कणगालि तवोकम्म पडिवण्णा एवं एगावलि खुड्डागसीनिक्कीलिय तवोकम्म पडिवण्णा....संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति । –औपपातिक समवसरणाधिकार Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ वक्तृत्वकला के बीज श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी अनेक निर्ग्रन्थ भगवन्त, जिनमें कई एक मतिज्ञानी हैं यावत् कई केवलज्ञानी हैं। कई मनोबली, वचनबली एवं कायबली हैं, तो कई मन, वचन एवं काया से शाप और अनुग्रह की क्रिया करने में समर्थ हैं । कई खेल्लोषधिलब्धिवाले हैं तो कई जनमौषधि, विप्रुडोषधि, आमष पधि, गौर सयौं षधिलब्धिवाले हैं । कई कोष्ठक बुद्धिवाले हैं तो कई बीजबुद्धि और बुद्धिवाले हैं । कई पदानुसारिणी लब्धिवाले हैं तो कई भिन्नश्रोतलब्धिवाले हैं। कई क्षीरमधुसर्पिरावल विधवाले हैं तो कई ऋजुमति विपुलमति एवं कुऋषि वा · एवं विद्याधर हैं तो कई आकाश में गमन करनेवाले हैं। कई कनकावली तप कर रहे हैं तो कई एकावली, लघुसिंहनिष्क्रीडित आदि तप में लीन हैं । इस प्रकार संयम - तप से आत्मा को भावित करते हुए बिहार कर रहे हैं । . ५. पंच नियंठा, पण्णत्ता, तं जहा पुलाए, उसे, कुसीले नियठे, 1 सिणाए । -- स्थानांग ५३३४४५ नियंन्य पांच प्रकार के होते हैं- (१) पुलाक - साररहित धान्य को गुलाफ कहते हैं । त और ज्ञान से प्राप्त लब्धि के प्रयोग द्वारा बल-वाहन सहित चक्रवर्ती आदि का मानमर्दन करने से तथा ज्ञानादि के अतिचारों का सेवन करने में जिनका संग्रम पुलाकवत् साररहित हो, वे मुलाकनिर्ग्रन्थ कहलाते हैं । (२) कुषा – कुश शब्द का अर्थ चित्र ( चीते जैसा) वर्णं है । शरीर एवं उपकरणों की शोभा विभूषा करके उत्तरगुणों 1 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या भाग : चौथा कोष्ठक २५७ में दोष लगाने से जिनका चारित्र चित्रवर्ण (दोषों के दागवाला) होगया है, वे बकुशानिन्थ कहलाते हैं। (३) कुशील-मूल व उत्तर गुणों में दोष लगाने से तथा संज्वलन कषाय के उदय से जिनका शील-चारित्र कुत्सित व दूषित हो गया है, वे साधु कुशील निन्थ कहलाते हैं । ये दो प्रकार के होते हैं—प्रतिसेवनाकुशील और कषायक्रुशील । {४) निर्गन्ध- यह मोह है। जो साधु मोह से रहित हैं, उन्हें निग्रंथ कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं—उपदान्तमोहवाले एवं क्षीणमालवाले। दोनों क्रमशः ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में निवास करते हैं। (५) स्नातक - स्नान किये हुए वो स्नात या स्नातक कहसे है । शुक्लनमान वारा समस्त घातिककर्मों को खपाकर जो शुद्ध हो गये हैं (नहालिये हैं), वे मुनि स्नातक-निर्गन्य कहलाते हैं। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर १. सन्मार्ग से गिरते हुए अनुष्य का स्थिर करनेवाले व्यक्ति स्थविर कहलाते हैं। दसविहा थेरा पण्णत्ता, तं जहा-गामथेरा, णगरथेरा, रट्ठथेरा, पसत्थथेरा, कुलथेरा, गणथेरा, संघथेरा, जाइथेरा, सुयथेरा, परियायथेरा। -स्थानांग १०७६१ तथा समवायाङ्ग १० स्थविर दस प्रकार के कहे हैं—(१) ग्रामस्थविर, (२) नगरस्थविर, (३) राष्ट्रस्थविर, (४) प्रशास्त्स्थ धिर, (५) कुलस्थविर, (६) गणस्यविर, (७) मंघस्थविर, (८) जातिस्थावर, (६) श्रुतस्थविर, (१०) पर्यापस्थविर । ३. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भग वंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा बलसंपण्णा रूवसंपण्णा विणयसंपण्णा णाणसपण्णा दंसणसंपण्णा चरित्तसंपण्णा लज्जासंपण्णा लाघवसंपण्णा, ओयंसी तेयसी बच्चसी जसंसी, जियकोहा जियमागा जियमाया जियलोभा जियइदिया जियणिद्दा जियपरीसहा, जीवियासमरण भयविष्पमुक्का, वयप्पहाणा "मंतप्पहाणा वेयप्पहाणा बंभ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २५६ प्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयपहाणा........सुसामण्णरया दंता इणमेव णिगथं पावयणं पुरओ काउंविहरति । तेसि णं भगवंताणं आयावायाविविदिता भवति,परवाया विदिता भवंति,आयावायं जमइत्ता नलवणमिव मत्तभायंगा अच्छिद्दपसिणवागरणा रयणकरंडगसमाणा कुत्तियावणभूया परवादियपमद्दणा दुवालसंगिणो समत्तगणिपिडगधरा....... ........अजिणा जिणसंकासा, जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति । श्वमण भगवान् महावीर के अंतेवासी बहुत से स्थविर भगवंत जातिसंपन्न हैं तथा कुल, बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र लज्जा, एवं लापन संपन्न हैं। ओजस्वी, तेजस्वी. वर्चस्वी और यशस्वी हैं एवं क्रोध मान आदि को जीतनेवाले हैं । वे जीविताशा और मरणभय से निप्रयुक्त हैं । ब्रत,गृण,कार ए,चरण,निग्रह, निश्चय, आजव, मार्दव, लापथ, क्षःन्ति, मुक्ति, विद्या, मात्र, वेद, ब्रह्म नप, नियम, सत्य और और में प्रधान-श्रेष्ठ हैं ।.... वे श्रमणत्व में रक्त हैं, दान्त हैं और इस निग्रंथप्रवचन' को आगे करके विचर रहे हैं । जिन्हें आत्मवाद (स्वसिद्धान्त) और परवाद (अन्यमत के सिद्धान्त) विदित है आत्मवाद को हृदय में मावर नालबन' में मस्त हाधी की तरह ज्ञानवन में रमण कर रहे हैं, जटिल से जटिल प्रश्नों का सरलता से उत्तर देने में समर्थ है। ये रत्नकरण्ड के समान हैं, कुचिकारण Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज जैसे हैं', परवादियों का प्रमर्दन करनेवाले हैं। हादशाङ्ग के जाता है, समस्त गणिपिटक के धारक है ।........जिन न होकर भी जिन के समान हैं और जिनके तुल्य अवितथ-सत्यवाणी वागरते हुए संयम-तप से आत्मा को भावित करते हुए विहार कररहे हैं। सु-पृथ्वी, त्रिक-तीन, आपण-दुवाम' अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य, पातालरूप गोनों पृथियों में उपलब्ध होनेवाली सब वस्तुएं जिस दुकान में मिल सकती हों, उस दुकान को कुत्रिकापण कहते हैं । पुराने जमाने में ऐसी देवाधिष्ठित दुकानें बड़े शहरों में हुआ करती थीं । वहाँ स्थाबरों को कुत्रिकापण की उपमा देने का मतलब यह है कि उनके पास कुत्रिकापण की तरह हर एक प्रकार के ज्ञान का अद्भुत संग्रह होता है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तापस १. स तापसो यो परतापकर्षणः । वास्तव में तापस-बही है, जो दूसरों का संताप दूर करे । २. तवेण होइ तावसो। -उत्तराध्ययन २५३२ तप करने से तापस होता है । ३. कुसचीरेण न तावसो। - उत्तराध्ययन २०३१ वल्कलादि वस्त्रमात्र पहनने से तापस नहीं होता । २६१ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ १. फकीर का अर्थ फे-फाका (तपस्या),काफ- कनायत ( फाके पर भरोसा), इये - या इलाही, ( पल-पल में प्रभु का स्मरण), रे - रियायत - संयम में ना काप इसे एडी) व यह है कि जो तपस्या करता है एवं उसमें भरोसा रखता है तथा प्रभु का स्मरण करता हुआ संयम में रहता है, वह फकीर है । २. फिक छोड़ फराकमल घर चित्त आतम घोर, दया कपन पहने फिरे, ताको नाम फकीर । फकीर ३. फिकर फिकर को खात है, फिकर फिकर का पीर, फिकर का जो फाका करे, ताको नाम फकीर ॥ ४. फकीर सोही फरक रहे, नहि संग करे विषयी जन केरा, आप वाल में मस्त रहे, वाड़ी बाग बजार मसोत में डेरा । आप उपाय न छावत छप्पर, होत खुशी जहां लेत बसेरा, 'रामचरण' खुदा भख भंजन, बार गिने नहि सांझ सवेरा ।। ५. मेडिव मंदिर छोड़ के क्यूं बन, बांधत झूपड़ी फूस तटिंदा, लूखड़ो-सूकड़ी खाय रहो, काला मुँह करो तुम खाट मटिदा । २६२ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौथा भाग : चौथा कोष्ठक रूप उन्हों कूहि लोडिए जो कोई, नारी का आसक होय लटिंदा । फकीरी का राह कठिन है, उली पग धरतां निकले दूध छटिंदा । -भाषाश्लोकसागर ६. गिहं न छाए पि छायएज्जा। -सूत्रकृतांग १०३१५ साधू स्वयं न छप्पर छाए और न दूसरे से छवाए । ५. आरा शहर में मुहम्मद अलतवी कलेक्टर ने एक फकीर से पूछा-अच्छे साधु कहाँ देखे ? फकीर -- कुभ के मेले में। कलेक्टर—मुसलमान होकर कुभ का नाम कैसे ? फकीर—जैसे ऊपर चढ़े व्यक्ति की दृष्टि में छोटे-बड़े सभी वृक्ष एक समान होते हैं, उसी प्रकार जिसका मन संसार से ऊपर उठ गया है, उसके दिल में हिन्दुमुसलमान का भेद नहीं रहता। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ १. वदनं प्रसादसदनं, सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः । करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्या ! संत जिनका वदन आनन्द का सदन है, हृदय दयासहित है, वाणी अमृतवर्षिणी है और इन्द्रियां परोपकारिणी हैं- ऐसे सन्त पुरुष किसके वन्दनीय नहीं होते । २. सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रणताः समदर्शिनः । निर्ममा निरहंकारा, निर्द्धद्वा निष्परिग्रहाः ।। L - भागवत ११।२६।२७ संत जब किसी प्रकार की इच्छा नहीं करते. वे मुझमें ही चित्त लगाए रहते हैं तथा अतिनम्र, समदर्शी, ममत्वरहित, अहंकाररहित, निर्द्वन्द्व एवं निष्परिग्रह होते हैं । ३. मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णात्रिभुवनमुपकारश्र णिभिः प्रीणयन्तः । परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं, निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥ मतं हरि नीतिशतक ६१ जिन के मन-वचन काया धर्म-अमृत से पूर्ण है, जो तीनों ही लोकों को अपने उपकार से तृप्त कर रहे हैं तथा जो दूसरों के परमाणु जितने छोटे गुणों को भी पर्वत जितना बड़ा करके मन में खुश हो रहे हैं, ऐसे सन्त कितने-क हैं ? २६४ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग चौथा कोष्ठक २६५ ४. स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः । श्रीमद्भागवत १०१६८ — साधु स्वयं तीर्थो को पवित्र करते हैं । ५. संत हृदय नवनीत समाना, ७. कहा कविन्ह पै कहै न जाना । निज परिताप जीत, पर दुख द्रवह संत सुपुनीता ॥ ६. गङ्गा पाप राशी तापं, दैन्यं कल्पतरुर्यथा । पापं तापं च दैन्यं च हन्ति सन्तो महाशयाः ॥ ८. - रामचरितमानस — चंदचरित्र, पृ० १०६ गंगा पाप का चन्द्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता का नाश करता है, किन्तु महामना संतपुरुष पाप ताप एव दीनता - इन तीनों का ही नाश करते हैं । कोउक निन्दत कोउक वन्दत, कोउक भावसों देत है भच्छन । कोउ कहत ये मूरख दीसत, कोउ कत्त ये चतुर- विचच्छन । कोउक आय लगावत चन्दन, कोउक दारत है तन तच्छन । सुन्दर ! काहू पै राग न रोष सो, ये सब जानिये सन्त के लच्छन । सज्जन ऐसा होइए, जैसा बन का कैर । ना कहूं सों दोस्ती, ना काहूं सों वैर ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ वक्तृत्वकला के बीज ६. संता ! हेत जु राखिये, पातलवाली प्रीति । जीम्यां पाछ फेंक दे, या सन्तन की रीत ।। १०. भावे लंबे केश रख, भावे मुड मुडाव । साहिब से सच्चे रहो, वन्दे से सदभाव ।। --मानक ११. जैसे--सत्ताधारी पुरुषों की वाणी से सत्ता एवं गृहिणियों को बाणी से प्रेम झलकता है। उसी प्रकार सन्ता की वाणी से त्याग-बैराग्य-पवित्रता एवं आत्मबल प्रकट होता है और श्रोताओं पर अवश्य प्रभाव पड़ता है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय जगत्प्रसिद्ध संत-महात्मा १६ १. श्रमण भगवान महावीर जैन सिद्धान्तानुसार आप चौबीस तीर्थङ्करों में से अंतिम तीर्थंकर थे । इस समय आपका ही शासन चल रहा है । आप का जन्म क्षत्रियकुड नगर में चैत्र शुक्ला १३ को हुआ था। माता का नाम त्रिशला और पिता का नाम सिद्धार्थ था । जबसे आप गर्भ में आये तभी से उत्तरोत्तर अन्नघनादि की वृद्धि होने लगी । व मान रखा । युवावस्था प्राप्त राजकन्या से आपका विवाह हुआ । अतः पिता ने होने पर आपका नाम यशोदा नाम की जाने लगे, तब इन्द्र जब आप तपस्यायं वन की ओर ने आपको उपस्थ अवस्था में उपसर्गों से सुरक्षित रहने में सहायता देना चाहा पर आपने कहा- मुझे किसी दूसरे का सहारा नहीं चाहिए । सुनकर इन्द्र चकित हुआ और आपको 'महावीर' के नाम के संबोधित किया । आपका तपस्याकाल बहुत लम्बा चला - १२ वर्ष १३ पक्षों में आपने केवल ११ मास २० दिन आहार लिया । आपके तपस्याकाल में बड़े- बड़े उपसर्ग आए, परन्तु आप मेवत् अचल रहे | आखिर कर्म शत्रु हारे और वैशाख शुक्ला १० को आप केवलज्ञानी बने । २६७ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज आपने धभं-माग में गुण और कर्म के ही मुख्य माना और 'अहिमा' वो 'परमधर्म' घोषित किया। ३० वर्ष सक धर्म का प्रचार करने के पश्चात् आपका निर्माण कार्तिक कृष्ण अमावस्या को हुआ। -त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के आधार पर । २. महात्मा बुद्ध ये माया माता और शुद्धोधन राजा के पुत्र थे । इनका नाम सिद्धार्थ राजकुमार था एवं इनकी स्त्री सशोधरा थी। वृद्ध पुरुष को देखकर वैराग्य हुआ। फिर एक बीमार पुरुष को देखा तथा मार खाते हुए बैल को देखा । फिर चींटियों को खाती हुई छिपकली एवं उसको निगलता हुआ सांप,उस पर झपटती हुई चीन और उसे मारते हुए शिकारी को देखा एवं वैरागी बनकर नवजात पुत्र 'राहुल' और उसकी माता 'यशोधरा' को छोड़कर, रात के समय उठकर चल पड़े । ज्ञानी बनकर चार आयं सत्यों का एवं आर्यअष्टांगमार्ग का उपदेश दियावार्यसत्य :---(१) वस्तु क्षणिक है-दुखरूप है। (२) तृष्णा दुःख का मूल है । (३) तुष्णा-नाश से दुःस्व का नाश होता है । (४) रागद्वेष-अहंकार के नाश से निर्वाण होता है। आर्यअष्टांगमार्ग:--(१) सत्यविश्वास, (२) न प्रवचन, (३) उच्चलक्ष्य, (४) सदाचरणा,(५) सत्ति , (६) सद्गुणों में स्थिर रहना, (७) बुद्धि का सदुपयोग, (८) सम्यान । महात्मा बुद्ध ने जातिवाद एवं हिंसा का विरोध किया। एक बार राजा बिम्बिसार के यहाँ पशुवज्ञ हो रहा था। बुद्ध आकर बीच में बड़े हो गये । हिंसा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा काष्ठक २६६ रुकी, राजा समझा 1 एक बार एक राक्षस इन्हें मारने दौड़ा । बुद्ध शान्त रहे । राक्षस कबूतर के रूप में परिवर्तित ....कल्याण संतअंक के आधार से । ३. पारसी-धर्म के संस्थापक महात्मा 'जरथुछत्र' ईसा से लगभग ६०० वर्ष पहले पूर्वी ईरान के रए शहर में माडिया नाम की जाति के मगी नामक गोत्र में इनका जन्म हुआ । इनके वंश का नाम पितमा (ज्योतिर्मय), माता का नाम दोदा और पिता का नाम पोकशास्प था । कहा जाता है कि इनके जन्म से पूर्व ही अत्याचारी बादशाह और सरदारों को अपशकुन होने लगे । उन्होंने इनको मारने के अनेक उपाय किये, इन्हें बलती हुई आग में डाला गया, पर आग बुद्दा गई, बाघों के झुण्ड में फेंका गया, पर उनके • जबड़े ही जवाड़े गये और वे जीवित रह गये। वे १५ वर्ष की आयु में तपस्या के लिए जंगल में जा बैठे । १५ वर्ष तक कठोर तपस्या करके इन्होंने कामादि-शत्रुओं पर विजय पाई और "जरपुश्त्र' (सुनहरी रोशनीवाले) के नाम से प्रसिद्ध हो गये । फिर ये सच्चिदानंद-स्वरूप ईश्वर को आराधना और मानव-सेवा का प्रचार करने लगे । प्रारम्भ में लोगों ने इनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया, पर जब बल्ल के वादशाह बीताश्प ने इन्हें आमश्रित किया और इनका उपदेश स्वीकार किया तब दूसरे लोग भी काफी संख्या में इनको मानने लगे । मतहत्तर वर्ष की आयु में प्रार्थना करते समय कतिपय विरोधियों द्वारा इन पर आक्रमण हुआ इन्होंने प्रसन्नतापूर्वक Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० वक्तृत्वकला के बीज अपने आपको धर्म की वेदी पर चढ़ाते हुए विरोधियों से कहा-'होरमज्द' (ईश्वर) तुम्हें क्षमा करे । पारसीधर्म में वैदिकधर्म की तरह शान, भक्ति और कर्म-तीनों मार्ग अपनाये गये हैं, पर विशेषनल कर्म-मार्ग पर दिया गया है । यदि एक ही शब्द में कहें तो इस धर्म का सार है परोपकार । -कल्याण संतअंक तथा 'पारसीधर्म क्या कहता है ?' के आधार से । ४. महात्मा ईसामसीह :--- ___ इनका जन्म वि० सं० ५७ में फिलस्तान की राजधानी यरूसलम से ६ मील दूर बेथसहा नगर के एक बढ़ई परिवार में हुआ था। माता का नाम मरियम और पिता का नाम यूसुफ था। बचपन से ही ईसा में अनेक दैविक गुणप्रकट हो गये थे। १२ वर्ष की आयु में तो ये यरूसलम के बड़े-बड़े विद्वानों से ज्ञान-चर्चा करने लग गये थे। ३० साल की आयु में ये जोर्डन नदी के विनारे यूहन्ना (जांन) नामक एक महात्मा के पास उपदेश सुनने गये । यूहन्ना का उपदेश था- सबके साथ प्रेम से रहो । दूसरों का माल मत छीनो । जो कुछ मिला है, उसी में सन्तुष्ट रहो । गरीबों को मत सताओ । यदि तुम्हारे पास दो कोट है तो एक असे दें दो, जिसके पास न हो । अगर तुम्हारे पास खाने को है तो उसे खिलादो, जिसके पास खाने को कुछ भी नहीं है । अच्छी करनी करो और अपना जीवन बदलो। ईसा को यूहन्ना का उपदेश बहुत पसंद आया और ये उनके शिष्य बन गये। फिर ये समाज में फैली हुई गलतप्रथाओं का विरोध करते हुए सत्य, दया, दान, क्षमा आदि मानव Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २७१ धर्मों का प्रचार करने लगे। यह प्रचार कतिपय रूढ़िवादी यहूदियों को, असह्य हो गया । उन्होंने इन पर ऐमे मिथ्या अभियोग लगाये जिसके कारण इन्हें प्राणदण्ड दिया गया । सूली पर चढ़ने से पूर्व इनकी प्रार्थना थी-"प्रभो ! इन लोगों को क्षमा कीजिए, ये बेचारे नहीं जानते कि हम क्या कर रहे है ?" ईसा के साइमन (पीटर) आदि १२ मुख्य शिष्य थे। ईसाईधर्म और इस्वी सन् के प्रवर्तक ईसा ही थे। ईसाई धर्म का मुख्य तत्त्व है : Love is God, God is Love. अर्थात् प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है । - कल्याण संतअंक, तथा 'ईसाई धर्म क्या कहता है ?' के आधार से। ५. सुकरात ईसा से पूर्व पांचवीं सदी के उत्तरार्ध में यूनान में इनका जन्म हुआ। पिता सिलावट थे एवं माता दाई का काम करती थी। बचपन से ही में पढ़ने में तेज थे। इन्होंने महात्माओं से ज्ञान एवं जजों-वकीलों से तर्क-शक्ति बढ़ाई। क्रोध को विशेषरूप से जीता और राजधानी एथेंस में धर्म-प्रचार करने लगे। उस समय सुफीसंतों का वहाँ बड़ा जोर था । वे लौकिक-प्रेम की गाथाओं के माध्यम से लोगों को ईपवर-प्रेम की और आकृष्ट करने का स्वांग रचते थे। परन्तु वस्तुतः परमार्थसत्ता के वास्तविक ज्ञान का उनमें अभाव ही था। सुकरात के प्रभाव से उन लोगों का प्रभाव शनैः शन: क्षीण होने लगा। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ तृत्वकला के बीज सुकरात को मनुष्य की अल्पज्ञता का भी पूरा भान हो चुका या । उनका यह प्रसिद्ध वाक्य आ — 1 Know that I Knoranting मेरा नाम तो यही बतलाता है कि मैं कुछ नहीं जानता । इनके आत्मवाद का युवकों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा, किन्तु राज्याधिकारी विरुद्ध हो गये और उन्होंने इन पर निरीश्वरवादिता का अभियोग लगाकर इन्हें मृत्युदंड के रूप में जहर का प्याला दे दिया, जिसे ये हँसते-हंसते भी गए । - कल्याण संतअंक के आधार से । ६. महात्मा डायोजिनीज डायोजिनीज ग्रीस के एक महान् तत्त्ववेत्ता संत थे । जीवन के बाह्यव्यवहारों के प्रति लापरवाह होकर ये बाजार में पड़े हुए एक काठ के पीने में ही मल्ल पड़े रहते थे । शाह सिकन्दर एकबार इनके दर्शनार्थ आया ओर अपनी महानता दिखलाता हुआ बोला :सिकन्दर में महान विजेता सिकन्दर है । ITZ महात्मा -- मैं सिनिक (अवधूत ) डायोजिनीज हूँ । सिकन्दर में सारी दुनियाँ को मुट्ठी में रखता हूँ । महात्मा - मैं सारी दुनियाँ के लात मारता हूँ ! सिकन्दर आप मैं चाहूं उससे ज्यादा नहीं जी सकते । महात्मा – तू चाहे या न चाहे मुझे अवश्य मरना है । सिकन्दर आप चाहें सो माँग सकते हैं । — महात्मा - मेरे सामने को धूप छोड़कर दूर हो जाओ । महात्मा की निःस्पृहता से प्रभावित होकर सिकन्दर ने कहा - "अगर सिकन्दर सिकन्दर न होता तो ग्रीस का तस्ववेत्ता डायोजनीज होता ।" - कल्याण संतक एवं भूति के आधार से । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग : लोवर कोष्ठक 4. ७. माहिम लूबर जर्मनी (यूरोप) में एक किसान के घर सन् १४८३ ई० में इनका जन्म हुआ । वकालत पढ़े। धर्म की तरफ झुकाव अधिक था । उन दिनों के पोष (गुर) पर यूरो में ईश्वरवत् पूजे जाते थे। उनका यह कहना था कि बड़े से बड़ा पापी भी हमारा सटीफिकेट (मुक्तिपत्र) लेने से स्वर्गगामी बन जाता है। श्रद्धालु लोग धन देकर पोपों से मुक्तिपत्र' लेने लगे । पाप-अत्याचार की वृद्धि होने लगी । लूयर ने लोगों को पोपलीला का रहस्य समझाते हुए कहा – सत्य, आदि के बिना इन कागज के टुकड़ों से कल्याण कभी नहीं होगा। लोग समझे एवं 'प्रोटेस्टेंट' मत चला। पोप क्रुद्ध हुए सभा इन्हें जीवित जला देने की आज्ञा दी । लूवर बच निकले और प्रोटेस्टेंट धर्म का प्रचार करते हुए ६० वर्ष की आयु में परलोकगामी हुए । - अध्ययन के आधार पर । ८. महर्षि वाल्मीकि इनका मूल नाम अग्निशर्मा था। डाकुओं के संसर्ग में रहकर ये लूटमार और हत्याएँ करने लगे । एक दिन इन्होंने सप्तऋपियों पर भी जाक्रमण कर दिया। ऋषियों ने पूछा भाई ! यह गाय किसके लिए कर रहे हो ? इन्होंने कहाघरवालों के लिए | ऋषि बोले- क्या वे पाप के फल भोगने में हिस्सा ले लगे ? इन्होंने माता-पिता, स्त्री आदि से पूछा तो {= Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज उन सबमे इन्कार कर दिया । तब ये रोते-रोते आकर ऋषियों के चरणों में पड़ गये और उनके उपदेश से इनके ज्ञान-नेत्र खुल गएँ । घिगों - हानाग का पंग दिया । ये एक नी जगह बैठकर रामराम जपते रहे। इनका शरीर दीमकों का घर वन रक्षा । (दीमकों के घर को वल्मीक कहते हैं) तेरह वर्ष बाद, ऋषि वहाँ वापिस आये और इनको नल्मीक से निकाला। वल्मीक से निकलने के कारण इनका नाम वाल्मीकि हुआ। ये ही वाल्मीकिऋषि आदिकवि के नाम से प्रख्यात हैं। (स्कंदपुराण पाँधयाँ अतिखंड, अवंतिक्षेत्र माहात्म्य अ० २४) जगद्गुरु-आदिशंकराचार्य इनका जन्म सम्बत् ८३५, कोचीन (केरस),माता सत्ती, पिता शिवगुरु एवं जन्म का नाम शंकर था। शंकर प्रथम वर्ष में मातृभाषा गढ़े एवं दूसरे वर्ष में १८ पुराण पढ़े । तीन वर्ष की आयु में पंडित बने एवं पांचवें वर्ष इन्हें जनेऊ दी गई। इनके विषय में यह भी कहा जाता हैअष्टवर्षे चतुर्वेदी, द्वादशे सर्वशास्त्रवित । षोडशे कृतवान् भाष्यं, द्वात्रिशे मूनिरभ्यगात् ।। ये आठ वर्ष की आयु में चारों वेद और वारह वर्ष की आयु में अन्य सभी शास्त्र पर चुके थे । सोलह वर्ष की आयु में इन्होंने ब्रह्मसूत्र एवं उपनिषदों के माध्य बनाए और बत्तीसवें वर्ष में ये दिवंगत हो गये । बैदिकधर्म का मंडन करना इनको यचपन से ही अभीष्ट था । वेदपारंगत कुमारिलभट्ट से प्रयाग में मिले । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था भाग चौथा कोष्ठक २७५ उन्होंने शंकर से मंडन मिश्र को अपनी ओर खींचने की सलाह दी। नर्मदातट पर माहिष्मतीनगरी गये । मंडन से १६ दिन' चर्चा हुई। (उभयभारती उनकी पत्नी मध्यस्थ थी) मंडनमिश्न हारे। फिर उभयभारती भांगिनी के नाते चर्चा में आ बैठी। कामशास्त्र-सम्बन्धी प्रश्न चलाए । शंकर ने समय मांगकर परदेह-प्रवेशिनी निया से मृत राजा के शरीर में प्रवेश किया और कामशास्त्र पढ़ा । तत्पश्चात् उभय. भारती से १५ दिन चर्चा करके विजय प्राप्त की। दोनों (पति-पत्नी) शंकर के शिष्य-शिष्या बने एवं उनका सहयोग पाकर इन्होंने, वैदिकधर्म व.: अधिक प्रचार किया । सम्वत् ८६७ में शंकराचार्य दिवंगत हो गये। –शंकरदिग्विजय के आधार से । ०. महात्मा कबीर इनका जन्म वि० सं० १४५५ जेठगुदी पूनम को हुआ था। माता का नाम नीमा और पिता का नाम नीरू था । ये जुलाहे का धंधा करते थे। एक बार ये एक पहररात रहते गंगा घाट की लीड़ियों पर जा पड़े । उधर से गंगास्नान करके लौटते समय स्वामी रामानन्दजी का पर इनके सिर पर गड़ गया । माश्चर्य रामानन्दजी के मुंह से 'राम-राम' शब्द निकाला । इन्होंने इसी रामराम को गुरुमंत्र मान लिया और रामानन्दजी ने भी इन्हें शिष्यरूप में स्वीकार कर लिगा । (ये शूद्र को शिष्य नहीं बनाते थे।) कबीर पढ़े-लिखे न होने पर भी भामिक कवि थे । इनको माननेवाले हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही थे। एक बार झूठा रोजा, मूठी ईद कह देने पर इन्हें वादशाहू सिकंदर लोधी द्वारा गंगा में बहा दिया गया । सब इन्होंने कहा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीच गंग लहर मेरी टूटी अंजीर, मृगछाला पर बैठ कबीर । कह कबीर कोउ सङ्ग न साथ । __जिसको राखत है रघुनाथ ।। इस चिन्तन के साथ ही इनके बंधन खुल गये और ये कुछ ही क्षणों में तट पर आ खड़े हुए। इनकी रचनाओं में योजक, आदिग्रन्थ, साखी, शबाचली, अखरावटी, ज्ञान-गुबड़ी आदि मुख्य है। कावीर अहिंसा, सत्य और सदाचार के प्रचारक थे और इन्हें बाह्याडम्बर रो बड़ी चिढ़ श्री। इरा समय इनके पंथ (कबीरपंथ) को माननेवाले ८.१ लाख बताए जाते हैं । --कल्याण संतअंक एवं श्रुति के आधार से । ११. महात्मा तुलसीदास इनका जन्म राजापुर गाँव में आसाराम ब्राह्मण के घर, माता इससी के गर्भ से मूलनक्षत्र में हुआ । मूसनक्षत्र में जन्म के कारण इनको माता-पिता ने छोड़ दिया । ये छटपटा रहे थे। संयोग-वश वहाँ साधु नरहरिदासजी आगये और इन्हें ले गये, पाल-पोषकर वेद-पुराण, रामायण आदि पढ़ाया । बाद में इनका विवाह हुआ। स्त्री पर ये इतने मुग्ध हो गये कि उसे कभी पीहर नहीं भेजते थे । एकबार इनका साला आया और इनको बिना पूछे ही अपनी बहन को ले गया। पता चलते ही ससुराल के लिए जमुना की तेजधार में कूद पड़े । तरलेतैरते थक गये | तब एवा मुर्दे की टौंग पकड़कर पार पहुंचे। अंधेरी रात थी। ससुराल का दरवाजा बन्द था । अतः ये दीवार पर लटकते हुए एक साँप को रस्सी ARश कर उसके Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग चौथा कोष्ठक सहारे स्त्री के पास जा खटके। भय, लज्जा और क्रोध से पिसी हुई स्त्री ने कहा : हाड़-मांस को देह मम, ता पर जितनी प्रीति । तिसु आधी जो राम प्रति अवसि मिटहि भव-भीति ।। - एक उन्हें ज्ञान हो गया एवं साधु बनकर तीर्थों में सत्संग करले हुए घूमने लगे । वि० सं० १६३१ में अयोध्या में रामायण की रचना आरम्भ की फिर उच्चकोटि के २१ ग्रन्थ और बनाये जिसमें से १२ ग्रन्थ वर्तमान में मिलते हैं। इन्हें हिन्दी का शेक्सपियर और कालिदास कहा जाता है। एक बार अकबर ने इन्हें चमत्कार दिखाने के लिए कहा और न दिखाने पर लालकिले में बन्द करवा दिया अचानक बन्दरों की सेना ने आकर किले में श्राहि-त्राहि मचादी, (हनुमान का इष्ट था) अकबर ने माफी मांगी एक बार एक स्त्री का पति मर गया था । श्मशान जाते समय उसकी स्त्री ने कुटिया में आकर इन्हें प्रणाम किया । इन्होंने सहजभाव में कह दिया । 'सौभाग्यवती हो !' चिल्लाकर स्त्री ने कहा पति हमारा चल बसा, हम भी चालनहार । तुलसी तुम्हरे वचन का होगा कवन हवाल || तुलसीदास जी ने मुर्दा मँगवाकर उसके सिर पर हाथ रखा और राम का ध्यान किया --- J तुलसी मड़ा मंगाय के दिया शीश पर हाथ | हमतो कछु जाने नहीं, तुम जानो रघुनाथ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ पक्तृत्वकला के बीज कहा जाता है कि इतना कहते ही मुर्दा जीवित होगया । राम-मोक्त में सान महात्मा तुलसीदासजो का देहाववसान नि० संवत् १६५०, श्रावण शुक्ल सप्तमी को काशी के (असीघाट) गंगातट पर हुआ, जिसके विषय में यह दोहा प्रसिद्ध हैसम्बत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर । श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो सरीर ।। -कल्याण संतअंक एवं श्रुति के आधार से। १२. सिखगुरु नानकदेवजी सिखों के दस गुरु हुए हैं। उनमें प्रथम गुरु नानकदेवजी थे। इनका जन्म 'राइभोई की तलवंडी' (ननकाणासाहिब) में देदी कानूचन्द पटवारी के घर माता तुरताजी के उदर से वैशाख सुदी ३ सं० १५२६ को हुआ । गुरु नानक बचपन से ही बड़े शान्त -स्वभाव के थे । एक दिन माता के आग्रह पर ये बच्चों में खेलने गये। वहां इन्होंने बच्चों को पद्मासन से बैठा दिया और कहा.-"सत्य कत्तरि" कहते जाओ। पिता ने इन्हें पढ़ने के लिए दो पंडितों और एक मौलवी के पास भेजा, किन्तु इन्होंने अपने आत्मबल से तीनों उस्तादों को शिष्य बना लिया । एक वार पिता ने इन्हें कुछ सौदा लाने को कहा । इन्होंने सारे रुपये भूखे संतों को खिलाने में खर्च कर दिये । घर आकर अपने पिता से इस सौदे को सच्चा सौदा बताया । पिता को बड़ा क्रोध आधा और इन्हें काफी मारा-पीटा । इनकी बहिन 'नानकी' से यह नहीं देखा गया और यह इन्हें अपने घर (सुलतानपुर) ले गई । यहाँ ये मोदीखाने में। काम करने लगे। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २७६ सम्वत् १५४४ में २४ जेठ को इनका विवाह मूलचंदजी की सुपुत्री सुलक्षणा के साथ हुआ, जिससे इनके दो पुत्र (बावा श्रीचन्द्र और बाबा लक्ष्मीदास) हुए। मोधीखाने में एक दिन आटा लोलते समय एक-दो-तीन आदि कहते-कहते जब तेरह का नाम आया तो "तेरा-तेरा" ही कहते गगे (हे प्रभो ! मैं तेरह हूं) और सारा आटा तोल दिया । मोदीखाने का कार्य छोड़कर धर्मप्रचार में लग गये। सं. १६५४ में इन्होंने देशाटन प्रारम्भ किया। इनकी चार यानाए विशेष प्रसिद्ध है(१) पूर्व में हरिद्वार, देहली, नैमिषारण्य, अयोध्या, प्रयाग, काशी यावत् जगन्नाथपुरी। (२) दक्षिण में सेतुबन्ध-रामेश्वर एवं सिंहल द्वीप । (३) उत्तर म सिक्किम, भूटान और तिब्बत । (४) पश्चिम में रूम, बगदाद, ईरान, काबुल तथा बिलोचिस्तान होते हुए मुसलमानों के प्रसिद्ध तीर्थ मक्का पहुंचे। सभी जगह वाहेगुरु (परमात्मा) की अनन्य उपासना का उपदेश दिया । मक्के में एक दिन ये काबे की तरफ पैर करके सो गये। जब काजी ऋद्ध, हुआ तो ये बोले-जिधर, अल्लाह न हो, मेरे पैर उधर कर दीजिए। काजी ने जिघर को इनके पैर फेरे काबा भी उधर ही फिर गया । २५ वर्ष भ्रमण करने के बाद गुरु नानक कारपुर में रहकर धर्मप्रचार करने लगे। सं० १५६६ आसोज सुदी १० में इनका परलोकगमन' हुआ । उस समय इनकी आयु लगभग ७० वर्ष की थी । अन्तिम संस्कार के समय हिन्दू और मुसलमानों में विवाद खड़ा हो गया। जब वस्त्र उठाकर देखा तो इनका Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ वक्तृत्वकला के बीज शरीर ही नहीं मिला। अस्तु, आधा-आधा वस्त्र लेकर हिन्दुओं और मुसलमानों ने अपनी-अपनी विधि से अंतिमसंस्कार किया। -कल्याण, संतअंक तथा 'सिखधर्म क्या कहता है ?' के आधार से | १३. संत श्रीतुकारामजी चैतम्य इनका परम राज ६६::: ] के पा: बहू नामक ग्राम में हुमा । इनकी माता का नाम कनकबाई और पिता का नाम बोलोजी था। इनके दो विवाह हुए। पहली स्त्री का नाम रक्खूबाई और दूसरी का जीजीबाई था । जीजीबाई का स्वभाव बड़ा चिड़चिड़ा था। माता-पिता के वियोग के कारण १७ वर्ष की अवस्था में ही इनको घर का सारा भार संभालना पड़ा। दुकान में घाटे पर घाटा लगता गया और आखिर दीवाला निकल गया । इधर पहली स्त्री और पुत्र मर गये । अब इनका चित्त गृहस्य-जीवन से बिलकुल उचट गया और ये विरक्त होकर कभी पहाड़ों पर, कमी मंदिरों में भजन-कीर्तन करने लगे। कीर्तन करते समय इनके मुख से अभंगवाणी निकलने लगी। बड़े-बड़े विद्वान् इनके भक्त बन गये, लेकिन वेदान्त के एक प्रकाण्ड पंडित को एक शूद्र के मुख से श्रुत्त्यर्थबोधक अभंग का निकलना बहुत अखरा । आखिर पंडित रामेश्वर भट्ट के दवाव से इन्होंने अपने अभंगों की सारी बहियाँ इन्द्रायणी नदी के दह में डाल दी और खुद अन्न-जल त्यागकर, विट्ठलनाथ के मंदिर के सामने ध्यानमग्न होकर बैठ गये। कहा जाता है कि १३ दिन बाद भगवान ने दर्शन देकर कहा-"उठो और धर्म प्रचार करो। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग चौथा कोष्ठक तुम्हारे सारे अमंग भक्तों के पास सुरक्षित हैं ।" (ये अभंग आज भी संत साहित्य में बहुत प्रसिद्ध हैं। इधर पंडित रामेस्वर भट्ट के सारे शरीर में जलन पैदा हो गई। वह इनकी शरण में आया और भक्त बना । तुकारामजी का धर्म प्रचार बढ़ा। कई बार छत्रपति शिवाजी भी इनके सत्संग में आये थे । सं० १७०६ चैत्र कृष्ण २ को इसका स्वर्गवास हुआ जनश्रुति के अनुसार देहावसान के बाद इनका शरीर नजर नहीं काया | कल्याण संतअंक के आधार पर । १४. संत दादूदयालजी - --- वि० सं० १६०१ में अहमदाबाद के लोदीराम नामक एक ब्राह्मण को साबरमती नदी में तैरता हुआ एक संदूक मिला और उसमें से एक हंसता हुआ बालक निकला । यही बालक आगे जाकर संत दादूजी कहलाया। कहा जाता है कि ११ वर्ष की आयु में श्रीकृष्ण ने इन्हें दर्शन और तत्त्वज्ञान दिया था एक बार ये घर से निकल गये परन्तु घरवालों ने इन्हें वापस लाकर विवाह बंधन में जकड़ दिया । १६ वर्ष की आयु में ये फिर निकल पड़े। इस बार ये सांभर ( जयपुर ) में जा छिपे और रुई धुनने का धंधा करते हुए १२ वर्ष तक कठिन तपस्या में लगे रहे। ये मुख्यतया "लव-योग" में लीन रहते थे और 'निरंजन निराकार' पर जोर देते थे । . दादूजी के रज्जबदासजी - सुन्दरदासजी आदि १५२ शिष्य हुए जिनमें से १०० तो विरक्त रहे और शेष यांभाधारी कहलाने लगे । ५२ स्थानों में उनके दादू द्वारे बने हुए हैं । दादूजी ने अपने नाम से कोई पंथ या सम्प्रदाय प्रसिद्ध Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ वक्तृत्वकला के बीण नहीं किया । लेकिन पीछे से दादजी के अनुयायी 'दादूपंथी' माहलाने लगे। दादूजी का प्रमाण स० १६६० में नारायणा नामक स्थान में हुआ । यह स्थान दादूपंथियों का प्रधान तीर्थ स्थान कहलाता है। —कल्याण संतअंक' के आधार पर । १७. कृष्ण की परमभक्त मीराबाई ये मेड़तिया राजपूत राठोड जोधा जी की प्रपौत्री, दाजी की पौत्री एवं रतनसी को पुत्री थीं। इनका जन्म सं० १५७३ के लगभग चौकड़ी (मारवाड़) में हुआ । इनके ताऊ को लड़के भाई वीर जयमल कृष्ण-भक्त थे । बहिन-भाई चचपन से ही कृष्ण-भक्ति में विशोष रुनि लेते थे । एक साधु के पास कृष्ण की सुन्दर मूर्ति देखकर मीरा ने बाल-ह० किया और उससे मूर्ति प्राप्त करली । मीरा बा विवाह महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ । किन्तु कुछ समय बाद उनका देहान्त हो गया । अब तो कृष्ण ही मीरा के एक मात्र प्राणाधार रह गये। मीरा माण-प्रेम में लीन होकर मन्दिरों में कीर्तन और नृत्य करने लगी। इनके देवर राणा रतनसिंह वो मीरा का इस प्रकार स्वतंत्ररूप से घूमना बहुत अनुचित लगा। उन्होंने इनको यहुत कहा-सुना और डराया-धमकाया भी, लेकिन जब ये किसी तरह नहीं मानी तव इन'को जहर का प्याला दिया गया । जिसे ये भगवान का चरणामृत मानकर पी गई । फिर' पिटारे में एक सांप भेजा गया जो इनके लिए सालिग्राम की Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २६३ मूर्ति बन गया । आखिर मीरा एकदिन घर से निकल गई और वृदावन' आदि स्थानों में घूमती हुई द्वारका पहुंच गई। कहा जाता है कि वहीं सं० १६६० में मीरा रणछोडदासजी की मूत्ति में विलीन हो गई 1 ___ 'नरसी जी का मायरा' और 'गीत गोविदं–टीका' आदि मीरा वी रचनाएं मानी जाती हैं । मीरा के भजन बहुत ही लोकप्रिय हैं। --कल्याण' संतअंक के आधार पर। .१५, आर्यसमाज के संस्थापक स्वामीवयानंद सरस्वती स्वामीजी का जन्म सं० १८८२ में, टंकारा (गुजरात) में हुभा । इनका जन्म-नाम मूलशंकर था । कहा जाता है वि १४ वर्ष की आयु में एक बार ये शिवरात्रि का व्रत रखकर शिवमंदिर में रात्रि-जागरण कर रहे थे । शिवलिङ्ग पर चढ़ाई हुई सामग्री को चूहे खाने लगे एवं उस पर मल-मूत्र करने लगे। यह देखकर इनकी मूर्ति-पूजा से श्रद्धा उठ गई और इनके मन में यह विचार हुआ कि जब यह शिवमूर्ति स्वयं अपनी रक्षा ही नहीं कर पा रही है तो अपने भक्तों की क्या रक्षा करेगी ! अस्तु, उसी क्षण इन्होंने सच्चे शिव की खोज करने का निश्चय कर लिया। अब ये विरक्त रहने लगे । फिर भी माता-पिता ने इनका जबर्दस्ती विवाह रचाया । विवाह के सभ्य इनकी १४ वर्ष की बहिन मर गई । इस घटना से इनका विरक्तिभाव एकदम बढ़ गया और विवाह को छोड़कर घर से निकल गए । पूर्णानंदजी के पास जाकर संन्यास ले लिया और दूर-दूर तवा भ्रमण करते हुए इन्होंने योगियों और सिद्धों से अनेक विधाएँ प्राप्त की। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज मथुरा में प्रज्ञाचक्षु स्वामी विवेकानंदजी के पास वेदाध्ययन किया फिर उनकी आज्ञानुसार भारत भर में घूमकर घेदों का खूब प्रचार किया एन 'बम्बई में आर्यसमाज' की स्थापना की ! इनकी निर्भीकता अद्भुत थी। उपदेश के समय हर एक सत्य बात बेधड़क होकर कह डालते थे। कहा जाता है कि इसी कारण जोधपुर में इन्हें विष दिया गया था। असह्मवेदना हुई.फिर भी ये रामभाव में रहे और सन् १८८३ दीवाली की रात को समाधि-मरण प्राप्त किया । -कल्याण संतअंक तथा अध्ययन के आधार से ।। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं के गुण १. चरण गुण--- बय-समणधम्म-संजम, वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव, कोहनिमाहाइ चरणमेयं । –ओनियुक्ति-माष्य गाथा २ साधुओं द्वारा निरन्तर सेवन करने योग्य चारित्रसम्बन्धी नियमों को चरणगुण कहते हैं। चरणगुण सत्तर माने गये हैं । (ये मरणसत्तरी के नाम से प्रसिद्ध हैं) यथा-५ महाव्रत,,१० प्रकार का भ्रमणधर्म, १७ प्रकार का संयम, १० प्रकार की वयावृत्य, ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ, ज्ञानादिरत्मनिक, १२ प्रकार का तप और ४ कषाय का निग्रह । २. करण गुण पिडविसोही समिई, भावण-पडिमा य इन्दियनिरोहो । पडिलेहण-गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु॥ -ओंघनियुक्ति-भाष्यगाश ३ प्रयोजन उत्पन्न होने पर साधुओं द्वारा जिनका सेवन किया जाय, वे करणगुण' कहलाते है । करणगुण भी ७० हैं। (ये करणसत्तरी के नाम से प्रसिद्ध हैं) यथा-४ प्रकार की पिण्टविशुद्धि ५ समितियां, १२ भावनाएँ, १२ प्रतिमाएँ ५ इन्द्रियों का निग्रह, २५ प्रकार की पष्टिलेहणा, ३ गुप्तियां और, ४ अभिग्रह ।' १ इसका विस्तृत विवेचन चारित्र-प्रकाश पुज ९ में देखिए। २८५ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ वक्तृत्वकला के बीज ३. साधुदर्शन(क) साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः, तीर्थ पुनाति कालेन, सद्य: साधुसमागमः । —चाणक्यनीति १२५ साधुओं का दर्शन पवित्र है क्योंकि साधु तीर्थरूप होते हैं । तीर्थ तो कालान्तर में पवित्र करता है, किन्तु साधुओं का समा गम तत्काल ही तार देता है। (ख) न बमयानि तीर्थानि, न देवा मुछिलामयाः। ते पुनन्त्युरुकालेन, दर्शनादेव साधवः ।। –श्रीमद्भागवत १७/४८।२१ वास्तव में न तो नदी आदि के जल से युक्त तीर्थ हैं, च मिट्टीपत्थर से बनी हुई मूतियां देवता है । वे बहुत काल के पश्चात् पवित्र करते है, किन्तु साघुजन दर्शन-मात्र से पावन कर देते हैं। (ग) तनकर मनकर वचनकर, देत न काहू दुःख । तुलसी पातक झड़त है, देखत उनका मुख ।। मुख देखत पातक झड़े, पाप बिलय हो जाय । तुलसी ऐसे सन्तजन, पूर्व भाग्य मिल जाय ।। -तुलसी वोहावली (घ) साधु-दर्शन लाभ है, बड़भागी दरसाय । जिनरंग शुली की सजा, कांटे ही टल जाय । --हिन्दी दोहा Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु-संगति १. चन्दनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमाः। चन्द्र-चन्दनयोर्मध्ये, शीतला साधुसंगति :। चन्दन जगत में शीतल है और चन्दन से भी चन्द्रमा शीतल है । चन्द्र और चन्दन-इन दोनों से भी साघुओं की संगति अत्यधिक शीतल है। २. ना सुख पढ़िया पंडितां, ना सुख भूप भयो । सुख है बीच विचार दे, साधुसंग पयां ।। ना सुख बीच गृहस्थ में, ना सुख छाड़ गया । सुख है बीच विचार दे, साधु संग पयां ।। -पंजाबरी पर ३. सुत दारा अरु लक्ष्मी, पापिहु के घर होय । संत समागम हरिकथा, तुलसी दुर्लभ दोष ॥ ४. तात मिले पुनि मात मिले, सुत भ्रात मिले युवती सुखदाई । राज मिले गज-बाज मिले, सब साज मिले मन बंछित आई। लोक मिले परलोक मिले, सुरलोक मिले बैकुठ में जाई । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ सुम्बर आय मिले सबहीं, वक्तृत्वकला के बीज इक दुर्लभ संतसमागम भाई ! ५. कोटि जन्म की पुष्यकमाई तब सन्तन की संगति पाई। सतसंगति जन पावे जबही, आवागमन मिटावे तबही || ६. सवर्ण नाणे य विन्नाणे, पच्चक्खाणे व संजमे । - अणहए तवे चेब, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ॥ - भगवती २५ तत्त्वज्ञान, तत्त्वज्ञान से प्रत्यास्थान सांसारिक संयम से अनाश्रव साधुसंग से धर्मश्रवण धर्मश्रवण से विज्ञान - विशिष्ट तत्त्वबोध, विज्ञान में पदार्थों से विरक्ति, प्रत्याख्यान से संयम नवीन कर्म का अभाव, अनाथ से तप, तप से व्यत्रदान (पूर्वबद्ध कर्मों का नाश ) व्यवदान से निष्कमंता सर्वश्रा कर्मरहित स्थिति और निष्कमंता से सिद्धि - अर्थात् मुक्तस्थिति प्राप्त होती है । ७. गिहिसंथवं न कुज्जा, कुज्जा साहूहि संथवं । दशवेकालिक ८५३ गृहस्थों संसारियों का परिचय नहीं करना चाहिए, किन्तु साधुओं का सत्संग करना चाहिए । ८. संगति साधुन की करिये, कपटी लोगन से डरिये । निपट निरंजन Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ १. संत सताया संतदास, तेण सताया दीन । गुस्तमार अतीत की हो जाये तेरा-तीन । 3 संतों का संताप - संतदास २. एक भक्त रामायण पढ़ रहा था। पढ़ने में स्खलना होते ही हनुमान ने ( जो रामकथा में सदा उपस्थित रहते हैं। उसके मुंह पर जोर से थप्पड़ मार दिया। फिर राम के दरबार में गये तो मुंह सूजा हुआ देखा। पूछने पर राम ने कहा, तूने ही तो मारा है । - जैबिक ३. संत सतायां जात है, नाम ठाम अरु वंश, पोपा ! परतख देख लो ! जादव-कौरव - कंस | १६ ― P=0 ४. प्रांगधा के एकाउंट जनरल के पास योगी ने भिक्षा मांगों । उत्तर में कहा- विष्ठा खाले ! योगी बोलाजा तुझे विष्ठा ही मिलेगी। बस, उसी दिन से खातेपीते एवं सोते समय विष्ठा बरसने लगी । क रूपक २. प्रांगना के जयचन्द - कालीदास में किसी योगी ने कम्बल मांगी। उसने कहा आग लेले ! बस आग ही आग Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. वक्तृत्वकला बीज के बरसने लगी एवं बारह महीनों तक बहुत हैरान होना पड़ा। ६. एग इसि हणामाणे अणं ते जीवे हणइ । --भगवसी ३।३४ एक अहिंसक ऋषि की हत्या करनेवाला एक प्रकार से अनन्त जीबों की हिंसा करनेवाला होता है । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं की गोचरी १. भिक्खावित्ती सुहावहा । -उत्तराध्ययन ३५॥१४ भिक्षावृत्ति सुख देनेवाली है। उपवासात् परं भक्ष्यम् । -वशिष्ठस्मृति मर्यादानुसार को हुई भिक्षा से जीवन का निर्वाह करना उपचास से भी बढ़कर है। ३. धीरा हु भिक्खायरियं चरति । -उत्तराध्ययन १४॥३५ धीर पुरुष ही मिशाचर्या का अनुसरण करते हैं । ४. सब्बं से जाइयं होई, णस्थि किंचि अजाइयं । -उसराध्ययन २०२८ साधु की हर एक वस्तु मांगी हुई होती है, बिना मांगी कुछ भी नहीं होती। ५. अहो ! जिणेहि असावज्जा, वित्ति साहण देसिया । –पशवकालिक ५।१६२ आश्चर्य है कि भगवान ने साधुओं को भिक्षावृति पापरहितः कही है। २६१ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ वक्तृत्वकला के बीज , अणवज्जेस णिज्जस्स, गिण्हणा अवि दुक्कर। --उत्तराध्ययन १६।२७ नित्य एनं निर्दोष शिक्षा का ग्रहण करना भी दुकार है । ७. अकप्पियं न गिहिज्जा, पडिगाहिज्ज कप्पियं । -- दमकलप, ५.१.२७ साधु अकल्पनीय-सदोष वस्तु नहीं ले एवं कल्पनीय अहण करे। ८. एकान्नं नैव भोक्तव्यं, बृहस्पतिसमादपि । —अविस्मृति साधु को सदा एक ही कुल का भोजन नहीं लेना चाहिए, चाहे वह कुल बृहस्पति जैसों का भी क्यों न हो । ६. अनग्निरनिकेतः स्याद्, ग्राममन्नार्थमाप्रयेत् । -मनुस्मृति ६४३ मुनि अग्नि का स्पर्श न करें, घर में न रहे, मात्र भिक्षा के लिए ग्राम में जाये। समणेणं भगवया महावीरेणं, समणाणं निगंथाणं नवकोडीपरिसुद्धे भिवखे पष्णते, तं जहा-न हणाइ, न हणावेइ, हणं तं नाणुजाणेइ । न पयाइ, न फ्यावेइ पयतं नाणुजाण । न किणइ, न किणावे, किणतं माणुजाणई। स्थानांग ६६८१ श्रमग – भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए नवकोटिदिशुद्ध भिक्षा कही है- साव आहार आदि के लिए न तो हिंसा करता, न करवाता और न करते हुए का अनुमोदन १०, Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २६३ करता । न स्वयं आहार आदि पकाता, न पकवाला और न पकानेवाले का अनुमोदन करता, न स्वयं भोजन आदि खरीदता, न खरीदबाता और न खरीदनेवाले का अनुमोदन करता। ११. उच्च-नीच-मज्झिमकुले अडमाणे । - अंतकृद्दशावर्ग ६, अ० १५ इन्द्रभूति मुनि ऊंच-नोच-मध्यम कुल में पर्यटन करते हुए। १२. जायाए घासमेसिज्जा, रस गिद्धे न मिया भिक्खाए । --उत्तराध्ययन मा११ संयमयात्रा को निभाने के लिए मुनि' को आहार की गवेषणा नहीं करनी दाहिए। १३. अदीणो वित्तिमेसिज्जा । - वशवकालिक ५१२२६ साधु को सिंहवृति से आवश्यक वस्तुओं की गवेषणा करनी चाहिए। १४. लाभुत्ति न मज्जिजा, अलाभुत्ति न सोएज्जा। -आचारांग २१११४-११५ साधु को इप्टवस्तु के मिलने पर अभिमान नहीं करना चाहिए और न मिलने पर शोक नहीं करना चाहिए। १५. अलाभे म विषादी स्या-ल्लाभे चैव न हर्षयेत् । मनुस्मृति ६०५७ भिक्षा न मिलने पर विषाद न करे एवं मिलने पर हर्ष न मनाये। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ वक्तृत्वकला के बीज १६. लद्धे पिण्डे अलद्ध बा, णाणुतप्पेज्ज पंडिए | -उसराध्ययन ३० आहार मिलने या न मिलने पर बुद्धिमान साधु खेद न करे । १७. अज्जे वाहं गं लब्भामि, अवि लाभो सुए सिया । -उत्तराध्ययन २।३१ आहार आदि न मिलने पर साधु विचार करे की मुझे आज आहार नहीं मिला तो संभवतः कल मिल जायेगा । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोचरी के भेद १. छबिहा गोयरचरिया पण्णत्ता, तं जहा—पेड़ा, अद्धपेडा, गोमुत्तिया, पतंगवीहिया, संबुक्कवट्टा, गंतुपच्चागया । –स्थानांग ६।५१४ छ: प्रकार की गोचरी कहीं है-(१) पेटा, (२) मर्धपेटा, (३) गोमूत्रिका, (४) पतङ्गवीथिका, (५) शम्बकावता, (६) गतप्रत्यागता । (उत्तराध्ययन ३०।१६ में भी यह वर्णन है) २. विधा भिक्षपि तत्राद्या, सर्वसंपत्करी मता । द्वितीया पौरुषघ्नीस्याद्, वृत्तिभिक्षा तथान्तिमा ॥ -हितोपदेश २०२० भिक्षा तीन तरह की होती है-- (१) सर्वसंपत्करी-साधु को निदोर्ष वस्तु देना । (२) पोरुपनो-साधु को सदोषवस्तु देना। (६) वृप्ति- अन्धे, बहरे आदि को कुछ देना। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ १. पुरओ जुगमाथाए, पेहमाणो महिं चरे । वज्र्ज्जतो बीयरि गोचरी के नियम -शर्वकालिक ५।१।३ मुनि युगमात्र भूमि को देखता हुआ सचित्तबीज, हरित, दीन्द्रियादि प्राणी, जल और मिट्टी से बचता हुआ चले | २. दवदव्वस न मच्छेज्जा, भासमाणो य गोयरे । हसतो नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया । - दशकालिक ४।१।१४ - दबदबाट करता हुआ, बातें करता हुआ एवं हंसता हुआ न चले । ३. तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्ठाए समागया । तं उज्जयं न गच्छज्जा, जयमेव परक्कमे ॥ - वराकालिक ५|२७ हंस-काक आदि पक्षी दाने चुगरहे हों तो मुनि उनके बीच में से न निकले। उन्हें भय न हो, इस प्रकार यत्नपूर्वक जाये । ४. न चरेज्ज वासे वासंते, महियाए वा पतिए । महावाए व वायन्ते, तिरिच्छि संपाइमेसु वा || REE - दशकालिक ५११२५ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २९७ मुनि वृष्टि बरसते समय, ओस पड़ते समय, जोर से हवा--- आंधी चलते समय एवं अल आदि सूक्ष्म जीव गिरते समय गोचरो न जाय। ५. समर्ण माहणं वाबि, किविणं वा वणीमगं। उबसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणलाए व संजए। तमइक्कमित्त न पविसे, न चिट्टे धक्खुगोयरे । एमंतमवइक मित्ता, तत्थ चिट्ठिज्ज संजए । --दशवकालिक ५५२०१०-११ श्रमण-ब्राह्मण, कृपण पतं भिखारी आदि अशी की प्राप्ति के लिए पहले गृहस्थ के घर में खड़े हों तो उन्हें लांघ कर घर में प्रवेश न करे तथा दाता और भिक्षुओं की दृष्टि पड़े, यहाँ खल्ला न रहकर एकान्त में ठहरे। ६. गोयरग्गप विट्ठो य, न निसीइज्ज कत्थई । कहं च न पबंधिज्जा, चिट्ठित्ताण व संजए। -वशवकालिक राम गोचरी गवा हुआ मुनि (विशेष कारण के सिया) गृहस्थ के घर में न बैठे और न खड़ा रहकर धमकथा कहे । ७. सयणासणवत्थं बा, भत्तं पाणं व संजए। अदितस्स न कुप्पिजा, पच्चक्खे विय दीसओ ।। -दरावकालिक ५२।२८ शयन, आसन, वस्त्र, भन्न और पानी प्रत्यक्ष सामने पड़े दौख रहे हैं, फिर भी यदि दाता न दे तो सासु उस पर कोप न करे। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ वक्तृत्वकला के बीष ८. निठाणं रसनिज्जूदं, भद्दगं पावगं ति वा। पुट्टो वा वि अपुट्ठो वा, लाभालाभं न निहिसे। ___ - यशवकालिक ८।२२ आहार सरल मिला या नीरस मिला, अच्छा मिला या बुरा मिला तथा मिला या नही मिला । साधु को यह आहार सम्बन्धी बात पूछने पर या बिना पूछे गृहस्थ के आगे नहीं कहनी चाहिए। कालेण निक्खमे भिक्ख, कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विबज्जित्ता, काले कालं समायरे ।।४।। अकाले चरसी भिमद, कालं न पहिलेइसि ! अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥५॥ - दशवकालिक ॥१ साधु भोजन बनने के समय गोचरी जाए एवं बखतसर वापिस आ जाए 1 अकाल का त्याग करके सारा काम यथासमय करे । हे मुने ! यदि तु असमय भिक्षा के लिए जायेगा एवं समय का ध्यान न रखेगा तो आहार आदि न मिलने से दु:खी होगा एवं द्वेषवंश गांव के लोगों की निन्दा करेगा। अप्पे सिया भोयणजाए, बहुउज्झियम्मिए । दितिय पडियाइक्खे, न मे कप्पई तारिस । -वभावकालिक ५।१७४ (सीताफल-दक्ष खण्ड आदि) जिन फलों में खाने योग्य वस्तु थोड़ी हो और फेंकने लायक अधिक हो, ऐसे फल दातार देना चाहे दो साधु कह कि ऐसी वस्तु मुझे नहीं कल्पत्ती । ११. विणएण पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी। इरियावाहियमायाय, आगओ य पडिक्कमे । -वशकालिक शE Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २६६ गोचरी करके अपने स्थान में प्रवेश करते समय मुनि "मस्थएण वंदामि निस हिया–निसह्यिा" ऐसे सविनय बोले । फिर गुरु के समीप आकर इरियावहिय पडिक्व में एवं गोचरी में लगे हुए दोषों की आलोचना करे । १२. एककालं चरेद्भक्षा, न प्रसज्जेत विस्तरे । भक्षे प्रसक्तो हि यति-विषयेष्वपि सज्जति । विधूम. सन्नमुसले, व्यङ्गारे भुक्तवज्जने । वृत्ते शरावसंपाते, भिल्लां नित्यं यतिश्चेरत् । -मनुस्मृति ६।५५-५६ एक बार भिक्षा करे, अधिक न करे। अधिक खाने में लीन साधु स्त्री आदि के विषयों में आसक्त हो जाता है। रसोई का धुओं एवं मुसलों से अन्न कटने का शब्द बन्द हो जाने पर चूल्हे वो आग बुझ जाने पर, गृहस्थों के भोजन कर चुकने पर तथा अवशिष्ट भोजन को पात्र में रख देने पर मुनि भिक्षा ग्रहण करें। १३. गोचरी सम्बन्धी ४२ दोष आहाकम्मुद्दे सिय, पूइकम्मे य मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए, पामओयर कीत पामिच्चे ।।६२॥ परियद्दिय अभिहडे, उभिन मालोहडे इ य । अच्छिज्जे अणिसिळे, अज्झोयरए य सोलसमे ।।३।। धाई दुई निमित्ते,आजीव बणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया, लोभे य हवंति दस एए॥४०८|| पुविवंपच्छासंथव, विज्जा मंते य चुण्ण-जोगे य । उप्पायणाइ-दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य ।।४।। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज संकिय मक्खिामितिमा पिहिण शाहक मानियो । अपरिणय लित्त छडिडय, एसणदोसा दस हवंति ।। -पिण्डनियुक्ति साधु को आहार-पानी को एषणा करते समय गवेषणा व ग्रहणेषणा के बयासील दोषों का वर्जन करना चाहिए । गोषणा के बत्तीस दोष उद्गम और उत्पादन की अपेक्षा में दो भागों में विभक्त हैं। उद्गम के सोलह दोपों का निमित्त गृहस्थ (देनेवाला) होता है और उत्पादन के सोलह दोषों का निमित साधु (लेनेवाला) होता है । सोलह उद्गम दोष :-- (१) आधाकम, (२) औद्देशिक (३) पुतिकर्म, (४) मिश्रजात (५) स्थापना (६) प्रामतिका (७) प्रादुष्करण (८) क्रीत (E) प्रामित्यक (१०) परिवर्तित (११) अभ्पाहृत (१२) उद्भिन्न (१३) मालापहृत (१४) आच्छेद्य (१५) अनिसृष्ट (१६) अध्यवपूरक । सोलह उत्पादनदोष(१) घात्रीपिण्ड (२) दुतीपिण्ड (३) निमित्तपिण्ड (४) आजीविकापिण्ड (५) बनीपकपिण्ड (६) चिकित्मापिण्ड (७) क्रोधपिण्ड (८) मानपिण्ड (९) मायापिण्ड (१०) लोभपिण्ड (११) पूर्वपश्चात् संस्तव पिण्ड (१२) विद्याप्रयोग (१३) मन्त्रप्रयोग (१४) पूर्णप्रयोग (१५) योगप्रयोग (१६) मूलकमंप्रयोग । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : पौया कोष्ठक ३०१ पहलेषणा के इस शोष :गवेषणा के अनन्तर आहार आदि ग्रहण करते समय साधु को निम्नोक्त दस दोषों का परिहार करना आवश्यक है(१) पांकित,(२) म्रक्षित, (३) निक्षिप्त, (४) पिहित, (५) सहुल, (६) दातृकर्म, (७) उन्मिथ, (८) अपरिणत, (९) लिप्त, (१०) छदित । (बयालीस दोषों का विवेचन ‘चारित्रप्रकाश पुज २, प्रश्न १५" में किया गया है।) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु का आहार २६ १. पंतं लूहं सेवंति, वीरा सम्मतदसिणो । - आधारांग २६ सम्यग्दर्शी वीरपुरुष नीरस और सूक्ष्म आहार का सेवन करते हैं। २. तित्तम व कड व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा । एयलद्धमण्णत्थपउत्तं, महुघयं व भुजिज्ज संजए || ... शर्वकलिक ५११६७ —- P क्रे तीखा, कडुवा, खट्टा मीठा तथा खारा किसी भी प्रकार का जो शास्त्रोक्त विधि से प्राप्त हुआ है, उसे मधु वृत आहार समान मानकर साधु को समभाव से खाना चाहिये । ३. सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हृणुयं सचारेज्जा आसाएमाण । दाहिणाओ वा हणुयाचो दामं हणुयं णो संच्चारेज्जा आसायमाणे । से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ । - आचारांग ८।६ साधु अथवा साध्वी असनादिक का आहार करते समय स्वाद लेने के लिए उस आहार को बायीं दाढ़ से दाहिनी दाड़ की ओर न ले जाये और दाहिनी दाढ़ से बायीं दाढ़ की ओर न ३०२ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग चौथा कोष्ठक ३०३ ले जायें। स्वाद न लेने का हल्कापन होता है एवं तपस्या होती है । ४. अप्पपिंडास पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए । - सूत्रकृतांग ८।२५ सुव्रती मुनि अल्ला खाए, अल्प पीवे और अल्प बोले । ५. मियं कालेण भक्तए । - — उत्तराध्ययन १।३२ समय होने पर भी साधु को परिमित भोजन करना चाहिए। ६. तहा भोत्तन्वं जहा से जायामाता य भवति, न य भवति विब्भ्रमो न भंसणा य धम्मस्स । - प्रश्नव्याकरण २३४ ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिए, जो जीवनयात्रा एवं संयमयात्रा के लिए उपयोगी हो सके और जिससे न किसी प्रकार का विभ्रम हो और न धर्म की सना हो । ७. जे मिक्खू आयरिय उवज्झाएहि अदिन्नं आहार माहारेइ - नीशोष ४१२२ -. आहारतं वा साइज्जइ । जो सानु, आचार्य - उपाध्याय का बिना दिया अर्थात् उन्हें पूछे बिना बाहार करे या करते हुए का समर्थन करे तो उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त माता है। ८. असंविभागी न हु तस्स मोक्खो । -- वशवैकालिक १२ २३ साथी मुनियों को हिस्सा दिये बिना आहारादि का उपयोग करनेवाले मुनि को मोक्ष नहीं मिलता। ६. हजरत इब्राहिम ने एक फकीर से पूछा - सच्चा संत कौन है ? Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ वक्तृत्वकला के बीज फकीर मिल तो इब्राहिम- ऐसे तो कुत्ते भी होते हैं । फकीर - तो ? इब्राहिम - मिला तो बांट खाया, नहीं तो संतोष | १०. जे भिख्खू अन्नउत्थियं वा गारत्थियं वा असणं पाणं खाइ देइ देयतं वा साइज्जइ । r नहीं तो संए । - निशीष १५७८ जो साधु अन्यतीर्थिक या गृहस्य को असन आदि दे या देते ए को अच्छा समझे तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार किसलिए । ___ आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाइ जावए। –आचारांग ३।३ जात्मगुप्त वीरपुरुष संयमयात्रा के निर्वाहार्य आवश्यकतामात्र आहार से जीवन यापन करे । भारस्स जाया मुणि भुजएज्जा । -सूत्रकृतांग ७।२६ मुनि को केवल रांयमयात्रा को निभाने के लिए आहार करना चाहिए। अलोलं न रसे गिद्ध, जिब्भादंते अमुच्छिए। न रसट्ठाए भुजिज्जा, जवणलाए महामुणी 11 - उत्तराध्ययन ३५॥१७ लोलुपतारहित, रसगृद्धिरहित, निहन्द्रिय को दमन करनेयाना एवं भोजन-संग्रह की मूच्र्छा से रहिन महामुनि स्वाद के लिए भोजन न करे, किन्तु संयमयात्रा का निर्वाह करने के लिए करे । संयम भार-बहणठ्याए बिलमिव पन्नगभूएणं । अप्पाणणं आहारमाहारे।। -भगवती ७१ साधु-साध्वी संयमभार का निर्वाह करने के लिए बिल में साँप की तरह जबररूप कोठे में आहार को प्रवेश कराएं । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MCN वक्तृत्वकला के बीच ५. अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं संजमजायामायणि मित्त, संजमभारवहणठ्ठयाए भुज्जेजा पाणधारणट्ठाए । .. प्रश्नव्याकरण २१ जैसे-गाड़ी चलाने के लिए पहियों के अंजन (स्निग्ध-तेलादि) लगाया जाता है, घाव को ठीक करने के लिए उस पर लेपमरहम लगाया जाता है, उसी प्रकार साधु की संयमयात्रा निभाने के लिए संयम-भार को बहने के लिए तथा प्राणों को धारण करने के लिए भोजन करना चाहिए । रारं गाव या पता : व्रणशोधनवत् स्नान, बस्त्र च श्रणपट्टवत् ।। --चैतन्य महाप्रभु शरीर व्रण-धात्र के समान है, अन्न उस पर मरहम का लेप' है। स्नान प्रण को साफ करनेवाला है और वस्त्र व्रणपट्टी के तुल्य है। ७. छहि ठाणेहि समणे निग्गंथे आहारमाहारेमाणे गाइ क्कमइ, तं जहा-- वेयण - वेयावच्चे, इरियट्ठाए य संजमछाए । तह पाणवत्तियाए, छठें पुण धम्मनिताए। .-.-स्थानांग ६ तथा उसराध्ययन २६१३३ छ: कारणों से आहार करता हुआ साधु प्रभु-आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। वे कारण ये है – १. क्षुधायेदनीय को शान्त करने के लिये, २. वैयावृत्त्य-सेवा करने के लिये, ३. ईर्यासमिति का पालन करने के लिए, ४, संयम पालने के लिये, ५. प्राणरक्षा के लिए, ६. धर्म का चिन्तन करने के लिए। . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा भाग : चौथा कोष्टक 1. हिंठाणेहि समणे निगंथे आहारं बोच्छिदे माणे णाइवकमई, तं जहाआयके उचसग्गे, तितिक्खणे बंभचरेगुत्तोस। पाणीदया तबेहेड, सरीरवोच्छेयणछाए । -स्थानांग ६ तथा उत्तराध्ययन २६१३५ छ: कारणों से श्रमण -निग्रन्थ आहार का त्याग करता हुआ । प्रभुशाजा का उल्लंघन नहीं करता। जैसे-१. रोग एवं उपसग होने पर, २. ब्रह्मचर्य का पालन न कर सकने पर, ३, जीवदया न पल सकने पर ४. तपस्या करने के लिए ५. अनशनादि द्वारा शरीर छोड़ने के लिए। शरीर का परिवहन करने में ग्लानि होने लगे, तन साधु को चतुर्थ षष्ठ आदि तप करके आहार को घटाने लग जाना चाहिए, अर्थात् संलेखना करनी चाहिए । -आचारांग ८१. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ साधुओं का निवास स्थान सुसाणे सुन्नगारे वा, रुखमुले व एगओ। पइरिकके परकड़े वा, वासं तत्थाऽभिरोयए ।।६।। फासुयम्मि अणाबाहे, इत्थीहि अणभिदुए। तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परमसंजए १७|| न सयं गिहाई कुविज्जा, नेव अन्नेहि कारए । गिकम्मसमारम्भे, भूयाणं दिस्सए बहो ।।८।। --उसराध्ययन ३५ गाधु श्मशान, सूनाघर, वृक्ष के नीचे अथवा परकृत (गृहस्थ ने जो अपने लिए बनाया) एकान्तस्थान में एकाकी रहना पसंद करे ॥६॥ जो स्थान प्रासुक हो, किसी को पीडाकारी न हो, एवं जहाँ स्त्रियों का उपद्रव न हो, परम संयमी साधु उस स्थान में निवास करे ॥७॥ साधु स्वयं घर आदि न बनाये और दूसरों से न बनवाये, क्योंकि गृह आदि कार्य के समारम्भ में प्राणियों की हिंसा प्रत्यक्ष दिखाई देती है ।।८।। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौया माग : चौथा कोष्ठक २. मणोहरं चित्तहरं, मल्लधूवेण वासियं । सकवाडं पंडरुल्लोयं, मणसा वि न पत्थए । - उत्तराध्ययन ३५४४ मुनिः ऐसे आश्रय की मनसे इच्छा न करे, जो मनोहर हो, जिसमें घृणित चित्र हों, जो माला और धूप से सुगन्धित हो, काबाड़ सहित हो, व श्वेतचन्द्रवेवाला हो । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ साधुओं के वस्त्र १. तिहि ठाणेहि वत्थं घारेज्जा तं जहा - हिरिवत्तिय ► दुगु छावत्तिय परीसहबत्तियं । - स्थानांग ३।३।१७१ २. - साधु को तीन कारणों से वस्त्र पहनने चाहिए- संयम लज्जा की रक्षा के लिए, लोगों को घृणा से बचने के लिए तथा शीतउष्ण एवं दंशमशकादि के परीषह से आत्मरक्षा करने के लिए । कष्पइ निरगंथाणं वा निसगंयोगं वा पंच वत्थाइ धारेतए वा परिहरितए वा तं० जंगिए, भंगिए, लागए, पोत्तिए, तिडपट्टए । - स्थानांग ५२३।४४५ माधु-साध्वी पांच प्रकार के वस्त्र धार सकते हैं एवं पहन सकते हैं- ( १ ) ऊन के ( कंबलादि) (२) रेशम के (३) सण के ( ४ ) कपास के (५) तृण घास व वृक्ष की छाल के । ३. साधु-साध्वियों को महामूल्य वस्त्र नहीं कल्पता । आधारांग भूत २ अ० ५ ० १ ४. साधु-साध्वियों को वस्त्र लेने के लिए अर्धयोजन से आगे जाना नहीं कल्पता । --- आचारोग भूत २ अ० ५ ० १ ३१० Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक ५. कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्म थीणं वा पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहरित्तए, या 1 -- स्थानांग ॥३॥४४६ साधु-साध्वियां पांच प्रकार के रजोहरण (ओधा) रस सकते हैं --का के. ऊँट के लोग के. स के. नरम घास के और फूटी हुई मूज के । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं के पात्र १. से भिक्खु वा भिक्खुणी वा अभिकलेज्जा पायं एसित्तए । सेजं पुण पाय जाणेज्जा,तं जहा-~अलाजुयपायं वा,दारुपायं वा मट्टियापायं वा........अयपायाणि वा तउयपायाणि वा"...."नो पडिग्गाहेज्जा। -आचारांग श्रु त २ ० ६ उ० १ साधु-साध्वियां यदि पात्र की गवेषणा करनो चाहें तो वह तुबे के, काष्ट के और मिट्टी के-ऐसे तीन प्रकार के पात्र ग्रहण करें । तथा लोह, तांबा, सीसा, चांदी, मोना, पत्थर, रत्न आदि के पात्र ग्रहण न करें। अलाबु-दारुपात्र त्र, मृन्मयं वै दलं तथा । एतानि यतिपात्राणि, मनु: स्वायंभुवोऽब्रवीत् । -मनुस्मृति ६।५४ स्वायंभुव मनु ने साधुओं के लिए निम्नलिखित पात्रों का विधान किया है- तुम्बी का पात्र, लकड़ी का पात्र, मिट्टी का पात्र और वृक्ष की छाल का पात्र । परमद्धजोयण-मेराए पायपडियाए णो अभिधारेज्जा गमणाए। -आचारांग शुत २ अ० ६ उ. १ पात्र लेने के लिए साधु आधा योजन से आगे जाने की इच्छा न' करे। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तयार चौथा भाग : चौथा कोष्ठक ४. तेषामद्भिः स्मृतं शौचम् । -मनुस्मति ६१५३ तुबा आदि के पात्रों की शुद्धि जल से मानी गई है । ___५. सौवर्ण-मणिपात्रषु, कांस्य-रीप्यायसेषु च । भिक्षां दद्याप्न सर्वज्ञो, ग्रहीता नरकं ब्रजेत् ।। --विटणपुराण खंड २ अ० १३२ सोना, रत्न, वसी, चांदी और लोहे के पात्रों में साधु का भिक्षा नहीं देनी चाहिए-इन पात्रों में भिक्षा लेनेवाला नरक में जाता है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं का विहार १. बहता पाणी निरमला, पड़ा गॅधीला होय । साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय ।। - राजस्थानी पोहा २. ए रोलिंग स्टोन गेदर्स नो मोस । - अंग्रेजी कहावत बरे संग गर्दा नरोयद नबात । –पारसी कहावत रमता राम माधु बदनाम नहीं होता। ३. ग्रीष्म-हेमन्तकान मासा-नष्टौ प्रायेण पर्यटेत् । दयाय सर्वभूतानां, वर्षास्कर संवसेत् ॥ --मनुस्मृति गर्मी-मर्दी के आठ महीनों में साधु प्राय: पर्यटन' करे एव मीनों की दया के लिए धाप ऋतु में एक ही स्थान पर रहे । ४. अटो मासा विहारस्य, यतीनां संयत्तात्मनाम् । एकत्र चतुरोमासान्, वार्षिकान्निबसेत् पुनः ।। --: मरस्यपुराण भयभी माशुओं में निए आठ महीने तिहार के हैं एवं वर्षाऋतु के चार महीने एक स्थान में निवास करने योग्य हैं अत: उस समय उन्हें एक ही स्थान में रहना चाहिए । ३१४ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग चौथा बोष्ठक ५. जीवमालाकुले लोके, वर्षास्वेकत्र संवसेत् । ३१५ वर्षा ऋतु में पृथ्वी नाना प्रकार के जीवों से परिपूर्ण हो जाती अतः साधु उस समय एक जगह ही रहें । ६. नोकप्पइ निग्मथाणं वा निग्गंधीणं वा । वासावासासु चरितए । - अत्रिस्मृति आचारंग श्रुत २ अ० ३ ३० १ साधु-साध्वी को वर्षा ऋतु में विहार करना नहीं कल्पता । विशेष कारणों की स्थिति में कर श्री एक ने कारण निम्नलिखित हैं —1 ७. असिवे ओमोयरिए, रायदुट्ठे भए व गेलन्ते । आबाहा दिए व पंचसु ठाणेसु रीएज्जा || - अभिधान राजेन्द्रकोष भाग ६, पृष्ठ १२६० (१) शत्रु राजा का उपद्रव होने पर ( २ ) आहार न मिलने पर ( ३ ) राजा का द्वेष होने पर, (४) चोर आदि के भय से (५) ग्लान साधु-साध्वी की सेवा करने के लिए - इन पाँच कारणों से साधुवर्षा ऋतु में विहार कर सकता है | ८. नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंधीणं वा पदमपाउसंसि गामाणुगामं दुइज्जित्तए । पंचहि ठाणेहि कप्पर, सं० णाणट्ट्याए, दंसणट्ट्याए, चरितव्याए, आयरियउवज्झाए वा से बिसु भेज्जा, आयरिय उवज्झायाणं वा बहिया वैयावच्चकरणयाए । स्थानांग ४।२।४१३ साधु-साध्वी प्रथम वर्षाकाल में एक गाँव से दूसरे गाँव को विहार नहीं कर सकते; किन्तु पांच कारणों से बिहार कर : · Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ घक्तृत्वकला के बीज सकते है--ज्ञान के लिए, वर्शन के लिए, चारित्र के लिए, आचार्य-उपाध्याय के मरणासन्न होने पर तथा रोग आदि की परिस्थिति में उनकी सेवा करने के लिए। ६. जहाँ स्वाध्याय-भूमि एवं स्थंडिल-भूमि आदि शुद्ध न हो, बहाँ साधु चातुर्मास न करे। —आचारांग अत अ० ३ उ-१ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ १. चउन्हें खलु भासाणं, परिसंखाय पुष्णवं । तुमि हो न शासिज्ज सब्वसो ॥१॥ साधु की भाषा बुद्धिमान मुनि सत्य, असत्य, मिश्र, व्यवहार- इन चारों भाषाओं को जानकर दो- सत्य एवं व्यवहार द्वारा तो बिनय सीखे किन्तु असत्य और मिश्र – ये दोनों भाषाएं सर्वथा न बोले ! २. असच्चमो सच्चं च अणवज्जमकक्कसं । समुप्पे हमसंदिद्ध, गिरं भासिज्ज पण्णवं ॥ ३॥ ५. प्रज्ञावान् मुनि व्यवहार एवं रात्य भाषा भी निरवद्य, कोमल एवं संदेह रहित हो, यही सोच-विचार कर बोले । ३. तम्हा गच्छानो बक्खामो, अमुगं वा णें भविस्सइ | अहं वा णं करिस्सामि एसो वा णं करिस्सइ || || J हम जाएँगे, हम बोलेंगे, हमारा अमुक कार्य हो जायेगा, मैं यह करूँगा, यह व्यक्ति यह काम करेगा - इस प्रकार निश्चयकारिणी भाषाएँ साधु न बोले । ४. जमट्ठे तु न जाणिज्जा, एवमेयं ति नो वए till भूत-भविष्यत् एवं वर्तमान काल सम्बन्धी जिस वयं को न जानता हो, उसे यह 'इस प्रकार ही है, ऐसा न कहे । r जत्थ संका भवे तं तु एवमेयं ति नो वए ॥१६॥ ३१७ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० वक्तृत्वकला के बीज भूत-भविष्यत् एवं वर्तमानकाल-सम्बन्धी जिस विषय में शंका हो जाये, उसे ऐसा ही है' ऐसा न कहे। ६. सच्चा वि स न बत्राब्वा, जओ पावस्म आगमो ॥११॥ जिस से पाप लगता हो, ऐसी सत्यभाषा भी नहीं बोलनी चाहिए । ७. तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा । वाहियं वावि रोगित्ति, तेणं चोरे त्ति नोबए ।।१।। इसी प्रकार काने को काना, नपुसक को नपुंसका, रोगी को रोगी एवं चोर को चोर नहीं जाना चाहिए क्योंकि इस से सुर ने बाले को दुःख होता है। ८. अज्जिए पज्जिए वावि, अम्मो माउस्सियत्ति य । पिउस्सिए भाइणेज्जत्ति, भूए णत्ता णिति य । हे दादी ! हे नानी ! हे परदादी ! हे परनानी ! हे माँ ! हे मौसी ! हे बुआ ! हे भानजी ! हे पुत्री ! हे पोती । (स्त्रियों को इस प्रकार सांसारिक नामों से आमन्त्रित न करे, किन्तु उनके नाम-गोत्रादिक से बुलावे ।) इसी प्रकार पुरुषों को दादा ! नाना आदि नाम से न बुलावे । ई, पंचिदिआण पाणाणं, एस इत्थी अयं पुमं । जाव णं न वियाणिज्जा, ताब जाइत्ति आलवे ॥२१॥ पञ्चेन्द्रिय जीवों के बारे में—यह स्त्री है- यह पुरुप है... ऐसे जहाँ तक न जान लिया जाये. यहां तक यह कुत्ते को जाति है, गाय की जाति है-स जाति शब्द का प्रयोग करना चाहिए । १०. सुकडित्ति सुपक्कित्ति, सुच्छिपणे सुड्डे मडे । सुनिटिए सुलदित्ति, सावज्ज बज्जए मुणी ।।१।। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग चौथा कोष्ठक FRE भोजनादि अच्छा बनाया, घेवर अच्छा पकाया, शाक आदि अच्छा छेवा करेला आदि की कड़वास का अच्छा हरण किया, सत्तु आदि में घी अच्छा भरा, बहुत अच्छा रस निष्पन्न हुआ तथा चावल आदि वत इष्ट है, मुनि ऐसी सावद्यभाषा न बोले । ११. सुक्काय वा सुविधकोष, अकिज्ज इमं गिव्ह इमं मुळेच, पणीयं नो यह माल अच्छा ( रास्ता ) खरीदा, यह यह बेचने योग्य है। है) और इसको बेच बारे में साधु इस प्रकार न बोले J किज्जमेव वा । वियागरे ॥ ४५ ॥ अच्छा (नफे से) बेचा, इस माल को ले लो (महंगा होनेवाला डालो ( सल्ला हो जायेगा ) वा के १२. देवाणं मणुयाणं च तिरियाणं न वृग्यहे । अमुवा जओ होउ, मावा होउति नो वए ॥ ५० ॥ देवों, मनुष्यों एवं तिर्यञ्वों (पशु-पक्षियों) का आपस में विग्रह होने पर अमुक विजयी हो, अमुक की विजय न हो ऐसा वचन साधु न बोले I - १३. बाओ बुद्धं च सीउन्हं, खेमं धायं सिवंति वा । कया हुज्ज एयाणि मा वा होउ ति नो वए ॥ ५१ ॥ १४. तहेब सावज्जणुमोयणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवधाइणी । वायु, बरसात, सर्दी-गर्मी, क्षेम ( शत्रु सेना के उपद्रव की शान्ति) सुभिक्ष शिव (मरी रोग आदि की शान्ति ) - ये कब होंगे अर्थात् जल्दी हों तो ठीक अथवा ये सब न हो तो ठीक ऐसा वचन साधु न बोले | Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० वक्तृत्वकला के बीज से कोह-लोह-भय-हास - माणवो, न हासमाणे वि गिरं बइज्जा ॥५४॥ -दशकालिक अध्ययन ७ उसी प्रकार सावध का अनुमोदन करनेवाले संदेह-युक्त अर्थवाली, जीवोपधात करनेवाली-ऐसी भाषा माधु क्रोध, लोभ भ्रमबदा अथवा दूसरों का हास्य करता हुआ भी न बोले । १५. ण लविज्ज पुठ्ठो सावज्ज-ण णिरढ़ ण मम्मयं । -उत्तराध्ययन ११२५ साधु पूछन नी सादायक का यो । नखत्त सुमिणं जोग, निमित्त मंत-भेराजं । गिहिणी तं न आइक्खे, भूयाहिगरणं पयं ।। –दशवकालिक ५१ नक्षत्र, स्वप्नफल, वशीकरणादि रोग निमित्त. मन्त्र और भेषज ये जीन हिंसा के अधिकरण है । अतः साधु इन सबका फलाफल गृहस्थ को न बताए। १७. तुमं तुमति अमणुम्नं, सब्बसो तं न वत्तए । - सूत्रकृतांग ११६२७ 'तू-तू'–जसे अभद्र शब्द कभी नहीं बोलने चाहिए । १८. नो वयणं फरुसं वइज्जा। -आचारांग २०१६ कठोर-कटु-वचन न वोले । १६. अणुचितिय वियागरे । -सूत्रकृतांग शहा२५ जो कुछ बोले-पहले विचार कर बोले । २०. जं छन्नं तं न वत्तव्वं । --सूत्रकृतांग १९२६ किसी की कोई गोपनीय जैसी बात हो, तो वह नहीं कहनी चाहिए। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक ___३२१ २१. नो तुच्छए नो य विकत्थइज्जा । -सूत्रकृतांग श१४।२१ साधक न किसी को सुच्छ (हलका) बताए और न किसी की सठी प्रशंसा करे । २२. निरुद्धगं वावि न दीहइज्जा। --सूत्रकृतांग ११४१२३ थोड़े से में कही जानेवाली बात को न्यर्थ ही लम्बी न करे। २३. नाइवेल वएज्जा । -सूत्रकृतांग ॥१४॥२५ साधक आवश्यकता से अधिक न बोले । २४. नो छायए नो वि य लूसएज्जा । - सूत्रकृतांग २।२४।१६ उपदेशक सत्य को कभी छिपाए नहीं, और न ही उसे तोड़मरोड़ कर उपस्थित करे । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुनों ने लिए बल्लाअमर १. यज्ज्ञानशीलतपसा • मुपग्रहं च दोषाणाम् । कल्पयति निश्चयेन, यत्तत्कल्प्यमकल्मवशेषम् ॥१४३।। यत्पुनरुपघातकर, सम्यक्त्वज्ञानशीलयोगानाम् । तत्कल्प्यमायकलप्यं, प्रवचनकुत्साकरं यच्च ॥१४४॥ किचिच्छुद्ध कल्प्य, मकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्ड: शय्या वस्त्र, पात्र वा भेषजाद्य वा ॥१४५।। देशं कालं पुरुष-मवस्थानुपयोगशुद्धिपरिणामान् । प्रसमीच्यभवति कल्प्यं, नैकान्तात्कल्पते कल्प्यम् ॥१४॥ तच्चिन्त्यं तद्भाष्यं, तत्कायं भवति सर्वथा यतिना । नात्मपरोभयवाधक-मिह यत्परतश्च सर्वाद्धम् १५४७|| - प्रशमरति जो ज्ञान, शील एवं तप को पुष्ट करता हुआ दोषों का निग्रह करता है, निश्चय-दृष्टि में साध के लिए वही कार्य कल्प्य (करने योग्य) है, योष अकल्प्य है ।। १४३ ।। जो सम्यक्त्व, ज्ञान, शील एवं योग का नाश करता है और वीतरागवाणी की निन्दा करनेवाला है, वह कार्य कल्प्य होने पर भी अकल्पनीय है ।। १४४ ।। आहार-शय्या-वस्त्र-पात्र-औपधि आदि द्रव्य भी देश, काल, पुरुष, अवस्था, उपयोग, शुद्धि और परिणाम की अपेक्षा से ही कल्प के योग्य होते हैं, एकान्तरूप से नहीं ॥१४५-१४६|| Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक ३२३ साधु को यही सोचना चाहिए, वही बोलना चाहिए और वहीं काम करना चाहिए, जो इहलोक-परलोक में सदा स्व-पर-उभय बाधक न हो ! ।। १४७ ।। आचेलक्कूद सिय, गिजायर-रामगिट किइकम्मे । बयजेठ-पडिक्कमण, मांस - पज्जोसवण - कप्पो ।। –पंचास्तिकाय-विवरण १७ गाथा, ८-१० दास्तोक्त आचार व अनुष्ठानविशेष का नाम कल्प है । कल्प दस माने गए हैं—१ अचेलक, २ औ शिक, ३ शव्यातरपिण्ड, ४ राजपिण्ड, ५ कृतिकर्म, ६ व्रतकल्प, ७ ज्येष्ठकल्प + प्रतिक्रमणकल्प, ६ मासकल्प, १० पपणकरण, इन दमों कल्पों को निपिचतरूप से पालनेवाले साधु स्थितकल्पिक कहलाते हैं । ये प्रथम-अन्तिम तीर्थंकरों के समय में होते हैं ।१ शय्यातरपिण्ड, २ कृतिकर्म, ६ बत, ४ ज्येष्ठ-इन चार कल्पों को नियमितरूप से और शेष छः हों को यथासंभव पालनेवाले साधु अस्थितकल्पिक कहलाते हैं- ये महानिदेहक्षेत्र में तथा बाईसं तीर्थंकरों के समय भरत-ऐरावत क्षेत्रों में होते हैं ! ३. छ कपस्स पलिमंथू पण्णत्ता, तं जहा-कुक्कइए संजमस्स पलि मधू १, मोहरिए सच्चवयणस्स पलिम) २, चक्खु. लोलए इरियाबहियस्स पलिम) , तितणए एसणागोयरस्स पलिमय १, इच्छालोलए मुत्तिमग्गस्स पलिम) ५, भुज्जो-भुज्जो नियाण करणे मोखमम्गस्रा पलिमयू ६, सम्वत्थ भगवता अनियाणया पसत्था। ___ - बृहत्कल्प ६।१३ तथा स्थानांग ६।५२६ साधु के आचार का मन्थन करनेवाले साधु कल्पपलिमन्थु कहलाते हैं। उनके छ: भेद हैं-१ कौकुचिक, २ मोखरिका, २, चक्षु लोलुप, ४ तिति णिक, ५ इच्छालोभिक, ६ निदानकर्ता । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज (१) कौकुचिक--(शरीर,स्थान एवं भाषा द्वारा कुचेष्टा करनेवाला) साधु संत्रम का पलिमन्थु होता है । (२) मौखरिकादं का भागी) स मत्यवचन का पलिमन्यु होता है। (३) चक्षुलोलुप- (चलते समय इधर-उधर देखनेत्राला, स्वाध्याय या चिन्तन करनेवाला) साधु ईर्यासमिति का पलिमन्यु होता है। (४) तितिणिक---(यथेष्ट आहारादि में मिलने पर टनटनाट करनेवाला) भाधु एषणासमिति का पलिमन्थु होता है । (५) इच्छालोमिक- (लोभवश वस्त्र-पवादि का संग्रह करनेवाला) निर्लोभितारूप मुक्तिमार्ग का पलिमन्थु होता है। (६) निदानकर्ता-(चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि का निदान करनवाला) साधु सम्बग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप मुक्तिमार्ग का पलिमन्यु होता है। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ कंदर्पादि में लीन साधुओं की गति १. कंदष्प - कुक्कुयाइ, तह सील-सहाव-हास विगहाहि । विम्हावेतो य परं कंदप्पभावणं कुणइ ॥ २६४॥ जो साधु कंदर्प - कामकथा कौत्कुच्य — भावभंगी और वासूविन्यास द्वारा हास्य उत्पन्न करता है तथा शील- निरर्थक चेष्टा, स्वभाव, हास्य र विकाजों द्वारा दूसरों को विस्मित करता है, वह कंदर्पी भावना का आचरण करता है अर्थात् मरकर कंद देवता ( स्वर्ग का भांड) होता है । २. मंता जोगं काउ, भूईकम्मं च जे पर जंति । ३. साय रस- इतिहेउ अभियोगं भावणं कुणइ || २६५ ।। - जो साधु माता, रस और ऋद्धि के लिए मंत्र प्रयोग एवं भूति कर्म ( मन्त्रित भस्मादिक का प्रयोग ) करता है. वह आभियोगिक भावना का आचरण करता है वानी मरकर दूसरों का नौकर देवता बनकर पलों तक विवशता का दुःख सहन करता है । णाणस्स केवलीर्ण, धम्मायरिस्स संघ - साहूणं । माई अवन्नवाई, किव्विसिय भावणं कुणइ ॥ २६६ ॥ जो मायावी साधु ज्ञान, केवलज्ञानी, धर्माचार्य, संघ और साधुओं की निन्दा करता है, वह किल्विषी भावना का आच रण करता है अर्थात् मरकर किल्वपी देवता ( मनुष्य लोक में हरिजन तुल्य) बनता है | ३३५ " Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ वक्तृत्वकला के बीज ४. अणुबद्धरोसपसरो, तह य निमित्त मि होइ पडिसेवी। एएहिं कारणेहि, आसुरियं भावणं कुणइ ।।२६७।। - खसराध्ययन ३६ जो साधु निरन्तर रोष का प्रसार करता है एवं निमित्त का सेवन करता है, यह आसुरी-भावना का माचरण करता है यानी मरकर असुरकुमार देवता बनता है। (यह वर्णन स्थानांग ४१४ में भी है) ५. तवणे बयतेणे, रूबतेणे य जे नरे। आयार-भावतेणे य कुब्वइ देवकिविसं ।। -वशवकालिक ५३२१४६ जो मुनि तपचोर, वचनचोर, रूपचोर, आचारचौर एवं भाव का चोर है, वह किल्विषी देवता में उत्पन्न होता है । जैसे-कोई पूछता है कि महाराज ! आप लोगों में एक तपस्वी साधु सुने थे, क्या वे आप ही हैं ? ऐसे पूछने पर "साधुसपस्वी होते ही हैं। इस प्रकार कपटपूर्ण उत्तर दे, वह तपचोर कहलाता है। ऐसे ही वचनचोर आदि भी समझ लेना चाहिए। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ग्रन्थ अङ्ग तर निकाय अंगिरास्मृति अग्निपुराण अथर्ववेद अर्थशास्त्र अध्यात्मसार अध्यात्मोपनिषद् अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिणिका अनुयोग द्वार अपरोक्षानुभूति अभिधम्मपिटक अभिधानराजेन्द्र अभिधानचिन्तामणि अभिज्ञान शाकुन्तल अमितिगति श्रावकाचार अमृतध्वनि अमर भारती (मासिक) अवेस्ता अविस्मृति अष्टांग हृदय-निदान आगम और त्रिपिटकःएक अनुशीलन आत्राराङ्गसुत्र आर्थिक व व्यापारिक भूगोल' आप्त-मीमांसा आत्मानुशासन आवश्यकनियुक्ति आवश्यक मलयगिरि आवश्यक सूत्र आत्म-पुराण आत्मविकास आतुर प्रत्याख्यान आपस्तम्बस्मृति आवां अद्धी सुर्यश्त औपपातिक सूत्र इतिहास समुच्चय ईशोपनिषद् इस्लामधर्म इष्टोपदेश ईश्वरगीता उत्तरराम चरित्र Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र उत्तराध्ययन वृहदवृत्ति उदान उपदेश तरङ्गिणी उपदेशप्रामाद उपदे श माला उपदेशसुमनमाला उपासक दशा ऋग्वेद ऋषिभासित ऐतरेय ब्राह्मण कठोपनिषद् कथासरित्सागर कल्याण (मासिक) कवितावली कात्यायन स्मृति किशन बावनी किरातार्जुनीय कीर्तिकेयानुप्रेक्षा कुमारपाल चरित्र कुमार सम्भव कुरानशरीफ कुरुक्षेत्र कुवलयानन्द फूटवेद केनोपनिषद् कौटिलीय अर्थशास्त्र खुले आकाश में गम्छाचार प्रकीर्णक गरुड़ पुराण गृहस्थधर्म गीता गीता भाष्य गुर्जरभजनपुष्णावली गुरुग्रन्थ साहिब गोम्मटसार गोलमम्मति गोरक्षा-शतक घटचर्पटपंजरिका चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र चन्द-चरित्र चरक संहिता चरित्र रक्षा चरकसूत्र चाणक्यनीति चाणक्यमुत्र चित्राम की चापी चीनी सुभापित छान्दोग्य उपनिषद् जपुजी साहिब Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशावत-स्कन्ध दशा त-स्कन्धवृत्ति जागृति (मासिक) जातक जाबालश्रुति जाह्नवी जीतकल्प जीवन-लक्ष्य जीवन सौरभ जीवाभिगम सूत्र जनभारती जैन सिद्धान्त दीपिका जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह टॉड राजस्थान इतिहास टी. वी. हैण्डबुक डिकेन्स डेलीमिरर तत्त्वामृत तत्त्वार्थ-सूत्र तन्दुलवैचारिकगाथा तत्त्वानुशासन ताओ-उपनिषद् ताओ-तेह-किंग तात्त्विक त्रिशती तिरुकुल तीन वात तत्तरोय उपनिषद् दर्शनपाहुड दान-चन्द्रिका दिगम्बर प्रतिक्रमण श्रमी दीर्घनिकाय दोहा-संदोह द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका द्रव्य-संग्रह घन-बावनी ध्यानाष्टक धम्मपद धर्मचिन्दु धर्मयुग धर्मसंग्रह धर्मरत्न प्रकरण धर्मशास्त्र का इतिहास धर्मों की फुलवारी तैत्तिरीय ताण्ड्य महाब्राह्मण तोरा थेरगाथा दशवकालिक सूत्र दर्शन-शुद्धि धर्म-सूत्र Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय दीप नन्दी सुत्र नवी नविश्ते नवभारत टाइम्स (दैनिक) नवनीत (मासिक) नवीन राष्ट्र एटलस नारद पुराण नारद नीति नारद परिव्राजकोपनिषद निर्णयसिन्धु नियमसार निरुक्त निशीथ चूणि निशीथ भाष्य निरालम्बोपनिषद् नीतिवाक्यामृत नैषधीय चरित्र पंचतंत्र पंचास्तिकाय पंजाबकेशरी पद्मपुराण पहेलवी टेक्सट्म पक्लियस साइरस पद्मानन्द पंचविंशति प्रवचन सार प्रवचन सारोद्धार प्रवचन डायरी प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रशमरति प्रज्ञापना सूत्र पातंजल योगदर्शन पारस्कर स्मृति प्रास्ताविक श्लोकशतकम् पुरानी बाइबिल पुरुपार्थ सिद्धिध पाय पुराण पूर्व मीमांसा बृहत्कल्प भाष्य ब्रह्मग्रन्थावली ब्रह्मानन्द गोता बृहदारण्यकोपनिषद् बृहस्पतिस्मृति बाइबिल बुखारी वीरपश्त् बुद्ध-चरित्र बेंदीदाद बौद्ध-सावक बंगधी Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुण्डकोपनिषद् मुस्लिम मेडम द स्नाल मैगजीन डाइजेस्ट माहमुद्गर यशन् यात् भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक भक्ति-सूत्र भगवती-सूत्र भर्तृहरि नौतिशतक , वैराग्य शतक , शृगार शतक भविष्य-पुराण भावप्रकाश भाषा श्लोकसागर भामिनीविलास भाल्लवीय श्रति भुदान पत्रिका भोजप्रबन्ध मज्झिमनिकाय मन्थन महाभारत महानिस पालि महानिशीथ भाष्य महानिर्वाण तन्त्र मनुस्मृति मनोनुशासनम् मत्स्यपुराण महाप्रत्याख्यान मरकम मिलाप यशस्तिलकचम्पू यजुवेंद याज्ञवल्क्य स्मृति युहन्ना योगवाशिष्ठ योगदष्टि समुच्चय योगशास्त्र योगबिन्दु रघुवंश रश्मिमाला राजप्रश्नीय सूत्र रामचरित मानस रामसतसई रामायण रीड मेगजीन लूका व्यवहार चूलिका ध्यवहार-भाष्य Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार-सुत्र व्यासस्मृति च्यास-संहिता वृहत्पाराशर संहिता वृहद् द्रव्य संग्रह वाल्मीकि रामायण बशिष्ठ-स्मृति विचित्रा (मासिक) विवेकचूडामणि विदुर नीति विनयपिटक विवेक विलास विशेषावश्यक भाष्य विशेषावश्यक चूणि विश्वकोष विज्ञान के नए आविष्कार विसुद्धिमग्गों विष्णुस्मृति विश्वमित्र (दैनिक) वीतराग स्तोत्र बंक ग्रंथ वैद्यक-शास्त्र वैद्य रसराजसमुच्चय वैशेषिक दर्शन वैदिक धर्म क्या कहता है ? वािकार विजन शतपथ ब्राह्मण श्वेताश्वेतारोपनिषद् शंकर प्रश्नोत्तरी शंख स्मृति शाङ्गंधर शान्त सुधारस शान्तिगीता श्राद्ध विधि शास्त्रवार्तासमुच्चय श्वावक प्रतिक्रमण शिशुपालवध शिवपुराण शिव-संहिता श्रीमद्भागवत शोल की नवबाड़ शुकबोध शुक्ल युजर्वेद षट्नाभृत स्कन्ध पुराण स्थानांग सूत्र सभा तरंग सचित्र-विश्व कोष सत्यार्थप्रकाश समयसार Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग सूत्र सम्बोधसत्तरि सप्तव्यसन सन्धान काव्य सरिता सर्जना सर्वया शतक स्वप्न शास्त्र स्वर-साधना समाधिशतक सन्मति तर्कप्रकरण स्टडीज इन डिसीट सरल मनोविज्ञान संयुत्तनिकाय सामायिक सूत्र सामवेद सावधानी से समुद्र सिद्धान्तकौमुदी सिन्दूर प्रकरण सुखमणि संहिता सुत्तनिपात सुभाषितावलि सुभाषितरत्न खण्ड- मंजूषा सुभाषित रत्नभाण्डागार सुभाषित संचय सुतपाहुड. ( = ) सुबोध पद्माकर सुभाषित रत्न सन्दोह सुश्रुत शरीर स्थान सूत्रकृतांग सूत्र सूक्तरत्नावलि सूक्तमुक्तावलि सौर परिवार हउश् मज्दा हदीश शरीफ हरिभद्रीयआवश्यक हनुमान नाटक हृदय प्रदीप हृषिकेश हितोपदेश हिंगुल प्रकरण हिन्दुस्तान (दैनिक व साप्ताहिक) हिन्दसमाचार क्ष ेमेन्द्र त्रिपष्टि शलाकापुरुष चरित्र ज्ञाता-सूत्र ज्ञानार्णव ज्ञान-सार ज्ञानप्रकाश 00 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अफलातून अबुमुर्ताज अबीदाउद अबूबकर केसानो अल्फान्सीकर अरविन्द घोष अरस्तू आचार्य उमाशंकर आचार्य श्रीतुलसी आचार्य रजनीश आरकिंग आरजू आस्तिओमले ओडोर पारकर इपिक्टेट्स इब्राहिम लिंकन उमास्वाति एच, मोर एञ्जिलो एनी विसेन्द एमर्सन एडीसन एविड व्यक्ति - नामावली २ कैथराल कल्टन खलील जिब्रान ग्वाल कवि गांधी गिवन गुरु गोरखनाथ गुरु नानक गेटे एलाव्हीलर एलोसियस कविराज हरनामदास कवीर कन्फ्युसियस कण्डोर सेट कांगtयुत्सी कार्लाइल कार्लमाक्र्स कामवेल क्विकक् कालुगणी कुन्दकुन्दाचार्य कूपर केटो कॅनेथबालसर कैम्पिस ( ९ ) ग्रं विल ग्रेनविल गोल्डस्मिथ गोल्डो जी गौतम बुद्ध जगन्नाथ कवि जयचन्द जयशंकर प्रसाद जयाचार्य जवाहरलाल नेहरु जार्ज चेपमैन Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान मिल्टन जामी जॉनसन जाविदान ए. खिरद जीनपाली जुगल कवि जुनंद जुन ून जूट जंगविल जे. फरीश जे. नोफेन जे. पी. सी. बर्नार्ड जे. पी. हालेण्ड जौक टप्पर टालस्टाय टामस कैम्पस टालमेज टी. एल. वास्वानी ड. ल. जार्ज डाइट रॉट डॉ. हरदयालमाथुर डॉ. एलेग्जी कॅरेल डॉ. ग्यास जे रोल्ड ( १० ) डाड्रिज डिकेन्स डिजरायली डी० जेरोल्ड डी० एल० मूडी डेल कार्नेगी तिरमजी तुलसीदास थामस कॅम्पी थामस फूलर थेल्स थैंकरे थोरो दादु दीपकवि धनमुनि धूमकेतु नकुलेश्वर नजिन नलिन नाथजी निकोलस निपट निरंजन निर्मला हरवंशसिंह नीत्से नेपोलियन प्लुटार्क प्लेटो पटोरिया पद्माकर परसराम पीटर बेरो पीपाकवि पेस्क प्रेमचन्द पेरोसेल्स पोप फुलर फैकलिन बर्टन बनारसीदास बर्नार्डशा बलवर ब्रह्मदत्त कवि ब्रह्मानन्द बालजक बावरी साहिब विल्हण कवि बीचर बुल्लेशाह Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११) रहीन बुलकोट रज्जवदास बेकन रडयाई किलिंग बेताल कवि बैल रबिया वो. बो. रवि दिवाकर वोधा रस्किान भगवतीचरणा बर्मा रवीन्द्रनाथ टैगोर भिक्ष गणी रामकृष्ण परमहंस भूधर दास रामचरण कवि महात्मा भगवानदीन रामतीर्थ मदन द० रियू रामरतन शर्मा महर्षि रमण रिस्टर मार्कटेन रिशर माण्टेन रुसो माघकवि रोम्यारोला मिल्टन रोशे मेरीकोन ए-डी रीशफूको मुहम्मद-विन-वशीर लाफान्टेन मेरी ब्राउन लावेल मेसेंजर लांगफेलो मैकिन्तोस लीटन मैथिलीशरण गुप्त लीनलिज मोलियर लुकमान हकीम यशोविजय जी लूथर यूसूफ अस्वात लेलिन लोकमान्य तिलक ब्लेर व्यावलो वृन्द कवि वायरन बायर्स वारटल बाल्टेयर वाशिगटन इविन विजयधर्मसूरि विनोबा भावे विलकाक्स विलियमपिट विलियमपेन विवेकानन्द शंकराचार्य शापेनहावर शिलर शिवानन्द शुभचन्द्राचार्य शेक्सपियर शेस्त्र सादी स्टैनिलस स्टील स्पेंसर Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) सत्यदेवनारायण सिन्हा सुन्दरदास सन्त आगस्तीन सूरत कवि संत ज्ञानेश्वर सूरदास संत तुकाराम सेलहास्ट सन्त निहालसिंह सैनेका सद्गुरुचरण अवस्थी सेमुअल जानसन समर्थगुरु रामदास सोमदेव सूरि सायरस हजरत अली सिंगुरिनी हजरत मुहम्मद स्विट हरिभद्र सूरि सिसरो सुकरात यया हह्म म हाफिज हावेल हालीवर्टन हार्टले हे एन. भांग हेनरी वाई वीचर हैजलिट हैली वर्हन होमर होरेश वाल पोल बायण्ट हलवर्ट G Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की महत्वपूर्ण रचनाएं प्रकाशित १. एक आदर्श आत्मा ०-४० २. चमकते चांद ३. चरित्र प्रकाश ४. भजनों की भेंट ५. लोक प्रकाश ६. चौदह नियम ७. मोक्ष प्रकाश ८. जैन - जीवन ०-४० २-५० ०-६० १-२५ ० - २० ०-६५ हरकचन्द्र इन्द्रचन्द नौलखा माधोगंज, लश्कर ग्वालियर (म०प्र०) रतीराम रामस्वरूप जैन पो० कैथलमण्डी (हरियाणा) श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा बालोतरा ( राजस्थान ) ( १३ ) "P " "} आदर्श साहित्य संघ पो० रु ( राजस्थान ) " " * श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा टोहाना (हरियाणा) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. प्रश्न प्रकाश ११. सच्चा धन १०. मनोनिग्रह के दो मार्ग १-२५ १२. सोलह सतियां (हि. सं.) सोलह सलियां (तु. सं ) १३. ज्ञान के गीत (चौथा संस्करण) १४. ज्ञान - प्रकाश ( १४ ) 05-0 १८. धर्म एटले शु? १९. परीक्षक वनो ! ०-३० २-०० 9-00 7-00 १५. जीवन प्रकाश (उर्दू) ०-३० १६. सच्चा धन (उर्दू) १७. तेरापन्थ एटले शु? ०-६२ ०-७५ 0-194 श्री जैन श्वे० तेरापन्धी महासभा ३. पोचंगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता- १ भवनचन्द सम्पतराम बोरड़ दुकान नं० ४०, धानमण्डी, श्रीगंगानगर (राजस्थान ) श्री क्ष द्वारा ला० दयाराम बृजलाल टोहाना मण्डी (हरियाणा) श्री चांदमल मानिकचन्द चौरड़िया पो० छापर (चुरू, राजस्थान ) लाला दयाराम मंगतराम जैन दीहानामण्डी (हरियाणा) श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा पो० भीनासर ( राजस्थान ) श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा नाभा (पंजाब) 33 जैन 21 नेमीश्रम्ब नगोनचन्द जबेरो 'महल' १३०, शेख मन स्ट्रीट, बम्बई - २ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. वक्तृत्वकला के बीज (भाग १ से १० तक ) प्रत्येक भाग प्रकाशित ५ भाग फ्रेंस में ५ भाग ( १५ ) ५-५० pa समन्वय प्रकाशन द्वारा: भोतीलाल पारख पी वाक्स नं ४२, अमदाबाद-२२ एवं संजय साहित्य संगम दासबिल्डिंग नं० ५, त्रिलोचपुरा, आगरा- २ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की अप्रकाशित रचनाएं हिन्दी : श्रीकालू कल्याणमन्दिरम् अवधान-विधि श्रीभिक्ष शब्दानुशासन वृत्तिद्धिउपदेश-द्विपञ्चाशिका तप्रकरणम् उपदेश मुमनमाला गुजराती : जनमहाभारत : गुर्जर व्याख्यान रत्नालि जैन रामायण गुर्जर भजन पुष्पावलि दोहा-संदोह राजस्थानी : व्याख्यान मणिमाला औपदेशिक ढालें व्याख्यान रत्नमञ्जूषा कथा प्रवन्ध वैदिक विचार विमर्शन (बड़ा) ग्यारह छोटे व्याख्यान संक्षिप्त वैदिक विचार विमर्शन छ: बड़े व्याख्यान संस्कृत बोलने का सरल तरीका धन बावनी संस्कृत: प्रास्ताविक डालें ऐक्यम् सर्वया-शतक एकालिक कालूशतकम् सावधानी रो समुद्र देवगुरु धर्म द्वात्रिशिका पंजाबी : प्रास्ताविकश्लोक शतकम् पंजाब पच्चीसी भाविनी { १६ ) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | [Fird-লা | ঘলেন “সম” Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन जिज्ञासुओं को, जिनको उर्वर मनोभूमि में मे बीज अंकुरित पुष्पित फलित हो, अपना विराट रूप प्राप्त कर सके ! Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिकेन्द्र जनमुखलाल एंड कंपनी c/o भगवतप्रसाद रणछोड़दास ४४, न्यू क्लाथ मास्ट अहमदाबाद-२ २. श्री सम्पतराय बोरङ co मदनचंद सम्पतराय ४०, धानमंडी, श्री गंगानगर (राजस्थान) ३. मोतीलाल पारख दि अहमदाबाद लक्ष्मी कॉटन मिल्स कं लि० पो बा. नं० ४२ अहमदाजाद-२२ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन मानव जीवन में वाचा की उपलब्धि एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । हमारे पानी आनागों की दृष्टि का अधिष्ठान हैं, वाघा सरस्वती भिषग्' – याचा ज्ञान की अधिष्ठात्री होने से स्वयं सरस्वती रूप है, और समाज के विकृत आचार-विचाररूप रोगों को दूर करने के कारण यह कुशल वैद्य भी है। अन्तर के भावों को एक दूसरे तक पहुँचाने का एक बहुत बड़ा माध्यम वाचा ही है । यदि मानव के पास वाचा न होती तो, उसकी क्या दशा होती ? क्या वह भी गूरुपशुओं की तरह भीतर ही भीतर घुटकर समाप्त नहीं हो जाता ? मनुष्य, जो गूंगा होता है, वह अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए कितने हाथ-पैर मारता है, कितना छटपटाता है फिर भी अपना सही आशय कहां समझा पाता है दूसरों को ? बोलना बाचा का एक गुण है, किंतु बोलना एक अलग चीज है, और वक्ता होना वस्तुतः एक अलग चीज है। बोलने को हर कोई बोलता है, पर वह कोई कला नहीं है, किंतु वक्तृत्व एक कला है । वक्ता साधारण से विषय को भी कितने सुन्दर और मनोहारी रूप से प्रस्तुत करता है श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । वक्ता के बोल श्रोता के हृदय में उतर जाते हैं कि वह उन्हें जीवन भर नहीं भूलता । कर्मयोगी श्रीकृष्ण, भगवान् महावीर तथागतबुद्ध, व्यास और भद्रबाह आदि भारतीय प्रवचन- परम्परा के ऐसे महान् प्रवक्ता थे, १ यजुर्वेद १६।१२ कि ऐसे Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनकी काफी का नाद आज भी हजारों-लाखों लोगों के हृदयों को आप्यायित कर रहा है । महाकाल की तूफानी हवाओं में भी उनकी वाणी की दिव्य ज्योति न बुझी है और न बुझेगी। हर कोई काचा का धारक, वाचा का स्वामी नहीं बन सकता । षाचा का स्वामी ही वाम्मी या वक्ता कहलाता है। वक्ता होने के लिए ज्ञान एवं अनुभव का आयाम बढ़त दी दिप्तत होना चाहिए। विशाल अध्ययन, मनन-चिंतन एवं अनुभव का परिपाक याणी को तेजस्वी एवं चिरस्यायो बनाता है। विना अध्ययन एवं विषय की व्यापक जानकारी के भाषण केवल भषण (भोंकना) मात्र रह जाता है, वक्ता कितना ही चोखे-मिल्लाये, उछले-वूदे यदि प्रस्तावित विषय पर उसका सक्षम अधिकार नहीं है, तो वह सभा में हास्यास्पद हो जाता है, उसके व्यक्तित्व की गरिमा लुप्त हो जाती है। इसीलिए बहुत प्राचीनयुग में एक ऋषि ने कहा था-वक्ता शतसहस्रष, अर्थात् लाखों में कोई एक वक्ता होता है। शतावधानी मुनि थी धनराज जी जैनजगत के यशस्वी प्रवक्ता हैं। उनका प्रवचन, वस्तुतः प्रवचन होता है। श्रोताओं को अपने प्रस्तावित विषय पर केन्द्रित एवं मंत्र-मुग्ध कर देना उनका सहज कर्म है। और यह उनका वक्तृत्व-एक बहुत बड़े व्यापक एवं गंभीर अध्ययन' पर आधारित है। उनका संस्कृत-प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं का ज्ञान विस्तुत है, साथ ही तलस्पर्शी भी ! मालूम होता है, उन्होंने पांडित्य को केवल छुआ भर नहीं है, किंतु समग्रशक्ति के साथ उसे गहराई से अधिग्रहण किया है। उनको प्रस्तुत पुस्तक 'वक्तृत्वकला के बीज' में यह साष्ट परिलक्षित होता है। प्रस्तुत कृति में जैन आगम, औझवाङमय, वेदों से लेकर उपनिषद बाह्मण, पुराण, स्मृति आदि वैदिक साहित्य तथा लोककथानक, कहाबतें, रूपक, ऐतिहासिक घटनाएं, ज्ञान-विज्ञान की उपयोगी चर्चाएं Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसप्रकार श्रृंखलाबद्ध रूप में संकलित है कि किसी भी विषय पर हम बहुत कुछ विचार-सामग्री प्राप्त कर सकते हैं। सचमुच वक्तृत्वकला के अगणित बीज इसमें सन्निहित हैं । सूक्तियों का तो एक प्रकार से यह रत्नाकर ली है । अंग्रेजी साहित्व व अन्य धर्मग्रंथों के उद्धरण भी काफी महत्वपूर्ण हैं | कुछ प्रसंग और स्थल तो ऐसे हैं, जो केवल सूक्ति और सुभाषित ही नहीं है, उनमें विपक्ष की तलस्पर्शी गहराई भी है और उनपर से कोई भी अध्येता अपने ज्ञान के आयाम को और अधिक व्यापक बना साता है । लगता है, जैसे मुनि श्री जी नाछ मन के रूप में विराट् पुरुष हो गए हैं। जहां पर भी दृष्टि पड़ती है, कोई-न-कोई वचन ऐमा मिग्न ही जाता है. जो हृदय को छू जाता है और यदि प्रवक्ता प्रमंगतः अपने भाषण में उपयोग करे, तो अवश्य ही श्रोताओं के मस्तक झूम उठेंगे।। प्रश्न हो सकता है—'वक्तृत्वकला के बीज' में मुनि श्री का अपना क्या है ? यह एक संग्रह है और संग्रह केवल पुरानी निधि होती है; परन्तु मैं कहूंगा.. कि फूलों की माला का निर्माता माली जब विभिन्न जाति एवं विभिन्न रंगों के मोहक पुष्पों की माला बनाता है तो उसमें उसका अपना क्या है ? बिखरे फल, फूल हैं, माली नहीं । माला का अपना एक अलग ही विलक्षण सौन्दर्य है। रंग-बिरंगे फूलों का उपयुक्त चुनाव करना और उनका कलात्मक रूप में संयोजन करना--यही तो मालाकार का कर्म है, जो स्वयं में एक दिलक्षण एवं विशिष्ट कलाकर्म है। मुनि श्री जी वक्तृत्वकला के बीज में ऐसे ही विलक्षण मालाकार हैं । विषयों का उपयुक्त चयन एवं तत्सम्बन्धित सूक्तियों आदि का संकलन इतना शानदार हुआ है कि इस प्रकार का संकलन अन्यत्र इस रूप में नहीं देखा गया। ___एक बात और–श्री चन्दनमुनि जी की संस्कृत-प्राकृत रचनाओं ने मुझं अथावगर काफी प्रभावित किया है। मैं उनकी विद्वत्ता का प्रशंसक रहा है। श्री धनमुनि जी उनके बड़े भाई हैं—जब यह मुझे Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात हुआ तो मेरे हर्ष की सीमाओं का और भी अधिक विस्तार हो गया । अब मैं कैसे कह कि इन दोनों में कौन बड़ा है और कौन छोटा ? अच्छा यही होगा कि एक को दूसरे से उपमित कर दूं। उनकी बहुश्रुतता एवं इनकी संग्रह-कुशलता से मेरा मन मुग्ध हो गया है । ____ मैं मुनि श्री जी, और उनकी इस महत्वपूर्णकुत्ति का हृदय से अभिनन्दन करता हूँ। विभिन्न भागों में प्रकाशित होने वाली इस विराट् कृति से प्रवचनकार, लेखक एवं स्वाध्यायप्रेमीजन' मुनि श्री के प्रति ऋणी रहेंगे । ने जब भी चाहेंगे, धक्तत्व के बीज में से उन्हें कुछ मिलेगा ही, वे रिक्तहस्त नहीं रहेंगे ऐसा मेरा विश्वास है । प्रवक्तृ-समाज-मुनि श्री जी का एतदर्थ आभारो है और आभारी जैन आश्विन शुक्ला-३ आगरा - उपाध्याय अमरमुनि Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तृत्वगुण एक कला है, और वह बहुत बड़ी साधना की अपेक्षा करता है । आगम का ज्ञान, लोकव्यवहार का ज्ञान, लोकमानस का ज्ञान और समय एवं परिस्थितियों का ज्ञान तथा इन सबके साथ निस्पहता, निभयता, स्वर की मधुरता, ओजस्विता आदि गुणों की साधना एवं विकास से ही वक्तृत्वकला का विकास हो सकता है, और ऐसे वक्ता वस्तुतः हजारों लाखों में कोई एकाध ही मिलते हैं। तेरापंथ के अधिशास्ता युगप्रधान आचार्य श्रीतुलसी में वक्तृत्वकला के ये विशिष्ट गुण चमत्कारी ढंग से विकसित हुए हैं । उनकी वाणी का जादू थोताओं के मन-मस्तिष्क को आन्दोलित कर देता है । भारतवर्ष की सुदीर्घ पदयात्राओं के मध्य लाखों नर-नारियों ने उनकी ओजस्विनी वाणी सुनी है और उसके मधुर प्रभाव को जीवन में अनुभव किया है। प्रस्तुत पुस्तक के लेखक मुनि श्री धनराजजी भी वास्तव में बक्तृत्वकला के महान गुणों के धनी एक कुशल प्रवक्ता संत हैं । वे कवि भी हैं, गायक भी है, और तेरापय शासन में सर्वप्रथम अवधानकार भी है। इन सबके साथ-साथ बहुत बड़े विद्वान तो हैं ही। उनके प्रवचन जहां भी होते हैं, श्रोताओं की अपार भीड़ उमड़ आती है। आपके बिहार करने के बाद भी श्रोता आपकी याद करते रहते हैं। आपकी भावना है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी वक्तृत्वकला का विकास करें और उसका सदुपयोग करें, अतः जनसमाज के लाभार्थं आपने वक्तृत्व के योग्य विभिन्न सामग्रियों का यह विशाल संग्रह प्रस्तुत किया है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) बहुत समय से जनता को, विद्वानों की और वक्तृत्वकला के अभ्यासियों की मांग थी कि इस दुर्लभ सामग्री का जनहिताय प्रकाशन किया जाय तो बहुत लोगों को लाभ मिलेगा । जनता की भावना के अनुसार हमने मुनिश्री की इस सामग्री की धारणा प्रारंभ किया। इस कार्य को सम्पन्न करने में श्री डोंगरगढ़, मोमासर, भादरा, हिसार, टोहाना, नरवाना, कैथल, हांसी, भिवानी, तोसाम, ऊमरा, सिसाय, जमालपुर, सिरसा और भटिंडा आदि के विद्यार्थियों एवं युवकों ने अथक परिश्रम किया है । फलस्वरूप लगभग सौ कापियों व १५०० विषयों में यह सामग्री संकलित हुई है। हम इस विशाल संग्रह को विभिन्न भागों में प्रकाशित करने का संकल्प लेकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुए हैं । वक्तृत्वकला के बीज का यह पांचबाँ भाग पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है । इसके प्रकाशन का समस्त अर्थभार श्री जनसुखलाल एंड कंपनी, अहमदाबाद ने बहन किया है । इस अनुकरणीय उदारता के लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं । इसके प्रकाशन एवं प्रूफ संशोधन आदि में श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' तथा श्री ब्रह्मदेवसिंह जी आदि का जो हार्दिक सहयोग प्राप्त हुआ है— उसके लिए भी हम हृदय से कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। आशा है यह पुस्तक जन-जन के लिए, वक्ताओं और लेखकों के लिए एक इनसाइक्लोपीडिया ( विश्वकोश ) का काम देगी और युग-युग तक इसका लाभ मिलता रहेगा..... Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म नि वे द न 'मनुष्य की प्रकृति का बदलना अत्यन्त कठिन है' यह सूक्ति मेरे लिए सवा सोलह आना ठीक साबित हुई । बचपन में जब मैं कलकत्ता श्री जैनेश्वेताम्बर-तेरापंथी-विद्यालय में पढ़ता था, जहाँ तक याद है, मुझे जलपान के लिए प्रायः प्रतिदिन एका आना मिलता था। प्रकृति में संग्नह करने की भावना अधिक थी, अतः मैं खर्च करके भी उसमें से कुछ न कुछ बचा ही लेता था । इस प्रकार मेरे पास कई रुपये इकट्ठे हो गये थे और मैं उनको एक डिब्बी में रखा करता था। विक्रम संवत् १६७६ में अचानक माताजी को मृत्यु होने से विरक्त होकर हम (पिता श्री केवलचन्द जी, मैं, छोटी बहन दीपांजी और छोटे भाई चन्दनमल जी) परमकृपालु श्री कालगणीजी के पास दीक्षित हो गए। यद्यपि दीक्षित होकर रुपयों-पैसो का संग्रह छोड़ दिया, फिर भी संग्रहवृत्ति नहीं छूट सकी । बह् धनसंग्रह से हटकर ज्ञानसंग्नह की ओर झुक गई । श्री कालगणो के चरणों में हम अनेक बालक मुनि आगमव्याकरण-काव्य-कोष आदि पढ़ रहे थे। लेकिन मेरी प्रकृति इस प्रकार की बन गई थी कि जो भी दोहा-छन्द-श्लोक-ढालव्याख्यान-कथा आदि सुनने या पढ़ने में अच्छे लगते, मैं तत्काल उन्हें लिख लेता या संसार-पक्षीय पिताजी से लिखवा लेता । फलस्वरूप उपरोक्त सामग्री का काफी अच्छा संग्रह हो गया । उसे देखकर अनेक मुनि विनोद की भाषा में कह दिया करते थे कि "धन्न तो न्यारा में जाने की (अलम विहार करने की) तैयारी कर रहा है।" उत्तर में मैं कहा करता-"क्या आप गारंटी दे सकते हैं कि इतने (१० या १५) साल तक आचार्य श्री हमें अपने साथ हो रखेंगे ? क्या पता, कल ही अलग विहार करने Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का फरमान करदें । व्याख्यानादि का संग्रह होगा तो धर्मोपदेश या धर्म-प्रचार करने में सहायता मिलेगी।" ____ समय-समय पर उपरोक्त साथी मुनियों का हास्य-विनोद चल ही रहा था कि वि० सं० १९८६ में श्री कालुगणी ने अचानक ही श्रीकेवलमुनि को अग्रगण्य बनाकर रतननगर (थेलासर) चातुर्मास करने का हुक्म दे दिया। हम दोनों भाई (मैं और चन्दन मुनि) उनके साथ थे। व्याख्यान आदि का किया हुआ संग्रह उस चातुर्मास में बहुत काम आया एवं भविष्य के लिए उत्तमोत्तम शानसंग्रह करने की भावना बलवती बनी । हम कुछ वर्ष तक पिताजी के साथ विचरते रहे । उनके दिवंगत होने के पश्चात दोनों भाई अग्रगण्य के रूप में पृथक-पृथक् विहार करने लगे। विशेष प्रेरणा—एक बार मैंने 'वक्ता बनो' नाम की पुस्तक पढ़ी। उसमें वक्ता बनने के विषय में खासी अच्छी बातें बताई हुई थीं। पढ़ते-पढ़ते यह पंक्ति दृष्टिगोचर हुई कि "कोई भी अन्थ' या शास्त्र पढ़ो, उसमें जो भी बात अपने काम को लगे, उसे तत्काल लिख लो।" इस पंक्ति ने मेरी संग्रह करने की प्रवृत्ति को पूर्वापेक्षया अत्यधिक तेज बना दिया 1 मुझे कोई भी नई युक्ति, सूक्ति या कहानी मिलता, उसे तुरंत लिख लेता । फिर जो उनमें विशेष उपयोगी लगती, उसे औपदेशिक भजन, स्तवन या व्याख्यान के रूप में गूथ लेता । इस प्रवृत्ति के कारण मेरे पास अनेक भाषाओं में निबद्ध स्वरचित सैकड़ों भजन और सैकड़ों व्याख्यान इकट्ठे हो गए। फिर जैन-कथा साहित्य एवं तात्विकसाहित्य की ओर रुचि बढ़ी । फलस्वरूप दोनों ही विषयों पर. अनेक पुस्तकों की रचना हुई। उनमें छोटी-बड़ी लगभग २६ पुस्तकें तो प्रकाश में आ चुकी, शेष ३०-३२ अप्रकाशित ही हैं। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार संगृहीत-सामग्री के विषय में यह सुझाव आया कि यदि प्राचीन संग्रह को व्यवस्थित करके एक ग्रन्थ का रूप दे दिया जाए, तो यह उत्कृष्ट उपयोगी चीज बन जाए । मैंने इस सुझान को स्वीकार दिया और अपने प्राचीन संग्रह को व्यवस्थित करने में जुट गया । लेकिन पुराने संग्रह में कौन-सी सूक्ति, लोक या हेतु किस ग्रन्थ या शास्त्र के है अथवा किस कवि, वक्ता या लेखक के है—यह प्राय: लिखा हुआ नहीं था । अतः ग्रन्थों या शास्त्रों आदि की साक्षियां प्राप्त करने के लिए-इन आठ-नौ वर्षों में वेद, उपनिषद्, इतिहास, स्मृति, पुराण, कुरान, बाइबिल, जनशास्त्र, बौद्धशास्त्र, नीतिशास्त्र, बचकशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, शकुनशास्त्र, दर्शन-शास्त्र, संगीतशास्त्र तथा अनेक हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृति, राजस्थानी, गुजराती मराठी एवं पंजाबी सूक्तिसंग्रहों का ध्यानपूर्वक यथासम्भव अध्ययन किया । उससे काफी नया संग्रह बना और प्राचीन संग्रह को साक्षी सम्पन्न बनाने में सहायता मिली । फिर भी खेद है कि अनेक सुक्तियों एवं श्लोक आदि विना साक्षी के ही रह गए। प्रयत्न करने पर भी उनकी साक्षियां नहीं मिल सकी। जिन-जिन की साक्षियां मिली हैं, उन-उनके आगे बे लगा दी गई हैं। जिनकी साक्षियां उपलब्ध नहीं हो सकी, उनके आगे स्थान रिक्त छोड़ दिया गया है। कई जगह प्राचीन संग्रह के आधार पर केवल महाभारत, वाल्मीकि रामायण, योग-शास्त्र आदि महान् ग्रन्थों के नाममात्र लगाए हैं: अस्तु ! इस ग्रंथ के संकलन में किसी भी मत या सम्प्रदाय विशेष का खण्डन-मण्डन करने की दृष्टि नहीं है, केवल यही दिखलाने का प्रयत्न किया गया है कि कौन क्या कहता है या क्या मानता है । यद्यपि विश्व के विभिन्न देश निवासी मनीषियों के मतों का संकलन होने से ग्रन्थ में भाषा की एकरूपता नहीं रह Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.४ ) सकी है। कहीं प्राकृत संस्कृत, पारसी, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा है तो कही हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, पंजाबी और बंगाली भाषा के प्रयोग हैं, फिर भी कठिन भाषाओं के श्लोक, वाक्य आदि का अर्थ हिन्दी भाषा में कर दिया गया है । दूसरे प्रकार से भी इस ग्रन्थ में भाषा की विविधता है। कई ग्रन्थों, कवियों, लेखकों एवं विचारकों ने अपने सिद्धान्त निरवद्यभाषा में व्यक्त किए हैं तो कई साफ-साफ सावद्यभाषा में ही बोले ६। मुझे जिस रूप में जिसके जो विचार मिले हैं, उन्हें मैंने उसी रूप में अंकित किया है, लेकिन मेरा अनुमादन केवल निर्बंध - सिद्धान्तों के साथ है । ग्रन्थ को सर्वोपयोगिता - इस ग्रन्थ में उच्चस्तरीय विद्वानों के लिए जहाँ जैन-बौद्ध आगमों के गम्भीर पद्य हैं, वेदों, उपनिषदों के अद्भुत मंत्र हैं, स्मृति एवं नीति के हृदय नाही श्लोक हैं वहाँ सर्वसाधारण के लिए सीधी-सादी भाषा के दोहे, छन्द, सूक्तियां, लोकोक्तियां, हेतु, दृष्टान्त एवं छोटी-छोटी कहानियाँ भी हैं । अतः यह ग्रन्थ निःसंदेह हर एक व्यक्ति के लिए उपयोगी सिद्ध होगा- ऐसी मेरी मान्यता है । वक्ता, कवि और लेखक इस ग्रन्थ से विशेष लाभ उठा सकंग, क्योंकि इसके सहारे वे अपने भाषण काव्य और लेख को ठोस, सजीव, एवं हृदयग्राही बना सकेंगे एवं अद्भुत विचारों का विचित्र चित्रण करके उनमें निखार ला सकेंगे, अस्तु ! ग्रन्थ का नामकरण – इस ग्रन्थ का नाम 'वक्तृत्वकला के बीज' रखा गया है । वक्तृत्वकला की उपज के निमित्त यहाँ केवल बीज इकट्ठे किए गए हैं। बीजों का वपन किसलिए, कैसे, कब और कहां करना - यह वप्ता (बीच बोनेवालों) की भावना एवं बुद्धिमत्ता पर निर्भर करेगा । फिर भी मेरी मनोकामना तो यही है कि बप्ता परमात्मपदप्राप्ति रूप फलों Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) के लिए शास्त्रोक्तविधि से अच्छे अवसर पर उत्तम क्षेत्रों में इन बीजों का वपन करेंगे । अस्तु 1 यहाँ मैं इस बात को भी कहे बिना नहीं रह सकता कि जिन ग्रन्थों, लेखों, समाचार पत्रों एवं व्यक्तियों से इस ग्रन्थ के संकलन में सहयोग मित्र है वे सभी सहायक से मेरे लिए चिरस्मरणीय रहेंगे । यह ग्रंथ कई भागों में विभक्त है एवं उनमें सैकड़ों विषयों का संकलन है । उक्त संग्रह बालोतरा मर्यादा महोत्सव के समय मैंने आचार्य श्रीतुलसी को भेंट किया। उन्होंने देखकर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की एवं फरमाया कि इसमें छोटी-छोटी कहानियाँ एवं घटनाएँ भी लगा देनी चाहिये ताकि विशेष उपयोगो बन जाए। आचार्य श्री का आदेश स्वीकार करके इसे संक्षिप्त कहानियाँ तथा घटनाओं से सम्पन्न किया गया । मुनिश्री नन्दनमलजी, डूंगरमलजी, नथमलजी, नगराज जी, मधुकरजी, राकेशजी, रूपचन्दजी आदि अनेक साधु एवं साध्वियों ने भी इस ग्रन्थ को विशेष उपयोगी माना । बीदासरमहोत्सव पर कई संतों का यह अनुरोध रहा कि इस संग्रह को अवश्य धरा दिया जाए । सर्व प्रथम वि० सं० २०२३ में श्री डूंगरगढ़ के श्रावकों ने इसे धारणा शुरू किया। फिर थली, हरियाणा एवं पंजाब के अनेक ग्रामों-नगरों के उत्साही युवकों ने तीन वर्षों के अथकपरिश्रम से धारकर इसे प्रकाशन के योग्य बनाया । मुझे दृढविश्वास है कि पाठकगण इसके अध्ययन, चिन्तन एवं मनन से अपने बुद्धि-वैभव को क्रमशः बढ़ाते जायेंगे - धनमुनि 'प्रथम' वि० सं० २०२७ मृगसर बदी ४ मंगलवार, रामामंडी, ( पंजाब ) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पहला कोष्ठक पृष्ठ १ से ६६ १ श्रावक (श्रावक की पूर्व भूमिका), २ श्रावक का स्वरूप, ३ श्रायक के गुण, ४ श्रावक धर्म, ५ वादक के विषय में विविध, ६ सामायिक, ७ सामायिक के विषय में विविध, ८ सामायिक का प्रभाव, ६ नाम की सामाविक, १५ पौषध, ११ तप, १२ तप से लाभ, १३ तप कैसे और किसलिए, १४ तप के भेद, १५ मनशन, १६ उपवास, १७ प्राय शिवस. १८ प्रायश्चित्त के भेद, ११ आलोचना, २० मालोचना के विषय में विविध, २१ आलोचना के दोष, २२ आवश्यक, २३ वैयावृत्य । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा कोष्ठक पृष्ट ६७ सं १३८ १ ध्यान, २ ध्यान से लाभ, ३ ध्याता (ध्यान करने वाला), ४ स्वाध्यायध्यान की शरणा, ५ समाश्नि, ६ आहार, ७ भोजन, ८ भोजन की विधि, ६ भोजन कंगा हो ?, १० भाशन के भेद, ११ भोजन में आवश्यक तत्व, १२ गतायनिक नृगनात्मक चार्ट, १६ भोजन फा ध्येय, १४, भोजन की शुद्धि, १५ भोजन का समय, १६ भोजन के समय दान, १, भोजन के बाद, १३ मंजन की मात्रा, १६ मित भोजन, २० अलि भोजन, २१ अधिक स्त्राने वाले आदमी, २२ राक्षसी खराकवाले व्यक्ति. २३ मुफ्त वा खाने वाले, २४ रात्रिभोजन निषेध, २५. रात्रिभोजा हानि, २६ रानि भोजन के त्याग से लाभ, २७ भूख, २८ भूज में स्वाद, २६ भूखा, ३० भूला क्या नहीं करता, ३१ पेट, ३२ पानी। तोसरा कोष्ठक पृष्ट १४२ से २०३ १ मोक्ष भुषित), २ मोक्ष की परिभाषाएं, ३ मोक्ष-स्थान, ४ मोक्ष-माग, ५ गोक्ष के साधन, ६ मोक्षगामी कौन, ७ मुक्त आत्मा, + सिद्ध भगवान, ६ मुक्ति के सुष, १० 'सार, ११ संसार का स्वरूप, १२ संसार के भेद, १३ दुःखरूप रासार, १४ राबको दुःख, १५ सुखशुखमय संसार, १६ गतानुगतिक संसार, १७ परिवर्तनशील संसार, १८ संसार का पागलपन, १६ संसार का स्वभाव, २० दृष्टि के समान सृष्टि, ९१ संसार की उपभाएं, २२ दुनिया की ताकत, २३ जगत को पेश करने के उपाय, २४ संसार की विशालता, २५ नरक संसार, २६ मारना के दुःख, २७ रया में जाने के कारण, २८ नरकमामी कौन ? ६ देव संसार, ३. दश्चय नमस्कार की विचित्र वाते । चौथा कोष्ठका पृ८ २१७ से ३२३ १ तिञ्च संसार, २ आरबर्यकारी नियंटस, ३ दुधमान विश्व Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पशु-पक्षी, ४ मनुष्य संसार, ५ मनुष्य का स्वभाव, ६ मनुष्य का कर्तव्य, ७ मनुष्य के लिए शिक्षाएँ, ८ मनुष्य का महत्व, ६ मनुष्य की दस अवस्थाएँ, १० मनुष्य के प्रकार, ११ मनुष्य जन्म की प्राप्ति १२ मनुष्य जन्म की श्रेष्ठता, १३ मनुष्य जन्म की दुर्लभता, १४ दुर्लभ मनुष्य जन्म को हारो मत, १५ मानवता, १६ आश्चर्यकारी मनुष्य, १७ आश्चर्यकारी मनुष्पणियां, १८ मनुष्य के विषय में ज्ञातव्य बातें, १६ मनुष्य लोक, २० वैज्ञानिकों के मतानुसार पृथ्वी आदि का जन्मकाल, २१ दृश्यमान जगत की आबादी, २२ भारत की कतिपय विशेष ज्ञातव्य बति । चारों कोष्ठकों में कुल १०७ विषय तथा वस भागों में लगभः २५०. विषय हैं । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग वक्तृ त्व क ला के बीज Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला कोष्ठक १ श्रावक की पूर्व भूमिका - १. न्यायसम्पन्नविभवः श्रावक शिष्टाचार प्रशंसकः । कृतान्यगात्रः ॥ देशाचारं समाचरन् । राजादिषु विशेषतः ॥४८॥ . कुलशीलसमैः सार्द्धं पापभीरुः प्रसिद्ध च, अववादी न क्वापि अनतिव्यक्त गुप्ते च स्थाने सुप्रातिवेदिसके । अनेक निमार विजितनिकेतनः ॥४६॥ कृतमङ्गः सदाचार र्मातापित्रोश्च पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतं स्थान-मप्रवृत्तश्च गहिते ॥ ५० ॥ व्ययमायोचितं कुर्वन् वेषं वित्तानुसारतः । अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः शृण्वानो धर्ममन्वहम् ||५१११ अजी भोजनयागो, काले भोक्ता च सात्म्यतः । अन्योन्याऽप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयन् ।। ५२ ।। यथावदतिथो साधी, दीने च प्रतिपत्तिकृत् । सदाऽनभिनिविष्टस्त्र पक्षपाती गुणेषु च ।।५३॥ अदेश कालयोश्चर्या, त्यजन् जानन् बलाबलम् । वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां पूजकः पोष्ययोगकः ॥ ५४ ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज दीर्घदर्गी विशेषज' तज्ञो लोकान्तः । मलज्जः सदयः गौम्यः, परोपकृतिकर्मठः ।।५।। अन्तराम्पिड्वगं - परिहार - परासरण :। वशीकलंन्द्रियग्रागो. निधर्मीय कलपनं । ।५.६।। -योगशास्त्र १ गृहस्थधर्म को पालन करने का पात्र अर्थात् श्रावक यह होता है, जिसमें निम्नलिखित विशेषताएं हों(१) न्याय-नीति मे घन उपार्जन करवाया हो। (२१ शिष्टपुरुषों के आनार को प्रदर्शमा करनेवाला हो । (३) अपन कुल और शील में समान भिन्न गोषवालों के साथ . विवाह-सम्बन्ध करनेवाला हो । (४) पापों गे डरनेवला हो। (५) प्रमिद्ध देशाचार का पालन करे । (६ : किमी की और विशेषरूप से राजा आदि की निन्दा न करे । (७) ऐसे स्थान पर घर बनाए, जो न एकदम खूला हो और न ____ एकदम गुप्त ही हो । 10) घर में बाहर निकलने के द्वाप अनेक न हो। (E) सदाचारी पुरुषों की संगति करता हो। (१०) माता-पिता की मेवा-भवित करे । (११) रगडे सगड़े और छेड़ नंदा करनेवाली जगह से दूर रहे, अर्थात् चित्त में क्षोभ उत्पन्न करनेवाले स्थान में न रहे । (१२) किसी भी निन्दनीय काम में प्रवृत्ति न करे। (१३) आय के अनुसार ही व्यय करे । (१४) अपनी आर्थिकस्थिति के अनुसार वस्त्र पहने । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग पहला कोष्टक (१५) बुद्धि के आठ गुणों से युक्त होकर प्रतिदिन धर्म-श्रवण करे । (१६) अजीर्ण होने पर भोजन न करे । (१७) नियत समय पर सन्तोष के साथ भोजन करे । (१८) वर्ग के साथ अर्थ-पुरुषार्थ काम-पुरुषार्थ और मोक्ष-पुरुषार्थ का इस प्रकार रोवन करे कि कोई किसी का बाधक न हो । (१९) अतिथि माधु और दीन-असहायजनों का यथायोग्य सत्कार करे । (२०) कभी दुराग्रह के वशीभूत न हो । (२१) गुणों का पक्षपाती हो जहाँ कहीं गुण दिखाई दे, उन्हें ऋण और उनकी करे | (२२) देश और काल के प्रतिकूल आचरण न करें 1 (१३) अपनी शक्ति और असविल को समझे। अपने सामथ्यं का विचार करके ही किसी काम में हाथ डाले, सामर्थ्य न होने पर हाथ न डाले । (२४) नवात्रा पुरुषों की तथा अपने से अधिक ज्ञानवान् पुरुषों की विनय-भक्ति क े 1 (२५) जिनके पालन-पोषण करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर हो, उनका पालन-पोषण करे । (२६) दीर्घदर्शी हो अर्थात् आगे-पीछे का विचार करके कार्य करे । (२३) अपने हित-अहित करे समझे, भलाई-बुराई को समझे । ( २८ ) लोकप्रिय हो अर्थात् अपने सदाचार एवं सेवा कार्य के द्वारा जनला का प्रेम सम्पादित करे । (२९) कृतज्ञ हो अर्थात् अपने प्रति किये हुए उपकार को नम्रता पूर्व स्वीकार करें Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज (३०) लज्माशील हो, अघांत् अनुवित कार्य करने में लज्जा का अनुभव करे । (३१) दयानाम् हो। (३२) मोम्य हो-चहर पर शान्ति और प्रभन्नता सकती हो । (३३) परोपकार करने में उद्यत रहे । दसरों की सेवा करने का अवसर आने पर पीछे न हटे । (३४) कामन्त्रोधादि आन्तरिक छह वाओं को त्यागने में उद्यत हो । (३५) इन्द्रियों को अपने वश में रखे । । - .. -.. १. जैसे बोज बान से पहले क्षेत्र-शुद्धि की जाती है। ऐसा न किया जाए तो यथेष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती तथा दीवार खड़ी करने से पहले नीत मजबूत कर ली जाती है । नींव मजबूत न की जाय तो दीवार के किसी भी समय गिरजाने का खतरा रहता है। इसी प्रकार गृहन्थधम-श्रावकत्रत को अंगीकार करने रो पहले घावश्यक जीवन-शुद्धि कार लेना जनित है । यहाँ जो बातें बसला: गई हैं, उन्हें ग्रहस्थ-धर्म की नींव या आधार-भूमि समझना चाहिए । इस आधार-भूमि पर गृहस्थधर्म का जो भव्यप्रासाद खड़ा होता है, वह स्थायी होता है । उसके गिरने का भय नहीं रहता। इन्हें मार्गानमारी के 2५ गुण कहते हैं। इनमें कई गुण ऐसे हैं, जो केवल जोकिकणीवन से सम्बन्ध रखते हैं। उन्हें गृहस्थ-धर्म का आधार बलसाने का अर्थ यह है कि वास्तव में जीवन एक Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाम . पहला कोष्टक अखण्डवस्तु है । अतः लोक-व्यवहार में और धर्म के क्षेत्र में उसका विकास एक साथ होता है । जिमका व्यावहारिकजीबन पतित और गया-बीता होगा, उसका धार्मिक जीवन उच्चश्रेणी का नहीं है। नकला। अत: तमय जीवनयापन करन के लिए व्यावहारिक जीवन को उच्च बनाना परमवश्यक है। जब व्यवहार में पवित्रता आती है, तभी जीवन धर्म-साधना के योग्य बन पाता है। --योगशास्त्रकार श्री हेमचन्द्राचार्य के मन्तव्य से Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक का स्वरूप १. श्रद्धालुतां श्रातिपदार्थनिन्तनाद्, धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुमेकना-दतोपि तं श्रावकमाहुरत्तमा : ।। __ --श्राविधि, पृष्ठ ७२, श्लोक ३ श्रा-वह तत्वार्थचिन्तन द्वारा श्रद्धालुता को नदद करता है । व-निरस्तर सत्पात्रों में अनरूप बीज बोता है । क-शुद्धगाधु की रावा करके. पायधूलि को दुर फेकता रहता है अतः उसे उत्तमपुरुषों न श्रावक कहा है। २. श्रा-श्रद्धावान हो, ब-विचकी हो, क-त्रियावान हो, वह श्रावक है। -घासीरामजी स्वामी ३. उपासन्ते सेवन्ते साधून्, इति उपासकाः श्रावकाः । -उत्तराध्ययन २ टीका साधुओं की उपासना-भवा करते हैं अत: श्रावक उपासक कह लाते हैं। ४. श्रमणामुपास्ते इलि श्रमगोपासक : । -उपासक दशा १ टीका Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : पांचवा भाग : पहला कोष्टक श्रमणों साधुओं की उपासना करने से श्रावक श्रमणोपासक कह लाते हैं। ५. अपि दिवशु कामेसु, रति सो नाधिगच्छति । तिण्हक्खयरति हाति, सम्मा स बुद्धसाबको ।। -धम्मपद १६७ दिव्य काम-भोगों में से रति ही होगी एमालय ने मे मुस्त्र होता है, वही युद्ध का सकला श्रावक है । सागारा अनगारा च, उभो अयोग्य निम्सिता। आराधयन्ति सद्धम्म, योगक्षेमं अनुत्तरं ।। --इतिश्रुत्तक १८ गृहस्थ और प्रजित (साधु दोनों ही एक दूसरे के सहयोग से कल्याणकारी सर्वोत्तम सद्धर्म का पालन करते है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mr ३ श्रावक के गुण । 1 १. कयवयकम्भो तह सीलवं गुणवं च उज्जुववहारी । गुरु सुस्सूसोपवण-कुसलो खलु साबगो भावे || - धर्मरत्न प्रकरण ३३ (१) जो व्रतों का अनुष्ठान करनेवाला है, शीलवान है, (२) स्वाध्याय-उप-विनय आदि गुणयुक्त है, (३) सरल व्यवहार करनेवाला है. (४) सद्गुरु की सेवा करनेवाला है, (५) प्रववनकुशल है, वह 'भावश्रावक' है । शील का स्वरूप इस प्रकार है (१) धार्मिकजनों युक्त स्थान में रहना, ( २ ) आवश्यक कार्य के बिना दूसरे के घर न जाना, (३) भड़कीली पोशाक नहीं पहनना, (४) विकार पैदा करनेवाले वचन न बोलता, (५) द्यूत आदि न खेलना, (६) मधुरनीति से कार्यसिद्धि करना । इन छः शीलों से युक्त श्रावक 'शीलवान' होता है । २. से जहानामए समरगोवा सगा भवंति 1 अभिगय-जीवाजीवा, उवलद्ध-पुष्णा-पावा, आसव-संवर-वेषणा णिज्जरा-किरिया हिगरण-बंध मोक्ख- कुसला, असज्ज -देवासुर-नाग- सुबण्णजक्ख- रक्खस किन्नर किंपुरिए गरुल- गंधव महोरगाइहिं देवगणेहिं निम्गन्याओ पावयगाओ अराइवकमरिगज्जा, इरण ८ - Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवा भाग : पहला कोष्टक मेव निगंथपावयरणे निस्सं किया रिंगकरिखया निवितिगिच्छा लट्ठा गदिमा पुच्च्यिा निमिछम नि । अलि- मिजपेमारगरागरत्ता- "अयमाउसो । निगंथे पाबयणे अटठे, अयं परमरे, सेसे अगाठे-- ।" उसिय-फलिहा, अबंगुय-वारा, अचियत्ते उर-परघर-पवेसा, चाउद्दसट्टमुछिट्ट-पुणिमासिणीसु पडिपुन्न पोसहसम्म अणपालेमारणा समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-वाइम-साइमेरणं वत्थ-डिग्गह-कम्बल-पायपुच्छोणं आसह-भेसज्जेणं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमारणा, बहि सीलव्वय-गुण-बरेमा-पच्चक्खाप-पोसहोववासेहि अहापरिग्गहिएहि तवोकम्मेहि अप्पारणं भावेमारणा विहरति । ते एं एयारूवेणं बिहारेणं बहूई वासाई समरणाबासगपरियागं पाउति पात्तिा आवाहंसि, उप्पन सि वा अप्पन्न सि को बहई भत्ताई अरणसगाए पच्चक्वायंति, बहाई भत्ताई अशासगाए पच्चखाएत्ता, बहूइ भसाई अगामगाए छेने ति, बहुई भत्ताई अगसणार छेइत्ता आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अग्नयेरसु दंब लोग देवत्ताए उववत्तारो भति, तं जहा-महाढिएम महज्जुइएमु जावं महासुक्खेसु । -सूत्रकलांग ७.० २।२।२४ जन्में कि कई श्रमणोपासक होते हैं। वे जीव-अजीव के ज्ञाता, पुण्यपाप के रहस्य के जाननेवाले, आश्वव, मंबर, वेश्ना. निर्जरा, जिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के ज्ञान में कुशल, किगी की सहायता से रहित, इत्र, असर, किन्नर, यक्ष आदि देवगणों के Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज द्वारा निन्यप्रवचन से हटने के लिए बाध्य किये जाने पर, निग्रंथप्रवचन में शङ्का, काक्षा, विचिकित्सा से रहित, अर्थअशय को पाकर, ग्रहणकर, पूछकर निश्चय करनेघाने, जानने वाले, वे अस्थि-मज्जा में निर्गन्थ-प्रवचन के प्रेम से रंगे हुए, उनका कहना है कि-''आयुष्मन् ! यह निर्गन्धप्रवचन ही अर्थ है, परमार्थ है, इसके शिवा शेष व्यर्थ है ।" उनके गृह-द्वारों की अर्गला खुली रहती है अर्थात साधुओं के लिए उनके द्वार खुले रहते हैं । वे दूसरे के अंतःपुर. या घर में प्रवेश करने की लालसा नहीं रखते । वे चउदस, आठम, अमावस और पुनम के दिन प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् पालन करते हैं । श्रमण- निन्थ को मिरवय, शुषणीय वान-पान, मया-गुलवास, वस्त्र पात्र, दवाई, पाट-बाटिए आदि देते हैं और बहुत से शीलयत, गुणवत, विरमणयन, प्रत्यारूयानव्रत, पौषध-उपवास आदि ग्रहण किए हुए तप कर्मों के द्वारा आत्मा को भावित करते रहते हैं । इस प्रकार बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक अवस्था का पालन करके, रोगादि बाधायें उत्पन्न होने या न होने पर, अनदान करके और आलोचना प्रतिनमय करके. शांति से मर कर देवलोक में महद्धिक, महा धुनिवाले पव महामस्तो देवता होते हैं ।। ३. धम्मरयणस्पजोमो, अक्हो हवन पगइसोम्भो। लोनिया अक्कू], भीम असो मुदक्खिनो । लज्जालुओ दयाल, मझत्थो साम्मदिट्टी गुगा रागी । सकह समक्खजुत्तो, सुदीदगी बिनसन्न । बुड्ढाणगो विणीत्रो, कयन्नुभो पहिअत्थ का रा य । तह चब लद्धलक्खो, एगवीसगुणगो हबइ सड्ढो । —प्रबचन सारोद्धार २३६ गाथा १३५६ से १३५८ मशभाषित धर्म के प्रोग्य धावक के २१ गुण कहे हैं। यथा Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग पहला कोष्टक ११ १ अक्षुद्र, २ रूपवान् ३ प्रकृतिसौम्य ४ लोकप्रिय, ५ अक्रूर ६ पापभीरु, ७ अशठ (छल नहीं करनेवाला), सदाक्षिण्य ( धर्मकार्य में दूसरों की सहायता करनेवाला), ६ लज्जावान, १० दयालु ११ राग परहित (मध्यस्थभाव में रहनेवाला), १२ सौम्यष्टिवाला, १३ गुणरागी, १४ सत्मकथन में रखनेवाले श्रमिकपरिवारयुक्त १५ रुचि मुदीचंदर्शी १६ विशेषज्ञ, १७ वृद्ध महापुरुषों के पीछे चलनेवाला, १ विनीत, १६ कृतज्ञ ( किए हुए उपकार को समझनेवाला), २० परोहा करनेवाला, २१ लब्धलक्ष्य (जिसे लक्ष्य की प्राप्ति प्रायः हो गई हो ।) 1 נ Xx Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक-धर्म १. पंचे व अगुवाई, गुरगच्वयाई च हुति तिन्नेब । सिक्वावयाई चउरो, सावगधम्मो दुवालसहा । -भावकधर्म प्राप्ति ६ पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, और चार शिक्षाव्रत-इस प्रकार 'श्रावकधर्म' बारह प्रकार का है। २. अगारि सामाइयंगाई, सड्ढी काएण फासए । पोसहं दुओ पक्खं, एगराय ए हाबए । —उस राष्ययन ५१२३ श्रद्धानु-श्रावक को निःशङ्कित आदि सामायिक के आठों अंगों का पालन करना चाहिए। दोनों पक्षों में अमावस्या-पूर्णिमा को पोषब करना चाहिए, कदाचित् दो न हो सके तो एक तो अवश्य करना ही चाहिए । धावक के प्रकार१. उवासगो दुबिहा, पात, जहा-वती, अवती वा ! --निशीय उ० ११ चूणि उपानक-श्रावक दो प्रकार के होते हैं-- व्रती, और अवती-(सम्यग्दृष्टि ।) ४. नामादि चउभेओ, सहो भावेण इत्थ अहिगारो, तिविहो य भावसड्ढा, दंसगा-वय-उत्तरगुग्गेहि । ----श्राविधि गाथा ४ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग : पहला कोष्टक १ नामश्रावक, २ स्थापनाश्रावक, ३ व्यथावक, ४ भावश्रावक, इस प्रकार श्रावक के चार भेद है। यहां भावभावक का अभिगार भाष श्रावक के तीन प्रकार .... १ दर्शनपानक-ऋष्ण-णिक आदिवत् अवनीसम्बगद्दष्टि, २ अती श्रावक-पाँच अणुव्रतधारी, ३ उत्तरगुणाश्रानक-सम्पूर्ण बारहात धारण करनेवाला । ५. चवदं नुक्यो बारह भूल्यो, नहीं जारणं छः काया का नाम । गाँव ढगे फेरियो, श्रावक म्हारो नाम । -राजस्थानी दोहा ६. चतारि समगमोवासगा एणरणत्ता, तं जहाअम्माघि इसमाणे, भाइस माणे, भित्तममारणे, सवत्तिसमाण । -स्थानान ४।३।३२१ चार प्रकार के श्रावक कहे हैं-- १ माता-पितासमान-एकान्त में हितशिक्षा देकर साधुओं को सजग करनेवाने । २ भाईममान-साधुओं को प्रमादी देवकर वाहे ऊपर से क्रोध भी करे, किन्तु हृदय में हित की इच्छा करने वाले । ३ मित्रममान-साधुओं के दोषों की उपेक्षा करया यावल गुण की जेनेवाले । ४ सालीसमान-माधुओं के छिद्र देखनेवान्ने । चतारि समलोवासगा पत्ता, तं जहाअदागसमायो, यहागरामाणे, खाणुसमाणे, ग्ब रकटसमागे । -स्थानाङ्ग ४।३।३२१ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १ कला के बीज २ बार प्रकार के कई है--- दर्पण-समान-साधु के बताये हुए तत्व को यथावत् प्रतिपादन करनेवाले | पताका-समान-बजावत् हवा के साथ इधर-उधर खींचे जानेवाले अग्रिमस्ति के । ३ स्थाणु-समान-सूखे लकड़े की तरह कठोर — अपना कदाग्रह नही छोड़नेवाले | कण्टक-समान-समझाने पर भी न मानकर कुवश्चम रूप-काँटा भानेवाले * Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक के विषय में विविध श्रावक के चार विश्राम१. समरणोबारागारम चत्तारि अप्स'मा IT = जना...या विव ां सीलव्यय-गुणब्धय-वेरमण-पनवाण-पोसहोववासाई पहिवऊनई, नत्थ वि य गे गगे आमामे पन्ननं । जत्थ बियणं मामाइ दसावगामियं मम्मपालेड, नत्थ वि य मे एगे आसाने पन्नन । जन्थ वि य ग चाउमट्ट विट्ठप्रथिनामिनीस पडिपु पोसह मम्मं अणुपाल इ. नत्थ वि य से एमसारी पन्नत्त । जत्य वि य ग अमक्ट्रिममारपंतियसले हरा-भसाझमिाए भत्तपाडिया इशिवार पाओवगए कालमरावतमागी बिहाइ, नन्ध वि य से एगे आमासे पन्नत्त । – स्थानाङ्ग ४।३।३१४ भारवाहक की भाँति श्रावक के नार विधाम हैं--- १ जिम सम्य थावक पांच अगसत, तीन गुणवत, नवकारसी आदि प्रवाश्यान तथ। अष्टमा-परदेशी आदि के दिन उपवास धारण करता है, उस समय प्रथम विश्वाम होता है। जब श्रावक सामायिक एवं देशाववाशिक ब्रत का पालन करता है, तब दूसरा विश्राम होता है । ३ चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पुणिमा आदि पर्व-तिथियों Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज में जब श्रावक राम-दिन का पूर्ण पौषध करता है, तब तीसरा विधाम होता है ।। ४ जब मारणान्तिक गंलेखणा-नप धारकर यान जीवन आहार पानी का त्याग करके स्थिरता में मरण की बांदा न करता हुआ विचारता है, तब नौथा विथाम होता है । (भारवाहक पहले विथाम में भार एक कंधे मे दुसरे को पर लेता है, दुगरे विश्वाम' में उसे उतारकर मल-मूत्र का त्याग करता है, तीसरे विश्राम में नाग आदि के मंदिर में बहाता है और चौथे विश्राम में भार को जहाँ पहुंचाना होता है, वहां पहुंचाकर मुफ्त होता है।) श्रावक के तीन मनोरथ२. तिहि ठाणेहि समणोत्रासए महानिजरे महापज्जवसाणेभनइ. तं जहा-कया।महमप्पं का बहुं वा परिगहं परित्र इस्मामि । कन्याएं अहं मुंडे भविता आगाराओअरणगारियंपवइरसामि। कयाणं अहं अपच्छिम-मारणतिय-सलेहणाभूसणाझसिए भत्तवाणपडियाइविखए पाओवगए कालमरणवकखमाणे विहरिस्सामि, एवं समगासा, सवयसा, सकायसा, जागरमाणे समणोबासए महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । -स्थानात ३।४।२१० निम्नलिखित तीन मनोरथों का चिन्सन करता हुआ श्रावक महानिर्जरा एवं महापर्यवसान-समाधिमरणवाला होता है-(१) कन्न मैं थोड़ा या बहुत परिग्रह का सर्वथा त्याग करूंगा, (२) कब मैं गृहवाम को छोड़ एर्य मुण्डित होकर गाधु वनगा तथा (३) कब मैं संलेखना-संथारा करके मरण की इच्छा न करता हुआ रिभरता से विचरूगा? Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पाँचवां भाग : पहला कोष्टक ३. श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं एक्कारस उवासगपडिमाओं पणत्ताओ, तं जहा-बसणसावए, कयन्त्रयकम्मे, सामाइअकडे, पोसहोववासनिराए, दिक्षाबंभयारी रत्तिपरिमाणकडे, विआ वि राऔ बि बंधारी, असिगाई विडाइभाई गोलिकडे, सचित्तपरिणाए, आरम्भपरिणाए, पेरू परिणाए, उद्दिभत्तपरिणाए, समभूए आबि भवइ समन उत्तो ! '--" " प्रतिमा का अयं प्रतिज्ञा है । धायक के लिए ग्यारह प्रतिमाएं कही हैपहली प्रतिमा में श्रावक शट्रा-काक्षादि दोषरहित सम्यकत्व का पालन करता है। धूसरी प्रतिमा में श्रावक अरणुनत-गुणवत का विधिवत् पालन करता है । तीसरी प्रतिमा में शावक दोनों वक्त सामायिक एवं शावकाशिक का आगमन करता है । चौथी प्रतिमा में श्रावक गर्व के दिनों में पूर्णपोषध करता है। पाँची प्रतिमा में धावक दिन में पूर्ण ब्रह्मचारी एवं रात को मयांदासहित ब्रह्मचर्य का पालन करता है। छठी प्रतिमा में श्रायक दिन-रात पूर्ण ब्रह्मचारी रहता है, स्नान एवं रात्रिभोजन का सर्वथा त्याग करता है और कच्छ नहीं बांधता । सातवी प्रतिमा में श्रावक मचित्त-आहार का त्याग करता है । आठवीं प्रतिमा में श्रावक आरम्भ-समारम्भ का त्याग करता है 1 नववी प्रतिमा में श्रावक नौकर आदि से भी आरम्भ नहीं करवाना । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बोज दसवीं प्रतिभा में श्रावक अपने लिए बनाया हआ भोजन नहीं करता। कोई हजामत करवाता है एवं कोई शिस्या भी रखता है। घरसम्बन्धी कार्यो के विषय में पूछने पर मैं जानता हूं या नहीं जानला इन दो वाक्यों में ज्यादा नहीं बोल सकता । ग्यारहवीं प्रतिमा में श्रावक साधु के समान वेप धारण करता है एवं प्रतिलेखन आदि क्रियाएं करता है, लेकिन सांसारिक प्रेम व अपमान के भय में अपने स्वजन-सम्बन्धियों के घरों से ही मिक्षा लेता है तथा क्षुर में कामत करता है और कोई-कोई साधु की तरह लोन भी करता है। श्रावक श्री रूपचन्दजीजन्म १६२३ जेठ सुदी १७, स्वर्गवास १६८३ फाल्गुन सुदी ७, एक घंटा पांच मिनट का संथारा । स्नान में पान सेर जल, घटातेघटाते अन्न में ४५ तोला रथा । रेल में जलपान भी नहीं, वि. म, १९७२ के बाद रेल का त्याग । छत्ता नहीं , शयन में किया नहीं । जबान के पाबन्द, स्पष्टवक्ता, नपाड़ा ५६ हाथ, सामायिकपौषध में प्रायः फिरते नहीं , . महाग लने नहीं। सामाणिक अन्तिम दिन तक, आचार्य डासगणी की विशेष कृपा। -'भाषक रूपचन्दजी पुस्तक से Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक १. समानि ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि, तेषु अयन-गमनं समायः, स एव सामाबिकम् । मोक्षमार्ग में साधन शान-दर्शन-चारित्र सम कहलाते हैं उनमें अयन यानी प्रवृत्ति करना सामायिक है। समभावो सामाऽयं, लण-कंचरण-सत्त-मित्त विसउ त्ति । गिरभिस्संग चित्त, चियपवित्तिप्पहारगं च । -पंचाशक चाहे तिनका हो, चाहे सोना, चाहे शत्रु हो, चाहे मिथ, मर्वत्र अपने मन को राग-द्वेष की आसक्ति से रहित रखना तथा पापरहिन वित्त धार्मिक प्रवृत्ति करना, 'सामायिक' है; समभाव ही सामायिक है। ३. समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभ-कामना । आर्त रौद्र परित्याग-स्तुद्धि सामायिक व्रतम् ।। सव जोवों पर समता-समभाव रखना, पाँच इन्द्रियों का संयमनियंत्रण करना, अन्तर्ह दय में रामभावना शुभसंकल्प रखना, आर्त-रौद्र दुयानों का त्याग करके धर्म ध्यान का चिन्तन करना 'सामायिक' है। ४. त्यक्तात-रौंद्र ध्यानस्य, त्यक्तसावधकर्मणः । मुहर्त समता या तां, विदुः सामायिक बतम् ।। -योगशास्. २८२ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतृत्वकला के बीज आध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करके सथा पापमय कर्मों का त्याग करके मुहूर्त-पर्यन्त प्रभाव में रहना सामायिकावत' है । ५. सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिलेवणं च ।, ....आवश्यक-अयचूरि सावद्य अर्थात् पापजनक कर्मों का त्याग करना और निरवा अर्थात 'पापरहित कार्यों को स्वीकार करना 'मामायिक' है । आया सामाइए, आया सामाइयरस अटे। -भगवती १६ हे आर्य ! आत्मा ही गामाथिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ-फल है। सामायिक का महत्त्व७. सामाइय-म उ कए, समग्गो इव सावओ हवइ जम्हा । एए कारणोणं, बहुमो सामाइयं कुज्जा ।। -विशेषावश्यक-भाष्य २६६० –तथा आवश्यफ-नियुक्ति ८००।१ सामायिकब्रत भलीभांति ग्रहण करलेने पर धावक भी साधु जैसा हो जाता है, आध्यात्मिक-उसनदशा को पहुंच जाता है; अतः श्रावक का कर्ताक्य है कि वह अधिक से अधिक सामायिक करे | 5. सामाझ्य-वय-जुत्तो, जात्र मणो होइ नियमसंजुत्तो। छिन्नद्द असुहे कम्म, मामाइय जसिया बारा ।। -आवश्यकनियुक्ति २००२ चंचल मन को नियंत्रण में रखते हए जब तक सामायिक व्रत की । अवण्डधारा चालू रहती है तब तक अशुभकम बराबर भी होते रहते हैं। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनियां भाग: पहला कोष्ठक ६. जे के वि गया मोक्खं, जेबि य गच्छति जे गमिस्सति । ते सव्वे २१ सामाइय प्रभावेण मुषेयं ॥ जो भी साधक अतीतकाल में मोक्ष गये हैं, वर्तमान में जा रहे है और भविष्य में जायेंगे, यह सब सामायिक का प्रभाव है । तवेरां, कि जवेखं किं चरित े । १०. कि तिब्बे समधाइ विण मुक्खो, न हुहुओ कवि न हु होइ ॥ - सामायिक प्रवचन, पृष्ठ ७६ चाहे कोई कितना ही सी तप तपे, जप-जग अथवा मृनि वेष धारण कर स्कूल क्रियाकाण्डरूप चारित्र पनि परन्तु समताभाष रूप सामाजिक के बिना न किसी को मोक्ष हुआ है और न होता । * Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक के विषय में विविध /१. सामायिक के अधिकारी जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेगु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केलि भासियं ।। जस्स सामाणिनी अप्पा संजमे रिणयमे तवे । तम्स सामाइयं होइ, ३६ केबलि - भासियं ।। जो साधक त्रस-स्थावररूप सभी जीत्रों पर गभाव रखता है, उसी का सामायिक शुद्ध होता है-सा केवली-भगवान ने कहा है। जिसकी आत्मा मंयम, नप और निवग में मंलग्न हो जाती है; उमी का सामायिक शुद्ध होता है-ऐसा क्षेवली-भगवान ने “२. सामायिक के भेद दुबिहे सामाइप पराते, तं जहा- आगारसामाइए सेब, अरणगारसामाइए चेव । -स्थानाङ्ग २।३ सामयित्र दो प्रकार वा कहा है (१) आगारसामायिक और (२) अनगार सामायिक । ३. सामायिक के अतिचार एयरस नव मम्म सामाझ्यवयस्म, पंच अड्यारा जाणियन्वा, न समारियब्वा, तं जहा-मरण-दुप्पणिहाम्गे, बय दुप्प Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग : पहला कोष्ठक रिगहाणे, काय दुष्पगिहाणे , समाइयस्स सइ-अकराया, सामाझ्यस्स बणवद्वियम्सा करणया, तस्स मिच्छामि दुक्कई । -श्रावक-आवश्यक इस नौवें सामाणिकवत के पांच अतिचार जानने योग्य हैं, लेकिन धायक के लिए वे आचरने योग्य नहीं । यथा१ मन की दुष्प्रवृत्ति, २ वचन की दुष्प्रवृत्ति, ३ काया की दुष्प्रवृत्ति, ४ सामायिक की स्मृति न रखना, ५ सामायिक को जन्यवस्पित करना। ४. सामायिक के ३२ दोष १. मन के इस दोषअविकक जसो-कित्ती, लाभत्थी गच्च-भय नियारात्थी । संसबरीस अधिओ, अवहुमागए दोसा भारिणयवा ॥ १ अविवेक, २ यश-कीर्ति, ३ साभार्थ ४ गर्व ५ भय ६. निदान ७ संशय ८ रोष ६ अविनय १० अबहुमान । २. वचन के दस दोष-- कृत्रयण सहसाकारि, सच्छंद-संखेन कन्नई. च । विगहा बिहासोऽसुक्ष, निरवकालो मुगमरणा दस दोसा । १ कुवचन , २ महसाकार , ३ सच्छन्द , ४ संक्षेप , ५ बालह, ६ निवाथा, ५ हाम्य, ८ अशुद्ध, निरपेक्ष, १. मुम्मन । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ३. काय के बारह दोषकुआसणं चनासणं चलाहिटी, सावज्जकिरिया-लंबा -चरण-पसारणं च । आलस मोडन-मल-विमासणं , निद्दा वेगाबच्चत्ति, वारस कायदोसा ॥ सामायिकप्रवचन, पृष्ठ १२ १ कुआसन, २ चलासन, ३ जनदृष्टि, ४ मावध क्रिया, ५ आलंबन, ६ माबुञ्चन-प्रगारण, ५ आलस्य. ८ माड़न है मल, १० विमासन, ११ निद्रा, १२ देवावृत्य । (इनका विवेचन देखो आवक धर्मप्रकाश पुंज में) Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक का प्रभाव १. गीदड़बाहा का एक जनश्रावक मानसामंडी से १८ हजार रुपये लेकर बस में जा रहा था ! डाकू मिले और बोले दिखाओ सब अपना-अपना सामान ! श्रावक ने मुंहपत्ति पूंजनी एवं माला दिखाकर कहा- मेरे सामयिक का नियम है । डाकू बोले- मुंहापट्टिए का चेला है । ये साधु अच्छे होते हैं, यों कहकर धावक को छोड़ दिया-अन्य सभी को लूट कर धन-माल ले गये। उदयमाव सुराना का पन्ने का कंठा एक आदमी ले गया । समता रखी। फिर सामायिक करते समय एक दिन वापिस पहना गया । डाकू आनेवाले थे, घर के सब द्वार खोलकर सेठ ने सपरिवार सामायिक ले लिया। साधु समझकर डाकू वापस दौट गये। र. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम को सामायिक १. सामायिक में समता भात्र, गुड़ की भेली कुत्ता खाय । -राजस्थानी कहावत ७ सास घर में सामायिक कर रही थी । इतने में एक कुत्ता आया । बहू ने ध्यान नहीं दिया । सास से रहा नहीं गया और नवकार-मंत्र का जाप करती हुई कहने लगीलंबड़ पुंछो लंका पेटो घर में पेठोजी ! णमो अरिहंताणं । बहू समझ तो गई, लेकिन कुत्ते को न निकाल बार अपना काम करती रही। कुत्ता रसोई में घुसने लगा। तब सास ने कहाउज्जलदन्तो काबरचित्तो रसोई को किंवाड़ खोल्यो जी ! णमो सिद्धाणं। फिर भी बहू ने गौर नहीं किया | सास पुनः बोलीदूध-वहो रा चाडा फोड्या घी के चाई क्योजी ! णमो आयरिआणं । इतने पर भी अह नहीं आई, तब झंझलाकर सास ने फिर कहाउजाड़ तो इण बहलो कीधो बयर भेद न पायोजी ! णमो उयज्झाया। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : पहला कोष्ठक २७ आखिर हंस कर बह ने इस प्रकार मंत्र की पूर्ति कीसामायिक तो मारे पिहरे भी करता पण आ किरिया नहीं वेखीजो ! णमो लोए सवसाहणं । सेठ सामायिक कर रहे थे । बहू घर में काम कर रही थी। बाहर में सेठ को पूछता हुआ एक आदमी आया । बह ने कहा-मोठजी मोची की दुकान पर जूते खरीद रहे हैं। जाकर देखा तो वहां न मिले। वापिस आकर पुछा । उत्तर मिला कि अब कपड़े की दुकान पर कपड़ा देख रहे हैं । वहां जाकर भी खाली आया । बहू बोली-वे तो इन्कमटेक्स के दफ्तर में गये हैं। इस प्रकार आगन्तुक को कई जगह धुमाकर अंल में कहने लगी अब सेठजी सामायिक कर रहे हैं। इतने में सेठ सामायिक करके बाहर आये । और बहु पर कद्र होने लगे । बहूँ ने विनम्र शब्दों में कहानिनाजी ! केवल मुंह बांधने से सामायिक नहीं होती, बतलाहार आप सामायिक करते समय मन से मोची आदि के यहां गये थे या नहीं ! सेठजी चुप रहे क्यों कि वास्तव में बहू का बात सत्य थी। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषध १. पोषं धर्मस्य धत्ते यत्, तद्भवेत् पौषधवतम् । --उपदेशप्रासाद जो अत धर्म को पुष्ट बनाता है, उसे पंधमाल से हैं। २. आहार-तनुसत्कारा-ब्रह्म-सावद्यकर्मणाम् , त्यागः पर्वचतुष्टय्यां, तहिदुः पोषधवतम् । __ -धर्मसंग्रह ११३७ आहार. शरीर का सत्कार, अब्रह्मचर्य, और सायनकार्य-चारों पवं निथियो (अष्टमी, नतुर्दशी, अमायस्य और पूर्णिमा) में इन सबका त्याग करना पौषधक्षत है। ३. बौद्ध परम्परा में पौषध की भाँति उपोसथ का विधान है। बुद्ध के अनेक भक्त (उपासक) अष्टमी चतुर्दशी, अमात्रम्या और पुणिमा को उपोसाथ किया करते थे। (देखेंपेटावत्थु अदुकथा गाथा २०६ तथा विनयपिटक महावग्ग उपोसथ में उपासक निम्न आट शीलका पालन करता है-- (१) प्रामातिपात-विति, (२) अत्तादान-विरति, (:) काय भावना विर!त, (४) मृपावाद-विति, i५) मादक द्रव्यों का सेवन नहीं करना, १६! निकाल भोजन नहीं करना, ७) भूप, गीत, शरीर की विभूषा आदि नहीं करना, (4) उन्नान नथा सजीधगी शरभा का त्याग करना । -आगम और त्रिण्टिक : एक अनुशीलन पृष्ठ ६५५, Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ तप . तापयति अप्टप्रकार करें इति तन:। -अावश्यक मलयगिरि खण्ड २ अ. १ जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, उसका नाम 'सप' है। २. इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठान तप । -नीतिवाक्यामृत १।२२ पाँच इन्द्रिय (स्पर्शन-मना-प्राण-वन-श्रोत्र) और मन को वश में करना या बढ़ती हुई लालसाओ को रोकना तप है। ६. थेदस्योपनिषत् सत्य, सत्यस्योपनिषद दमः । दमस्योपनिषद् दान, दानस्योगनिषत् तरः ।। --महाभारत शान्ति पर्व अ० २५४११ वेद का सार है सत्य वचन, सत्य का सार है इन्द्रियों का संयम, संयम का सार है दान और दान का सार है 'तपस्या' । तपो हि परमं श्रेयः , संमोहमितरत्मरत्रम् । -वाल्मीकि रामायण ७/८४१४ तप ही परम कल्याणकारी है । तप से भिन्न सुख मो मात्र बुद्धि के सम्मोह को उत्पन्न करनेवाला है। ५. तपस्या जीवन की सब से बड़ी कला है । गांधी ६. परक्कमिज्जा तवसंजमंमि । -दशवकालिक ८४१ तप-संयम में पराक्रम करना चाहिए । २४ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप से लाभ १. तधेरण परिजभाइ । ---उत्तराध्ययम २८।३५ तपस्या मे आत्मा पवित्र होती है। २. सवेरग बोदार जणयइ । -उत्तराभ्ययन २२७ तपरया से ध्य प्रदान अर्थात् कर्मों की शुद्धि होती है। ३. भबकोडीसंचियं काम्म, तवसा निजरिज्जइ । -उसराध्ययन २०१६ करोडों भवों के संचित कर्म तपस्या से जीर्ण होकर झड़ जाते हैं । तपसा प्राप्यते सत्त्वं सत्त्वात् संपाप्यते मनः । मनसा प्राप्यते त्वात्मा, ह्यात्मापत्त्या निवत ने ।। –मैत्रायणी आरण्यक १४ तप द्वारा सत्त्व (ज्ञान) प्राप्त होता हैं, सत्त्व से मन वश में आता है, मन वश में आने से आत्मा की प्राप्ति होती है और आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर संसार से छुटकारा मिल जाता है । ५. तपसव महोग्ने रण, यदुरापं तदाप्यते । -योगवाशिष्ठ ३।६८३१४ जो दुष्प्राप्य वस्तुएं हैं, वे उग्रतपस्या से ही प्राप्त होती हैं । ६. यदुस्तरं यदुरापं, यदुर्ग यच्च दकरम् । सर्व तु तपसा साध्य, तपो हि द रतिक्रमम् ।। -मनुस्मृति १११२३० Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : पहला कोष्ठक जो दुस्तर है, दुष्प्राप्य है, दुर्गम है, और दुष्कर है--वह सब तप द्वारा सिद्ध किया जा सकता है, क्योंकि तप दुरतिक्रम है । इसके भागे कठिनता जैसी कोई चीज नहीं है । ७. तपसा च कृतः शुद्धो, देहो न स्यान्मलीमसः । -हिंगुलप्रकरण तपस्या से शुद्ध किया हुआ शरीर फिर मला नहीं होता। ८. तवसा अवहट्टलेस्सस्स, सरगं परिसुज्झइ । -वशाच स स्कन्ध ५५६ तपस्या से लेश्याओं को संवृत करनेवाले व्यक्ति का दर्शनसम्परत्व परिणोधित होता है । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ / १. बसं थामं च पेहाए, सद्धामारोगमध्यां । खेत काल च विशाय तप्पाणं निजुजए | तप कैसे और किस लिये ? 1 - वशकालिक ८३५ अपना बल, हुड़ता श्रद्धा आरोग्य तथा क्षेत्र काल को देखकर आत्मा को तपश्चर्या में लगाना चाहिए । | २. तदेव हि तपः कार्य, दुयनिं यत्र नो भवेत् । ये न योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नन्द्रियाणि च । - तपोष्टक (यशोविजयकृत) तपसा ही करना चाहिए, जिसमें दुर्ष्यानि न हो, योगों में हानि न हो और इन्द्रियां क्षीण न हों ! | ३. नन्नत्थ निज्जरस्याए तवम हिज्जा | केवल कर्म-निर्जरा के लिए तपस्या करना लोक व यशःति के लिए नहीं । ४. लो पूयणं तवसा मावहेज्जा । - दशकालिक हा४ चाहिए। इहलोक -पर - सूत्रकृतांग ७।२७ तपस्या द्वारा पूजा की इच्छा न करनी चाहिए | ३२ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गचिवा भाग : पहला कोष्टक ५. तेसि पि न तवो सूद्धो । -सूत्रकृतांग ॥२४ जो कीर्ति आदि की कामना से तप करते हैं, उनका तप शुद्ध नहीं है। ६, न हु बालतवेग मुक्खुत्ति । आमासंग नियुक्ति २१४ अज्ञान-तप से कभी मुक्ति नहीं मिलती। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तप के भेद १. सो तवो दुविहो वुत्तो. बाहिरभितरो तहा । बाहिरो छन्विहो वुत्तो, एवमभितरो तवो ।। -उत्तराष्पयन ३०१८ तप दो प्रकार का है—बा और आभ्यन्तर | बाह्यतप अनशन आदि छः प्रकार का है एवं आभ्यन्तर तप के प्रायश्चित्त आदि ष्ठः भेद हैं। अगसणगोयरिया, भिमवायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीरगया य, वज्झो तवो होइ । पायच्छिा विगणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्मग्गो, एस अभितरो तवो। -उत्तराष्पयन ३० बाह्म तप के छः भेद हैं- १ अनशन, २ कनोदरी, ३ भिक्षाचरी, ४ रसपरित्याग, ५ कायक्लेश, ६ प्रतिसंलीनता । आभ्यन्तरतप के छ, भेद हैं- १ प्रायश्चित्त, २ विनय, ३ यावृत्त्य, ४ स्वाध्याय, ५ ध्यान, ६ कायोत्सर्ग । ३. देव-द्विज-गुरु-प्राज्ञ-पूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च, शारीरं तप उच्यते ।। १४ ।। अनुव गकर वाक्यं, सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाम्यसनं चव वाङ्मयं तप उच्यते ।। १५ 11 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौवां भाग : पहला कोष्ठक ___३५ मनःप्रसाद : सौम्यत्वं , मौनमात्मयिनिग्रहः । भावमशुद्धिरित्येतत्, तपो मानसत्रुच्यत ।। १६ ॥ श्रद्धया परया तप्तं, तभस्तत्रिविधं नरेंः । अफलाकाइ क्षिभियुक्तः सात्त्विकं परिचक्षते ।।१७।। सत्कारमानपुजार्थ, तपो दम्भेन चैव यत् । क्रियते तदिह प्रोक्त, राजहां चलमध्रुवम् ॥ १८ ।। मुदाग्रहेणात्मनो यत्, पीया क्रियते तपः । परस्योत्सादनार्थ वा, तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १९ ॥ -नाता १७ देवता. ब्राह्मण, गुरु एवं ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा--ये शारीरिक तप है । दूसरों को उद्विग्न न करनेवाले सत्य, प्रिय हितकारी वचन और मन्-शास्त्रों का अध्ययन-वाधिका-वाणो का) तप कहलाता है। मन की प्रसन्नता, शांतभाव, मौन, आत्मसंयम और भावों की पवित्रता मानसिक-मन का) सप कहा जाता है। पूर्वोक्त तीनों प्रकार का तप यदि फल की आकांक्षा किए बिना परम श्रद्धापूर्वक किया जाए तो वह सात्विक कहलाता है। यदि वह तप सत्कार, मान एवं पूजा-प्राप्ति के लिए दंभपूर्वक किया जाए तो वह राजस कहा गया है, उसके फलस्वरूप क्षणिकभोतिक मुल मिल जाता है। अविवेकियों द्वारा दुराग्रहवश जो शरीर को पीड़ित किया जाता है अथवा दूसरों का नाश करने के लिए जो तप किया जाता है वह सामस कहा गया है। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ १. तपोनानशनात् परम् । अनशन यदि परं तपस्तद् दुर्वर्षम् तद् दुराधर्षम् || - मंत्रायणी आरण्यक १०।६२ अनशन से बढ़कर कोई तप नहीं है, साधारण साधक के लिए यह परम तप दुर्धर्ष है अर्थात् सहन करना बड़ा ही कठिन है । २. आहार पच्चक्खाणं जीवियासंसप्पओगं बोच्छिद । - उत्तराध्ययन २६/३५ जीच आशा का व्यवच्छेद छूट जाता है । आहार प्रत्याख्यान अर्थात् अनशन से करता है यानी जीवन की लालसा से ३. विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । - गीता २१५६ आहार का त्याग करनेवाले व्यक्ति से शब्दादि इन्द्रियों के विषय निवृत्त हो जाते हैं । + ४. अणस दुविहे पण्णत्त तं जहा - इत्तरिए य, आवकहिए य इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा -- चउत्थे भत्त छट्ठे भक्त....... जाव छम्मा सिए भत्त....। आवकहिए विहे पण ते तं जहा- पाओवगमणे य, भत्तपच्चक्खाणं य । - भगवती २५-७ ३६ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग पहला कोष्ठक अनशन - आहार त्याग दो प्रकार का कहा है(१) इत्aरिक (२) यावत्कथिक । ३७ इत्वरिक के अनेक भेद हैं— चतुर्थभक्त - उपवास, पष्ठभक्तबेला........यावत् पाण्मासिकभक्त (छ महिनो का तप ) | यावत्कयिक —— यावज्जीवन आहारत्याग दो प्रकार का कहा है(१) पादपोपगमन ( २ ) भक्त प्रत्याख्यान । ५. जो सो इत्तरिओ तवो, सो समासे छवि हो । सेढितो परतवो चरणो य तह होइ वग्गो य ।। १० ।। ततो य वग्गग्गो पंचम छुट्टओ पइराणतवो । मरणइच्छित्तत्थो, नायब्बो होइ इत्तरिओ ॥ ११ ॥ — उत्तराध्ययन अ० ३० इरिक तप संक्षिप्त रूप में हार का है--- (१) श्र ेणितप (२) प्रतरतप, (३) घनतप, (४) वर्गतय, (५) वर्ग - वर्ग, (६) प्रकीर्णतय - यह इत्वरिक तन मन इच्छित फल देनेवाला है । , ६. संबंच्छरं तु पढमं मज्झिमगाराट्ठमा सिय होई । छम्मासं पच्छिमस्स उ माणं भरिष्यं तदुक्कोसं ॥ -- व्यवहारभाष्य उ० १ प्रथमतीर्थकर का एक वर्ष मध्यतीर्थ करों का अष्टमान एवं चरमतीर्थ कर का उत्कृष्ट तप षट्मास था । J ¤ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ उपवास १. चतुर्विधाशनत्याग उपलायो मतो जिनः । —सुभाषितरत्न-संबोह अशन आदि चारों प्रकार के आहार का त्याग करना भगवान के द्वारा उपवास माना गया है । उपवासः स विज्ञ यः, सर्वभोगविवजित : । -मार्गशीर्ष-एकादशी सभी भागों का त्याग करना उपवास नामक व्रत है। ३. आरोग्य रक्षा का मुख्य उपाय है उपवास । ४. मर्यादा में रहकर उपवास करने से बहुत लाभ होता है । ५. साधु एक उपवास में जितने कर्म खपाला है, उतने कर्म हजारों वर्ष में भी नरक के जीव नहीं खपा सकत । बेले में साधु जितने कमों का नाश करता है, नारक-जीव लाखों वर्षों में उत्तने कर्म नहीं खपा सकते । साधु तेले में जितनी कमनिर्जरा करता है, नारक-जीव उतनी कर्मनिर्जग करोड़ों वर्षों में भी नहीं कर सकते । साधु चोले में जितने कर्म नष्ट करता है, नारक-जीव कोटि-कोटि वर्षों में भी उतने कर्म नष्ट नहीं कर सकते। -भगवती १६४ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : पहला कोष्ठक ६. (क) उपवास से पहले तीन बातें मत करो-- (१) गरिष्ठ भोजन, (२) अधिक भोजन, (३) चटपटा सुस्वादु भोजन । (ख) उपवास में तीन बात मत करो। (१) क्रोध, अहंकार, ३) निन्दा । (ग) उपवास में तीन बातें अवश्य करो! १ ब्रह्मचर्य का पालन, २ शास्त्र का पठन, - ३ आत्म-स्वरूप का चिन्तन । (घ) तीन को उपवास नहीं करना चाहिए १ गर्भवती स्त्री को, २ दूध पीते बच्चे की माता को, ३ दुर्बल-अजीर्ण के रोगी को ! –'तीन बाते' नामक पुस्तक से Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रायश्चित्त १. प्रायः पापं विनिर्दिष्टं, चित्तं तस्य विशोधनम् । -धर्मसंग्रह ३ अधिकार यः का अर्थ 'पाप है 37 हा या प्राणाप का शोधन करना है अर्थात् पाप को शुद्ध करनेवाली क्रिया का नाम प्राय श्चित्त है। २. अपराधो वा प्रायः चित-शुद्धिः प्रायस चित्तं प्रायश्चित्तंअपराध-विशुद्धि । -राजवातिक ।२२।१ अपराध का नाम प्रायः है और चिता का अर्थ शोधन है। प्राय शिवना अर्थात् अपराध की शुद्धि । ३. पावं छिदइ जम्हा, पायच्छित्तति भण्णा तेणं ।। -पंचाशक सटीक विवरण १६॥३ पाप का छेदन करता है अतः प्राकृत भाषा में इसे 'पायच्छित्त' कहते हैं। प्रायइत्युच्यते लोक-स्तस्य चित्तं मनो भवेत् । तच्चित्त-ग्राहकं कर्म, प्रायश्चित्तमिति स्मतम् ।। –प्रायश्चित्तसमुच्चयवृत्ति प्रायः का अर्थ लोफ-जनता है एवं चिन्ता का अर्थ मन है। जिस क्रिया के द्वारा जनता के मन में आदर हो, उरा क्रिया का नाम प्रायश्चित्त है। ४० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग पहला कोष्ठक ५. पाप की शुद्धहृदय से मान लेना भी प्रायश्चित्त है । गांधी जी ने कर्जदार से तंग आकर एक बार घर से एक तोला सोना चुराकर कर्ज तो चुका दिया, किंतु चोरी के अपराध से हृदय झुलसने लगा । लज्जावश सामने कहने का साहस न होने से पिता को एक पत्र लिखा एवं भविष्य में ऐसा काम न करने का दृढ़संकल्प किया । पिता ने माफी दे दी । ६. प्रायश्चित्त की तीन सीढ़ियाँ होती हैं- १ आत्मग्लानि २ पाप न करने का निश्चय, ३ आत्मशुद्धि | प्रायश्चित से लाभ ' ४१ सुत्नेव वगाली १. पायच्छित करणेणं पावकम्मविसोहि जायद, निरइयारे यादि भवइ । सम्मं च गं पायच्छिां पडिवज्जमाणे मग्गं चमग्गफलं च विसोहेइ, आयारं च आयारफलं च आराहे। -- उत्तराम्ययम २६।१६ प्रायश्चित्त करने में जीव पापों की विशुद्धि करता है एवं निरतिचार निर्दोष बनता है। सम्यक् प्रायश्चित्त अंगीकार करने से जीव मम्यक्त्व एवं सम्यक्त्व के ज्ञान को निर्मल करता है तथा चारित्र एवं चारित्रफल - मोक्ष की आराधना करता है । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रायश्चित्त के भेद १. पाय दसबिहे पण्णत्ते तं जहा-- आलोयणारिहे परि तदुभयारिह, विवेगारि, त्रिउसग्गारिहे, तवारि, शरि, मूलारिह, अवटुप्पारिहे पारंचियारिहे। स्थानाङ्ग १०।७३० तथा भगवती २५|७७६६ प्रायश्चित्त के दस मेद कहे हैं १ आलोचना, २ प्रतिक्रमणाहं ५ व्युत्सर्गार्ह, ६ तपाईं, ७ छेदाहं, १० पाञ्चिका । तदुभयाहं, ४ विवेकार्ड, मूलाई अनवस्थाप्यार्ह, 3 (१) आलोचना संगम में लगे हुए दोष को गुरु के समक्ष स्पष्ट वचनों से सरलतापूर्वक प्रकट करना आलोचना है। आलोचना मात्र से जिस दोष की शुद्धि हो जाए, उसे आलोचनार्ह दोष कहते हैं । ऐसे दोष की आलोचना करना आलोचना ईप्रायश्चित है। गोवरी - पञ्चमी आदि में लगे हुए अतिचारों की जो गुरु के पास बलोचना की जाती है, वह इसी प्रायश्चित्त का रूप है। ● (२) प्रतिक्रमणा किए हुए दोष से पीछे हटना अर्थात् उसके पश्चाताप स्वरूप मिच्छामिges "मेरे पाप-मिया (निष्फल ) हों" ऐसी ४२ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग पहला क ४ भावना प्रकट करना प्रतिक्रमण है। हां तो जिस दोष की मात्र प्रतिक्रमण से (मिच्छामिदुक्कडं कहने से ) शुद्धि हो जाए, वह प्रतिक्रमणार्ह दोष एवं उसके लिए प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमणाहं प्रायश्चित है। समिति गुप्ति में अकस्मात् दोष लग जाने पर 'मिच्छामिदुक्कड' कह कर उक्त प्रायवित्त लिया जाता है। फिर गुरु के पास आलोचना करने की आवश्यकता नहीं रहती । (३) तदुभयाहं आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करने से जिस दोष की शुद्धि हो उसके लिए आलोचना-प्रतिक्रमण करना तदुभयाप्रायश्चित है। एकेन्द्रियादि जीवों का संघट्टा होने पर साधु द्वारा उक्त प्रायदिचत्त लिया जाता है, अर्थात् मिच्छामिषकसं बोला जाता है एवं बाद में गुरु के पास इस दोष की आलोचना भी की जाती है। — (४) विवेकाई वि.सी वस्तु के विवेक त्याग से दोष की शुद्धि हो तो उसका त्याग करना विवेकाहं प्रायश्चित है। जैसे—आधा कर्म आदि आहार आ जाता है तो उसको अवश्य परठना पड़ता है, ऐसा करने ने ही दोष की शुद्धि होती है। (2) व्युत्सर्गार्ह- व्युत्सर्ग करने से जिस दोष की शुद्धि हो, उसके लिए स्मृत्सर्ग करना (शरीर के व्यापार की रोककर ध्येयवस्तु में उपयोग लगाना) व्युत्सगर्ह प्रायश्चित्त है। नदी आदि पार करने के बाद यह प्रायश्चित्त लिया जाता है अर्थात् कायोत्सर्ग किया जाता है । (६) तपाई तप करने से जिस दोष की शुद्धि हो, उसके लिए तप करना Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ वक्तृत्वकला के बीज तपाई-प्रायश्चित कहलाता है । इस प्रायश्चित्त में निर्विकृतिआयम्बिल-उपवास-बेला-पांच दिन दस-दिन-पन्द्रह दिन मास चार मास एवं छः मास तक का तप किया जाता है । (७) छेदाह दीक्षाय वि का छेद करने से जिस दोष की शुद्धि होती है, उसके लिये दीक्षापर्याय का अंदन करना छेदाह-प्रायश्चित्त है । इसके भी मासिक, चातुर्मासिक आदि भेद हैं । सपरूप प्रायश्चित्त से इसका काम बहुत कठिन है, क्योंकि छोटे साधु सदा के लिए बड़े बन जाते हैं। जैसे-किसी ने छेदरूप चातुर्मासिक प्रायश्चित्त लिया तो उसकी दीक्षा के बाद चार महीनों में जितने भी व्यक्ति दीक्षित हुए हैं, वे सब सदा के लिए उससे बड़े हो जायेंगे, क्योंकि उसका चार मास का साघुगना काट लिया गया । (८) मूलाई जिस दोष को शुद्धि चारित्रपर्याय को सर्वथा श्वेद कर पुनः महावतों के आरोपण से होती है, उसके लिए वैसा करना अर्थात् दुवारा दीक्षा देना मूलाई-प्रायश्चित्त है [मनुष्यगाय-भैस आदि की हत्या, हो जाए ऐसा झूठ, शिष्यादि की बोरी एवं अहाच य-भङ्ग जसे महाम् दोषों का सेवन करने मे उक्त प्रायश्चित्त आता है ] (5) अनवस्थाप्याह जिरा दोष की शुद्धि संयम म अनवस्थापित-अलग होकर विशेष तप एवं गृहम्य का वेष घारकर फिर से नई दीक्षा लेने पर होती है, उसके लिए पूर्वोवत कार्य ३.र.न। अनवस्थायाई प्रायश्चित्त है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : पहना कोपटक (१०)पाराञ्चिकाह जिस महादोष की शुद्धि पाराञ्चिक अर्थात वेष और क्षेत्र का त्यागकर महातप करने से होती है, उसके लिए वैसा करना पाराञ्चिकारी-प्रायश्चित्त है। स्थानात ५२१५३६८ में पाराञ्चिक-प्रायश्चित के पांच कारण कहे गए हैं, यथा-- (१) गण में फूट डालना, (२१ फूट डालने के लिए तत्पर रहना, (३) साधु आदि को मारने की भावना रखना, (४) मारने के लिए छिद्र देखते रहना, (५) बार-बार अमयम के स्थानरूप सावध अनुष्ठान की पूछताछ करते रहना अर्थात् अङ्गुष्ठ-कुङ्य आदि प्रश्नों का प्रयोग करना, (इन प्रश्नों से दीवार या अंगूठे में देवता बुलाया जा सकता है । ) इन पाँच कारणों के सिवा साध्वी या राजरानी का शीलभत करने पर भी यह प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसकी शुद्धि के लिए छः मास में लेकर बारह वर्ष तक गण, साधुवेष एवं अपने क्षेत्र को छोड़ कर जिनकल्पिकसाधू की तरह कठोर तपस्या करनी पड़ती है एवं उक्त कार्य सम्पन्न होने के बाद नई दीक्षा दी जाती है। टीकाकार कहता है कि यह महापराक्रमवाले आचार्य कोही दिया जाता है। उपाध्याय के लिए नौवें प्रायश्चि स तक और सामान्य साधु के लिए आठवें प्रायश्चित्त तक का विधान है । __ यह भी कहा गया है कि जब तक चौदह-पूर्वधारी एवं बजऋषभ-नाराचर्सहननवाले साधु होते हैं, तभी तक ये दसों प्रायश्चित्त रहते हैं । उनका विच्छेद होने के बाद केवल आठ प्रायश्चित्त रहते हैं, अस्तु ! Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ १. आ अभिविधिना सकलदोषाणां दशना आलोचना | मर्यादा में रहकर विकार से अपने आगे प्रकट कर देने का नाम आलोचना है । आलोचना लोचना-गुरुपुरतः प्रका - भगवती २५७ टीका दोषों को गुरु के २. छत्तीसगुण समन्नागएरण, तेवि अवस्कायव्वा । परसक्खिया विसोहि मुट्ठु वि ववहारकुसले || जह सुकुसलो वि बिज्जी, अन्नस्स क इ अत्तणां वाहि । विज्जुवएसं सुच्चा, पच्छा सो कम्ममायर | - गच्छाचार प्रकीर्णक १२-१३ आचार्य के छत्तीसगुणयुक्त एवं ज्ञान-क्रिया असवहार में विशेष - निपुण मुनि को भी पाप की शुद्धि परसाक्षी से करनी चाहिए । अपने-आप नहीं । जैसे— परमनिपुण बंध भी अपनी बीमारी दूसरे वैद्य से कहता है एवं उसके कथानुसार कार्य करता हैं । ३. आलोयायाएवं माया नियारणमिच्छादसा सल्ला मोक्स्खमग्ग-विग्धारणं अरांत संसारवड्ढणाणं उद्धरणं करे, उज्जुभावं च जरणयइ । उज्जुभावपडिवन्ने वि य णं जीवे । अमाई इत्थीवेयं नपुंसगवेयं च न बंधइ, पुम्वबद्ध च निज्जरेइ । r - उत्तराध्ययन २६।५ - ४६ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवा भाग : पहला कोष्टक ४७ आलोचना से जीव मोक्षमार्ग-विघातक, अनन्तसमार-वर्धक-ऐसे माया, निदान एवं मिथ्यादर्शन शल्य को दूर करता है और ऋजुभाव को प्राप्त करता है। ऋजुभाव से मायारहित होता हुआ स्त्रीवेद और नसकवेद का बन्ध नहीं करता । पूर्वबन्ध की निर्बरा कर देता है। ___४. उद्धरियसव्वसल्लो, आलोइय-निदिओ गुरुसरगो ! होइ अतिरेगल हुओ, ओहरियभारोव्व भारवहीं ॥ -ओनियुक्ति ८०६ जो साधक गुरुजनों के ममक्ष मन के ममस्त शल्यों (कांटों) को निकाल कर आलोचना, निन्दा (आत्मनिन्दा) करता है, उसकी आत्मा उसी प्रकार हल्की हो जाती है, जरो-मिर का भार उतार देने पर भारवाहक । ५. जह बालो जपसो, कज्जमकज्ज च उज्जयं भवई । तं तह आलोएज्जा, माया-मविप्पमुक्को उ ॥ ___-ओधनियुक्ति ८०१ बालक जो भी उचित या अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरलभाव से कह देना है। इसीप्रकार साधक को भी गुरुजनों के समक्ष दंभ और अभिमान से रहित होकर यथार्थ-आत्मा लोचना करनी चाहिये ।। ६. आलोयणापरिणायो, सम्म संपदिओ गुरुसगास । जइ अंतरो उ कालं, करेज्ज आराहो तह वि ।। -आवश्यकनियुक्ति ४ कृतपापों की आलोचना करने की भावना से जाला हुआ व्यक्ति यदि बीच में मर जाए तो भी वह आराधक है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ वक्तृत्वकला के बीज ७. लज्जाए गारवेण य, जे नालोयंति गुरु-सगामि । धपि सुय-समिद्धा, न हुने आराङ्गा हुंति ॥ ___ -मरणसमाधिप्रकीर्णक १०३ लज्जा या गर्व के वश जो गुरु के समीप आलोचना नहीं करते वे श्रुत से अत्यन्त समृद्ध होते हुए भी आराधक नहीं होते । ८. जो साधु आलोचना किए बिना काल कर जाता है, वह आराधक नहीं होता एवं जो साधु कृतपापों की आलोचना करके काल करता है, वह संयम का आराधक होता है। -भगवती १०२ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० आलोचना के विषय में विविध १. आलोचना करने न करने के कारण नीन कारणों से व्यक्ति कृतगापों की आलोचना करता है। वह सोचता है कि आलोचना नहीं करने से इहलोक परलोक एवं आत्मा निदित होते हैं तथा सोचता है कि आलोचना करने से ज्ञान-दर्शन-चरित्र की शुद्धि होती है । तीन कारणों में मायी-पुरुष कृतपापों की आलोचना नहीं करता। वह सोचता है कि मैंने भूतकाल में दोष सेवन किया है, समान में : हा और पणिा में भी किए बिना नहीं रह सकता तथा यह सोचता है कि आलोचना आदि करने से मेरे कीर्ति, यश, एवं पुजा-सत्कार नष्ट हो जायेंगे। --स्यानाङ्ग ३३ २. आलोचना कौन करता है ? । दसहि टागोहि सम्पन्न अणगारे अरिहइ अत्तदोसे आलोइप्सए, तं जहा–१ जाइसंपन्ने. २ कुलसंपन्ने ३ विगायसंपन्ने ४ गाणसंपन्न, ५ दसमासंपन्ने, ६ चरित्तसम्पन्न, ७ खंते, ८ दंते, ६ अमाई, १० अपच्छागुताको । -भगवती २५७१७६६ तथा स्थानाङ्ग १०७४३ ४६ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयतृत्व कला के बीज दस गुणों से युक्त अनगार अपने दोषों की आलोचना करने योग्य होता है, वे इस प्रकार हैं१ जातिसम्पन्न- समातिवाला, यह व्यक्ति प्रथम तो ऐसा बुरा काम करता ही नहीं, भूल से कर लेने पर वह शुद्धमन मे आलोचना कर लेता है। कुलसम्पत्र- उत्तमकुलवाला, यह व्यक्ति अपने द्वारा लिए गए प्रायश्चित को नियमपूर्वक अच्छी तरह से पूरा करता है। ३ विनयसम्पन्न- विनयवान्, यह बड़ों की बात मानकर हृदय में आलोचना कर लेता है। शानसम्पन्न- ज्ञानवान्, यह मोक्षमार्ग की आराधना के लिए क्या करना चाहिए और स्पा नहीं, इस बात को भली प्रकार समझकर आलोचना कर लेता है । ५ दर्शनसम्पन्न- श्रद्धावान्, यह भगवान के वचनों पर श्रद्धा होने के कारण यह शास्त्रों में बताई हुई प्रायश्चित से होने वाली शुद्धि को मानता है एवं आलोचना कर लेता है। ६ चारित्रसम्पत्र- उत्तमचरित्रवाला, यह अपने चारित्र की शुद्ध करने के लिए दोषों की आलोचना करता है। क्षान्त- क्षमावान्, यह किमी दोष के कारण गुरु से भत्सना या फटकार मिलने पर कोध नहीं करता, किन्तु अपना दोष स्वीकार करके आलोचना कर लेता है । दान्त- इन्द्रियों को वश में रखनेवाला, यह इन्द्रियों के विषयों में अनासवत होने के कारण कठोर से कठोर प्रायश्चित को भी पीघ्र स्वीकार कर लेता है एवं पापों की आलोचना भी शुद्धहृदय से करता है। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग : पहला कोष्ठक ५१ अमामी मामा-कपट रहित यह अपने पापों को बिना छिपाये खुले दिल से आलोचना करता है । ६ १० गेले त काम - ताप न करनेवाला, यह आलोचना करके अपने आपको धन्य एवं कृतपुण्य मानता है । x Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना के दोष १. दस आलोयगादोस पत्ता , तं जहा आकंग पित्ता-भगा मामाइना न दिदै वायरं न गृहमं वा । छन्नं सद्दाउलयं, बहुजण अव्वत्त तम्सेवी । __ -भगवती २५७।७६५ तथा स्थानाङ्ग १०७३३ जानते या अजानते लगे हुए दोष को आचार्य या बड़े साधु के सामने निवेदन करके उसके लिए उचित प्रायश्चित्त लेना 'आलोचना' है । आलोचना का शब्दार्थ है, अपने दोषों को अच्छी तरह देखना । आलोचना के दस दोष हैं अर्शीत् आलोचना करते समय दस प्रकार का दोष लगता है यथाआकंपयित्ता-प्रसन्न होने पर गुरु श्रोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, यह मोचकर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर उनके पास दोपों की आलोचना करना । २ अणुमाणइत्ता—पहले छोटे से दोष की आलोचना करके, आचार्य कितना-क दण्ड देते हैं, यह अनुमान लगाकर फिर आलोचना करना अथवा प्रायश्चित्त के भेदों को पूछकर दण्ड का अनुमान लगा लेना एवं फिर आलोचना करना। ३ विष्ट (ट)-जिरा दोष को आनायं आदि ने देख लिया हो, उमी की आलोचना करना। ४ बायरं (स्थूल)-मिर्फ बड़े बड़े दोषों की आलोचना करना । ५ सुगम (सूक्ष्म)-जो अपने छोटे-छोटे अपराधों की भी आलो ५३ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : पहला कोष्ठक ५३ चना करता है, वह बड़े दोषों को कैसे छिपा सकता है - यह विश्वास उत्पन्न करने के लिए केस छोटे लोटे तोषों दीपा करना । ६ नं (प्रच्छन ) - लज्जालुता का प्रदर्शन करते हुए प्रच्छन्नस्थान में आचार्य भी न सुन सके ऐसी आवाज से आलोचना करना । सद्दालय (शब्दरकुल ) – दूसरों को सुनाने के लिए जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना । P — ८ बहुजण ( बहुजन ) - एक ही दोष की बहुत से गुरुओं के पास आलोचना करना, प्रायः प्रशंसार्थी होकर ऐसा किया जाता है। £ अध्वत्त (अव्यक्त)- किस अतिचार का क्या प्रायश्चित दिया जाता है, इस बात का जिसे ज्ञान नहीं हो, ऐसे अगीतार्थ साधु के पास आलोचना करना | १० तस्सेवी ( तत्सेधी) - जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन करनेवाले आचार्यादि के पास, यह सोचते हुए आलोचना करना कि स्वयं दोषी होने के कारण उलाहना न देगा और प्रायश्चित्त भी कम देगा। २. प्रतिसेवना के दस प्रकार हैं दसवा पविणा पण्णशा तं जहादप्पपमाद-ऽणाभोगे, आउरे आवतीति य, सकिने सहसक्कारे, भव-प्ओसाय वीमंसा । - भगवती २५७ तथा स्थानाङ्ग ०१७३३ पाया दोषों के सेवन से होनेवाली संयम की विराधना को प्रतिमेघना कहते है, यह दर्प आदि दस कारणों से होती है अतः दस प्रकार की कही गई है । १. वर्ष प्रति सेचना -- अहंकार से होने वाली संयम की Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वक्तृत्वकला के बीज विराधना । २. प्रमादप्रतिसेवना - मद्यपान, विषय, कसाय, निद्रा और विकथा - इन पांच प्रकार के प्रभाव के सेवन से होनेवाली संयम की विराधना | (३) अनाभोगप्रतिसेवना- अज्ञान के वश होनेवाली संयम की विराधना P (४) आतुरप्रतिसेवना- भूख प्यास आदि किसी पीड़ा से व्याकुल होकर की गई संयम की विराधना । (५) आपत्प्रतिसेवना- किसी आपत्ति के आने पर संयम की विराधना करना | आपत्ति चार प्रकार की होती है : (क) द्रव्यापत्ति प्राशुक आहारारादि न मिलना । : (ख) क्षेत्रापत्ति- अटवी आदि भयंकर जंगल में रहना पड़े । (ग) कालापत्ति दुर्भिक्ष आदि पड़ जाए । (घ) भावापत्ति- बीमार हो जाना, शरीर का अस्वस्थ होना । -- (६) संकीर्णप्रतिसेवना- स्वपक्ष एवं परपक्ष से होनेवाली जगह की लंगी के कारण समय का उल्लंघन करना अथवा सङ्कित प्रतिसेवना ग्रहण करने योग्य आहार आदि में किसी दोष की शङ्का होजाने पर भी उसे ले लेना । (७) सहसाकार प्रतिसेवना - अकस्मात् अर्थात् बिना सोचे-समझे किसी अमचित काम की कर लेना । (८) भयप्रतिसेवना भय से संयम की विराधना करना, जैसे Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : पहला कोष्टक ५५ लोकनिन्दा एवं अपमान से डरकर भूट बोल जाना, संयम को छोड़ कर भाग जाना और आत्महत्या आदि कर लेना। (E) प्रदेषप्रतिसेवना- किसी के प्रवष या ई- से ( भूठा कलङ्क आदि लगाकर ) संयम की विराधना करना । यहाँ प्रडेप से क्रोधादि चारों कषायों का ग्रहण किया गया है। (१०) विमर्शप्रतिसेवना- शिष्यादि की परीक्षा के लिए ( उसे धमकाकर या उस पर झूठा आरोप लगाकर ) की गई विराधना । इस प्रकार दस कारणों से चारित में दोष लगता है । इन में से दर्प, प्रमाद और द्वेष के कारण जो दोष लगाए जाते हैं, उनमें चारित्र के प्रति उपेक्षा का भाव और विषयकाषाय की परिणति मुख्य है | भय, आपत्ति और संकीर्णता में चारित्र के प्रति उपेक्षा तो नहीं, किन्तु परिस्थिति की विषमता-संकटकालीन अवस्था को पारवार उत्सग की स्थिति पर पहुँचने की भावना है । अनाभोग और अकस्मात् में तो बनजानेपन से दोष का सेवन हो जाता है और विमर्श में चाहकर दोष लगाया जाता है । यह भावी हिताहित को समझने के लिए है । इसमें भी चारित्र की उपेक्षा नहीं होती। (३) आलोचनादाता के आठ गुण.... अहि ठाणेहि सम्पन्ने अरणगारे अरि हइ आलोयणं पडिच्छ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज त्तए, तंजहा-आयारवं, आहारवं, बबहारवं, उन्बीलए, पकुन्वए, अपरिस्सात्री निज्जवर अवायदंसी । -भगवती २५७ तथा स्थानात मा६०४ आठ गुणों से युक्त साधु आलोचना सुनने के योग्य होता (१) आचारवान–ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार, एवं बीर्याचार, जो इन पांचो आचारों से सम्पन्न हो। (२) आधारवान्—(अवधारणावान्) -आलोचक के बतलाए हुए दोपों को बराबर याद रग्व मनाने वाला हो, क्योंकि गम्भीर अतिवारों को दो या तोन बार सुना जाता है, एवं आगमानुसार उनका प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रायश्चित्त देते समय आलोचनादाता को आनोचव के दोषों का स्मरगा बरावर रहना चाहिए ताकि प्रायश्चित्त कम-ज्यादा न दिया जाए। (३) ध्यवहारवान्-आगम आदि पांचो व्यवहारों का ज्ञाता एव उचित विधि से प्रवर्तन कर्ता हो । मोक्षागिलाषी आत्माओं की प्रवृत्ति-निवृत्ति को एवं तत्कारणाभूत ज्ञान-विशेष को व्यवहार कहते हैं। -रमानाङ्ग ५।३।४२१ में व्यवहार के पाँच भेद किए गए हैं—(१) आगम-व्यवहार, (२) व त-व्यवहार, (३) आज्ञा-व्यवहार, (४) धारा व्यवहार, (५) जीत-व्यवहार ।1 १. लेपके द्वारा लिखी पुस्तक 'मोक्ष प्रकाश' पुंज १० प्रश्न 6 में इसका विस्तृत विवेचन देखिए । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : पहला कोष्ठक ५७ (४) अप्रवीड़क- लज्जावश अपने दोषों को छिपानेवाले शिष्य की मधुर वचनों से लज्जा दूर करके अच्छी तरह आलोचना करानेवाला हो। (५) प्रकुर्वक- आलोचित अपराध का तत्काल प्रार्याश्चत्त देकर अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ हो। तत्त्व यह है कि प्रायश्चित्तदाता को प्रायश्चित्तविधि पूरी तरह याद होनी चाहिए । अपराधी के मांगने के बाद प्रायश्चित्त देने में बिलम्ब करना निषिद्ध है । १६) अपरित्रावी-आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के सामने प्रकट नहीं करनेवाला हो । शास्त्रीय विधान है कि यदि आलोचनादाता नालीचना के दोषों को दूसरों के सामने कह देता है तो उसे उतना ही प्रायश्चित्त आता है, जितना उसने आलोचनाकर्ता को दिया था। (७) निर्यापक- अशक्ति या और किसी कारणवश एक साथ पूरा प्रायश्चित्त लेने में असमर्थ साधु को घोड़ा-थोड़ा प्राय__श्मित्त देकर उसका निर्वाह करने वाला हो । (८) अपायदर्शी- आलोचना करने में संकोच करनेवाले व्यक्ति वो आगमान सार परलोक का भय एवं अन्य दोष दिखा. कर उसे आलोचना लेने का इक बनाने में निपुण हो । ४. आलोचना किसके पास ? आलोचना सर्वप्रथम अपने आचार्य-उपाध्याय के पास Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज करनी चाहिए, वे न हों तो अपने सांभोगिक बहुश्रु तसाधु के पास, उनके अभाव में समानरूपवाले बहुश्र तसाधु के पास, उनके अभाव में पच्छाकड़ा (जो संयम से गिरकर श्रावकजत पाल रहा है, किन्तु पूर्वकाल में संयम पाला हुआ होने से उसे प्रायश्चित्तविधि का ज्ञान है-ऐसे) श्रावक के पास एवं उनके अभाव में जिनभक्त बहुश्र त यक्षादि देवों के पास अपने दोनों की आलोचना करनी चाहिए । भावीवश इनमें से कोई भी न मिले तो ग्राम या नगर के बाहर जाकर पूर्व-उत्तरदिशा (ईशानकोरा) में मुख करके विनम्रभाव से अपने अपराधों को स्पष्टरूप से बोलते हुए अरिहन्त सिद्ध भगवान को साक्षी से अपने आप प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाना चाहिए । -यबहार ड० १ बोल ३४ से ३६ ५. आलोचना के भेद(क) एक्कंकका चजकन्ना दुवम्ग-सिद्धावसारगा । --~ोधनियुक्ति गाथा १२ आलोचना के अमेक भेद हैं—जमें नाका, षट्कर्णा एवं अप्टकणां । यदि साधु-साधु से या साध्वी-साध्वी से आलोचना करे तो वह आलोचना चताकर्णा चार कानोंचाली होती है, क्योंकि तीमरा व्यक्ति उनके पास नहीं होता। यदि मात्री स्थविर साधु के पास आलोचना करे तो उस साध्वी के साथ ज्ञानदर्शन-सम्पन्न एवं प्रौढ़वयवालो एक Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पाँचवां भाग पहला कोष्ठक साध्वी अवश्य रहती है, अतः तीन व्यक्ति होने से यह आलोचना षट्क। छः कानोंवाली कहलाती है। यदि आलोचना करानेवाला साधु युवा जवान हो तो उसके निकट प्रौढ़वयवाला एक साधु भी अवश्य रहता है । अतः दो साधु और दो साध्वियों के समक्ष होने से यह आलोचना अष्टकरण आठ कानोंवाली मानी जाती है। [यह विवेचन गम्भीर दोषों की अपेक्षा से समझना चाहिए] ( यह विवेचन बृहत्कल्पभाध्य गाथा ३६५, २६६ के आधार पर किया गया है ।) [C] बेमचित्त दत्रं, जरणवय सट्टाणे होइ त म । दिशा- निसि सुभिक्ख-दुभिक्ख, काले भावमि हट्टियरे । द्रव्यादि की अपेक्षा से आलोचना के चार प्रकार है द्रव्य से - अकल्पनीयद्रव्य का सेवन किया हो— फिर वह चाहे अचित्त हो, सचित्त हो या मिश्र हो । क्षेत्र से -- ग्राम, नगर, जनपद व मार्ग में काल मे ---दिन रात में या दुर्भिक्ष किया हो । - ― ६. मिच्छामि दुक्कडं भाग से - प्रमत्र - अप्रसन्न, अहंकार एवं ग्लानि आदि किसी भी परिस्थिति में दोषमेवन किया हो। सभी प्रकार के दोषों की आलोचना करके शुद्ध बन जाना चाहिए । 'मि' त्ति मिउ महत्त दो रेवन किया हो । सुभिक्ष में दोषसेवन 'छ' त्ति दोसाछाद होइ । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मि' त्ति य मेराइडिओ, 'क' त्ति कडं मे पावं, एसो 'दु' ति दुर्गग्राम अप्पानं ॥ ६८६ ॥ वक्तृत्वकला के बोज '' ति डेब्रेमि तं जवसमेणं । 'मिच्छादुक्कड'क्ख रत्थो P समासेणं ॥ ६८७ ॥ -- आवश्यक नियुक्ति 'नामैकदेशे नामग्रहणम इस न्याय के अनुसार 'मि' कार मृताकोमलता तथा अहंकार रहित होने के लिए हैं। 'छ' कार दोषों को त्यागने के लिए है। 'दु' कार पापकर्म करनेवाली अपनी आत्मा की निन्दा के लिए है। 'क' कार कृत-पापों की स्वीकृति के लिए है । और 'ड' कार उन पापों का उपशमन करने के लिए है यह "मिच्छामि दुक्कड' पद के अक्षरों का अर्थ है । ¤ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ आवश्यक १. समण हा मावएगा य, अवरस काय हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसस्स य, तम्हा आवम्सयं नाम । --अनुयोगतान यात्रमणकाधिकार दिन-रात की संधि के समय माधु-श्रावक को यह अवश्य करना होता है । इसलिए इसका नाम आवश्यक है । २. जे भिक्खु कालाइक्कमेण वेलाइक्कमेरा समयाइक्कमेणं आलसायमा आगोवओगे पमत्ते अविहीए अन्नेसि व असड्ढं उप्पायमारगो अन्नयरमावस्सगं पमाइयस....... से एंगोयमा ! महापायच्छित्ती भवेज्जा । -महानिशीयष्य अ. ७ जो भिक्षु आवश्यक-सम्बंधी काल, बेला एवं समय का अतिक्रमण करके आलस्य, उपयोगशून्यता, प्रमाद और अविधि के सेवन द्वारा अन्य माधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाओं में अश्रद्धा उत्पन्न करता हुआ छः आवश्यकों में से किसी एक मावश्यक को भी यदि प्रमादवश नही करता तो हे गौतम ! वह महाप्रायश्चित का भागी होता है। ३. आवस्सयं चरनिह पत्त, तं जहानामावस्सयं, ठवरणावस्सयं, दब्बावस्सयं, भावावस्सयं । -अनुयोगहार आवश्यकाधिकार Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज आवश्यक चार प्रकार का कहा है१ माम-आवश्यक, २ स्थापना आवश्यक, ३ द्रव्य-आवश्यक ४ भाव-आवश्यक । प्रतिक्रमणस्वस्थानाद् यत् परं स्थानं, प्रमादस्य बशाद् मतः । तत्रैव क्रमण भयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ।। क्षायोपशमिकाद् भावा-दौदयिकस्य वशं गतः | तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूलगमात् स्मृतः ।। - मावश्यक, ४ प्रमादयश अपने स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान--हिंसा आदि में गये हुए आत्मा का लौटकर अपने स्थान-आत्मगुणों में आ जाना प्रतिक्रमण है तथा क्षायोपशामिकभाव में औदयिकभाव में गये हुये आस्मा का पुनः मूलभाव में आजाना प्रतिक्रमण है । पंचबिहे पडिक्कमणे, पण्णते, तं जहा-आसवदारपडिक्कम, मिच्छत्तपडिक्कमणे, कसायपडिक्कमणे, जोगपडिक्कमणे, भावपडिक्कमणे । -स्थानाङ्ग २३।४६७ तबा आवश्यक हरिभनीय अ. ४ पांच प्रकार का प्रतिक्रमण कहा है१. आसबद्वार—हिंसा आदि का प्रतिक्रमण २. मिथ्यात्व-प्रतिक्रमण ३, कषाय-क्रोधादिका प्रतिक्रमण ४. योग-अशुभयोगों का प्रतिक्रमण ५. भाव-प्रतिक्रमण ("मिच्छामि दुक्कड" घोनकर पुनः वहीं दुष्कृत्य करते रहना वन्य-प्रतिक्रमण है और दुबारा उसका सेवन न करना भाव-अतिक्रमण है।) Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचयां भाग : पहला कोष्टक ६. पडिसिद्धाणं करणे, किच्चारामकरणे पडिक्कमणं, असद्दहण य लहा, बिवरीय परूवगाए य । --आवश्यक नियुक्ति १२६८ हिमादि निषिद्ध कार्य करने का, स्वाध्याय प्रतिलेखनादि कार्य न करने का, तत्त्वों में अश्रदमा उत्पन्न होने का एवं मास्त्र-विरुद्ध प्ररूपणा करने का प्रतिक्रमण किया जान चाहिए । ७. पडिक्कमरण । वयछिदारिण पीहेइ। - उत्तराध्ययन २६१ प्रतिक्रमण करने से जीव व्रतों के छिद्रों को ढंक देना है । सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स पच्छिमस्त यजिपस । मज्झिमयारा जिगाए, कारणजाए पडिक्कम ॥३४७।। गमरणागमण-वियारे, सायं पाओ य पुरिम-चरिमारग । नियमेण पडिक्कमण', अइयारो होइ वा मा बा ||३४।। -हरकरूपभाष्य-६ प्रथम और अन्तिम तीर्थ करों का सम्प्रतिफमण धर्म है । मध्यमबाइस तीर्थ करों के समय म्खलना होने पर प्रतिक्रमण करने का विधान है। प्रथम अन्तिम तीर्थ करों के माधुओं के गमन-आगमन में एवं उच्चार आदि परलने में चाहे स्वलना हो या न हो, उन्हें सुबह-शाम षडावश्यकरुप प्रतिक्रमण अवश्य करना ही चाहिए । वैविक संध्या६. ओउम् सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृनेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद्राश्या यदह्ना] पापमकार्प मनसा वाचा हस्ताभ्यां पमधामुदरेण शिफ्ना रात्रिस्तदवलुम्यतु यत् किञ्चिद् दुरितं मयि इदममापोऽमृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ॥ -नित्यकर्म विधि पृष्ठ ३२ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामृत्वासाः ६. बीज हे सूर्यनारायण ! यक्षपति और देवताओं मेरी प्रार्थना है कि अक्ष विषयक तथा कोष से किए हुए पापों से मेरी रक्षा करें ! दिनरात्रि में मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और विशश्न-लिङ्ग से जो पाप हर हों, उन पापों को मैं अमृतयोनि सूर्य में होम करता हूँ । इसलिए उन पापों को नष्ट करें ! संध्या के तीन अर्थ है १ उत्तम प्रकार से परमेश्वर का ध्यान करना। २ परमेश्वर से मल करना । ३ दिन-रात की मधि में किया जानेवाला कर्म । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य १. वैयावृत्त्यम-भक्तादिभिर्धमोपग्रहकारिवस्तुभिरुण ग्रह करणे .. - ५ का धर्म में सहारा देनवाली आहार आदि वस्तुओं द्वारा उपग्रह-महायता करने के अर्थ में बयावृत्त्य शब्द आता है । (वयोवृत्त्य अर्थात् सेवा) २. दसबिहे बेयवरचे पणते, तं जहा-- १ आयरिमवेयावच्चे, २ उवज्झायवेयावच्चे, ३ थेरवेयावच्चे, ४ तवस्सिवेयावच्चे, ५. गिलारणवेयावच्चे ६ सेहरयावनचे ७ कुलबेयावच्चे ८ गणवेयावच्चे ६ संघवेवावच्चे १० साहम्मिययावन्चे । -स्थानांग १०५४४६ बस प्रकार की यावृत्त्य कही है.- १. आचार्य को वयावृत्त्य, २ उपाध्याय की नैयाबृत्त्य, ३ स्थविर की यावृत्त्य, ४ तपस्वी की दयावृत्त्य, ५ ग्लान मुनि को वैवावृत्त्य, ६ नवदीक्षित मुनि की बयावृत्त्य, ७ कुल एक आचार्य की संतति या चन्द्र आदि साधु समुदाय की वैयावृत्त्य, ६ संघ [गणों का समूह की बयावृत्त्य, १० सामिक-साधु की वैयावृत्त्य । ३. भत्ते पारणे सगरणासणे (य), पडिलेह-पायमच्छि मद्धाणे । राया तेरणे दंड-गाहे गेलन्नमत्त य । –व्यवहारभाध्य ३।१० गा० १२ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज आचार्य आदि को-१ आहार देना, २ पानी देना, ३ वाय्या देना, ४ आसन देना, ६ उनका पडिलेहण करना, ५ पात्र गंछना, ७ नेत्ररोगी हों तो ओषध-भेषज लाकर देना, ८ मार्ग में (बिहारआदि के समय गदाग देना, ६ राजा के क्रुद्ध होने पर उनकी रक्षा करना, १० चौर आदि से उन्हें बचाना, ११ अनिवार-सेवन कर के आएं हों तो उन्हें दण्ड देकर शुद्ध करना, १२ रोगी हो तो उनके लिए आवश्यक वस्तुओं का संपादन करना, १३ लघुशङ्कानियाणार्थ पान उपस्थित करना । उपर्युक्त १३ प्रकार से आचार्य आदि की वैयाबृत्त्य की की जाती (४) वेयावच्चेणं तित्थयरनाम गोयं कम्मं निबंधे।। -उत्तराध्ययन २६॥ ३ आचार्यादि की बयावृत्त्य करने से जीव तीर्थ कर नाम-गोत्रकर्म का उपार्जन करता है। (५) जे भिक्रवू गिलाणं सोच्चा णच्चा न गवेसई, न गवसंतं वा साइज्जइ........आवज्जइ चउम्मासियं परिहारठाणं अशुग्धाइयं । -मिशीयभाष्य १०३७ यदि कोई समर्थ साधु किसी साधु को बीमार मुनकर एवं जानकर बेपरवाही से उराकी सार-संभाल न करे तथा न करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा कोष्ठक ध्यान १. घ्यानं तु विषये तस्मिन्नेकप्रत्ययसंततिः । अभिषानचिन्तामणि १५४ ___ ध्येय में एकाग्रता का हो जाना ध्यान है । २. चितर से गग्गया हवद्द झाणं। आवश्यकनियुक्ति १४५६ किसी एक विषय पर चित्त को एकान-स्थिर करना ध्यान है । ३. एकाग्नचिन्ता योगनिरोधो वा ध्यानम् । -जन सिद्धान्तदीपिका ५।२८ एकाग्रचिन्तन एवं मन-वचन-काया की प्रवृत्तिरूप योगों को रोकना ध्यान है। ४. उपयोगे विजातीय-प्रत्ययाव्यवधानभाक् । शुकप्रत्ययो ध्यान, सूक्ष्याभोगसमन्वितम् । हानिशहानिशका १८।११ स्थिर दीपक की लौ के समान मात्र शुभलक्ष्य में लीन और विरोधी लक्ष्य के व्यवधानरहित ज्ञान, जो सूक्ष्म विषयों के मालोचनसहित हो, उसे ध्यान कहते हैं। ५. मुहर्तान्तमनः स्थैर्य, ध्यानं छद्मस्थ-योगिनाम् । -योगशास्त्र ४।११५ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्तृत्वकला के बीज अन्तर्मुहुर्त तक मन को स्थिर रघना छ हमस्थयोगियों का ध्यान है। स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन, भ्याले स्त्रस्मै स्वतो यतः । षट्कारकमयस्तस्माद, ध्यानमात्मैव निश्चयात् । -तत्त्वानुशासन ७४ आत्मा का आत्मा में, आत्मा द्वारा, आत्मा के लिा. आत्मा में हो ध्यान करना चाहिए । निश्चमनय में षट्कारकमय-यह आत्मा ही ध्यान है। निश्त्रयाद् व्यवहाराच्च, ध्यानं द्विविधमागमे । स्वरूपालम्बनं पूर्व', परालम्बनमुत्तरम् । -सत्याभुशासन १६ मिल्लयष्टि से यहाः रिले "या' मार का है । प्रयम में स्वरूप का आलम्बन है एवं दूसरे में परवस्तु का आलम्बन है। ध्यानमुद्राअन्तश्चेतो बहिश्चक्षु-रघःस्थाप्य सुखासनम् । समत्वं च शरीरस्य, ध्यानमुद्रति कथ्यते । -ओरक्षामातक-६५ चित्त को अन्तमन्त्री बनाकर, दृष्टि को नीचे की ओर नाशाग्न पर स्थापित करके मुखासन से बैठना तथा शरीर को सीधा रखना ध्यानमुद्रा कहलाती है। ६. खेचरीमुद्रा: कपालकुहरे जिह्वा, प्रविष्टा विपरीतगा। भ्र वोरन्तर्गता दृष्टि-मुद्रा भबति खेचरी | Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग दूसरा कोष्ठक न रोगों मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृषा । न च मुर्च्छा मयेतस्य मुद्रां की बेलि सेवरीमा ६६ गोरक्षशतक ६६-६७ जीभ को उलटकर कपालकुहर-तालु में लगाना और दृष्टि को दोनों भौहों के बीच में स्थापित करना खेचरीमुद्रा होती हैं । जो खेचरी मुद्रा को जानता है, वह न बीमार होता, न मरता, न सोता, न उसे भूख-प्यास लगती और न ही मुर्च्छा उत्पन्न होती । १०. ध्यान के आलम्बन भूत सात कमल-चक्र - + चतु दर्ल स्यादाधारं, स्वाधिष्ठानं च षड्दलम्, नाभौ दशदलं पद्म, सूर्यसंख्यादलं हृदि । कण्ठे स्यात् षोडशदलं, भ्रूमध्ये द्विदलं तथा । सहस्रदलमाख्यातं त्रह्मरन्ध्रे माथे । ध्यान करने के लिए मात्र कमलरूप चक्रों की कल्पना भी की गई है। उनका रहस्य समझने के लिए पृष्ठ ७० के चार्ट को देखें | Xx Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. सात कमल रूप चक्र नाम तुलाधारचक्र स्वधिष्ठान चक्र मक चक्र ३. ४. जनानचत्र २. विशुद्धिचक्रे स्थान गुदर निगमूल नाभि हृदय कष्ठ वर्ण अग्निवर्ण सूर्यवर्ण रक्तवर्ण सुवः वि चन्द्रवणं ६. आज्ञाचक्र अवध्य लालवाण ७. ब्रह्मरंध्रेक दशमद्वार स्कटिकवणं पंखुड़ियाँ १२ १६ ܘܕܕ निर्दिष्ट स्थानों में कमल चक्रों की अग्नि आदि वर्णमय एवं उनपर निर्दिष्ट अक्षरों का ध्यान करना चाहिए 1 अक्षर (पंखुड़ियों पर अक्षरों की स्थापना ) नं. शं. पं. सं. ब. शं. मं. पं. रं. लं. डं. दं. णं तं थं दं धं नं पं फं. क. स्वं. गं. घं. ई. चं. लं. जं. भं. नं. टं.. अ. आ. ३. ई. उ. ऊ. ऋ. . . ल. ए. ऐ ओ औ अं अः ह्व क्ष निरंतर मच्चिदानन्द ज्योग स्वरूप कल्पना करके उपरोक्त पंखुड़ियाँ बनानी चाहिए नोट -- १ अथर्ववेद १०:२:३६ आचक्रों का कथन है. वहाँ बिल्ला पुल में एक ललाच अधिक कहा गया है । २ ध्यान सम्बन्धी विशेष जानकारी के लिए लेखक द्वारा लिखी पुस्तक मनोनिग्रह के दो मार्ग देखिए । ७० वक्तृत्वकला के बीज Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : दुसरा कोष्टक ११. ध्यान के आलम्बनरूप बार ध्येय[क] पिण्डस्थं च पदस्थं च, रूपस्थं रूपजितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं, ध्यानस्यालम्बनं बुधैः । -योगशास्त्र साम ज्ञानी-पुरुषों ने ध्यान के आलम्बनरूप ध्येय को चार प्रकार का भाना है-१. विलम्थ, २, पदस्थ, ३. रूपस्थ, ४. रूपातीत । [ख] पार्थिवी स्यादथाग्नेयी, मारुती वारुणी तथा । तत्त्वभूः पञ्चमी ति, पिण्डस्थं पञ्चधारणाः । -योगशास्त्र ७६ पिण्हस्थ अर्थात शरीर में विद्यमान आत्मा। उसके आलम्बन से जो ध्यान किया जाता है, वह पिण्डस्थध्यान है। उसकी पांच धारणाएं हैं- १. पाशिवी, . आग्नेयी, ३. मारती, ४. वारुणी, ५. तत्त्वभू'। [ग] यत्पदानि पवित्रारिण, समालम्च्य विधीयते । तहादस्थं समाख्यातं, ध्यानं सिद्धान्तपारगैः । -योगशास्त्रमा ध्येय में चित्त को स्थिररूप से बाँध लेने का नाम धारणा है । पविधमन्वाक्षर आदि पदों का अवलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है, उस सिद्धान्त के पारगामी पुरुष परस्पध्यान कहते हैं । [4] अर्हतो रूपमालम्व्य, ध्यानं रूपस्थमुच्यते । -योगशास्त्र हा १ धारणा तु क्वविद ध्येये, चित्तस्य स्थिरबन्धनम् --अभिधानचिन्तामणि शर Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ वक्तृत्वकला के बीज अरिहंत भगवान के रूप का सहारा लेकर जो ध्यान किया जाता है । उसे रूपस्यध्यान कहते हैं । [इ] निरञ्जनस्य सिद्धस्य, ध्यानं स्याद्रूपवर्जितम् । निरञ्जन सिद्ध भगवान का ध्यान रुपातीतध्यान है । १२. ध्यान की सामग्री संगत्यागः कषापायां, निग्रहो व्रतधाररणम् । मनोऽक्षारणा जयश्चेति, सामग्री ध्यानजन्मनि । -तस्वानुशासन ७५ परिग्रह का त्याग, कषाय का निग्रह, अतधारण करना तथा मन और इन्द्रियों को जीतना सब कार्य ध्यान की उत्पति में महायता करनेवाली सामग्री है। १३. ध्यान के हेतु--- गग्यं तत्त्रविज्ञानं नेग्रन्थ्यं समचित्तता । योगशास्त्र १०११ , परिग्रह जयति पञ्चते ध्यानहेतवः || बृहद्रव्यसंग्रह संस्कृतटीका, ५०२८१ १. वैराग्य, २. तत्त्वविज्ञान ३ निर्गन्धता ४ रामचित्तता, ५. परिजयन्ये पाँच ध्यान के हेतु है । १४. चार ध्यान एवं धर्म ध्यान के भेद-प्रभव चत्तारि भाषा पण्णत्ता, तं जहा अट्ट भाणे, रोई भा धम्मेमाणे सबके झाणे । 1 धम्मे भागे चउनि पत्ते तं जहा - आसाविज‍ आवायविजए विवागविजए संठारणविजए । धम्मस्स में भारपरस चत्तारि आलंवगुणा पातानंजा -- Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचा भाग : दूसरा कोष्ठक . वायरणा, पांडपुच्छणा, बरियता, अगुपहा, पम्मकहा धम्मस्स णं झारास्स चत्तारि लक्वरणा पणत्ता, तं जहाआरणारुई, सिग्गराई, सुत्तराई आगाढाई । धम्मस्स णं झारणम्स चत्तारि अणुप्पेहाओपत्ताओ तं जहाएगाशुष्पहा, अणिच्चाणुष्पहा, असरणाणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा । -स्यानाङ्ग ४११०२४७ चार यान कहे हैं- १. आन्ध्यान, २. गद्रध्यान, ३. धर्मध्यान, ४. शुक्लध्यान । धर्मध्यान के चार प्रकार हैं- १. आजाविषय, २. अपायविचय, ३. विपाकविचन, ४. संस्थानविचय धर्मःयान के चार आलम्बन कहे हैं- १. यांचन, २. प्रतिपृच्छा, ३. अनुप्रेक्षा, ४. धर्मकथा । धर्मध्यान के चार लक्षण हैं- १. आभारुचि, २. निसर्गरुचि, ३. सूयरुचि, ४, अवगाहरुचि । धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं- १. एकस्वानुप्रेक्षा, २, अनित्याप्रेक्षा, ३. अशरणान्प्रेक्षा, ४; स्पारानुप्रेक्षा । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान से लाभ १. मोक्षः कर्मक्षयादेव स, चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्व्यानं हितमात्मनः । - योगशास्त्र ४।११३ कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्मज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान में आत्मज्ञान प्राप्त होता है । अतः ध्यान आत्मा के लिए हितकारी माना गया है । झागरिगलीगी साहू, परिचागं कुगाइ सत्रदोसाणं । तम्हा दुझारणमेव हि, सवधि चारस्स पडिक्कमणं ।। - नियमसार ६३ इयान में लीन हुआ साधक गब दोषों का निवारण कर सकता है। इसलिए ध्यान ही समग्र अनि रागें (दोषों) का प्रतिक्रमण है । ३. ध्यानयोगरतो भिन्नः प्राप्नोति परमां गतिम् । -शंखस्मृति घ्यान-योग में लीन मुनि मोक्षपद को प्राप्त करता है । ४. वीतरागो विमुन्टोत, वीतरागं बिचिन्तयन् । --योगशास्त्र ।।१३ ध्यान करता हुआ बोगी स्वयं वीतराग होकर कर्मों से या बास नाओं से मुक्त हो जाता है । ५. ध्यानाग्नि-दग्धकर्मा तु, सिद्धात्मा स्यान्निरजनः । ---योगशास्त्र Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग : दूसरा कोष्टक ७५ शुक्लध्यानरूप अग्नि से कर्मों को जला देनेवाला व्यक्ति सिद्ध भगवान् बन जाता है । ६. काउस्सग्गेणं ती डुप्पन्नपायच्छितं विसोइ विसुद्धपायच्छिक जो हिए ओमान भारताहे पसत्याग्रहोत्रगए सुहं सुणं विहरइ । - उत्तराध्ययनं २६।१२ कार्यात्म (ध्यान अवस्था में समस्त चेष्टाओं का परित्याग ) करने से जीव अतीत एवं वर्तमान के दोषों की विशुद्धि करता है और विशुद्ध प्रायश्चित्त होकर सिर पर से भार के उत्तर जाने से एक भारवाहकवत् हल्का होकर सद्ध्यान में रमण करता हुआ मुखपूर्वक विचरता है । * Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्याता (ध्यान करनेवाला) १. यस्य चित्तं स्थिरीभूत, स हि ध्याता प्रशस्यते। -ज्ञानार्णव पृ० ५४ जिसका चित्त स्थिर हो, वहीं ध्यान करने वाला प्रशंसा के योग्य है। २. जितेन्द्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्य नाशाग्र-न्यस्त नेत्रस्य योगिनः ।। -ध्यानाष्टक ६ यो योगी जितेन्द्रिय है, धीर है, शान्त है, स्थिरआत्मावाला है, वह ध्यान करने के योग्य होता है। ध्याला घ्यानं फलं ध्येयं, यस्य यत्र यदा यथा । इत्येतदन्न बोद्धज्यं, घ्यातः कामन योगिना ।। -तत्वानुशासन ३७ ध्यान के इच्छक योगी को योग के आठ अंगों को अवश्य जानना चाहिए, यथा-- १ ध्याता–इन्द्रिय और मन का निग्रह करने वाला | २ ध्यान–इष्टविषय में लीनता । ३ फल-संवर-निर्जराका । ४ ध्येय--इष्टदेवादि। ५ यस्य-ध्यान का स्वामी । m Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : टूमाग कोष्टक ७७ ६ यत्र-ध्यान का क्षेत्र । ७ सवा-ध्यान का समय । + यथा--- की निधि । ४. मा मुज्झह । मा रज्जह ! मा दुस्सह ! इट निअटेसु । थिमि ट्रह जइ चित्तं, विचित्तशागा-पसिद्धीए । मा चिट्ठह ! मा जपह ! मा चितह ! किं वि जेग होइ थिरो। अप्पा अप्पंमि रओ. इरणमेव परं हवे झारणं ! -व्यसंग्रह है माधक ! यिचित्र शान की सिद्धि में यदि चित्त को स्थिर करना चाहता है, तो इप्ट-अनिष्ट पदार्यों में मोह, राग और दूष मनकर ! किसी भी प्रकार की चेष्टा, जल्पन व चिन्तन मत कर, जिसमे मन स्थिर हो जाये । आत्मा का आत्मा में रक्त हो जाना ही उत्कृष्ट यान है। ध्यानमेकाकिना दाभ्यां, पठनं गायन त्रिभिः । चतुभिर्गमनं क्षेत्रं पञ्चभिर्बहुभी रणम् ।। --चाणक्यनीति ४।१२ ध्यान अकेने का, पढ़ना दो का, गाना तीनों का, चलना चारों का, खेती करनी पांचों का और युद्ध बहुत व्यक्तियों का अच्छा माना गया है। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय ध्यान की प्रेरणा १. स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत् । ध्यान स्वाध्याय संपत्त्या, परमात्मा प्रकाशते ||१|| यथाभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि सुमहान्त्यपि । तथाध्यानपिस्थैर्य, लभतेऽभ्यासवर्तनाम् ||२|| -तत्त्वानुशासन स्वाध्याय से ध्यान की अभ्यास करना चाहिए और ध्यान सेल्वाध्याय को चरितार्थ करना चाहिए स्वाध्याय एवं ध्यान की संघप्ति से परमात्मा प्रकाशित होता है-अर्थात् अपने अनुभव में लाया जाता है । अभ्यास से जैसे महान शास्त्र स्थिर हो जाते हैं, उसी प्रकार अभ्यास करने वालों का ध्यान स्थिर हो जाता है । २. जपश्रान्तो विशेद ध्यानं घ्यानश्रान्तो विशेज्जपम् । - द्वाभ्यां श्रान्तः पठेत् स्तोत्र - मित्येवं गुरुभिः स्मृतम् ॥ - श्राद्धविषि, पृ०७६, श्लोक-३ ध्यान से श्राव होने पर जाव हो जाने पर स्तोत्र पढ़ना जाप से थान्त होने पर ध्यान एवं करना चाहिए तथा दोनों से श्रान्त चाहिए। ऐसे ही गुरुदेव ने कहा है । ३. ओमित्येव घ्यायथ ! आत्मान स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात् I मुण्डकोपनिषद् २२२२६ इस आत्मा का ध्यान ओ३म् के रूप में करो ! तुम्हारा कल्याण ७८ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : दूसग कोष्णक ७६ होगा अन्धकार दूर करने का यह एक ही साधन है । ४. अकारो वासुदेवः स्यादुकारस्तु महेश्वरः । मकारः प्रजापतिः स्यात्, त्रिदेवो ॐ प्रयुज्यते ।। 'अ' का अर्थ विष्णु है, '' का अर्थ महेश है और 'म' का अर्थ ब्रह्मा है अतः तीनों देवों के अर्थ में ॐ का प्रयोग किया जाता है । अरिहन्ता अमरीरा, अयरिस उतराय-मगिागो। पढमक्खरनिष्फन्नो, ॐकारों पञ्चपरमिट्ठी ॥ यद् द्रव्यसंग्रटीका, पृष्ठ १८२ जनाचामों के मनानुसार'ॐ' का अर्थ इस प्रकार हैअरिहन्त का प्रसिद्धों का दूसरा नाम अशरीरी भी है । अतः अशरीरी का भी 'अ' आचायो का 'आ' उपाध्याय का 'उ' और साधु का दूसरानाम मुनि भी है, इसीलिए मुनि का 'म' लिया। फिर इन सबकी मन्धि करने से ओम बन गया । जैसेअ--अ- आ, आ+आ =आ, मा+उ=ओ, ओ+म=ओम् । बच्चा जन्मते समय आ-आ-आ, कुछ बड़ा होने पर उ-उ-उ अधिक बढ़ने पर म-म-म, करने लगता है। __-स्वामी रामतीर्ष स्वामीजी का कहना है कि ॐ स्वाभाविक शब्द है । अतएव वच्चे के मुंह से भी इसके अंश (अ. उ. म.) स्वभाव से ही निकलसे हैं। ७. सकरं च हकारं च लोपयित्वा प्रयुज्यते । सोहं में 'स' और 'ह' का लोप करने में ॐ रह जाता है, इस प्रकार सोह में भी ॐ का प्रयोग किया जाता है। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ समाधि १. समाधिर्नाम राग-द्वेपपरित्याग :। -सूत्रपांग चूणि ११२।२ राग हप का त्याग ही समात्रि है । २. कमलचित्त कम्गता समाधि । -विसुद्धिमग ३।२ कुगल (पवित्र) चित्त की एकाग्रता ही समाधि है। ३. मुखिनो वित्त समाधीयति ।। ___–विसुद्धिमाग ३।४ मुग्नी का चित्त एकाग्र होता है । ४. समाहितं वा चित्त थिरतरं होति। -विसुद्धिमगा ४१३६ समाहित (एकाग्र हुआ) चित्त ही पूर्ण स्थिरता को प्राप्त करता है। ५. समाधिस्सऽग्गिसिहा व लेयसा, तबो य पन्ना य जसो पवइ । -आचारात श्रु० २।१६।५ अग्नि-शिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशमान रहनेवाले समाधियुक्त गायक के तप प्रज्ञा और यश निरन्तर बढ़ते रहते हैं। लाभालाभेन मथिताः, समाधि नाधिगच्छन्ति । -थेरगाथा २१०२ जो लाभ या अलाभ से विचलित हो जाते है, वे समाधि को प्राप्त नहीं कर सकते। ७. समाहिकारए गं तमेव समाहि पडिलभइ । -भगवती ७।१ समाधि देनेवाला समाधि पाता है । ८० Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ आहार अन्न-- अन्न वे विशः। --शतपथब्राह्मण ६।७।३०७ अन्न ही प्रजा का आधार है। अन्नं हि प्राणाः । -ऐत्तिरीय-ब्राह्मण-३२।१० अन्न ही प्राण हैं। ३. अन्नेन वाव सर्वे प्राणा महीयन्ते । -तत्तिरीय उपनिषद् १४१ अन्न से ही सब प्राणों की महिमा बनी रहती है । ४. अन्नं ब्रह्मति व्यजानात् । -तैतरीयआरण्यक ६२ यह अच्छी तरह जान लीजिए कि अन्न ही ब्रह्म है । ५. अन्नसमं रत्नं न भूतं न भविष्यति । -वचरसराम-समुश्चय अन्न के समान रन न तो हुआ और न कभी होगा। ६. नास्ति मेघसमं तोयं, नास्ति चात्मसमं बलम् । नास्ति चक्ष : समं तेजो, नास्ति चान्नसमं प्रियम् । -चाणक्यनीति ५५१७ मेघ मल के समान जल नहीं, आत्मबल के समान बल नहीं, आंख के समान तेज नहीं और अन के ममान कोई प्रिय वस्तु नहीं । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ वक्तृत्वकला के बीज -तंतिरोधउपनिषद् ३।७ ७. अन्नं न निन्द्यात् । अन्न की निन्दा मत करो । 5. अन्नेन हींद सर्व गृहीतम् तस्मात् यावन्तो नोऽशनमश्नन्ति - शतपथब्राह्मण ४।६।५।४ तेनः सर्वे गृहोता भवन्ति । P अत्र ने सब को पकड़ रखा है अतः जो भी हमारा भोजन करता है, वही हमारा हो जाता है । · ६. अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम् । तस्मात सर्वोपधमुच्यते । अन्नाद भूतानि जागते जातान्यन वर्धन्ते । ---तंत्तरीयउपनिषद् ८२ प्राणि जगत में अन्न ही मुख्य है । अन्न को समग्र रोगों की औषध कहा है, ( क्योंकि सब औषधियों का सार अन्न में है) अन्त से ही प्राणी पैदा होते हैं और अन्न से ही बढ़ते हैं । १०. अन्नं बहु कुर्वीत तद व्रतम् । -तिरोधउपनिषद् ३१२ अन्न अधिकाधिक उपजाना बढ़ाना चाहिए, यह एक व्रत (राष्ट्रीयप्रण ) है ११. सर्वसंग्रहेषु धान्यसंग्रहो महान् यतस्तन्निबन्धनंम् जीवित सकलप्रयासञ्च । - नीतिवाक्यामृत ८११ सभी संग्रहों में चान्य का संग्रह बड़ा है, क्योकि जीवन तथा सारे प्रयासों का कारण धान्य ही हैं । १२. अत्र मुक्ता र घी जुक्ता । - राजस्थानी कहावत १३. हमारे बड़े-बूढ़े कहा करते थे कि अनाज महंगा और रुपया सस्ता हो, वह जमाना 'खराब' और अनाज सस्ता और Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग दुसरा कोष्ठक ८३ रुपया मंहगा हो, वह जमाना 'अच्छा' कारण अन्न से ही प्राण टिकते है । १४. एक सेठ किसी कारणवश मकान में रह गया। बाहर से बन्द करके आरक्षक दूसरे गाँव चले गए। वहां हीरे, पन्ने, माणिक मोती आदि जवाहरात काफी पड़ा था, लेकिन खाद्यवस्तु बिल्कुल नहीं थी भूखा प्यासा सेठ आखिर मर गया । प्रारण निकलते समय उसने एक कागज पर लिखा कि जवाहर से ज्वार का दाना बेहतर है ।" तुलसीदासजी ने भी कहा है- तुलसी तब ही जानिए, राम गरीब निवाज । मोती- करण महंगा किया, सस्ता किया अनाज | ¤ Xx Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजन १. शतं विहाय भोक्तव्यं, सहस्रस्न नमानरेन् । गौ काम छोड़कर माना चाहिए और हजार काम छोड़कर नहाना चाहिए। २. चही हांडी ने ठोकर नहीं माररणी । ३. और बात खोटी, सिर दाल-रोटी। -राजस्थानी बहायतें ४. यदि भोजन मिलता रहे तो सब दुःम्ब सहे जा सकते हैं। , ५. चारु कदेई हारू को हुवेनी। राजस्थानी कहावत ६. तीन महीनों में मनग्य अपने शरीर के वजन जितना भोजन कर लेता है। —एक अनुभवी ७. भोजन का पाचनकाल :-- पदार्थ घंटे पदार्थ घंटे उसले चावल कच्चा -दूध मक्खन साबूदाना गोभी गाजर, मूली, भटर ३ आहारो, मधुन, निद्रा, सेवनात् नु विवर्धने । आहार, मथुन और निद्रा, सेवन करने से इन तीनों में वृद्धि होती है। जौ मालू दूध Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजन की विधि १, पूजयेदशनं नित्य-मद्याच्चैतदकुत्सबन् । दृष्ट्वा हुध्येत्प्रसोदेच्च, प्रतिनन्दन सर्वशः ।।५।। पूजितं ह्यानं नित्यं, बामु च यच्छति । अपूजितं तु तद्भुक्त-मुभयं नाशयदिदम् ।।५।। नोच्छिष्ठकस्यनिद्रद्यानाशाच्चैव तथान्तरा । न वाध्यशन कुर्याद्, न चोटिक्वचिद्वजेत् ।।५।। -मनुस्मृति २ जो कुछ भोज्यपदार्श मनुष्य को प्राप्त हो, वह उसे सा आदर की दृष्टि से देखे । दोष न निकालता हुआ उसे खाए । उसे देखकर हर्ष, प्रसन्नता एक उमंग का अनुभव करे ।। ५४ । सत्कार किया हुआ अग्न बल और शक्ति को देता है एवं तिरस्कार को भावना से खाया हुआ अन्न उन दोनों का नाश कर देता है ।। ५५ ॥ जूठा भोजन किसी को न दें । प्रातः भोजन करने के बाद सायंकाल में पहले बीन में कुछ न खाएं । अधिक न लायें और जूठे मुख कहीं न जावें || ५६ ॥ २. अपवित्रोऽतिगार्थ्याच्च, न भुजीत विचक्षणः । कदाचिदपि नाश्नीया-दुष्कृत्य च तर्जनीम् । -विवेक-विलास ८५ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ वक्तृत्वकला के बीज विचक्षण पुरुष अपवित्रता की अवस्था में भोजन न करें । अतिलोलुपता से न खाए तथा तर्जनी ( अंगूठे के पासवाली अंगुली को ऊंचा करके भी न खाए 1 ३. उष्णं स्निग्धं मात्रावत् जो वीर्याविरुद्ध इष्ट देशे, इष्ट सर्वोपकरणं नाति तं नातिविलम्बितं अजलान् अहसन् तन्मना भुजीत | आत्मानमभिसमीक्ष्य सम्यक् । - चरकसंहिता, विमानस्थान १।२४ उष्ण, स्निग्ध, मात्रापूर्वक पिछला भोजन पच जाने पर, वीर्य के अविरुद्ध, मनोनुकूल स्थान पर अनुकूल सामग्रियों से युक्त, न अतिशीघ्रता से, न अतिविलय से, न ही बोलते हुए, न ही हंसते हुए, आत्मा की शक्ति का विचार करके एवं आहार द्रव्य में मन लगाकर भोजन करना चाहिए। ४. ईर्ष्या-भय-काधपरिक्षतेन, लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीड़ितेन । द्वेषयुक्तेन च सेव्यनान भन्नं न सम्यक् परिणाममेति । - सुश्रुत ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीनना, एवं ट्रंप इन सबमे युक्त मनुष्य द्वारा जो भोजन किया जाता है, उसका परिणाम अच्छा नहीं होता । ५. विरोधी आहार का सेवन नहीं करना चाहिए, इसके देशविरुद्ध कालविरुद्ध, अग्निविरुद्ध, मात्राविरुद्ध कोष्ठविरुद्ध, · अवस्थाविरुद्ध एवं विधिविरुद्ध आदि अनेक भे हैं । - चरकसंहिता सूत्रस्थान २७ ६. साथ न खाने के खाद्य पदार्थ (१) गर्म रोटी आदि के साथ दही । (२) पानी मिला दूध और घी । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : दूसरा कोष्ठक ८७ (३) बराबर-बराबर घो-मधु (शहद)। (४) त्राय के पीछे ठण्डा पानी-ककड़ीतरबूज आदि । (५) खरबूजा और दही। (६) मूली और खरबूजे के साथ मधु । -कविराज हरनामदास ७. स्नानं कृत्वा जलः शीत-हागं भोक्त न युज्यते । -विवेकविलास ठण्डे जल से स्नान करके गरम-द्रव्य न खाए । ८. ठंडो न्हावं तातो खावे, त्यारे वेद कदे नहीं आवे । ६. ऊभो मृतं सूतो खाव, तिरणरो दलदर कद न जावं । ---राजस्थानी कहावत Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ भोजन कैसा हो? १. स भारः सौम्य ! भर्तव्यो, यो नरं नावसादयेत् । तदन्नमणि मोक्तव्यं, जीर्यते यदनामयम् । -वाल्मीकिरामायण ३५०१५ हे सौम्य ! उसी भार को उठाना चाहिए, जिससे मनुष्य को कष्ट न हो । उसी अन्य को खाना चाहिए जो रोग पंदाकिए विना पच जाए। . २. हितं मित सदाप्लोयाद , या मुखेनैव जीर्यते । धातुः प्रकुप्यते येन, तदन्न वर्जयद्यानिः । -अत्रिस्नति मादा हितकारी एवं परमित भोजन करना चाहिए, जो सुषपूर्वक हजम हो जाए। ३. षट् त्रिशतं सहस्राणि, रात्रीगो हितभोजनः । जीवत्यनानुरो जन्तु-जितात्मा संमत: मताम् ।। -चरकसंहिता, सूत्रस्थान २०३४८ हितकारी भोजन करनेवाला प्राणी छतीस हजार रात्रि पर्यन्त अर्थात् १०० वर्ष तक जीवित रहता है तथा वह आत्मविजयी, नीरोग एवं सत्पुरुपों द्वारा सम्मानित होता है । ४. पचे सोई खाइबो, रचे सोई बोलिबो। -बंगला कहावत Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : दूसरा कोष्टक र रुचि के अनु. पाचन शक्ति के अनुसार खाना खान' सार बोलना चाहिए। ५. सुजीमन्नं सुविचक्षगाः सुशासिता स्त्री नृपतिः स सुचिन्त्य चोक्नं सुत्रि वार्य : सुदीर्घकालेऽपि न याति विक्रिया म्। - हिर १२२ पना हुआ भोजन, विचक्षण पुत्र, आजा में रहनेवाली स्त्री, सुसेवित राजा, सोचकर कहा हुआ बचन और विचारपूर्वक किया हुआ काम--ये लम्बे समय तक विकार को प्राप्त नहीं होते । ६. अजीर्णे भोजनं विषम् । -चाणक्यनीति ४१५ अजीर्ण के समय किया हुला भोजन विष के समान काम करता है। ७. तक्रान्तं खलु भोजनम् । सुभाषितरत्नबहमंजूषा भोजन के अन्त में तक (छात्र) पीना चाहिए। ८, पुष्ठ खुराक विना नही, बनना तेज दिमाग । तेल और बत्ती बिना, कैसे जले चिराग ? __-दोहा-संवोहा ८३ ६. राब खावे त्यामै रूप किसो। --राजस्थानी कहावत Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज १०. मथुरा का पेड़ा अरु जयपुर की कलाकन्द, बूंदी का लड्डू सब लड्डु से सवाया है । उज्जैन की माजम, अजमेर की रेवड़ी रु. काबुल सा मेवा और काहू न दिखाया है । बनारस की शकर टक्कर सभी से लेत, सिंध सा सिंघाड़ा स्वाद और न बनाया है। वाहत सजान बीकानेर की अधिकताई, मिसरी, मतीरा, भुजिया तो, ही सराया है ॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १. अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतंत्र प्रेयस्ते उभे तयोः श्रये आददानस्य साधु उ प्रेयो वृणीते । पदार्थ दो प्रकार के हैं- भय और प्रेय ! भोजन के भेद नानार्थे पुरुषं सिनीतः । भवत, हीयतेऽर्थाद्य --कठोपनिषद् १०२०१ आरम्भ में दु:ख व अन्न में मुख देनेवाला श्र ेय और इससे उल्टा सुखी और पेय का ग्राहक प्रेय कहलाता है। दुखी होता है । । २. प्रेमदृष्टि से असन का लेना है अन्याय, श्रष्टि से असन तो, चन्दन है निरुपाय | आहारा यातयामं उच्छिष्टमपि ३. आयुः सत्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः । रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विकप्रियाः ||८|| कट्वम्न-लवणात्यु तीक्ष्णरूक्षविदाहिनः । राजसम्येष्टा, सुःखशोकभयप्रदाः r गतरसं, पुनिर्युषितं च यत् । मध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ १०॥ -- गीता अ०-१७ मनुष्य का आहार सात्विक, राजस और तामस के भेद में तीन प्रकार की है- आयु, जीवनशक्ति बन्न, आरोग्य, स ुख एवं प्रीति को बढ़ानेवाले तथा रसीने, चिकने, जल्दी खराब न होनेवाले एवं J ६१ ॥६॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज हृदय को पृष्ट बनानेवाले भोज्यपदार्थ गायिक-प्रकृतिवाले मनुष्यों को प्रिय होते हैं अतः ये सात्त्विक कहलाते हैं । तिकडुबे, अतिख, अतिनमकीन, अतिउष्ण, तीखे, लसे, जालन पंदा करनेवाले दःख-शोक एवं राग उत्पन्न करनेवाले भोज्यपदार्थ राजस-प्रकृतिवाले मनुष्यों को प्रिय होते हैं अतः ये राजस कहलाते हैं। बहुत देर का रखा हुआ, रसहीन , दुर्गन्धित, बाभी, जूठा, अमेध्य अपवित्र भोजन तामस-प्रकृतिवाले मनुष्यों को प्रिय होता हैं अतः मह तामस कहलाता हैं। ४. नाम उवणा दविए, खेल भावे य होंति बोधयो । एसो खलु आहारो, निक्खेनो होइ पर्चाबहो ।। दब्वे सचिस्तादि, घेत्त नगरस्स जणयो होइ । भावाहारो तिनिहा, ओए लोमे य पकवेव || -सूत्रकृतांग भु० २ अ० ३ नियुक्ति आहार का नाम, स्थापना, ध्य, शेक, और भाव में पांच प्रकार से निक्षेप होता है । किसी वस्तु का नाम आहार रखना नामाहार है एवं आहार की स्थापना करना स्थापमाआहार है । म्याहार तीन प्रकार का है-१. सचित्त २. अत्रित्त ३. मिश्र। जिस क्षेत्र में आहार किया जाता है, सपन्न होला है अथवा आहार का व्याख्यान होता है, उम क्षेत्र को प्रसार कहते हैं अथवा नगर का जो देश, धन-धान्यादि द्वारा उपभोग में जाता है, वह क्षेत्र आहार है। क्षुधावेदनीयकर्म के उदय से भोजनझप में जो वस्तु ली जाती है, उसे भावनाहार कहते हैं। वह लीन प्रकार का है Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : पहला को हक १ ओजाहार-जन्म के प्रारम्भ में लिया जाने वाला, २ लोभमाहार-स्वचा या रोम भार लिया जानेवाला, ३ प्रक्षिप्तआहारभुख अथवा इन्जेक्वान आदि द्वारा लिया जानेवान।। ५. गरइयारा नउब्धिहे आहारे पण्पात, तं जहा-इंग लोच मे, मुम्मुरोवमे. सीयले, हिनमीयले । तिरिवखजोगिया चविहे आहारे पाते, ते जहाकंकोवमे, बिलोव मे, पाण मंसोवमे पुत्तमसोवमे । मगुस्साणं चउन्विहे आहारे पातो, तं जहा-असणे, पाणे, खादमे, साइम । देवाणं चबिहे बाहारे पत्ते, तंजा-वण्यामते, गंधमते रसमले फासमते। -स्यानांग ४।४३४० नेरपिकों का माहार चार प्रकार का कहा है-- (१) अंगारों के समान-थोड़ी देर तक जन्नानेवाला । (२) मुमुर के समान-अधिक समय तक दाह उत्पन्न करनेवाला। (३) शीतल-मर्दी जगन्न करनेवाला । (४) हिमशीतल-हिम के समान अत्यन्त शीतल । तिर्यञ्चों का भाहार बार प्रकार का कहा है--- (१) कंक के समान-मुभक्ष्म और मुम्बकारी परिणामवाला। (२) बिल के समान-बिल में वसा की सरह (रस का स्वाद दिये बिना) सीधा पेट में जानेवाला। (३) मातङ्गमांस के समान मातङ्गमासवत् घृणा पैदा करनेवाला (४) पुत्रलांस के समान-पुत्रमांसवत् अत्यन्त दुःख से खाया जानेवाला। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चस्तन्न कला के बील मनुष्यों का आहार चार प्रकार का कहा है(१) असम-दाल-रोटी-भात आदि । (२) पान-गानी आदि पेय पदार्थ । (३) खादिम-फल-मेवा आदि । (४) स्वाविम-पान-सुपारी आदि मुंह माफ करने की चीजें । देवताओं का आहार धार प्रकार का कहा है(१) अच्छे वर्णवाला, (२) अच्छी गन्धवाला, (३) अच्छे रसवाला, (४) अच्छे स्पर्शवाला । ६. नव विगईओ पण्णताओ, तं जहा-खीर, दहि, रणवणीयं, सप्पि, तिल्ल, गुलो, महु, मज्ज, मसं। -स्थानांग ६।६७४ नव विकृत्तियां-विगय कही हैं-१ खीर-(दूध), २ दही ३ मक्खन, ४ घी, ५ तेल, ६ गुह, ७ मय-शहद ८ मद्य, ६. मांस । मक्खन मद्य, मांस, मधु-इन चारों को महाधिगय भी कहा हैं। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ [१] प्रोटोन - मांस जानीय पौष्टिकपदार्थ । [२] फेट्स -- चर्बीले पदार्थ घी तेल आदि । [३] खनिज - लवरण सदृश पदार्थ । भोजन में आवश्यक तत्त्व [४] कार्बोहाइड्रेट्स-शर्कराजातीय- चीनी आदि पदार्थ । [५] कैलशियम सूना - फासफोरस आदि । [६] लोहा लोहयुक्त पदार्थ । [७] पानी - पेय पदार्थ । [4] कैलोरी-शरीर को गर्मी और शक्ति देनेवाले तत्त्व | d किस खाद्य में प्रोटीन आदि प्रतिशत कितनी हैं एवं कैलोरीशक्ति प्रतिसहस्र कितनी है—यह निम्नलिखित चार्ट से समझने योग्य है । Ex Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रासायनिक तुलनात्मक चार्ट शाकाहारी-खाद्य प्रोटीन फेट्म खनिज लवण कार्बोहाइड्रेट्नः फैलशियम लोहा पदार्थ पानी कनोशी ७२.२४ गेहूँ का मोटा १२१ १३ मकई १२२ ३५२ ६६२४ ७७४ ००१ चावल १४१ १२६ ००१ २.१४ ५६.६ 1 KM r ६०-३ x मूंग २४.० १.४ अरहर मसूर २५.१ ७७ भुना नदर २६ १४ भना चना २५ ५२ लोभिया बड़ा २४६ ०.७ १२४ ३४६ ३१८ 6 ६३.५ ५८ ५५७ वनत्वकला के बीज ००७ ३. १२० ३६५ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Post २०.६ نه ११.५ ८.१ ४३२ ४.५ له २४.१ ६०.१ ३२ تا ५.८ सोयाबीन ४३.२ १६५ भटकांस .४१.३ १७० वाल २४. ३८ मेथी २६.२ ५.८ जीरा १८७ १५० घनियां १४.१ १६.१ बादाम २०,८ ५८६ काजू २१.२ ४६.६ भुनी मूंगफली ३१.५ ३६ पिस्ता १६ ५३.५ अखरोट १५५ ६४५ पांचवा भाग : दुसरा कोष्ठक ३६६ ०१६ १०८ ०.६३' ०२३ ४.४ १२.४ ११२ ५.२ २८ १०५ २२.३ Y Y १६२ Y ०.१४ ०.१० मक्खन ची - १८० २४.१ २५.१ १४१ ३१२ ०७ २१ ४०.३ २०.५ पनीर खोया स्टादृषपावडर ३८० . १ ६ ८ : ५१.०. १.३७ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ प्रोटीन फेट्न खनिज लत्रण D/ % १३३ मुर्गों का अंडा बत्तखका अंडा १३-५ कलेजी (भेड़ ) १२.३ बकरीका गोस्त १८५ सुअरका गोस्त १८३ गायका गोस्त २२०६ मछलो १३.३ १३.७ १३.३ ४४ २०६ २२.६ ०.६ मांसाहारी खाद्य K A & K K & i १० १.५ १.३ १० १. 0'5 कार्बोहाइड्ट्स कॅलशियम् % 6.0 १४ oc '०.५ ००१ ०१. ५ ܊ ܀ ܕܘ ܘ लोहा ܀ २.१ ३० ६.३ २०५ ०.३ 05 •2 १. भारत सरकार द्वारा प्रकाशित हेन्य-बुलेटिन नं० - २३ से साभार । प्रकाशक --- श्री केबलचन्द जैन, जनकल्याण समिति १४४३. मालीवाडा - दिल्ली । (मांसाहारी खाद्य से शाकाहारी खाद्य की जता दिलवाने के निमित्त | पानी ||· ७३७ '१० ३०४ ७१.५ ७५४ ७३४ ३२४ कैलोरी Grs. १७३ १८० १५० ૪ ११५ ११४ 2? 1 E graला के बीज Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ € £ पाँव भाग दूसरा कोष्ठक २. विटामिन में विटामिन के पदार्थ हैं, जिनकी मानवशरीर को कम मात्रा ता होती है, किन्तु अन्यायक होते हैं ! इनके विना मानवशरीर सुचारुरूय से काम नहीं कर सकता ! विटामिन के प्रकार - विटामिन 'ए' आँखों के लिए बहुत जरूरी होता है । विटामिन 'बी' कम्पलैक्स मांसपेशियों, नसों, भूख तथा पाचन शक्ति पर नियंत्रण रखता है । विटामिन 'सी' छूत के रोगों का सामना करने की शक्ति देता है । विटामिन 'डी' दांतों और हड़ियों को मजबूत बनाने में सहायक होता है। विटामिन 'ए' आदि विशेषरूप से धारण करनेवाले पदार्थविटामिन 'ए' - दूध और दूध से बनी चीजें, पालक, गाजर, आम, पपीता, टमाटर, मछली का तेल, अण्डे, कलेजी आदि । विटामिन 'बी' कम्पलेक्स - गिरियाँ, हरी फलियाँ (मटर), सेम, आलू, डबलरोटी, हरी मूंग, बाजरा, सेला चावल, दूध, मांस और मछली । • विटामिन 'सी' - ताजे फल और सब्जी, आंवला, मौसम्मी, ( नींबू और सन्तरा ), पत्ते वाली सब्जियाँ, (फूलगोभी, Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्त्वकला के बीज बन्दगोभी, मूली के पत्त), टमाटर, सहिजन की पत्तियाँ।। विटामिन 'डी'--सूरज की किरणों, दूध और दुध की बनी चीजें, मछली का तेल तथा अण्डे । -हिन्दुस्तान, १२ अप्रेल, १९७१ प्रोटीन आदि तत्त्व तथा विटामिन के लोभ से मांस मछली और अण्डों का सेवन करनेवाले व्यक्तियों को पुस्तक पृष्ठ १६ से १०० तक का नाई और विटामिन को विवेचन ध्यान से पढ़कर मांसाहार परित्याग कर देना चाहिए। -नमुनि १. भारत सरकार की तरफ से जनता के हित में पौष्टिक और स्थाविष्ट माईनर के निर्माता माउंन बैंकोज की ओर से प्रकाशित । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ भोजन का ध्येय १. खुराक के लिए नहीं पातु - 1 पालने के लिए है। ---गांधी २. जीने के लिए खाना किसी एक दृष्टि से जरूरी है, किन्तु रवाने के लिए जीना (ररालोलुप होना! सभी प्रकार से मूर्खता हैं। ३. स्वाद के लिए खाना अज्ञान, जीने के लिए ग्वाना आवश्य कता और संयम की रक्षा के लिए खाना साधना है । ४. उता पाटी, हुया माटी । -राजस्थानी कहावत ५. प्रतिदिन दस खरब रक्त के लालपरमाणु नष्ट होते हैं । उनकी पूर्ति आहार से ही की जा सकती है। १.१ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजन की शुद्धि १. आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः, स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः । ___-छान्दोगोपनिषद् ७।२६३ आहार की (इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये गये विषयों की) शुद्धि होने से सत्त्व-अन्तःकरण की शुद्धि होती है । उसमे स्थायी स्मृलि का लाभ होता है । स्मृति के लाभ से अर्थात् जागरूक अमूलज्ञान की प्राप्ति से मनुष्य की द ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं। २. आहार सुधारिये ! रवास्थ्य अपने-अाप भुधर जायेगा । ...गांरीजी .३ कुपोज्येन दिनं नष्टम् । -सुभाषितरत्नखण्ड मंजूषा कुभोजन करने से दिन को नष्ट हुआ समझो । ४. जिसो अन्न खावं, विसी ही उकार आवै । -राजस्थानी कहावत ५. जैसा खाबे अन्न, वेसा होवे मन्न । जैसा पीब पानी, बैसी बोले बानी।। -हिंदी कहावत दीपो हि भक्षयेद् ध्वान्तं, कज्जनं च प्रसूयते । यदन्नं भक्ष्यते नित्यं, जायते तादृशी प्रजाः ।। --चाणक्यनीति ३ जो जैसा अन्न खाता है इसके वैसी ही संतान पैदा होती है। दीपक काले अरे का भक्षण करता है तो उगकी संतान भी काली ( वन्न होती है । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ भोजन का समय १. बुभुक्षाकाली भोजनकालः । नीतिवाक्यमृत २५।२६ भूख लगे, बहा भोजन का समय है । २. अक्ष धिवेनामृतमप्युप मृत भर्गत विषम् । -नीतिवाक्यामृत' मुख के बिना लावा हा अमृत भा जहर हो जाता है । ३. नारनीयात मांधिवेलायां, नगच्छेन्नापि संविशेत् । -मनुस्मृति ४१५५ संभ्यास मय भोजने, गमन और मन नहीं करना चाहिए । ४. कौन भाव आहार के इस्छक ? नरक के जीन्न असंहपसमयवाले अन्त मुहून से आहारार्थी (आहार करने के इच्छुक) होते हैं । तिर्यञ्चो में पृथ्वी आदि स्थावर-जीव प्रति समय, हीन्द्रियश्रीन्द्रिय,-चतुरिन्द्रिय अगंख्यासमय वाले अन्नमुहूर्त से तथा तिर्थञ्चपञ्चेन्द्रिय जीव जघन्य अन्तमुहुर्त से एवं उत्कृष्ट दो दिन से आहारार्थी होते हैं । मनुष्यों का जघन्य अन्तम रट एवं उत्कृष्ट तीन दिन के अन्तर से आहार की इच्छा होती है । १०३ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ तृत्वकला के बीज P ( अवसर्पिणी काल में पहले आरे के मनुष्य तीन दिन से दूसरे आरे के दो दिन से तीसरे आरे के एक दिन से, चौथे आरे के दिन में एक बार और पाँचवें आरे के दिन में दो बार भोजन किया करते हैं, किन्तु छठे आरेवाले मनुष्य आहार के विषय में मर्यादाहीन हैं अर्थात् उन्हें भूख बहुत लगती है ।) 3 देवों के आहार के विषय में ऐसा माना गया है कि दस हजार वर्ष की आयुवाले देवता एक दिन से, पल्योपम की आयुवाले दो दिन से यावत् नौ दिन से एक सागर की आयुवाले एक हजार वर्ष से एवं तैंतीससागर को आयुवाले देवता तैंतीस हजार वर्ष से, भोजन के इच्छुक होते हैं। (प्रज्ञापनापत्र २८ के बाधार से) Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजन के समय दान १. त्यक्तेन भुञ्जीथाः । -यजुर्वेद ४०।१ कुछ त्याग करके 'वाओ ! २. केवलापो भवति केवलादी। -ऋग्वेद १०॥१७१६९ अतिथि आदि को दिये बिना अकेला भोजन करनेवाला केवल पाप का भागी होता है। एकः स्वादु न भुञ्जीत, एकश्चान्न चिन्तयेत् । एको न गच्छेदध्वानं, नैकः सुप्तेषु जागृयात् ॥ ___-विदुरनीति १५१ मनुष्य को चाहिए कि कभी भी अवेन्ना स्वादिष्ट भोजन न करे, अकेला किसी विषम का निश्चय न करे, रास्ते में कभी अकेला न चले और न गत को सरके सो जाने के बाद अकेला जागता ही रहे। ४. अशितवत्यतिथावश्नीयात् । --अथर्व वेद ६७७ अतिथि के खाने के बाद ही खाना चाहिए। बीसमंता इमं चित, हियमट्ठ लाभमट्टिी ! जद में अपगह कुज्जा, साहू हुज्जामि तारिओ ६४।। साहवो तो चित्तणं, निमंतिज जहनकम । जइ तत्थ के इच्छिज्जा, तेहिं सद्धि त भजए ॥६शा विश्राम करता हआ लाभार्थी (मोक्ष पर्थी) मुनि इस हितकर अर्थ १०५ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज का चिन्तन करे-यदि आचार्य और माधु मुहा पर अनुग्रह कर (मेरे द्वारा लाया हुआ आहार लें) तो मैं निहाल हो जाऊँ-मानूं कि उन्होंने मुझे भवसागर से तार दिया । इस प्रकार विचारकर मुनि प्रेमपूर्वक साधुओं का या काम दे । उन निमन्त्रित साधुओं में से यदि कोई साधु भोजन करना चाहे तो उनके साथ भोजन करे । ६. खानेवाले दो प्रकार के होते हैं--- कुत्तों की तरह इद्रीना-झपटी करके खानेवाले, कौवे की तरह सभी साथ बैठकर खानेवाले । --श्रीरामकृष्ण भोजन के समय मौन१. भोजन करते समय खाद्यपदार्थों की निन्दा या प्रशंसा करने से कर्मों का बन्ध होता है अतः उस समय प्रायः मौन कर लेना चाहिए। -धनमुनि २. ये तु संवत्सर पूर्ण, नित्यं मानेन भुञ्जते । युगकोटिसहस्र तः, स्वर्गलोके महीयत ।। -चाणक्यनीनि १११६ जो भोजन करते समय एक वर्ष तक पूर्ण मौन रख लेते हैं, वे हजार-कोटि युग तक स्वर्ग में पूजे जाते हैं। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० भोजन के बाद भुक्त्वा राजवदासीत, यावदन्नक्लमो गतः, रातः पादान पर, घामान वित्--मुथ त खाने के बाद जम तक शरीर में अन्न की क्लाति रहे, तब तक राजा की तरह प्रसन्न मुद्रा में बैठना चाहिए। फिर सो कदम टहल कर कुछ समय लेट जाना चाहिए । २. ऑफ्टर डिनर रेस्ट ए न्हाइल, ऑफ्टर सपर बाक ए माइल । -अंग्रेजी कहावत मध्याह्न भोजन के बाद कुछ आराम करना चाहिए एवं सांयकाल भोजन के बाद कुछ घूमना चाहिए । ३. खाय-पीय कर सो जा, मार-कूट कर भाग जाणा । -राजस्थानी कहावत ४. भुक्त्वा व्यायाम-व्यवायो सद्यो व्यापत्तिकारणम् । –नौतिवाक्यामृत २५१५० खाले ही व्यायाम करना एवं मथुन करना आपत्ति का कारण है। १७ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजन की मात्रा १. मात्राशीः स्यात्, आहारमात्रा पुनरग्निबलापेक्षिणी।। -चरकसंहितासूत्रस्थान ५॥३ मात्रायुक्त आहार करनेवाले बनो। आहार की मात्रा अपने अग्निबल की अपेक्षा रखती है। २. बायोः संचारणार्थाय, चतुर्थमवशेषयेत् । श्वासोच्छ्ावम के लिए अन्न की थैली का चौथा भाग खाली रखना चाहिए। ३. न भुक्तिपरिमाणे सिद्धान्तोऽस्ति । –नीतिवाय मृत २५।४३ कितना खाना-इस विषय में कोई निश्चय नहीं है । ४. तथा भुञ्जीतः ! यथा सायमन्ये च न विपद्यने बह्निः । -नोतिवाक्यामृत २०४२ वैसे रवाना चाहिए, जिससे संध्या या सबेरे जगग्नि न बुझे । ५. भक्षितेनापि किं तेन, येन तृप्तिन जायते । उस खाने से क्या लाभ ? जिमसे तृप्ति न हो। ६. यदुवा आत्मसम्मितमन्नं तदति तन्नहिनस्ति, यद् भूयो, हिनस्ति तद्, यत्कनीयो न तवति । शतपथकारण ६।६।३।७ आवश्यकतानुसार खाया हुआ अन्न पृष्टि करता है, हानि नहीं। १०८ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग दुमरा कोष्ठक १०६ अधिक होने पर हानि करता है और कम होने पर पुष्टि नहीं करता । ८ ७. कैलोरी - हम जो भोजन करते हैं, वह ईंधन का काम करता है । वह धीरे-धीरे जलता रहता है और हमारे जीवित रहने के लिये आवश्यक गर्मी और शक्ति प्रदान करता है। कौनसा भोजन शरीर की कितनी गर्मी प्रदान करता है, इसे कैलोरियों में गिना जाता है। जैसे एक औंस लौकी में कैलोरियाँ और एक औंस बादाम में कैलोरियां होती है | बच्चों को अधिक कैलोरीयुक्त भोजन की जरूरत होती है । अगर उनकी अवस्था ६ से १२ वर्ष तक की है तो उन्हें प्रतिदिन २५०० कैलोरियों की आवश्यकता पड़ेगी । - विश्वकोष भाग ३ भारत में खाद्य पदार्थों के प्रति व्यक्ति उपभोग की कैलारी प्रतिदिन १७५१ से बढ़कर २१४५ हो गई । अनाज की प्रति व्यक्ति सप्लाई १२८ औंस से बढ़कर १५०४ औँस प्रतिदिन हो गई । ८. - हिन्दुस्तान ३१ अगस्त १६६६ * Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ १. यो मितं भुक् स बहु भुङ्क्ते । 1 जो परिमित खाता है, वह बहुत खाता है । J २. गुणाश्च षमितभुजं भजन्ते. आरोग्यमायुश्च वलं सुखं च अनाविलं चास्य भवत्यवश्यं न चैन माधून इति क्षिपन्ति । - बरनीति ५।३४ परिमित भोजन करनेवाले को वे छः गुण प्राप्त होते हैं— अरोग्य, आयु, बल और सुख तो मिलते ही हैं। उनकी संतान सुन्दर होती हैं तथा यह बहुत खानेवाला है, ऐसे कहकर लोग आक्षेप नहीं करते । ४. मित भोजन ३. हियाहारा मियाहारा अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा चिमिच्छति, अपाणं ते तिमिच्छा ॥ - नीतिवावामृत २५२३८ नियुक्ति ५७८ - जो मनुष्य हितभोजी, मितभोजी एवं अल्पभोजी है, उसको वैद्यों की चिकित्सा की आवश्यकता नहीं होती । ने अपने आप ही चिकित्सक (वंश) होते हैं । : कालं क्षेत्र मात्रां स्वात्म्यं द्रव्य - गुरुलाघवं स्वबलम् । ज्ञात्वा योऽम्यवहार्य भुक्त कि भरजस्तस्य ॥ ११० - प्रशमरति १३७ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग दुसरा कोण्डक जो काल, क्षेत्र, मात्रा आत्मा का हित द्रव्य की गुरुता लघुता एवं अपने बल को विचार कर भोजन करना है, उसे दवा की जरूरत नहीं रहती । १११ ५. बीमारियों को अधिकता पर यदि आपको आश्चर्य हो तो अपनी थाली गिनिये ! - सिनेका Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ܀ २. मधुरमपि बहुवादित मजीर्ण भवति । अनारोग्यमनायुष्य-मस्वर्ग्य चातिभोजनम् । ---मनुस्मृति २।५७ अधिक भोजन करना अस्वास्थ्यकर है। आयु को कम करनेवाला और परलोक को बिगाड़नेवाला है । अतिभोजन ३. अतिमात्रभोजी देहमग्निविधुरयति । ५. अविक मात्रा में खाया हुआ मधुर पदार्थ की बदहजमी पैदा कर देता हैं । - नीतिवाक्यामृत १६०१२ मात्रा से अधिक खानेवाला जठराग्नि को खराब करता है । बहुभोजी एवं बहुभोगी बहुरोगी होता है । - हायोजि नस ५. भूखों मर जाना विवशता है और खाकर मरना मुर्खता । - आचार्य तुलसी ६. आहार मारे या भार मारे । - राजस्थानी कहावत ७. मनमां आवे तेम बोलवं नहि नैं भावे तंटलं खातुं नहि । अन्न पारकुं छे परण पेट कई पार नथी । - गुजराती कहावत एकबार खानेवाला महात्मा, दो बार संभलकर खानेवाला ११२ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासवां भाग : मर। कोठक ११३ बुद्धिमान और दिन भर बिना विवेक खानेवाला पशु । । ६. : भार सलों को भी मार कर हानेकाले विशेष मुखी होते हैं। १०. पांचवें आरेवाले मनुष्यों की अपेक्षा ४-३-२-१ आरेवाले मनुष्य एवं देवता क्रमशः अधिक सुली हैं, क्योंकि वे कम खाते हैं । ११. थोत्राहारो थांब भणियो य, जो होइ थोनिद्दो य । थोवोवहि-उवगरगो, तस्स देवावि परमति ।। -आवश्यकनियुक्ति १२६५ जो साधक थोड़ा खाता है, श्रोडा बोलता है, थोड़ी नोंद लेता है और घोड़ी ही धर्मोंपकरण की सामग्री रखता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। १२. कम खाना और गम खाना अक्लमंदी है। -हिन्दी कहावत HAATAKAT TRASNNimwali Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक खानेवाले आदमी १. बालोतरा (मारवाड़) में एक मग घी को तेरह आदमी खा जाते थे एवं वे मण के तेरिये कहलाते थे। नये हाकिम ने उनको देखना चाहा। लोगों ने कहा-हजुर घटती का जमाना है । अतः अब तो नी ही रह गये अर्थात नौ आदमी ही मन घी खा जाते हैं। २. बीकानेर में एक सेठानी ने खीर-पूड़े का श्राद्ध किया. सूंसा, सेजा एवं उनकी बहन लाज तीनों भाई बहन सबा मन दुध की खीर खा गये । कलकत में एक राजस्थानी ब्राह्मण में खाना खाकर ठाकुर से दो पापड़ मांगे । ठाकुर ने कहा-फुलके चाहे जितने ले लो, पारड़ दो नहीं मिल सकत । विवाद बढ़ा ब्राह्मण ने ५६ फुलके खाए। ठाकुर ने माफी मांगी एवं दूसरा पापड़ देकर पल्ला छुड़ाया। ४. हरियाणा के एक खिलाड़ी ने परम्पर विवाद करके ६० रोटियाँ मनाई । विस्मित लोगों के पूछने पर कहा-ये कोई रोटियां थोड़ी ही हैं, ये नो बुरकिया हैं। ___- हिन्दुस्ताग. ३० मार्च, १९७१ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग दूसरा कोष्टक ११५ ५. गंगाशहर के जगन्नाथ वैद्य विवाह के प्रसंग पर रतनगढ़ में पौने दो मामा बादाम का सीरा खा गए (एक धामे में लगभग ३-४ र सीरा समाता है ।) ६. डूंगरगढ निवासी छोगमलजी मूलचन्दजी भादानी ५-५ सेर बादाम की कलियाँ सा जाते थे । हरखचन्दजी भादानी ५-५ सेर आमरस पी जात े थे । ७. मागणी पायलो पधारे। दीक्षार्थी भानजी का पक्का पानी और दाल बाटियां अधिक देखकर रतनगढ़ के श्रावक कुशंकाहुए कार्योल उड़कर एक घड़ा पानी एक साथ पी गए श्रावकों की शंका दूर हुई । ८. चैनजी चिमनजी स्वामी ने चुरू में गुरुमुखरायजी कोठारी के यहाँ से दूध, दही, मक्खन, ठंडी रोटियाँ आदि १८ मेर करीब वजन की गोचरी की एवं विहार करके शहर के बाहर जाकर नाश्ता कर लिया। कोठारीजी ने पुछा कमी तो नहीं रही ? मुनि बोले-नाश्ता हुआ है, गोचरी तो आगे 'जाकर करेंगे। ६. चैनजी स्वामी एक बार आहार करने के बाद सवा सेर घी (अधिक आ गया था) डेढ़ मेर चीनी में मिलाकर खा गए । गृहस्थाश्रम में उन्होंने शर्त लगाकर गेहूँ से भरी हुई गाड़ी को अपनी पीठ पर उठाकर सारे गेहूँ ले लिए थे । १०. छोटूजी स्वामी ( जयपुर निवासी) दुपहरी (टीकन) में पाँच रुपये की बर्फी खा जाते थे। उन्होंने दीक्षा की अर्ज की, Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ कला के बीज तब जयाचार्य ने कहा, बर्फी कहाँ से मिलेगी ? छोटूजी बोले, बर्फी न सही, दो रोटी तां मिलेंगी । ११. बैंगकाक के सीमावर्ती नगर लोबपुर से आया हुआ एक ४२ वर्षीय ग्रामीण सामान्यतया खानेवाले ३० मनुष्य के बराबर भोजन खा जाता है। एक बार में तीन गलन पानी या सोडा - लैमन जैसे मधुरपेय की तीन-तीन पेटियाँ पी जाता है । - नवभारत टाइम्स, २४ मई, सन् १९६५ १२. विश्व में अधिक गेहूँ खानेवाला देश फांस है और अधिक चीनी खानेवाला पंजाब है । ¤ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राक्षसी-खुराकवाले व्यक्ति १. अखाड़े में किंगकांग के नाम से मशहर "स्माईल स्जाया" नामक व्यक्ति जिसे लोग दैत्याकार होने से इन्सानीपहाड़ भी कहा करते थे । १५ मई को सिंगापुर के अस्पताल में दो भागाशय्याओं पर मरा । इस किंगकांग का वजन था ४०० पाँड । वह दुनियां का सबसे शानदार कुश्तीबाज था। कहते हैं कि बह नास्ते में तीन दर्जन कच्चे अण्डे और रात के भोजन में ६ मुर्गे खाता था। वह हर रोज १०-१५ पौंड फल, एक पौंड पनीर और दो दर्जन पाइन्ट दुध भी भोजन में लेता था। रुस्तमे जमां गामा का दैनिक आहार था-त्रकरे की ४० टांगों का शोरबा, पाँच गेर गोश्त, २५ मेर दूध, एक सेर बादाम, आधा सेर घी और ३० पौंड फल । ३. २७५ पौंड वजनी रुस्तमेहिन्द दारासिंह जिसने, किंग कांग को वाई वर्ष पूर्व फ्रीस्टाईल कुस्ती में हगया था वजिम कर लेने के बाद हर रोज चार परिन्दों का शोरबा आधा किलो बादाम, पाव किला घी, चार किलो दूध और दस किलो फल लेता है । ११७ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बोज ४. एक डाक्टर ने मुआयना करके बताया कि फ्रांस के एम० डिलेयर का पेट गाय के जैसा था । वह दो घण्टों में ४२० पिन्ट जल पी जाता था। दस मिनटों में सौ गिलास बीयर पी जाता था । उसने दो दिनों में गावरांटी के २१० टुकड़े खा लिये थे। अपना आहार बदल-बदल कर लेने के शोक में वह जिन्दा मछलियां, कछुए तथा मेढ़क खा जाता था। -हिन्दुस्तान, ११ जुलाई, १६७० Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुफ्त का खाने वाले १. कॉक्स मेक फ्री आफ हार्सेम कान। -अंग्रेजी कहावत पार के पैसे दीवाली। पर पेटा जोर दिसा: - मराठी कहावत मपत नामाबर दिन काटने वालों के लिये । ३. परधर चौड़ा चीगटा, घर रा घर दे मांडा। परघर व्याह मंड्यो. नाकाजी, करो मीचड़ी में बांडा 1 ४. साठे कामे लापसी, सौर कामे सीरो: ___ मिलियां स छोड़े नही, नगदबाई । वीरों। --राजस्थानी दोहे ५. दीखत दीखे टाबर्यो. पगां सूधो पोली। एक बहन न छोटे से साधु को भोजन का निमन्त्रण दिया । साथ ने घर वी सारी खाद्यसामग्री खा डाली तब वहन ने कहापीरयो पोयो सगलो खाधी, अब तो कायक बोलो। साधु ने उत्तर दियाम्हे छो साधु रामानन्दी तीन लोक में डोला, थां रांड रोहीयो फूट्यो, धाप्या हुवां तो बोला । राजस्थानी दोहे Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० वववृत्त्वकला के बीज ६. भोजनं कुरु दुर्बुद्ध 1 मा शरीरे दयां कुरु ! परान्ने दुर्नभं लोके, शरीराणि पुनः पुनः || अरे मूर्ख ! भोजन करले, शरीर पर दया मत कर, क्योंकि संसार में पराया अन्न दुर्लभ है; शरीर तो फिर-फिर के मिलता ही रहता है। माले मुफ्त दिले वेरहम । -उर्दू कहावत मुफ्त री मुर्गी काजीजी ने हलाल। -राजस्थानी कहावत मुफ्त का चन्दन घस बे लाला। तूं भी घस, तेरे बाप को बुलाला । -हिन्दी कहावत Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिभोजन-निषेध १. घोरान्धकार रुदाक्ष:, पतन्तो यत्र जन्तवः । नैव भोज्ये निरीक्ष्यन्ते, तत्र भुजीत को निशि ॥ -योगशास्त्र ३४६ रात्रि में घोर अन्धकार के कारण भोजन में गिरते हुए जीव आँखों से दिखाई नहीं देते, उस समय कौन समझदार व्यक्ति भोजन करेगा! २. वाहुतिर्न च स्नानं, न थाई देवतार्चनम् । दानं वा विहित रात्री, भोजनं तु विशेषतः।। - योगशास्त्र ३०५६ अन्यमत में वहा है कि गत्रि में होम, स्नान, श्राड देवपूजन या दान करना भो उचित नहीं है, किन्तु भोजन तो विशेषरूप से निषिद्ध है। देवस्नु भुक्तं दुर्वात, मध्याह्न पिभिस्तथा । अपरालं च पितृभिः, सायाह्न दैत्य-दानवः ।। संध्यायो यक्ष-रक्षाभिः, सदा भुक्तं कुलोहह ! सर्ववेला व्यतिताम्य, रात्रौ भुक्तंमभोजनम् ।। -योगशास्त्र ३।५८-५६ हे युधिष्ठिर दिन के पूर्वभाग में देवों ने, मध्याह्न में ऋपियों ने Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ यवतृत्वकला के बीज अपराल्ल में गिलरों ने, सायंकाल में दैत्यों-दानवों ने, तथा मंत्र्या दिन रात की संधि के समय यक्षों-राक्षसों ने भोजन किया है। इन सब भोजनबेलाओं का उल्लंघन करके रात्रि में भाजन करना अभक्ष्य-भोजन है। ४. हन्नाभिपद्ममको व-श्चण्ड चिरपायतः । अता नक्तं न भोक्तव्य. मुक्ष्नजीवादनादपि । -योगशास्त्र ३१६० आयुर्वेद का अभिमत है कि शरीर में दो कमल होते हैं-हृदयकमल और नाभिकमल । सूर्यास्त हो जाने पर ये दोनों कमल संकुचित हो जाते हैं अतः रात्रि-भोजन निषिद्ध है । इस निषेध का दुरा रा कारण यह भी है कि रात्रि में पर्याप्त प्रकाश न होने मे छोटे-छोटे जीव भी खाने में आ जाते हैं। इसलिए रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए । अत्थंगयम्मि आइच्चे. पुरत्या य अगुग्गए । आहारमाइयं सव्वं, मशासा वि न पत्याए । -वशकालिक ८।२८ सूर्य के अस्त हो जाने पर और प्रातःकाल गूर्य के उदय न होने तक सब प्रकार के आहारादि की माधु मन में भी इच्छा न करे । रात्रि के समय यदि भोजन का जुद गार गाव नकी आ जाए तो थूक देना चाहिए । न वाकर वापिस-निगल जानेवाले साधु-साध्वी को गुरु वार्मासिक प्रायश्चित्त आता है। -निशीथ १०।३५ ७. मुर्य उदय हुआ जान कर साघु कदान आहार को यात्रक र खाने लगे, फिर यदि पता लग जाए कि सूर्य उदय नहीं हुआ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग दूसरा कोष्टक १२३ तो आहार को पर देना चाहिए। चाहे मुंह में हो, हाथों में हो या पात्र में हो। न परटनेवाले साधु-साध्वी को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है । - निशीय १०।३१-३२ ८. जे भिक्खु रा भोवतास्स वन्नं बदई बदनं वा साइज्जई । ११॥७६ जो साधु रात्रिभोजन की प्रशंसा करें एवं प्रशंसा करते हुए का अनुमोदन करे तो उसे मासिक-प्रायश्चित आता है । ६. कि जैनः रजनीभोजनं भजनीयम् ! क्या जैनलोगों को रात्रिभोजन करना चाहिए ? नहीं नहीं, कदापि नहीं । १०. नोदकमपि पातव्यं, रात्रौ नित्यं युधिष्ठिर ! तपस्विनां विशेषेण गृहिणां च विवेकिनाम् || 1 है युधिष्ठर ? रात के समय पानी भी नहीं पीना चाहिए, फिर भोजन का तो बहना ही क्या ? यह बात साधुओं को और विवेकी गृहस्थों को विशेष ध्यान देने योग्य है । ११. मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अरतं गतं दिवानाथे, भोजनं क्रियते कथम् ? अस्तं गते दिवानाथे, आप रुधिरमुच्यते । अन्नं माससमं प्रोक्तं मार्कण्डेयमहर्षिणा ।। रक्सीभवन्ति तोमानि अनानि शतानि च । रात्रौ भांजनसक्तस्य ग्रासे तन्मांसभक्षणात् ॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ वक्तृत्वकला के बीज स्वजन के मरने पर भी सूतक होता है तो फिर सुर्व के अस्त होने पर (मर जानेपर) भोजन कैसे किया जाए ? सूर्य अस्त होने के बाद मार्कडेय ऋषि ने पानी को खून एवं अन्न कों मांस के समान कहा है , क्योंकि रात्रिभोजन में आसक्त व्यक्ति के ग्राम में किसी जीव का मांस खाया जाने से पानी खून एवं अन्न मांसवत् हो जाता है । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि भोजन से हानि १. मेधा पिपीलिका हन्ति, समा कुजिलोरमः ! कुरुते मक्षिका वान्ति, कुष्ठरोमं च कॉलिकः ।।५०।। कण्टको दारुखण्डं च, वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तनिपतित-स्तालु विद घ्यति वृश्चिकः ॥५१॥ विलग्नश्च गले बालः, स्वरभङ्गाय जायने । इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशि भोजने ॥५२।। -योगशास्त्र भोजन के साथ चिउंटी खाने में आ जाय तो वह बुद्धि का नाश करती है, ज जलोदर रोग उत्पन्न करतो है, मक्खी से बमन हो जाता है और कोलिक-छिपकली से कोट उत्पन्न होता है ॥५०॥ काँटे और लकड़ी के टुकड़े से गले में पीड़ा उत्पन्न होती है, शाक आदि व्यंजनों में बिच्र्दू गिर जाए तो वह ताल को बेच देता है ॥५१।। गले में बाल फस जाए तो स्वर भंग हो जाता है। रात्रि भोजन में पूर्वोक्ता अनेक दोष प्रत्यक्ष दिखाई देते है ।।५।। उलूक-काक-मार्जार-गृध्र-शम्बर-शूकराः । अहि-वृश्चिक-गोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात् ।। -योगशास्त्र ३१६७ रात्रिभोजन करने से मनुष्य मरकर उल्लू, काक, बिल्ली, Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ वक्तृत्वकला के बोज गीच, सम्बर, शूकर, गर्म, बिच्छू और गोह आदि अधम गिने जानेवाले निर्वस्त्रों के रूप में उत्पन्न होती हैं। ३. इन्दौर में पुजारी का दब साँप ट गया, रात को उसे पीने से पुजारी मर गया। ४. उत्तरप्रदेश में रांधत समय स्वीर में साँप गिर जाने मे काफी बराती मर गए। मुजफ्फरनगर के गाँव में रात को पानी पीत समय बिछु आ गया एवं गले में डंक मारने गे, पानी पीनेवाला व्यक्ति मर गया। गोगुंदा (उदयपुर) में रात को खाते समय एक भाई के मुंह में आम के आचार की जगह मरी हुई चुहिया आ गई। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिभोजन के त्याग से लाभ १. ये रात्री सर्बदाहार, वर्जयन्ति सुमेधस : । तषां पक्षोपबासस्य, फल मासेन जायत । जो रात्रि भोजन का लदा त्याग कर देते हैं, उनको महीने में पन्दन दिन के उपनाम का फल यी Fro 'ना है। २. एक भक्ताजनान्नित्य-मग्निहोत्रफलां भवेत् । अनस्तभोजनो नित्य, तीर्थयात्राफ लभेत् । रात्रिभोजन का त्याग करने वाले को अग्निहोत्र का एवं तीर्थयात्रा का फल हमेशा मिलता रहता है । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूख १. खुहासमा वेपणा नस्थि । भूय के समान कोई भी दूसरी वेदना-गीड़ा नहीं है । २. नास्ति क्षुधासमं दुःखं, नास्ति रोगः क्षधाममः । भूख जैसा कोई दुःन नहीं और भूख जैसी कोई बीमारी नहीं। ३. जिधच्छा परमा रोगा। -धम्मपद १५७ भूम्न सबमें बड़ा रोग है। आहार मग्निः पचति, दोषानाहारवजितः । घातून क्षीणेसु दोषेषु, जीवितं धातृसंक्षये। -आयुर्वेद जठराग्नि आहार को पचाती है। आहार के अभाव में दोषों को, उनके अभाव में धातुओं को और उनके क्षीण होने पर जीवन को स्वा जाती है। ५. या सद्रूप विनाशिनी श्रतहरी पञ्चेन्द्रियोत्कपिणी, चक्ष : - श्रोत्र-ललाट दैन्यकरणी वैराग्यमुत्पाटिनी। बन्धूनां त्यजनी विदेशगमनी चारित्रविध्वंसिनी, सेयं बाध्यति पञ्चभूतदमनी क्ष त् प्रागसंहारिणी । -चन्दकेवलीरास जो रूप का विनाश करनेवाली है, झाग का हरण करनेवाली Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : दुगरा कोष्ठक है, पांच इन्द्रियों का उल्कार्पण करनेवाली है. आंब-कान-नाक को हीन-दीन बनाने वाली है. वैराग्य को उखाड़ फेवानेवाली है, स्वजन अन्धुओं से दूर करनेवाली है निदेशों में भटकाने वाली है, चारित्र का ध्वंस करने वाली है और पांचों भूतों का दमन करनेवाली है। वह प्राण-संहारिणो यह क्षधा सारे जगत को पीड़ित कर रही है। ६. अशनाया में पाप्मा मतिः। -ऐतरेय-बाहाण २२२ भूख ही सब पापों की जड़ एवं बुद्धि को नष्ट करनेवाली है । ७. आगी बड़बागि से बड़ी है भूख पेट की । -तुलसी कवितावली ८. भून रांड भंडी. आंख जाय अंडी। पग थाय पाणी, हैड़े नो आवे बारगी ।। बाजरानो रोटलो, तांदला नी भाजी। एटला बाना जस तो मन थाय राजी॥ - गुजराती पद्म ६. काम न देखे जात-कुजात, भूख न देखे बासी भात । नींद न देखें टूटी खाट, प्यास न देखे धोबी घाट । --हिन्दी कहावत १० ऊंघ न जुबै साथरो, भूख न जुवै भाखरो। -गुजराती कहावत ११. छुहा जाव सरीरं, ताव अस्थि । –आचारा पूलिका ११२ जब तक शरीर है, तब तक भूब है। १२. बुभुक्षां जयते वस्तु, स स्वंग जयते ध्र वम् । –महाभारत-अश्वमेघपर्व EOIR जो भूग्व को जीत लेता है , वह निश्चितरूप में स्वर्ग को जीत है लेता है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ !"... ܣܐ नू में स्वाद -- राजस्थानी कहावत १. सब सूं मीठी भूख । २. भोजन के लिये सबसे अच्छी चटनी भूख है । - सुकरात - ३. भूख मीठी के लापसी । - राजस्थानी कहावत ४. सम्पत्रतरमेवान्नं, दरिद्रा भुञ्जते सदा, क्षत स्वादुतां जनयति साचायेषु सुदुर्लभा । - विदुरनीति २५० गरीब व्यक्ति जो कुछ खाते हैं, स्वादिष्ट ही खाते हैं। भूख भोजन को स्वादिष्ट बना देती है । अनिकों को वह भूख दुर्लभ है । उन्हें प्राय: भूख कम लगती हैं। ५. तरुणं सर्पं पशाकं, नवौदनपिच्छलानि च दधनि । अल्पव्ययेन सुन्दरि । ग्राम्यजनो मिष्ठमनाति || ताजा सरसों का शाक और थिरकी सहित दही में बनाये हुए नये भावों के भोजन खाकर ग्रामीण लोग थोड़े ही खर्चे में मीठा भोजन कर लेते हैं । ६. दि फुल स्टमक लूथ्स दि हनी कोम्ब । भरे पेट पर शक्कर खारी । -अंग्रेजो कहावत ७. अमीर भूख की खोज करता है, गरीब रोटी की खोज - डेनिस कहावत करता है । १३० - Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ चकला के बीज ८. एक वे जिनके पास भूख से ज्यादा भोजन है । ' दूसरे वे, जिनके पास भोजन से ज्यादा भूख है । -- निकोलस चेम्फट ९. खावे जीती भूख, सोवे जीती नींद । -- राजस्थानी कहावत १०. मारवाड़ का एक चारण २३ रोटियां खाता था | दुष्काल पड़ा। घरवाले उससे नाराज सेने लगे । ठाकुर साहब के कहने पर उसने सात-सात दिन से एक-एक रोटी घटानी शुरू कर दी । आखिर तीन रोटी पर आ गया । ¤ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूखा १. भुम्ला मा रूखा। --राजस्थानी कहावत २. भूख्ये भक्ति न थाय मुरारी, न थाय जरारी। ___-गुजराती कहावत ३. भूखा भजन न होय गोपाला ; ले ले अपनी कंठी-माला । -राजस्थानी कहावत ४. दिड ना पईयां रोटीयां, सबे गल्ला बोटीयां । -पंजाबो कहावत ५. भूग्बी कूतरी भोटीला खाय । ६. भूरूपाने शुं लूखं । --गुजराती कहावततें ७. कोफतारा नातिही कोफतरत । - पारसी कहावत मूले के लिये मुस्थी रोटी भी मिठाई के बराबर हैं । ८. भूखो धायर्या पतीज । -राजस्थानी कहावत १. भूखो मारवाड़ी गावे, भूखो गुजराती सूवे, भूम्बो बंगाली भात-भान पुकारे । १०. हाथ सूको र टाबर भूखो। -राजस्थानी कहावते ११. बुभुक्षितः किं विकरेण भृङ्क्ते । भूया वयः दो हाथों से खाता है ! Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूखा क्या नहीं करता? १. त्यजेत् क्ष धार्ता महिला स्वपुत्र, खादेत् क्ष धार्ता भुजगी स्वमण्डम् । बुभुक्षितः किं न करोति पापं, क्षीगणा गरा निष्करण। भवन्ति ॥ -हितोपदेश ४।५६ आधा म पीडित श्री अपने पुत्र को त्याग देती है, सर्पिणी आपने अडों को ग्वा जानी है । भूत्रा व्यक्ति यया पाप नहीं करता ? क्षाण पुरुष निर्दय हो जाते हैं। २. अभीगतः हन्नु-भासद बुनतः । -मनुस्मृति १०।१०५ भुम्ब से व्याकुल अजीगर्न अपि ने अपने पुत्र शुनागेप को यज्ञ में होम करने के लिए येना । ३. क्षधात श्चात्त,मभ्यागाद् विश्वामित्रः स्वजाघनीम् । चाण्डालहस्तादादाय, धमाधम-विचक्षणः ।। --मनुस्मति १०५८ भूग्न से व्याकुल विश्वामित्र ऋषि पाण्साल के हाथ से लेकर कुत्ते की जांघ का मांस खाने को तैयार हुए । ४. भूख से पीड़ित होकर मृत बालिका को उसके बामभाई स्खा गये । -शातायत अ०१ ५. सन् १६४५ के गभग बंगाल में खाद्याभाव के कारण एक माता अपने बच्चे को पकाकर स्त्रा गई । ४ १३३ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेट १. पाँब दिये चलने-फिरने कहूँ , हाथ दिये हरिकृत्य करायो । कान दिये सुनिये प्रभु को यश . __नैन दिये तिन मार्ग दिखायो । नाक दियो मुख सोमन कारन , __जीभ दई प्रभु को गुगा गायो । सुन्दर साझ दियो परमेश्वर , पेट दियो कहा पाप लगायो । २. बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बाढि । यात हाथी हिहर के, दिये दाँत है काढ़ि । ३. अस्य दग्धोदरस्यार्थे, कि न कुर्वन्ति मानवाः । वानरीमिव वाग्देवी, नर्त वन्ति गृहेन्गृहे 11 इस पापी पेट के लिए मनुष्य क्या नहीं करते । सरस्वतीदेवी को भी वे वानरी की तरह घर-घर नचा रहे हैं। ४. वाथन कला वोह तर, किता मुख होय कवीश्वर, मुत दासी नो सोय, न्याय-सुध हाय नरेश्वर । कायर ने सूरा कहै, कहै सुम ने दाता , नरां घणां री नार, कहै आ लिछमी माता । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : दुसरा कोष्टक जाचवा काज जिशा-जिण विधे, हुलस हाथ हे धरै । दुभर पेट भरवा भणी, करम एह मानव करें ||१|| रचरण प्रवहा रचे, वोह नर बाहण बसे, अथग मीर - आगमे, पुर जोखा में पंसे । किणहिक वाय कुवाय, कोर कालेजा कंप, उत्थ न को आधार, जीव दुख किरण सू जपे । जल में नाव डूब जरं, विरलो कोइक ऊबर । दुभर पेट भरवा भगी. नरम एट सान? कौर राते परघर जाय, गीत गाव गीत रए । रावण का रोबगगां अधिक सीखे ऊगेरग ।। खांस बैठो कन्त, मल्ह पर-मंदिर जावै । ऊँची चड़ आवास, पुरुष पारका मल्हावै ।। ऊंचो साद तागें अधिक, एक पईसा कारें । दुभर पेट भरवा भणी, करम एह मानव करें ॥३॥ ५. सौ मानी कोठी भराम पग सवा सेर नी कोठी नुं पुरू न थाय। ६. दरिया नुं ताग आवे पण छः तसु छाती नु ताग न आवै । ७. पेट माटे लका जर्बु पड़े। ८. पेट भयुं एटले पाटग भर्यु । ६. आप जम्यां एटले जगत जम्यां । १०. सौर्नु हाथ मोमणी बले। -गुजराती कहावते Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकसा के बीज ११. बेली टीचज ऑल आर्ट स । --अंग्रेजी कहावत पेट सब हुनर सिखा देता है। १२. पेट थी सह हेठ, पेट करावे बेठ । १३. पहली पेट ने पछी सेट 1 --गुजराती कहावते १४. पहली पेट गुजा, पछ देव दुजा। -राजस्थानी कहावत १५. लज्जा स्नेहः स्वरमधुरता बुद्धयो यौवनश्रीः , कान्ता संगः स्वजनममता, दुःवहानि विलासः । धर्मः शास्त्रं, सुरगूमतिः शौचमाचारचिन्ता , णे सत्रे न पिठ मालिना समलिi. -पञ्चतंत्र ५९२ ला. स्नेह, रवर वा मिटाय, काम करने में बुद्धि, जवानी को शोभा, स्त्री रांग, स्वजना का अपनत्व, दुःख नाश, पलकूद आदि विलास, क्षमा आदि धर्म, देद आरि शास्त्र, कर्तव्य का विवेचन करनेवाली बुद्धि, बाह्याभ्यन्तर शुद्धि और सदानरण की चिन्ता ये सब बातें उदररूपी कुंड भर जाने पर ही म भवित होती हैं । १६. जब पेट भरा होता है तभी आदमी को धर्म और ईमान सूझता है , जब मन भरा होता है तभी आदमी को दर्शन और विज्ञान मूभता है , आत्मा परमात्मा मानयता और नैतिकता की बातें यूं बहुत अच्छी हैं। लेकिन हकीकत यह है किभूखे पेट को रोटी मे ही भगवान सुभता है ! -'खुले आकाश में से Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- पांचवा भाग : दुसरा कोष्ठक - १७. काकड़ी-चीभड़ कापी ने जोबाय पण चीरी ने जोवाय नहीं। -गुजरातो कहावत १८. जठर को न विर्भात केवलम् । मात्र पेट को कौन नहीं भरता? कुनो भी भर लेते हैं । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पानी १. पानी सपद , इसकी सीट में ऊंच-नोच, गरीब-अमीर का कोई भेद-भाव नहीं होता । यह समानरूप से सब की प्यास बुझाता है। २. पानी मिलनसार है। यह जिसके साथ मिलता है, उसी के अनुरूप बन जाता है। ३. पानी से बिजली पैदा होती है तथा इसमे कभी बढा नहीं पड़ता। चाहे नीचे कितना ही गहरा खड़ा हो, पानी __ ऊपर बराबर रहेगा। ४. पानी औषधि है। अंगुली आदि कटने पर या तेज बुखार होने पर इसकी पट्टी लगाई जाती है । ऋगवेद १०११३१७९ में कहा है आप इद्वा भेषजी आपो अमी वा चान नीः । आय सर्वस्वय भेषजी स्तारतेकण्वतु भेषजम् ।। जल औषधि है, वही रोगनाश का कारण है, वही गल व्याधियों की औषधि है । हे जल ! तुम लोगों की औषधि वनो । ५. अजीर्णे भेषजं वारि, जीर्णे वारि बलप्रदा। __ भोजनेचामृतंवारि, भोजनान्ते विषं जलम् ।। --- चाणक्यनीति १७ १३८ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : दूसरा कोष्ठक जलपान अजीर्ण में औषधि है, पचजाने पर बल देनेवाला है, भोजन के बीच में अमृत है, किन्तु भोजन के अन्त में जहर के समान अनिष्ट करनेवाला है। ६. प्रातकाल खटिया ते उठिके, पिये तुरत जो पानी। ता घर वैद्य कबहुँ न आवै, बात घाघ कहे जानी ॥ -घाघकवि ७. पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन सुभाषितम् । --चाणक्यनीति १४१ पृथ्वी में तीन रत्न हैं-जल, अन्न और सुभाषित | ८. पानी के बिना संसार में कुछ भी नहीं है एक बार बादशाह ने पूछा- ७ नक्षत्रों में से वर्ष के नक्षत्र निकाल दें तो शेष कितने रहे ? वीरबल ने कहाशून्य । तत्त्व यह है कि दस नक्षत्रों में ही बर्षा होती है । उनके अभाव में वर्षा न होगी और संसार शून्य हो जायगा । ६. सत्यं नाम गुणस्तवेव सहजः, स्वाभाविको स्वच्छता , किं ब्रूमः शुचितां ब्रजन्त्यश्चयः, सङ्गन यस्यारे । किं चातः परमस्ति ते शुत्रिपदं, त्वं जीवितं देहिना , स्वं चेन्नी च पथेन गच्छसि पयः ! कम्त्वां निरोड़ क्षमः । हे जल ! तेरे में सहज शीतलता है, स्वाभाषिक स्वच्छता है । लेरी पवित्रता के लिए क्या कहें ! तेरा संग होते ही अशुचि पर्वाय दूर हो जाते हैं। इससे बाकर तेरा क्या पवित्र पद हो ! तू ही देयारियों का जीवन है । है जान ! इतना कुछ होने पर Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० वला के बीज भी यदि तु नीचे की ओर जाता है, तो अब तुभे कौन रोक सकता है ? १०. बटेमार्गाने दाणी रोके, के पाणी रोके । - गुजराती कहावत ११. फारस की खाड़ी के उत्तर कुबेत रियासत में मंत्र द्वारा दस लाख गैलन खारा पानी भीठा बनाया जाता है। - नवभारतटाइम्स, १ मई, १६५५ १२. सबसे ऊँचा झरना अफ्रीका में जो आउमान पर्वत से भरता है, एक गोल ऊंचा है । १३. दुनियाँ की सबसे बड़ी नमरीका में रोि है तथा भारत राजस्थान में जयसमंद (५४ वर्गमील) है | १४. फिलस्तीन की डेडसी नामक भील का पानी बेहद खान होने के कारण इतना भारी है कि आदमी उसमें तेर नहीं सकता और डूब भी नहीं सकता । १५. एक एकड़ भूमि में होनेवाली एक इंच भार लगभग २२६५१२ पौंड होता है । - पंजाब केसरी, - सर्जना, पृष्ठ ३३ के पानी का विसम्बर १९७० १६. न्यूजीलैंड में एक विचित्र झरना है, जिसका प्रवाह बंद हो तो थोड़ा-सा साबुन फेंकने से वह गरजता हुआ २०० फुट तक ऊंचा उठता है, लेकिन पत्थर आदि फेंकने से हिलता भी नहीं । - दैनिक हिंदुस्तान, ३० मई, सन् १९७१ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : दूसरा कोक तो समृद्दा पगईए उदगरमेणं, पारगत सं. जहा- कालोदे, पुवखरोदे, सयंभुगमए । ता समुद्दा बहुँ महाकच्छ भाइपणा पपत्ता, ते नहा- लबणे, कागोदे, सयं भुरमणे । -.-:ना नीन ग़मुद्र म्वभाव से ही मामान्य पानी के समान स्वादवाले हैं११) कालोदधि (२) पुष्क रोदधि (३) स्वयंभूरमणसमुद्र । तीन समुद्र मच्छ-कच्छप आदि अलजन्तुओं से अश्विक भरे हुए हैं(१) लवणसमुद्र. (२) कालोदधि, (३) स्वयंभूरमणसभुद्र । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा कोष्ठक मोक्ष-(मुक्ति) १. एगे मोक्खे । -स्थानांग १ आठों कर्मों के नाशक एक है । २. पाँच प्रकार की मुक्ति : १. सालोक्यः- भगवान के समान लोक-प्राप्ति । २. साष्टि:- भगवान् के समान ऐश्वर्य-प्राप्ति । ३. सामीप्य:- भगवान् के समीप स्थान-प्राप्ति । ४. सारूप्य:- भगवान् के समान स्वरूप-प्राप्ति । ५. सायुज्य:- भगवान् में लव-प्राप्ति । भागवत ३।२६।१३ १४२ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष की परिभाषाएँ १. विवेगो मोक्नो । -आचाराङ्ग चूणि १७६१ वस्तुतः विवेक ही मोक्ष है। २. सत्रारंभ-परिग्गहणिक्वेवो, सन्त्रभुतसमया य । एक्करगमणसमाहाणया य, अह एत्तिओ मोक्खो। हत्कल्पभाष्य ४५८५ सब प्रकार के आरम्भ और परिग्रह का त्याग, मब प्राणियों के प्रति समता और चिस की एकाग्ररूपसमाधि-वस इसना मात्र मोक्ष है । ३. कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वरूपावस्थानं मोक्षः। -अनसिद्धांतदीपिका ५।३९ समस्त कर्मों का फिर बन्धन हो-ऐसा जहामून से कर्मक्षय होने पर आत्मा जो अपने ज्ञान-दर्शनमय-स्वरूप में अवस्थित होती है, उसका नाम मोक्ष है। ४. अज्ञानहृदयग्रन्थि नाशो मोक्ष इतिस्मृतः। -शिवगीता हृदय में रही हुई अज्ञान की गांठ का नाश हो जाना ही मोक्ष कहा गया है। आत्मन्येवलयो मुक्ति-र्वेदान्तिक मते मताः। -विवेकविलास वेदान्तिक मत के अनुसार परब्रह्मस्वरूप ईश्वरीय शक्ति में लीन हो जाना मुक्ति है। १४३ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ६. भोगेच्छा मात्र कोबन्ध - रतस्यागो मोक्ष उच्यते । कला के वीज ८. - योगवशिष्ठ ४।३५।३ भोग की इच्छामात्र बन्ध है और उसका त्याग करना मोक्ष है । ७. प्रकृति त्रियोगो मोक्षः । -षड्दर्शन समुदय ४३ सांख्यदर्शन के अनुसार आत्मारूप पुरुषतत्व में प्रकृतिरूप पुरुषतत्त्व भौतिकतत्त्व का अलग होजाना मां है । कामानां हृदयोबासः संसार इति कीर्तितः । तेषां सर्वात्मना नाश मोक्ष उक्तो मनीषिभिः ।। हृदय में कामादादि विषयों का होनर संसार है एवं उनका समूल नष्ट हो जाना मोक्ष है - इस प्रकार मनीपियों ने कहा है । ६. वित्तमेव हि संसारो, रागादिवलेशवासितम्। तदेव तंत्रनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥ - बोख रागादि क्लेशयुक्त चित्त ही संसार है। वह यदि रामादिमुक्त हो जाय तो उसे भवान्त अर्थात् मोक्ष कहते हैं । १०. नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न स तत्त्ववादे | न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्ति, कषायमुक्तिः किलमुक्तिरव ॥ - हरिभद्रसूरि मुक्ति न तो दिगम्बरत्व में है, न स्वेताम्रत्व में, न तर्कवाद में है, न तत्त्ववाद में तथा न ही किसी एक पक्ष क सेवा करने में है । वास्तव में क्रोध आदि कपायों से मुक्त होना ही मुक्ति हैं। ¤ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-स्थान अस्थि एगं धृवं हारगं, लोगगमि दुरारुहं । नत्थि जन्थ जरा-मन्नू, बाहिणो वेयरणा तहा ।। १ ।। निवारणति अवाहंति, सिद्धी लोगग्गमेव य । खेम सिवं अरगावाहं, जं चरति महेसिंगो ।। ३ ।। - उत्तराभ्ययन २३ लोक के अग्रभाग पर एक ऐसा दुरारोह-भ्र वस्थान है, जहाँ गरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना नहीं है ।।८१|| वह स्थान निर्वाग, अध्यावाघ, सिद्धि, लोकाय, क्षेम, शिव और अनावाव नाम से विख्यात है । उसे महर्षि लोग प्राप्त करते २, तंटा साभयं वास, जं मुंपत्ता न सोयति । --उत्तराध्ययन २३।८४ वह मोक्षस्थान शाश्वत निवासवाला है, जिम पाकर आत्माए शौकहित हो जाती हैं। ३. अविच्छिन्न मुत्रं यत्र, स मोक्ष परिपत्यते। -शुभचन्द्राचार्य जहाँ शाश्वत सुख है, उसे मोक्ष वाहते हैं । ४. स मोक्षा योऽपुनर्भवः ! -भागवत जहाँ जाने के बाद फिर कभी जन्म नहीं होता, वह मोक्ष है । १४५ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्यकला के बीज ५. अभिलाषापनीतं यत्, तज्ज़ यं परमं पदम् -मोक्षाष्टक अशा, तृष्णा, मूर्छा आदि सभी प्रकार की विकृत भावनाओं का जहाँ अभाव है, वह परमपद मोक्ष है । अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्त स्तमाहः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते, तहाम परमं मम || --गीता मा२३ जो भाव अव्ययत एवं अशर है, उसे परमगति कहते है । जिस सनातन-अव्ययत भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापिस संसार में नहीं आते, वह मेरा परमधाम' है ! ७. न तद् भासयते सूर्यो, न शशाङ्को न पावकः । यद् गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं मम ।। -गीता १५१६ जिंग स्वयं प्रकाशमय परमपद को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा एवं अग्नि प्रकाशित कर सकते है तथा जिस पद को पाकर मनुप्य पुनः संसार में नहीं आते, वह मेरा परमधाम है। ८. संसार भाड़े का घर है । वह समय होने पर सबको (चाहे देवता भी हों) खाली करना ही पड़ता है । मुक्ति अगना निजी घर है, जहाँ निवास करने के बाद कभी निकलना नहीं पड़ता। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष मार्ग १. पणए बोरे महाबिहि, सिद्धिपहं गोयाज्यं धुत्रं । -सूत्रकृतांग थ तस्कन्ध २१११२१ मुक्तिमार्ग महान् विधिरुप है । न्याययुक्त एष शाश्वत है। वीरपुरुष नम्र होकर उस पर चलता है। २. नाणं च दंसरगं वेव, चरित च तवो तहा । एसमगुत्ति पन्नत्तो, जिरोहिं वरदंसिहि ।। __ --उत्तराध्ययन २८ार सम्बम्जान, सम्यगदर्शन, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्ता मुक्ति का यह मार्ग विशिष्टज्ञानी जिनेश्वरों ने कहा है । ३. सम्यगदर्शन-ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । -तत्त्वार्यसूत्र ११ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, एवं सम्यक् चारित्र-यह मोक्ष-मागं है । १४७ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ मोक्ष के साधन १. मोक्खसम्भूय साहरणा, नाणं च दंसणं चेव चरित चेव । J - उत्तराध्ययन २३३३ सम्यग् ज्ञान- दर्जन चारित्र - वे मोक्ष के सावन है। २. गाणं ग्यासगं, मोहओ तवो, संजमो य गुतिकरो । तिण्हंग समाजोगे, मोक्खो जिरणसासणे भओ ।। --आवश्यक नियुक्ति १०३ ज्ञान प्रकाश करता है, तप विशुद्धि करता है एवं संयम पापों का निरोध करता है। तीनों के समयोग से ही मोक्ष होता है । यही जिनशासन का कथन है । ३. नारणस्स सभ्वस्स प्रशासरणाए, अन्नारण मोहस्स विवज्जरणाए । रागस्स दोसस्स य संखए एगंत सोक्खं समृवेश मोक्खं ॥ P - उत्तराध्ययन ३२१२ सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान एवं मोह के विवर्जन से तथा राग-द्व ेष के क्षय से आत्मा एकान्तनुखमय मोक्ष को प्राप्त होती है । ४. नारा-किरियाहि मोक्खो । - विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३ ज्ञान एवं क्रिया (आचार) से ही मुविन होती है । ५. जे जत्ति आ अ हेउ भवस्स, ते चैव तत्तिया मुक् । १४८ - ओघ नियुक्ति ५३ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग सोसरा कोष्ठक १४६ जो और जितने हेतु संसार के हैं, वे और उतने ही हेतु मोक्ष के हैं । ६. मोक्षद्वारे द्वारपाला इचत्वारः परिकीर्त्तिताः । शमो विचारः संतोष वचतुर्थः साधुसंगमः ॥ - योगवाशिष्ठ २।१६।५८ मुक्तिमहल के चार द्वारपाल हैं- ( १ ) शान्ति, (२) सद्विचार, (३) सन्तोष, (४) साधुसंगति । ७. मुक्तिमिच्छसि चेत् तात ! विषयान् विषवत् त्यज । क्षमार्जव दया-शौचं सत्यं पीयूषवत् पिब || J - चाणक्यनीति है|१ यदि मुक्ति पाने की इच्छा है, तो विषयों को विषतुल्य रामभकर छोड़ो और क्षमा, सरलता, दया, पवित्रता एवं सत्य का अमृतवत् पान करो । ¤ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षगामी कौन ? १. गाणस्म दंसरणस्स य, सम्मत्तस्स चरित्तजुत्तस्स । जो काही उवओगं, संसाराओ विमुचिहिति ॥ -आतुरप्रत्याख्यान २० जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उपयोग करेगा, वह मंसार से छुटकारा पायेगा-मुक्त बनेगा । २. जंविच्चा निव्वुड़ा गे: निटू पावंति पंडिगा । -सूत्रकृतांग १५।११ जिन मग्मग ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना .र के अनेक महागम्प निर्वाण को प्राप्त हुए हैं, उन्हीं की आराधना द्वारा विद्वान दिदि को प्राप्त करते हैं। ३. सयं वोच्छिंद काम-संचयं, कोसारकीडेव जहाइ बंधा। -ऋषिभाषित जसे-रेनम का कीड़ा अपने बन्धनों को तोड़ता है, उसी प्रकार आत्मा स्वयमेव कर्मबन्धनों को तो कर मत होती है । ४. निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या बिनिवृत्त कामाः। द्वन्द्व विमुक्ताः सुख-दुःखसंज-गच्छन्त्यमूढ़ा पद व्ययं ते ।। गीता १५।५ वे नपुग्ष ही अव्यय पद-मोक्ष को प्राप्त होते है, जो मानमोह से रहित हैं, आसक्तिदोष को जोतोवाले हैं, सदा अध्यात्म Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : तीसरा कोष्ठक १५१ भाव में स्थित हैं, कामनाओं से निवृत्त हैं और सुख-दुःख नाम के द्वन्द्वी से मुफ्त हो चुके हैं 1 ५. य इत् तद्विदुरते अमृतमानशुः । -अथर्ववेद ॥१०१२ जो उस उस ब्रह्म को जान लेते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं । ६. यः स्नाति मानसे तीर्थ, स वै मोक्षमबाप्नुयात् । -पुराण जो सत्य, शील, क्षमा, अहिंसा आदि मानसतीर्थ में स्नान करता है. वही मोक्ष को प्राप्त होता है । ७. सकामः स्वर्गमाप्नोति, निष्कामो मोक्षमाप्नुयात् ।। -अत्रिस्मृति फलप्राप्ति की भावना से धर्म करनेवाला स्वर्ग एवं निष्काम भाव से धर्म करने वाला मोक्ष पाता है 1 ८. मोक्ष जाते समय भौतिक चीजें तो छोड़नी पड़ती ही हैं, लेकिन साधनभूत (घोड़े की तरह) धर्मक्रिया भी छोड़नी पड़ती है। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ P १. न सुखाय सुखं यस्य दुःखं दुःखाय यस्य नो । अन्तर्मुखमतेयस्य स मुक्त इति उच्यते ॥ मुक्त आत्मा — योगवाशिष्ठ ६।२/१६६।१ जो अन्तर्मुखी बुद्धिवाला मुख को सुख एवं दुःख को दुःख नहीं मानता. वह 'मुक्त' कहलाता है । २. नोदेति नास्तमायाति सुखे दुःखे मुखप्रभा । यथाप्राप्तस्थितर्यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते । १५२ - योगवाशिष्ठ ।१६२१ जो कुछ प्राप्त हो उसी में प्रसन्न रहनेवाला वह व्यक्ति जीवनमुक्त कहलाता है, जिसकी सुखकान्ति सुख में बढ़ती नहीं एवं दुःख में घटती नहीं 1 ३. अस्तुति निन्दा नांहि जहिं, कंचन- लोह समान । कहे नानक सुन रे मना । ताहि मुक्त तू जान || ¤ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध भगवान उम्मुक्ककम्मकबया अजरा अमरा असंगा य । ॥२०॥ सिद्ध आत्माए" कम कवच से मुक्त हैं, अजर हैं, अमर हैं और असंग हैं। गिनिजलसध्यनकर". जा-जागरणा-पंधरा तिमुत्मा । अव्वाबाह सोक्शं, अणुहोति सासयं सिद्धाः ॥२१॥ जिन्होंने शारीरिक-मानसिक दुःखों को छेद डाला है, जो जन्मजरा-मरण के बन्धनों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे सिद्ध-मुक्त आइमाएँ अव्याबाब शाश्वतमुस्त्रों का अनुभव करते हैं । सव्वमणागयमद्ध, चिट्ठति सुही सुहंता । –औपपातिक सूत्र सिद्धवर्णन, ॥२२॥ सिद्ध आत्माएँ सदाकाल शाश्वत सुखों में स्थिर रहती हैं। एतस्मान्न पुनरावर्तन्ते । -प्रश्नोपनिषद् उस स्थान से मुवत आत्माएं पुनः संसार में नहीं आतीं। ३. तेषु ब्रह्मलोकेषु परापराबतो वसन्ति, तेषां न पुनरावृत्तिः। ___-हदारण्यकोपनिषद् उन ब्रह्मलोकों में मवत आत्माएँ अनन्त काल तक निवास करती हैं। उनका पुनः संसार में आगमन नहीं होता। १५३ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ के बीज सिद्धों के १५ भेद ४. सिद्धा पारस विहा पण्णत्ता, तंजा - - (१) तित्थसिद्धा, (२) अतित्थसिद्धा, (३) वित्थगरसिद्धा, (४) अतित्थगरसिद्धा, (५) सबुद्धसिद्धा, (६) पत्त यबुद्धसिद्धा, (७) बुद्धबोहियसिद्धा, (८) इत्थीलिंग सिद्धा (2) पुरिसलिंग सिद्धा, (१०) नपुं संग लिगसिद्धा, (११) सलिगसिद्धा, (१२) अन्नलिगसिद्धा, (३) गिहिलिंग सिद्धा, (१४) एगसिद्धा, (१५) अगसिद्धा | - प्रज्ञापना १ (१) तीर्थसिद्ध, (२) अतीर्थसिद्ध, (३) तीरसिद्ध, (४) अतीर्थरसिद्ध (५) स्वयंसिद्ध (६) प्रत्येक बुद्धसिद्ध, (७) बुद्धबोदितगिद्ध, (८) स्त्रीलिङ्क सिद्ध, (९) पुरुषलिङ्गसिद्ध (१०) नपुंसकलिङ्ग, (११) स्वलिंगसिद्ध, (१२) अन्य लिंगसिख, (१३) गृहस्थ लिगसिद्ध, (१४) एक सिड, (१५) अनेकसिद्ध 1 ५. सिद्धों के ३१ गुण- नव दरिणम चत्तारि आए पंच आइमे-अंते । से से दो-दो भैया, खीर भिलावेण इगतीसं । - समवायाङ्ग ३१ आयों कर्मों की प्राकृतियों को अलग-अलग गिनने से सिद्धों के ३१ गुण हो जाते हैं । जैसे :-- ज्ञानावरणीयकर्म को ५ दर्शनावरणीयकर्म की है, वेदनीय कर्मको २, मोहनीय कर्म की २, (दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय) आयुकर्म की ४, नामकर्म की २ ( शुभनाम और अशुभनाम) गोक्कर्म की २ (उच्चगोत्र और तीन गोत्र ) तथा अन्तरायकर्म की ५ – इन ३१ प्रकृतियों के क्षय होने से सिद्धों के ३१ गुण प्रकट होते हैं। मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षय होने से Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : तीसरा कोष्ठक १५५ वे क्षीणमतिमानावरणीय कहलाते हैं यावत् वीर्यान्तराय के क्षय होन से सीणधीर्यान्तराम कहलाते हैं। जीवेणं भन्ते ! सिझमाणे कयामि आउए सिम्झइ ? गायमा ! जहन्नेगां साइरेगछवासाउए, उक्कोमेणं पुबकोडियाउए सिझइ । औपपातिकसूत्र सिद्धवर्णन भगवन् ! जीव किम आयु मे सिद्ध-मुक्त बन सकता है ? गौतम ! जनन्य माधिक आठ वर्ष में और उत्कृष्ट करो त्र को आयु में सिद्ध बन सकता है । ६. बतीला अडयाला, सट्ठी बाबत्तरिय बोधन्वा । चुलसीई छिन्न वई य, दुर्राह्य अछुत्तरसयं च । -प्रतापना १ एक समय में अधिक गे अधिक कितने जीव सिद्ध हो सकते हैं ? इसके लिए बतलाया गया है कि यदि प्रति समय १-२-३ पावत ३२ जीव निरमा सिद्ध हों तो आठ समय तक हो सकते हैं। उसके बाद निस्चित रूप से अन्तर पड़ता है। सेतीस से अड़तालीस तक जीव निरन्तर सात समय, उनचास से साठ तक जीव निरन्तर छ: समय, इकसठ से बहत्तर तक जीव निरन्तर पांच समय, तिहत्तर से चौगसी सक जीव निरन्तर चार समय, पचासी से रिलयानजे तक जीव निरन्तर तीन समय तथा सतानवे से से एक को दो तक जीव निरन्तर दो समय तक सिद्ध हो सकते हैं । पिर निश्चित रूप में अन्तर पड़ता है। एक सौ तीन से लेकर एक मौ आठ तक जीब यदि सिद्ध हों तो केवल एक ही समय हो सकते हैं, अर्थात् एक समय' में १.३ मावत १.८ सिद्ध होने के बाद दूसरे समय अवश्य अन्तर पड़ता है। घो, तीन आदि समय तक निरन्तर उत्कृष्ट सिद्ध नहीं हो सकते। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAS ई मुक्ति के सुख १. आत्मायतं निराबाध-मतीन्द्रियमनीश्वरम् । घातिकर्मक्षयोद्भूतं यत्तन्मोक्षसुखं विदुः ॥ - तस्वानुशासन २४२ जो मुख स्वाधीन है, बाधारहित है, इन्द्रियों से परे है-आत्मिक है, अविनाशी है और ज्ञानावरणीय आदि चातिक कर्मों के क्षय होने से प्रकट हुआ है, उसे मुक्ति कहा जाता है २. वि अत्थि मगुस्सारणं तं सोक्ख या विय सष्वदेवारणं । जं सिद्धाणं सोक्शं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥ जं देवारणं सांक्ख, सन्नद्धा पिंडियं अनंतगुणं । रंग य पावइ मृप्तिसुहं ताहि वग्ग-वहिं ॥ - औपपातिक सिद्धवर्णन, गाया१३-१४ निराबावयवस्था को प्राप्त सिद्धों को जो मुख हैं, वैसे न तो मनुष्यों के पास है एवं न सभी प्रकार के देवों के पास हैं । देवताओं के तीनों (भूत, भविष्यत् वर्तमान) काल के सुखों को एकत्रित किया जाय, फिर उन्हें अनन्तवार वर्ग अर्थात् गुणित किया जाय तो भी वे क्षण-भर मुक्तिसुखों के बराबर नहीं हो सकते । १५६ * Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संसार १. संसरणं संसारः भवाद् भवगमनं. नरकादिषु पुनभ्रंमणं वा । --विशेषावश्यक-भाष्य मंसरण करना एवं एक भव से दूसरे भव में जाना अथवा नरकादि चार गतियों में पुनः गुनः भ्रमण करना संसार कहलाता है । जीवा चेत्र अजीवा य, एस लाए वियाहिए । अजीवदेसमापो अलोट में विवादिर: --उत्तराध्ययन ३६।२ जिस आकाश के भाग में जीव-अजीव दोनों रहते हों, उसे लोक कहते हैं 1 जहाँ केवल आकाश ही हो, धर्म-अधर्म आदि न हों, उसे अलोक कहते हैं। धम्मो अहम्मो आगास, कालो पुग्गल-जन्तवा । एस लोगोत्ति पनत्तो, जिगोहिं बरदसिहि ।। --उत्तराध्ययन २८७ धर्म, अधर्म, आकाश, काल, गुद्गल -ये पांच अजीव और छठा जीव-पे छः द्रव्य लोक की आत्मा हैं । अतः जो यह पउद्ध्यान्मक है, यही लीक है..जोमा श्रेष्ठदर्शन के धारक श्रोजिनभगवान ने कहा है। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ४. विचार के सिवा जगत् और कोई चीज नहीं है । क्त्वकला के बीज - महर्षिरगण ५. अच्छी-बुरी सभी प्रकृतियों के व्यक्तियों के संमिलन से हो विश्व को रचना होती है । -डॉ. रास. ने रोल्ड x Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १. अणते निलिए लोए, सासए न बिएस्सइ । संसार का स्वरूप १/४/६ यह लोकव्य की अपेक्षा से नित्य है, शाश्वत है एवं इसका कभी नाश नहीं होता । २. अनाविरेष संसारो, J नानागतिसमाश्रयः । पुद्गलानां परावर्ता अत्रानन्तास्तथागताः ॥ - सूत्रकृत सात प्रकार का पुद्गलपरावर्तन कहा है-(१) औदारिकन्पुद्गल परावर्तन (३) तेजस मुद्गल परावर्तन, (५) स्वासोच्छ्वास - योग चिन्दु ७० नरक आदि गतिरूप पर्यायों का आश्रय यह संसार अनादि है । इसमें अनन्त पुद्गलपरावर्तन व्यतीत हो चुके हैं। ३. सत्तविहे पोगलपरियट्टे पत्ते तं जहा ओरालिय मोग्गल परियटूटे बेडब्बिय-पोगलपरियट्टे एवं तेमाकम्मा-मरण-वइ-आणूपारण-पोगलपरियट्टे । - भगवती १२०४ तथा स्थानास ७५३६ ( २ ) वैक्रिय गुगल परावर्तन (४) कार्मण- मुदगलपरावर्तन, मनः- पुद्गलपरावर्तन (६) वचन-पुदगल परावर्तन ( ७ ) परावर्तन 1 ('मोक्ष प्रकाश' ६१५ में इसका विस्तृत विवेचन है | ) १५६ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ४. तिहि ठाणेहिं लोगंधयारे सिया, -अरिहंतहि बोच्छि ज्जमाणेहि, अरिहन्त पन्नत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, पुव्व. गए वा वोचिछज्जमाणे। ...स्थानाङ्ग ३१ तीन कारणों से लोक में अन्धकार होता है । १. अरिहन्तभगवान् का विच्छेद होने से, २. अरिहन्तप्ररूपित-धर्म का विच्छेद होने से ३. पूर्वी के ज्ञान का विच्छेद होने से । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संसार के भेद १. चउविहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा दव्वसंसारे, खेत्तसंसारे, कालसंसारे, भावसंसारे । चार प्रकार का संसार कहा है (१) द्रव्य रूप - द्रव्यसंसार (२) चतुर्दशरज्जु -परिमित क्षेत्ररूप क्षेत्रसंसार ( ३ ) दिन-रात, पक्ष-मास यावत् पुद्गलपरावर्तनों तक परिभ्रमण रूप काल संसार (४) कर्मोदय से उत्पन्न होनेवाले विभिन्न राग-द्वेषात्मक विचाररूप भावसंसार । - —स्थानांग ४११।२६१ २. चउबिहे संसारे पण्यते तं जहा - रइयसंसारे जाव देवसंसारे । स्थान ४|११२६४ चार प्रकार का संसार कहा है (१) नैरयिकसंसार, (२) तिर्यञ्च संसार, (३) मनुष्यसंसार, (४) देवसंसार | -- १६१ ३. जीवाणं नवहिं ठाणेहि संसारं वत्तिसु वा वतसि वा वसिति वा तं जहा पुढवीकाइयताए जाव पंचेंदियकाइ यत्ताए । — स्थानांग ९ ३६६६ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..२ धक्तृत्वकला के बीज जीवों ने नव स्थानों में संसार का अनुभव किया, कर रहे हैं एवं कारेंगे-पृथ्वीकाय के रूप में यावत् पञ्चेन्द्रिय के रुप में । ४. लख चौरासी योनि में. गंगा बादर लाख ! बत्तीस लाख है बोलता, लख चौपन बिन नाक ।।' १ चौरपसो लाख योनी के जीवों में पृथ्वी-अप-तेजस्-वायु-इन चारों के सात सात लाख ; प्रत्येक बनस्पति के दम लाख और साधारण वनस्पति के १४ लाख-ये ५२ लाग्य गंगे हैं अर्थात् जीभरहित हैं। शेष बत्तीस लाम्य बोलनेवाले हैं-जीभमाहित हैं। पूर्वोक्त ५२ लाख और द्वीन्द्रिय के दो लाख-ऐसे ५४ लास्त्र' नाकरहित हैं। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ दुःखरूप संसार १. दुहरूवं दुह फलं, दुहाणुबंधी विडंबणारूव । संसार जारिण उरण, नापी न रई तहि कुणइ ।। यह संसार रोग-शोक आदि दुःखरूप है, नरकारि दुःखरूप फलों का देनेवाला है, बारम्बार दुःखों से सम्बन्ध जोड़नेवाला है एवं विडंबनारूप है-ऐसा जानकर ज्ञानी को इस संसार से राग नहीं करना चाहिए। पास लोए महाभयं। - आचारागार देखो । यह संसार महाभयवाला है । ३. एर्गतदुक्खं जरिए व लोए 1 - तांग १७१११ यह संसार ज्वर के समान एकाम्त दुःखरूप है । ४. मच्चुणाम्भाहओ लोओ, जराए परिवारिओ। -उत्तराभ्ययन १४१३३ यह संसार मृत्यु से पीड़ित है एवं वृद्ध-अवस्था से घिरा हुआ है। ५. मृत्युनाम्याहत्तो लोको, जरया परिवारितः । अहोरात्राः पतन्त्येते, ननु कस्मान्न बुध्यसे ।। महाभारत शान्तिपर्व, १७५९ पुत्र ने कहा-पिताजी ! यह सम्पूर्ण जगत् मृत्यु के द्वारा मारा भा रहा है। बुढ़ापे में इसे चारों ओर से घेर लिया है और ये Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ वक्तृत्वकला के बीज दिन-रात ही वे व्यक्ति हैं-जो सफलतापूर्वक प्राणियों की आयु का अपहरणस्वरूप अपना काम कर के व्यतीत हो रहे है। इस बात को आप समझते क्यों नहीं ? (उक्स पिता-पुत्र संबाद उत्तराध्ययन १४ से मिलता-जुलता है ।) ६. प्रदीप्ताङ्गारकल्पोयं, संसारः सर्वदेहिनाम् । -त्रिषशिलाका पुरुषचरित्र मभी प्राणियों के शिकायत पार पाकने हा अंगारे के समान है। ७. डाझमाणं न बुझामो, राग-सिम्रि, रणा जगं । --उत्तराध्ययन १४।४३ राग-द्वषरूप अग्नि से जलते हुए इस संसार को देखकर भी हम नहीं समझते । ८. बहु दुक्खा हु जंतवा । -आचाराङ्ग ६१ संसारी जीब बहुत दुःखों से घिरे हुए हैं । ६. न त दस्ति दुःख किचित्, संसारी यन्न प्राप्नोति । योगवाशिष्ठ २।१२।४ ऐसा कोई भी दावा नहीं है, जो संसारियों को सहना न पड़ता हो। १०. सारीरा माणसा चेव, बेयगाओ अणंतसो।। --उस राध्ययन १६४६ इस संगार में शरीरसम्बन्धी और मनसम्बन्धी अनन्न वेदनायें हैं । ११. जम्मदुक्खं जरादुर. रोगा य मर ग य । अहो ! दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जंतुगो ।। - उत्तराध्ययन १९१६ जन्म का दुःख है, वृद्ध अवस्था का दुःख है, रोग एवं मृत्यु का -..MADH.. Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग : तीसरा कोष्टक १६५ दुःख है । अहो ! वह संसार निश्चितरूप से दुःखमय है एवं इसमें प्राणी दुःख पा रहे हैं। १२. हर सांझ वेदना एक नई, हर भोर सवाल नया देखा । दो घड़ी नहीं आराम कहीं, मैंने घर-घर जा जा देखा । - हिन्दी कविता १३. गतसारेऽत्रसंसारे, सुख-भ्रान्तिः शरीरिणाम् । लालावानमिवाङ्गुष्ठे, बालानां स्तन्यविभ्रमः ॥ - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३८४ इस निःसार संसार में सुख न होने पर भी अज्ञानी जीव भ्रमवश सुख मानते हैं । जैसे- बच्चे अँगूठे के साथ अपनी लग्न (थुक) को चुसकर भी भ्रमवश उसे माता के स्तन का दूध समझते हैं १४. छोड़कर निश्वास कहता है नदी का यह किनारा, उस किनारे पर जमा है, जगत भर का हर्ष सारा । वह किनारा किन्तु लम्बी साँस लेकर कह रहा है हाय रे । हर एक सुख उस पार ही क्या वह रहा है ? " - हिन्दी कविता १५. यह जगत् काँटों की बाड़ी है, देख-देख कर पैर रखना ! -- गुरु गोरख ¤ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ १. कौन है जग में सुखी ? दुखिया तो सब संसार है । २. वह मूखों में भी महामूर्ख है- जो मानता है कि संसार में सुख है। मुझे तो जो भी मिला दुःख की कहानी सुनाता निला । - विनोना - कबीर ३. दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान | कछु ना सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥ ४. सूर्य गरम है चाँद दगीला, तारों का संसार नहीं है । जिस दिन चिता नहीं सुलगेगी, ऐसा कोई त्यौंहार नहीं है । - हिन्दी पद्य सब को दुःख ५. कोई कहे शुं खाऊं अने कोई कह शामां खाऊं ? ६. ऊंचा चढ़-चढ़ देखो ! घर-घर ओही लेखो । ८. संगार में कई अज्ञान से नष्ट हुए मान से नष्ट हुए तथा इयों का दिया । गुजराती कहावत ७. केचिदज्ञानतो नष्टा, केचिन्नष्टाः प्रमादतः 1 केचिदज्ञानावलेपेन, केचिन्नष्टस्तु नाशिताः ॥ - सुभाषितावलि भूल गये रंग-राग, भूल गए छकड़ी । तीन बात याद रही, तेल लूण लकड़ी | १६६ - राजस्थानी कहावत कई प्रमाद एवं ज्ञान के अभिनाश नष्ट होनेवालों ने कर - राजस्थानी पद्य * Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ सुख-दुःखमय संसार १ क्वनिट्ठीरणानादः क्वचिदपि च हाहेति रुदितं. ___ क्वचिद् विद्वद्गोष्ठी क्वचिदपि मुरामत्तकलहः । विद रम्या रामा क्वचिदपि जराजर्जरतनु. न जाने संसारः क्रिममृतारयः कि विषमयः ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृ. ६२ कहीं वीणा का नाद है तो कहीं हाहाकार रोदनमय है, कहीं यिद्वानों की गोष्टी है तो कही शराबियों का कलह है। कहीं सुन्दर नारियाँ हैं तो कहीं जर्जरत शारीर वालो बृद्धाएं हैं । अतः समझ में नहीं आता कि इस संसार में अमृतमय क्या है ? और विषमय क्या है ? तिलियाँ हैं फूल भी हैं, हैं कोकिलाएं गान भी हैं । इस गगन की छोह में मानो ! महल उद्यान भी हैं। पर जिन्हें कवि भूल बैठे, वे अभागे मनुज भी हैं। हैं समस्याएं, व्यथाए भूख है अपमान भी है। -मिलिन्द ३ फल थोड़े हैं पात बहुत है, काम अल्प है बात बहुत है । प्यार लेश आधात बहुत है, यत्न स्वल्प व्याघात बहुत है। मंजिल में पग-पग पर देखा, विजय अल्प है हार बहुत है, सार स्वरूप निस्सार बहुत है, सुन्दर कम आकार बहुत है । -'पक्ष के पील' से Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज . ४ सारा संसार संतुष्ट है और सारा असंतुष्ट । प्रत्येक प्राणी को इस खिचड़ी का भाग मिला हैकहीं दाल अधिक है और कहीं भात । - सद्गुरुचरण अवस्थी ५ जो केवल विचारते हैं, उनके लिए संसार सुखमय है, किन्तु जो इसका अनुभव करते हैं, उनके लिए दुःखमय है । -होरेस वालपोल ६ जैसे-ईर्ष्या और कुटिलता द्वारा संसार को हम नरक बना सकते है , वैसे-प्रेम द्वारा स्वर्ग भी। ७. अन्तर जितना उज्ज्वल होगा, जगत उतना मङ्गल होगा। -संतज्ञानेश्वर Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ गतानुगतिक-संसार १. गतानुगतिको लोको, न लोकः पारमार्थिकः । -पंचतंत्र १।२६६ संसार गतानुगतिक-दुसरों की नकल करनेवाला है, किंतु वास्तविकता को नहीं देस्त्रता । २. कोड़ी नु कटक-एक कोड़ी चाले एटले बधी चाले । -गुजराती कहावत ३. गहरीप्रवाह संसार। -हिन्दी कहावत ४. खरबूज ने देख र स्वरबूजो रंग बदले। -राजस्थानी कहावत ५. दुनियां मथुरा के बंदरों के समान नकल करनवाली है। इंगलैण्ड के राजा के गलगंड (कंठमाल) का रोग हुआ। डाक्टर ने सुन्दर पट्टा लगाया । देखा-देखी लोग भी पट्टा लगाने लगे एवं 'नेकटाई' चल पड़ी। ७. बद् यदाचरति श्रष्ट-स्तत्तद वेतरोजनः । स यत प्रमाणं कुरुते, लोकरतदनुवर्तते ।। गोता ३।११ श्रेष्ठ व्यक्ति जो-जो आचरण करता है, साधारण लोग भी उसी सरह करते है 1 श्रेष्ठ व्यक्ति जो प्रात सत्य मानता है, लोग भी उसके पीछे चलते हैं। ८. श्रेष्ठ पुरुषों को चाहिए कि वे कोई भी ऐसा काम न करें, जिसका अनुकरण करके लोगों को कष्ट का सामना करना पड़े। -पनमुनि Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ परिवर्तनशील संसार १. सभी वस्तुएं नवीन और विचित्र रूपों में परिवतित होती रहती हैं। -लोगफेलो २. पर्यायाथिक-नय की दृष्टि से सारा संसार समय-समय पर बना रहता है। -अनशास्त्र ३. केवल एक परिवर्तन को छोड़कर सभी वस्तुएँ परिवर्तनशीन हैं। -जगविल ४. जो कुछ मैं पहले था, वह अब नहीं हूँ । -वायरन ५. परिवर्तन के तीन क्रम-पहले हृदय परिवर्तन, फिर जीवन परिवर्तन और फिर समाजपरिवर्तन । १७० Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ संसार का पागलपन १. आदित्यस्यगतागत' रहरहः संक्षीयत जीवित, व्यापार हुकार्यभारगुरुः कालो न विज्ञायते । दृष्ट्वा जन्म- जरा विपत्ति-मरणं त्रासच नोद्यत े, पीत्वा मोहमयी प्रमादमदिरा मुन्मत्तभूत जगत् ॥ - भर्तृहरि-राग्यशतक ७ सूर्य के उदय अस्त होने से दिन-दिन आयु घटती जा रही है । अनेक कार्यों के भार से बढ़े हुए व्यापारों में बीतता हुआ काल भी जाना नहीं जाता। जम-जरा-मण को देखकर वास नहीं होता अतः प्रतीत होता है कि मोहमया प्रमाद-मदिरा को पीकर जगत् मतवाला हो रहा है । झूठा साचा कर लिया, विष को अमृत जाना । दुख को सुख सब कोई कहै, ऐसा जगत दिवाना ॥ ३. दुनिया आंधली नथी, दीवानी छै । ४. रंगी की मांरगी वहे. पके दूध को वांया | चलती को गाड़ी कहे, देख कबीरा रोया || ५. गाड़ी का नाम ऊंखली, चलती का नाम गाड़ी। १७१ -कबीर -गुजराती कहावत -कोर -हिंदी कहावत Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ वक्तृत्वकला के बीज ६. भारत में एक करोड़ तीस लाख पागल हैं, एक हजार में २३ मानसिक रोगी हैं उनमें से १८ केस संगीन समझने चाहिए। (मानसिक रोग-चिकित्सालय के अधीक्षक डा० फैलाशचन्द्र दुवे) ७. काम क्रोध जल आरसी, शिशु त्रिया मद फाग, होत सबाने बावरे, आठ बात चित्त लाग | ८. दिल्ली में पागलों की मर्दुमशुमारी हो रही थी, एक व्यक्ति ने गणना के अधिकारी से कहा कि मेरा नाम पागलों में लिख लीजिये ! मुझे लोग पागल कहते हैं। बिस्मित अधिकारी ने पूछा- कैसे ? उसने कहा-एक दिन कई नौजवान लड़कियाँ अश्लील फिल्मी गीत गाती हुई बाजार में नंगे सिर जा रही थीं, उनमें एक लड़की मेरे मित्र की पुत्री थी। मैंने उसे बुलाकर कहा-बेटी ! ऐसे अश्लीलगीत गाते हुए बाजार में नंगे सिर घूमना अपने कुल को शोभा नहीं देता। लड़की ने कुछ शर्म महसूस की और चुपचाप चली गई । सहेलियों ने पूछा-यह बूढ़ा क्या कहता है ? उसने जबाब दियाकुछ नहीं, पागल है। यों ही बकवास करता है । एक दिन नवविवाहित पति-पत्नी हलवाई की दुकान पर खड़े-खड़े खा रहे थे, वे प्रेममुग्ध होकर एक-दूसरे के मुंह में चम्मच से कुछ डाल रहे थे | लड़का मेरे सम्बन्धी का Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनिमा भाग : तीसरण कोष्टक १७३ था इसलिए भेरे से रहा नहीं गया, अतः मैंने धीरे मे उसे कह दिया, बेटा ! "गा व्यवहार अच्छा नहीं लगता, लड़के ने मुंह मोड़ लिय।। बहू के पूछने पर कहने लगा कुछ नहीं, याही पागलपन की बात करता है। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार का स्वभाव १. निन्दति तुहीमासीनं, निन्दति बहुभाणिनं । मितभारिणनं पि निन्दनि, नस्थि लोए अनिन्दिओ॥ -धम्मपद २२७ संसार चुप रहनेवालों की निन्दा करता है, बहात बोलनेवाली की निन्दा करता है और मितभाषियों की भी निन्दा करता है। 'वन में ini को नहीं. 'जाबो निन्दा न होती हो । २. दुनियां चढ़ या ने हंसे और पालाने पण हंसे । -राजस्थानी कहावत ३. महात्मा छहों दिशाओं में पैर कर करके हार गये, क्योंकि लोगों ने कहा-पूर्व में जगन्नाथपुरी है, पश्चिम में द्वारका है, उत्तर में बद्रीनारायण है, दक्षिण में रामेश्वरम् है, नीचे शेष भगवान हैं और ऊपर बैकुण्ठ है । ४. परिचितजनहषी लोको नव-नवमीहते। -माधव संसार का यह स्वभाव ही है कि वह परिचित लोगों से द्वेष करता है एवं नए-नए व्यक्तियों को नाहता है । ५. अर्थार्थी जीत्रलोकोऽयम् । -विष्णु शर्मा यह सारा संसार अपने स्वार्थ को सिद्ध करनेवाला है । ६. भिन्नरुचिहि लोकः ।। -रघुवंश १७४ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : तीसरा कोष्ठक १७५ लोगों की मधियां भिन्न-भिन्न हुआ करती हैं । ७. फकीर हाल में मस्त, जरदार माल में मस्त, बुलबुल बाग में मस्त और आकाश दीदार में मस्त । -उर्दू कहावत ८. अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग । ६. अपना-अपना काम, अपना-अपना खाना । १०. अपना ट न देखें और दूसरों की फूली निहारें। ११. दुनियां झुकती है, झुकानेवाला त्राहिए। ___-हिन्दी कहावते १२. मियांजी की दाढ़ी बले, लोग तापण में जावे।। -राजस्थानी कहावत १३. घर आए पूजें नहीं, बांबी पूजन जाय । -हिन्धी कहावस १४. हाथ पोलो-जगत गोलो, हाथ' काठो-जगत भाठो। -राजस्थानी कहावत Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० दृष्टि के समान सृष्टि १. जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तेसी। --रामचरितमानस २. डू नॉट मेजर अदर पीपुल्स कान बाइ युअर ओन बूशल । -अंग्रेजी कहावत दृष्टि के समाम सृष्टि । ३. समर्थगुरु रामदास ने रामायण सुनाते समय कहा-- हनुमान ने लंका में श्वेत फूल देखे । गुप्तहनूमान ने कहालाल फूल थे, तुम झूठे हो। दोनों राम के पास पहुँचे । राम ने कहा-मूल तो श्वेत थे, किन्तु हनुमान की आंखों में क्रोध की लालिमा थी अतः इनको लाल दीखे, क्योंकि दृष्टि के समान ही सृष्टि होती है । ४. एक एव पदार्थस्तु, विधा भवति बीक्षितः । कुरापः कामिनी मांस, योगिभिः, कामिभिः स्वभिः॥ -चाणक्यनीति १४॥१६ एक ही पदार्थ अर्थात् स्त्री का शरीर दृष्टिभेद से तीनरूपों में देखा जाता है, योगी मुर्दा के रूप, कामीपुरुष सुम्दर स्त्री के रूप में और कुन उसे माम-रूप में देखते हैं। ५. पुष्ट पुत्र को माता दुर्बल, स्त्री पतिदेवता, शत्रु राक्षस १७६ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ पाँचवा भाग : तीसरा कोष्टक एवं मित्र बन्धु मानते हैं । धर्मपुस्तकों को श्रद्धालुभक्त शास्त्र रद्दीवाला रद्दी कागज और गाय-भैंस - बकरी आदि अपना साथ मानती हैं । ६. द्वारका में युधिष्ठर को बुरा आदमी नहीं मिला और दुर्योन को भला आदमी नहीं मिला । ७. सन् १८५७ की हलचल को अंग्रेजों ने गदर ( रिवोलेशन) कहा और आज के लोग क्रान्ति कहते हैं । 5. १६ दिसम्बर १६७१ के दिन को बांगलावासी स्वतन्त्रता का स्वर्णिम प्रभात मानते हैं, भारत तथा कई अन्य देश की संज्ञा देते हैं । और पश्चिमी पाकिस्तान इस दिन को इतिहास का सबसे बड़ा मनहूस दिन कहता है । इसे 1 ६. दूसरे लोग हरिजन और विधवा को अपवित्र कहते थे, जबकि गांधीजी उन्हें पवित्र मानते थे । १०. एक कहता है गुलाब खुशबूदार है, दूसरा कहता है, गुलाब कांटोवाला है । ११. चर्मचीड़ी ( चमगादर ) के लिए अंधेरी रात ही दिन है, जबकि कौवे के लिए वह डरावना अंधेरा है | १२. दौड़ते घोड़े का चित्र उल्टा देखो तो घोड़ा लौटता दीखेगा । १३. गांधी टोपीवालों को शराब पीते देखकर एक ने कहावोला हाय हाय ! कांग्रेसी भी शरात्री हो गए 1 दूसरा नहीं नहीं | शराबी कांग्रेसी-टोपी पहनने लग गए. ऐसा कहो ! - Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ धक्तृत्वकला के बीज १४. एक गरीब रसोईदारिन बेटे के लिए कागज के पुड़िया में थोड़ा सा हलवा ले चली। हाथ से पुड़िया छुट जाने से हलवा नीचे गिर गया। उसे देखकर एक बहन ने कहायह चोर है. दूसरी ने कहा-गरीबी का दोष है, तीसरी ने कहा-बेटे का ममत्व है। १५. प्रत्येक व्यकि अपनी दृष्टि के अनुसार ही अपने सिमान्त की मृष्टि करता है । जैसे-वे निर्माता ने स्त्री और मुद्र को घृणिय दृष्टि से देखकर कह दियास्त्री-शूती नाधीयताम् अर्थात स्त्री और शूद्र को वेद नहीं पढ़ाना चाहिए । इसी प्रकार तुलसीदासजी ने भी कह डालाहाल गवार शूट नारी, थे सब ताड़न के अधिकारी। क्रोधी कहता है-- सांच कहूं होवार निडर, कोई हो नाराज , मैंने तो सीखा यही, साँच बोलिए गाज । कटुभाषी ने कहा-- - बुरे लगे हित के बचन, हिये विचारो आप, कडुवी औषधि बिन पिये, मिटे न तन का ताए । व्यापारी बोलासत्यान्तं तु वाणिज्यम् ! अर्थात साँच-झूठ का नाम ही ध्यापार है, यह केवल सत्य से नहीं चल सकता । १६. शहर के बाहर मेला लग रहा था । वृक्ष पर चिड़िया त्री ची कर रही थीं। वृक्ष के नीचे विभिन्न विचार के कई Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवा भाग : तीसरा कोष्ठक १७६ व्यक्ति बैठे थे । उनमें से हिन्दु ने कहा - चिड़िया कह रही है--- राम- लछमन - बस रथ, राम लछमन दसरथ ! मुसलमान ने कहा- नहीं नहीं । यह तो कह रही है सुभान तेरी कुवरत, सुभान तेरौ कुदरत ! पहलवान ने कहा- नहीं नहीं यह तो कह रही है वण्ड मुग्वर कसरत, वण्ड सुदर कसरत ! किराने के व्यापारी ने कहा- नहीं, नहीं! यह तो कह रही है जल्दी पनियां अवरख हल्वी धनियां अदरख 1 आखिर सुत कातनेवाली बुढ़िया ने कहा- नहीं, नहीं, यह तो कहती है चरखा पोमी भ्रमरख चरखा पोनो चमरख ! xxx Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार को उपमाएँ १. सुपने सब कुछ देखिए, जागे तो कुछ नादि । ऐमा यह संसार है, समझ देख ! मन मांहि ।। दादूजी २. जग है सपना अपना न कहूं , नर बाहे को झूल में जात ठगा । कवि सूरत क्यों न भजे प्रभु को ।। तज सूतज भूल के भाव लगा || तेरे जीवत हैं सब ही गरजी , वरजी इह बात न खात दगा। तेरे अंत सम भगवंत बिना , न झगा नगा न तगा न सगा ।। ३. नाटक सो संसार, जुगल पार्ट सब कर रह्या । एक-एक रे लार, मंच छोड़ सब चालसी।। ४. सम्पूर्ण विश्व एक मंच है और स्त्री-पुरुष इस पर अभिनय करनेवाले पात्र। -शेक्सपियर ५. संसार एक सिनेमा है। सिनेमा में जैसे प्रकाश और अंधार दो तत्त्व काम करते हैं, एक से काम नही बनता, वैसे संसार-सिनेमा में भी ज्ञान-अज्ञान दोनों तत्त्व आवश्यक Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : तीसरा कोष्टक हैं । जहाँ ज्ञान है वहाँ अनासक्ति, ऐश्वर्य एवं आनन्द है तथा जहाँ अज्ञान है वहां आसक्ति, वासना एवं दुःख हैं । कीड़े मक्खी, मच्छर, पशु-पक्षी, साधारण मनुष्य एवं शानी-मुनियों में क्रमशः ज्ञान की विशेषता होने से वे गंदगी घास-फूस, झपया-पैसा आदि-शादि पूर्व-पूर्व वस्तुओं में आनन्द नहीं मानते। सिने ना में पूर्ण प्रकाश होते ही खेल ख़तम हो जाता है, ऐसे ही पूर्ण-ज्ञान मिलने से मृक्ति मिन्न जाती है । पाक इतना-सा है कि सिनेमा में पदों पर चित्रित मनु न्य, पशु-पक्षी जई होगे हैं और सांसारिक प्राणी चेतन । ६. वृक्ष-संसार वृक्ष है । इस पर बंदर भी बैठते हैं और पक्षी भी। बंदर इनर-उधर वृक्षों पर भटकते रहते हैं किन्तु पभी मौका पाकर उड़ जाते हैं। तुम बंदर बनोगे या पक्षी ? पक्षी बनाना हो तो पॉरखें मैं लगा । ७. कोठरी जग काजल को कोठरी, रहिये सदा सशंक । रत्नाकर की तनय भी, बच्यो म बिना कलङ्क ।। ८. हरो ताप सीनो सुश, छहरो ज्योति अमंद । लाख करो अब प्रमनिधि, जात कल न चन्द ।। है. कहत भली समभात बुरी, यही जगत की रोति । रज्जब कोठी गार की, ज्यों धोवे त्यों कीच ॥ १०. विश्व एक सुन्दर पुस्तक के समान शिक्षापूर्ण है, किन्तु उसके लिए कुछ भी नहीं, जो इसे पढ़ नहीं सकता। -गोल्डोनी Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ वक्तृत्वकला के बीज ११. सरीरमाहु नावत्ति, जीबो बुच्चइ नाविओ। संसारो अन्नवो बुत्तो, जं तरंति महेसियो ।। -उत्तराध्ययन २३१७३ शरीर नान है, जीव नाविक है, संसार समुद्र है, इससे महर्षि लोग ही पार तरते हैं। १२. संतोषः साधुसङ्गश्च, विचारोऽथ शमस्तथा । एत एव भवाम्बोधा-वुयायास्त रणे नृरणाम् || -योगवाशिष्ठ २१२॥ संतोष, साधुसंगति, मद् विचार और क्रोम आदि कषायों का गगन-से ही के जिस ना गम से सरने उपाय हैं । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! २२ १. को लोकमाराधयितुं समर्थः । दुनियां की ताकत - हृबयप्रदीप इस संसार को एक साथ प्रसन्न करने में कौन समर्थ है ? २. दोनां चाव्या मां कुचो रहे, पण लोकोश चाव्या मांन रहे । ३. घंटी ना गालमां बचे. पण लोकोनां चाव्या मी न बचे । ४. कुआने मोठे ढाकरण देवाय परण गामने मांडे न देवाय । - गुजराती कहावतें ५. डू एज यू लाइक यू कैन्ट कर्व मेन्स टंग | १८३ - अंग्रेजी कहावत अपनी जबान पकड़ सकते हो, दूसरों की नहीं । ६. मारनार नुं हाथ भलाय पण बोलनार नी जीभ न झलाय । - गुजराती कहावत x Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत को वश करने के उपाय १. क्षमया, देवया. प्रेम्णा , सुनृतेनार्जवेन च , वीकुर्याज्जगत्सर्व, विनयेन च सेवया । क्षमा, दया, म, मयुधाः , नबरा, ..!: बार वा जगत् को वा में करना चाहिए। यदीच्छसि वशीकतु, जगदकेन कर्मणा । पुरा पञ्चदश स्पेयी, गां चरती निवारय । -वागश्यनीति १४।१४ जो एक ही कम स जगत् को दश किया चाहते हो तो पहले पन्द्रह गुम्नों से चरती हुई मनरूपी गाय को रोको । तात्पर्य यह है कि ओघ, कान, नाक, जीभ, स्वपा-ये पांचों ज्ञानेन्द्रियां हैं। मुख, हाथ, पाँच, सिंग, गुदा में ये पांच कर्मप्रियां हैं । सन्द, स्पर्ग हप, रस, गंध-य गांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। इन पन्द्रहों के महार में ही मन इधर-उधर भटकता है। अत' इसे इन के राम्पर्क मे हटायो ! ३. सदभाबेन हरेन्मित्रं, संभ्रमण तु बान्धवान् । स्त्री-भृत्यो दान-मानाम्यां, दाक्षिण्य नेतान् जनान् ।। --हितोपवेश मभावना मिथ को, सम्मान से बांधवों वो, दान से स्त्री को, मान । सेवक को और चतुरता से अन्य लोगों को वश में करना गहिए । १८४ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : जीया कोष्ठक ४. लुब्धमर्थन गृह्णीयात्स्तब्ध मञ्जलिकर्मणा । मूर्ख छन्दानुरोधेन, याथायें न च पण्डितम् ।। -चाणक्यनीति १२ लोभी को धन मे, अभिमानी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उसका मनोरथ पूरा करके और पण्डित को सच-सच कह कर वश में करना चाहिए । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार की विशालता चौदह रज्ज्वात्मक संसार कितना बड़ा है, इसको समझाने के लिये जैनशास्त्र (भगवती ११॥ ०) में छः देवों का दृष्टान्त दिया गया है, वह इस प्रकार है जम्बूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष्य और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है । अव कल्पना कीजिये कि महान् ऋद्धिवाले छः देवता जम्बूद्वीप के मेरुपवन की चूलिका को घेर कर खड़े हैं । इधर चार दिक्कुमारियां, (देत्रियां हाथों में बलिपिण्ड लेकर जम्बूद्वीप की आय योजन ऊँची जगती पर चारों दिशाओं में बाहर की तरफ मुख करके खड़ी हैं। वे एक ही साथ चारों बलिपिण्डों को नीचे गिरायें । उस समय उन छहों देवों में से हर एक देवता मेरुचूलिका गे अपनी शीघ्रतर गति द्वारा नीचे आकर पृथ्त्री तक पहुँचने से पहले ही उन चारों बलिण्डिों को ग्रहण करने में समर्थ है । बलिपिण्ड जितनी देर में देवियों के हाथों से छूटकर जमीन तक आठ योजन भी नहीं आ पाते, उतनी-सी देर में वह देवता मेलिका से लास्न योजन तो नीचे आजाता है और लगभग सवा १८६ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : तीसरा कोष्ठक तीन लाख योजन का जम्बूद्वीप के चारों ओर एक चक्कर लगा देता है अर्थात् सवा चार लाख योजन क्षेत्र लांध देता है। लोक कितना बड़ा है, यह जानने के लिए उपयुक्त शीघ्रगति से उन छहों देवों में से धनीत लोक के मध्य भाग से चार देवता तो चारों दिशाओं में जायें और दो ऊपर नीचे जायें। उस समय हजार वर्ष की आयुवाला एक बालक उत्पन्न होकर पूर्ण आयुष्य भोगकर मर जाये, यावत् उसकी सात पीढ़ियां बीत जायें एवं उसके नाम-गोत्र भी नष्ट हो जायें । इतने लम्बे समय तक भी यदि वे ब्रहों देवता अपनी शीघ्रतरगति से निरन्तर चलते ही जायें तो भी इस लोक का अन्त नहीं आ सकता एवं जितना रास्ता वे सब करते हैं, उससे असंख्यालवा भाग शेष रह जाता है ।। आई स्टीन के मतानुसार प्रति सेतिण्ड एक लाख ८६ हजार मील चल गेवाली प्रकाश की किरणों यदि संसार की परिक्रमा करें तो उन्हें १२ करोड़ वर्ष लग जायेगे । ३. ग्रहों और ब्रह्माण्डों के विषय में वैज्ञानिकों का मत वैज्ञानिकों के पनानुसार यह पृथ्वी एक लम्धूनरें फुटबॉल की तरह गोल है और एक हजार मील प्रति घंटा की गति से अपनी धरी पर घूम रही है तथा ६६ हजार मील प्रति घंटा की गति मे सूर्य की वार्षिक परिक्रमा पूरी कर रही - - - - - Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = रच वेबसृत्वकला के बीज है । पृथ्वी की तरह अन्य ग्रह भी सूर्यमण्डल के चारों ओर घूम रहे हैं । सूर्य से इनकी दूरी निम्न प्रकार है दूरी (मोलों में) ग्रह बुध शुक्र पृथ्वी मंगल बृहस्पति शनि अरुण वरुण करोड़ ६० लाख करोड़ ७३ लाख करोड़ ३० लाख करोड १७ लाख करोड़ ३० लाख करोड़ ७१ लाख १७८ करोड ५० लाख २७० करोड़ ७० लाख ३४७ करोड़ ३ ६ १४ ४८ ८८ हमको यह भी जान लेना चाहिए कि सूर्य का आकर्षण इन ग्रहों से भी करोड़ों मील दूर तक है। पर वहां कोई ग्रह नहीं है। सूर्यमंडल ६०० करोड मील लम्बा है और उतना ही चौड़ा है । यह गोला इस ब्रह्माण्ड (जिसे आकाशगंगा कहते हैं) के चारों ओर घूम रहा है । इसे अपना एक चक्कर पूरा करने में ३" करोड़ : ७ लाख २० हजार वर्ष लगते है | इस ब्रह्माण्ड के बाहर हमारा सूर्यमण्डल अकेला ही नहीं है ऐसे डेढ़ अरब सूर्यमण्डल घूम रहे हैं। हमारा यह सूर्यमण्डल उन सबसे छोटा है। पूर्वोक्त सूर्यमण्डल के बीच में घूमता हुआ हमारा यह सूर्यमण्डल ऐसा प्रतीत होता है, मानो हजारों मील प्रतिघंटा Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : तीसरा कोष्यक १८६ की गति से चलती हुई आंधी में घूमते हुए बड़े-बड़े वृक्षों एवं "हाड़ों के बीच में एक राई का दाना घूम रहा है । आकाशगंगा से आगे जो चमकते हुए शिवारं दिखाई देते हैं, उनमें से प्रत्येक सितारा एक-एक ब्रह्माण्ड है। ऐसे कितने ब्रह्माण्ड हैं, यह किसी को पता नहीं है। कहा जाता है कि लगभग १० हजार करोड़ ब्रह्माण्ड ता] वैज्ञानिकों ने गिन लिए हैं। कई सितारे तो पृथ्वी से इतने दूर हैं कि १ लाख ८३ हजार मील प्रतिसेकिण्ड की गति से चलने वाली उनकी रोशनी यहाँ अरबों वर्षों तक भी नहीं पहुंच सकती । इन सबसे परे भी कितने खरब ब्रह्माण्ड और हैं, उनका अभी तक कोई पता नहीं लगा है और न कभी लग सकता है । अस्तु, इस अनन्त सृष्टि पर ज्यों-ज्यों विचार किया जाता है त्यों-त्यों हैरानी होती है और दिमाग चक्कर खाने लगता है । हमारी यह हृदयमान पृथ्वी एक सिरे से दूसरे सिरे तक ७९२७ मील चौड़ी है इस पर ३५० करोड़ से भी अधिक मनुष्य रहते हैं। नींद पृथ्वी से लगभग ढाई लाख मील दूर हैं ( मिलाप, २१ मई १९६६ के सम्पादकीय लेख के आधार पर । ) * Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ १. नरकः पापकर्मिणां यातनास्थानेषु । २. नरक संसार - सुत्रकृतांग भूत २ अ. १ टोका पापी जीवों के दुःख भोगने के स्थानों के अर्थ में नरक शब्द का प्रयोग होता है। अहेलोगेण सत्त पुवीओ पन्नत्ताओ......एयासिणं सत्तष्ठं पुढवीणं सत्त रणामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा - धम्मा, बंसा, सेला, अंजणा रिट्ठा, मघा माघवती । -स्थानांग ७ अमोलोक में सात पृथ्वियाँ हैं, उनके ये सात नाम हैं 1 १ घमा, २ वंशा, ३ शेला, ४ अञ्जना, * रिच्ठा, ६ मघा, ७ माघवती । ३. एवासिणं सत्तह पदवीणं सत्त गोता पण्णत्ता तं जहासक्करपभा, बालुकापभा पंकसभा, रय गुष्पभा, धूमप्यभा, तमा, तमतमा । -स्थानांग ७ इन सातों पृथ्वियों के सात गोत्र हैं-१ रत्नप्रभा, र शर्कराप्रभा, ३ बालूकाप्रभा ४ पद्मप्रभा ५ म्रप्रभा, ६ तमः प्रभा ७ तमतमाप्रभा । (शब्दार्थ से सम्बन्ध न रखनेवाली अनादिकाल से प्रचलित संज्ञा को नाम कहते हैं। शब्दार्थ का ध्यान रखकर किसी का जो नाम दिया जाता है, उसे गोत्र कहते हैं । घमा आदि सात पृथ्वियों के नाम हैं और रत्नप्रभा आदि गोत्र हैं । - प्रज्ञापना र टीका १६० Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : तीसरा कोष्ठक ४. आसीयं अत्तीसं, अट्ठावीसं तहेब वीस च । अट्ठारस सोलसगं, अछूत रमेव हेट्ठिमया ॥ -जोबाभिगम प्रतिपत्ति ३ उ. १. नरकाधिकार रत्नप्रभादि पृथ्वियों की मोटाई क्रमशः निम्नलिखित है(१) एक लाख अम्सी हजार योजन, (२) एक लाख बत्तीस हजार योजन, (३) तफ लाग्न अठाईस हजार योजन, (४) एक लाख बीस हजार योजन, (५) एक लास्य अठारह हजार योजन, (६) एवा लाख सोलह हजार योजन, (७) एक लाख आठ __ हजार योजन । ५. तीसा य पनवीसा, पन्नरस दसा य तिन्नि य हवंति । पंचूरसयसहस्सं पंच ' अगुत्तरा गरगा ।। -जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३., उ. १ नरकाधिकार १ तीस लाख, २ पच्चीस लाप, ३ पन्द्रह लाख ४ दस लास्त्र, ५ तीन लाख, ६ पाँच कम एक लाख, ७ पांच । ये क्रमशः सातों नरकों के नरकवासों की संख्या है । (सव मिलकर ६४ लाख नरकावास होते हैं।) ६, रत्नप्रभा आदि पृथ्चियों में ग्राम नगर आदि नहीं हैं। (विग्रहगति प्राप्त जीवों के अतिरिक्त) बादर अग्निकाय नहीं है। वहाँ जो बादल-मर्जना एवं वृष्टि होती है, वह सुर-असुर एवं नागों द्वारा की जाती है । -भगवती ६।८ ७. नरगा अंतो वट्टा वादि बजरंसा, अहे खुरप्पसंठाग संठिया, निचंधकारतमसा, वबग्यगह-चंद-सूर नक्खत्त-जोइसप्पहा, मेद-वसा-मांस-कहिर - पूयपडल · चिखल - लिप्ताणु Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ . कला के बीज लवेला, असुचिविसा परमदुब्भिगंधा, काजयअगणिबण्णाभा, कक्ण्ड़फासा, दुरहियासा, असुभानरगा, असुभा नरपसु वेयरणा | नो चेत्र रगं नरए नेरइया निदायति वा, पयलायंति वा, सुई बा, रई वा, धिदं बा, मई वा उवल भति । - दशाश्रुत स्कन्ध ६ नरकस्थान भीतर से गोल, बाहर से चांसे उस्तरे के समान तीक्ष्ण है। वहां सदा अंधकार रहता है। सूर्यचन्द्रादिक का प्रकाश नहीं होता | नरकों का भूमितल विकृत यसा मांस- लोड़ी पीव के समूह के कीचड़ से लिप्त रहता है । मलमूत्रादि युक्त एवं दुर्गन्धसहित है, कृष्णअग्नि के समान प्रभा है । उसका स्पर्श कर्कश एवं दुस्सह है। इस प्रकार नरक-स्थान अशुभ है एवं उसमें वेदना भी अशुभ है। नरक में पापीजीवनिया एवं विशेषनिद्रा नहीं ले सकते तथा स्मृति, रति, घृति एवं मति की प्राप्ति नहीं कर सकते । ८. नेरइयारणं भंते! केवइयं कालंठई पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवास सहस्साइ उक्कोसेर तेत्तीस सागरीब माई | - प्रज्ञापना ४ 1 भगवन् ! नरको में आयुष्य कितनी हैं ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की एवं उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है 1 ¤ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक के दुःख १. जारिसा माणुमे लोए, ताया दीसंति वैयणा । एत्तो अयंतगुणिया, नराएम् दुक्खवेयरणा ।। -उराराध्ययन १६७४ मनुष्यलोक में जो वेदनाएं नजर आ रही हैं, भरकों में उनसे अनन्तनुणी वेदनाएं हैं। २. अच्छिनिमीलियमेत्तं, मस्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्ध। नराए नरइयाणं, अहोनिसं पच्च मारणाणे ॥११॥ अइसीयं अइउण्हं अइतण्हा अइखुहा अइभयं वा । नरए नेरइयारणं, दुकल सयाई अविस्सामं ॥१२॥ -जीवाभिगम-प्रतिपत्ति ३ उ. २. नरकाधिकार नरक में पानी जीत्र दिनराप्त दुःख में पच रहे हैं। उन्हें आंखमींच कर खोलें, इतनी देर भी सुख नहीं है । नरक में अतिशीन, अति उष्णता, अतिसृषा, अतिक्षुधा एवं अतिभय आदि संकड़ों प्रकार के दुःख्न हैं, जिन्हें पापी जीव अविश्रान्तरूप से सह रहे हैं। ३. गैरइयाए दसबिह वेयरणं पच्चाब्भवमारणा विहरति ते जहा सीयं, उसिणं, खुहं पिवासं, कंड, परभं, भयं, सोगं, जर, काहिं। ---स्थानाग १०॥७५३ १६३ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ वक्तृत्वकला के बोज नरक के जीव १० प्रकार की वेदना का अनुभव करते हुए विचरते हैं। यथा- सीता, २ , ३ मच, ४ तुती, ५ खाज, ६ परन शता, ७ भग, मोक, ६ जरा-वृद्धावस्था, १० ज्वर-कुष्ट आदि रोग । ४. एगमेगस्स ........नेर झ्यम्स आभावपट्टबगाए सम्योद ही वा सव्व पोग्गले बा आप्तगंलिपक्खिबेज्जा, रमा चेव रणं मे गरइए तितो वा सिया वितण्हे वा सिया । एरिसयारणां गोयमा । णेरड्या सहम्पिवाम पच्चणुदभवगाणा विहरति । -जीवाभिगम, प्रतिपत्ति ३ स. २ नरकाधिकार अगत्कल्पना मे यदि एक नरक निवागो जीव के मन्त्र में मारे ममुद्रों का पानी और दुनिया के सारे स्वाद्य-युद्गल डाल दिए जायें तो भी उसकी भूख-प्यान नहीं बुझतो । हे गौतम ! नरक के जीव इस प्रकार अनन्त भव-प्यास का अनुभव कर रहे हैं। तेणं तत्य गिग में भीया, रािचं तसिया, गिचं छुहिया, गिच्चं कनिम्मा, शिमचं उपप्पया, रिगचर्च वहिया, रिगचं परममसुभम उलमणुबद्ध निरयभवं पचचरणम्भवमारणा विहरति। -जीवाभिगम, प्रतिपत्ति ३ नरकाधिकार उ, २ वे नरक के जीव मदा भवभीत, अस्त, क्षुषित, उद्विगन एवं न्याकुल रहते हैं। व निरन्तर बध को प्राग्न होते हैं वे अतुलअशुभ परमाणुओं से अनुबद्ध होते हैं। इस तरह धोर-पीढ़ा का अनुभव करते हुए विचरते हैं। ६. हा भिदह मिंदह ण दहेति , सई सुशिना परहम्मियाणं । तं नाग्गाओ भयभिन्नसन्ना , कांति कं नाम दिसं वयामों। -सूत्रकृताङ्ग ५।११६ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : तीसरा कोष्टक १६५ इन गार्मियों को मुन्दरादिक से मारो, खङ्गादिक से छेदों, शूलादिक से भेदो, अग्नि से जलाओ । परमाश्रामिक देवों के ऐसे शब्द मुन नैरमिक भय से होकर सोचते हैं कि अब भाग कर कहां जाएँ ? ७. छिवति बालस्स रेरा नक्क उद्घविचिदति दुबेदि कन्ने । ' जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमित्रां विवाह सूलाहि भिलावयति । - सूत्रकृताङ्ग ५।१।२२ परमधामिक देवता पूर्वजन्म में किये हुए पापों का स्मरण करवा कर छुरे से मापी जीवों के नाक, होठ एवं दोनों कान काटते हैं । उनकी जीभों को खींचकर वितरित (गिल) मात्र बाहर निकाल लेते हैं और फिर उसका तीखे झूलों द्वारा भेदन करते हैं । ८. कर-कर पाप प्रचंड नर, पड़े नरक जमहत्थ । वन विकराल विशेष सुर, फिर गये ते सब सत्थ ॥ फिर गये ते सब सत्थत, पकड़ पिछत्थत, घर के लग्गग, गुर्ज अगलाग सिंह विभग्गग, डरपिय अग्गन मग्गग पाग, धर भुई घुजत घर-घर, शुद्ध नांह सुबुद्धज हीन, कुबुद्धज कर कर | - अमृतध्वनिव ६. जं नरए नेरइया, दुहाई पांवति चोर- अरता | ततो अरणंतगुणियं निगोयम दुहं होइ ॥ नरक में जो पापीजीव घोर अनन्त दुःख पा रहे हैं, निगोद में उससे अनन्तगुणा दुःख होता है । * Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ नरक में जाने के कारण १. चहि ठागहि जीवा पोरइयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा महारंभत्राए, महापरिगह्याए, पंचिदियबहेणं, कुणिमाहारेणं । --स्थानांग ४१४१३७३ चार कारणों से जीव नरक के योग्य आयूष्य का उपार्जन करते हैं। यथा-१ महाआरम्भ से, २ महारिग्रह से, ३ पञ्चेन्द्रिय जीवों का बध करने से, ४ मद्य-मांस का आहार करने से । २. त्रिविध नरवास्येदं, हारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोम्तथा लोभ-स्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।। -गोता १६।२१ काम नोव और लोभ-ये तीन नरक के द्वार हैं। ३. पंचहिं ठा गोहें जीका दुग्गई गच्छनि त जा-पागाइवाएवं जात्र परिम्गहेगा। -स्थानात ११३६१ पांच कारणों से जीव दुर्गति में जाता है-प्राणातिपात से यावत् परिग्रह से। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकगामी कौन ? १. जे केइ बाला इह जीवियट्ठी , पावाई कम्माई करति रुद्दा । तं धोररूवे तमिसंधयारे , तिव्वाभिताबे नरए पति ।। --सूत्रकृताग ५॥१३ जो अज्ञानी इहलोक के अर्थी बनकर घोरपाप करते हैं, वे अत्यविक अन्धकारवाले एवं तीव्रअभितापवाले नरक में पड़ते हैं। २. इमं दंडेह, इमं मुडह, इमं तज्जेह, इमं तालेह . . . . इमं हत्यछिन्नयं करेह, इमं पायछिन्नयं करेह, इम, उट्ठछिन्नयं करेह, इमं सीछिन्नयं करेह, इमं मुहछिन्नयंकरेह, इमं वेछिन्नयं करेह, · · · · इमं भत्तपारण निरुद्धयं करेह, इमं जाबज्जोववंधणं करेह, इमं अन्नयरेणं असुभकुमारेणं मारेह !' . ' तहपगारे पुरिसजाए · · · · · · कालमासे कालं किच्चाधरणीयलमईदइत्ता अहे नरगधरणीयले पइट्ठाणे भवइ । - दशाश्रुतस्कन्ध ६ इसे दण्डित करो, इसे मण्डित करो, इसे मारां, इसे पीटा, इमके हाथ काटो, ईसके पैर काटो, इसके कान काटो, इसकी नाक १६७ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ वक्तृत्वकला के बीज फाटो, इसके होंठ काटो, इसका सिर काटो, इसका मुखच्छेदन करो, इसफा लिंगच्छेदन करो, इसका भोजन-पानी रोको, इसे यावज्जीवन के लिए बाँधो ता इसे किसी एक कुमरण से मारो! इस प्रकार आदेश-निर्देश करनेवाला पुरुष मरकर नीचे नरकपृथ्वीतल में जाता है। आशापामशन द्वाः, काम-क्रोधपरायणाः । ईहन्त काम-भोगार्थ मन्यायेनार्थसचयान् ॥१२।। इदमद्य मया लब्ध-मिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । इदमस्तीदमपि मे, भविष्यति पुनर्धनम् ।।१३।। असौ मया हनः शत्रु हनिप्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमह भोगी. सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥१४।। आगोभिजनवानम्मि, कोऽन्योऽस्ति सहशो मया । यो दाम्यामि मोदिज्य, इत्यज्ञानविमोहिताः ।।१५।। अनेक वत्तविभ्रान्ता, मोहजा नसमावृताः । प्रमाताः काम-भागेम, पतन्ति नरकेशुचौ ॥१६।। --गीता १६ आशारूप, मैकड़ों बन्धनों में बंधे हुए काम-क्रोध में लीन प्राणी काम भोग की प्राप्ति के लिए अन्याय से धन का संचय करना चाहते हैं 1३१॥ वे सोचते हैं यह ना मझे आज मिल गया और आगे यह मिल जागा । मेरे पास यह इतना धन तो है एवं इतना फिर हो जागा ॥१३॥ मैंने इस शत्रु को मार दिया, दूसरों को भी मार दंगा । मैं ईदघर हैं. भामी हूं, सिद्ध हैं, बलवान हूं, सम्ली हुँ ||१४|| Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचषां भाग : तीसरा कोष्टक मैं धनवान् है, परिवार वाला हूं. आज मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज वरू गा. दान दूंगा और पित हो जऊंगा ||१५|| ऐम अज्ञान मे माहित अनेक प्रकार से नित्त में यिभ्रांत मोह-माल में फंसे हुए एवं काम-भोग में तापम् प्राणी अपवित्र नरक में जाते हैं ||१६॥ ४. मित्रद्रोही कृतघ्नश्च, यश्च विश्वासघातकः । ते नरा नरक शान्ति, यावच्चन्द्र-दिवाकरा ।। –पञ्चतन्त्र ११४५४ जो मनुष्य मित्रद्रोही, कृतघ्न एवं विवागशाली होते हैं: वे नरक में जाते है, जब तक सूर्य चन्द्र विद्यमान हैं। ५. कुक्षि-भगा मिष्ठा थे, ने वन रकगामिनः। -गररपुराण जो केवल गेटभगाई की चिता में रहते हैं, वे नरकगामी होते हैं । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव-संसार १. देवों की पहचान अमिलाय - मल्लदामा, अरिणमिसनयणा य नीरजसरीरा , वनेगमा तिरा मिझो कहए। - व्यवहार २२ भाष्य देवला अम्लानपुष्पमालावाले अनिमेष नेत्रवाले, निर्मल शरीरवाले और पृथ्वी मे चार अंगुल पर रहने वाले होते हैं- ऐमा भगवान का कथन है। देवों की उत्पत्तिमनुष्यणियों की तरह देबियाँ गर्भ धारण नहीं करतीं। देवों के उत्पन्न होने का एक नियत स्थान होता है, उसे उपपात कहते हैं। स्थानाङ्ग ५।३।१४ ३. देवों की कार्यक्षमता(क) कई देवता हजार प्रकार के रूप बनाकर पृथक्-पथक हजार भाषायें बोल सकते हैं। -भगवती १४18IE (ख) कई देवता मनुष्यों की आंखों के भापणों पर बत्तीस प्रकार का दिव्यनाटक दिखा देते हैं, फिर भी मनुष्यों को बिः कुल तकलीफ नहीं होने देते। उन देवों को अध्याबाध देव कहते हैं। भगवतो १४१८३१७ २०० Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : तीसरा कोष्टक (ग) शक्र न्द्र महागज के लिए कहा जाता है कि वे मनुष्य के मरतक को तलवार से काटकर, उसे कूट-पीट कर चूर्ण बना देते हैं एवं कमंडनु में डाल लेते हैं। फिर तत्काल उस चूर्ण के रजकणों का पुनः मस्तक बनाकर मनुष्य की धड़ से जोड़ देते हैं। कार्य इतनी दक्षता व शीघ्रता से करते हैं कि मनुष्य को पीड़ा का बिलकुल अनुभव तक नहीं होने दते । ....परती १४:१५ ४. देवों को आयु(क) दवों की आयु जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट ३३ सागर की है। -प्रशाफ्ना ४ के आधार से (ख) चसहि ठाणोहि जीवादेवाउयत्ताए कम्म पगरेंति, तं जहा-सरागसंजमेणं, सेजमासं जमेणं,बालतबोकम्मेणं, अकामरिगजराए। -स्यानांग ४।४।३७३ चार कारणों से जीव देवता का आयुष्य बाँधते हैं । यथा-(१) राग भावयुक्त संयम पालने से, (२) श्रावक-श्रत पालने से, (३) अज्ञान दशा की तपस्या से (1) अकाम-मोक्ष की इच्छा के बिना की गई निर्जरा से। (ग) दानं दरिद्रस्य विभोः क्षमित्वं , यूनां तपो ज्ञानबतां च मौनम् । इच्छानिवृत्तिश्च सुखाचितानां, दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ।। -परपुराग, पाताल लण्ड ६२।५८ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज जो आदमी दरिद्र हैं उनका दान करना, जो सामवाले हैं उनका शमा करना, जो जवान हैं उनका तपस्या करना, जो ज्ञानी हैं उनका मौन रखना, जो गल भोगने के योग्य हैं उनका मुख की इच्छा का त्याग करना और सभी प्राणियों पर दया करना-पे सदगुण मनुष्य को स्वर्ग में लजानेवाल हैं । ५. देवों के भेद-- (क) दवा त्रउन्विहा पत्ता तं जहा-भवणव, वागा मं तरा, जोइगिया, वैमारिगया। - प्रज्ञाप्रना देवता चार प्रकार के होते है-(१) भवनपति, (२) व्यन्तर, (३) ज्योतिष्क, (४) वैमानिक । (ख) पंचविहा देवा पाता, तं जहा- भवियदन्चदेवा, परदवा, धम्मदेवा, देवाधिदेवा, भावदेवा । स्थानांग १ पाँच प्रकार के देव कहे हैं-- (१) भक्ष्य प्रदेव-भविष्य में देवनानि में उत्पन्न मियाले जीय, (२) नरदेव-चर, ती, (३) धर्मदेव-श्रागार-गाधु, (४) वेवाधि देव-तीर्थ कर (५) भावदेव-भवननिदेव आदि । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैविक-चमत्कार की विचित्र बात १. भाला राजपूत-पाटड़ीनरेश करण गेला को रानी से बादरा भूत संगम करने लगा। हलवद के राजपूत श्री हरपालदेव जो पाटड़ीनरेश के भानजे थे, छिपकर रानी के महल में रहे। ज्योंही भूत आय , चोटी एकड़ कर उसे पछाड़ने लगे। भून ने हारकर भारी उम्र मेवा स्वीकार की। भूत को जीत कर घर जाने समय मुग्न लगी । इमसान में चिता जल रही था। हरपालदब उसमें दो बकरे पत्राने लगे । अचाना जलती निता में स दो हाथ निकले। मांस समर्पण किया, लुप्त , नव जंघा चीर कर खून दिया । सक्तिदेवी प्रकट हुई एवं मुभाको पूछे बिना कोई काम न करना-इस भर्न से वह हरपालदेव की रानी बनी भुत का उपद्रव मिटाने से पाटडीना ने बथेष्ट मांगने का वरदान दिया। भूत एवं शक्ति की मलाह से रात-रात में तोरणा वांध जायें, उनने गांब मांगे | राजा की स्वीकृति मिली, हरालदेव घोड़े पर चढ़कर दौड़े एवं २३५२ गांवों में तोरण बांधे । फिर ५५॥ गांब' शक्ति रानी को विशेषरूप मे दान में दिए । प्रांगधा राजधानी बनाई गई। एकदिन राजकुमार खेल रहे थे। मान हाथी उन्हें २०३ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yox वक्तृत्वकला के बीज मारने लगा। महल में बैठी हुई शक्ति रानी ने हाथ लम्बे किये एवं राजकुमारों वो झाल (पकड़) कर ऊँचे ले लिये । झालने से झाला राजपूत कहलाए। बात प्रसिद्ध होने से शक्ति अन्तर्धान हो गई । राज-परिवार अब भी शक्ति-माता की पूजा करता है। --ध्रांगध्रा में श्रत २. मेवे की खिचड़ी महाराणा प्रताप जंगल में थे। अकबर फकीर के रूप में आया एवं मेवे की खिचड़ी मांगी। सामान न होने से शामिन्दा होकर महारारणा मरने लगे। अचानक एक आदमी बेल पर समान लाद कर लाया और देकर गायब हो गया। मेवे की खिचड़ी बनाकर खिलाई। अकबर महाराणा की उदारता पर प्रसन्न होकर लौटा। --उपयपुर में श्रत रुपयों की थैलीनेपोलियन बोनापार्ट से माता ने पंसे मांगे । न दे सकने से वह मरने लगा। एक दोस्त रुपयों की थैली देकर गुम होगया। ४. वंशच्छेद साप फतेपुर निवासी 'धीर मलजी माहेश्वरी' व्यापारार्थ भिवानी जा रहे थे। रास्ते में एक गांव में एक जाट के घर टहरे । वहां सांप के काटने से टाकुर वा कुंवर मर गया था । उसे चिता में सुलाकर जलाने की तैयारी हो रही थी। धीरमल जी वहां पहुंचे। चाकू से उसका खून लिया और बोलेइसे बाहर निकालो, यह जी जायेगा ! बाहर निकाल कर Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांची भाग : नीमरा कोष्ठक २०५ मंत्र पढ़ा, सांप आया । पूछने पर कहा—इसने खेलते समय मुझे पत्थर मे माग था। धीरमलजी ने मन्त्र पढ़कर माफ करने के लिये कहा । सांप बोला--१०० कमेड़े दिलाऊंगा। फिर मन्त्र पढ़कर आग्रह किया, सांप ने पचास कमेड़े अटाए। इस प्रकार रनली पुन मन्त्र पढ़ते गये और कमेड़ों की संख्या घटती गई | आखिर एक कमेड़े पर साँप डट गया। फिर मन्त्र पढा एवं कहा-आधा हनू. मान के नाम का और आधा मेरे नाम का छोड़ दे ! सांप माना एवं कुंवर जी गया । • एक बार संपेरों से विवाद हुआ। उन्होंने एक राजसर्प लाकर घोरमलजी पर छोड़ा, सांप ने डक माग एवं वे बेहोश हुए। पूर्व कथानुसार उन्हें गोबर से भरे खड्डे मैं सुला कर आर भी गोबर डाल दिया गया । सात दिन के बाद गोवर फटा एवं बाहर निकलाकर उनके मुंह में धी डाला गया। वे तत्काल होश में आगये | फिर वे जंगलों में धूमकर एक बिल्कुल पतला पीले रंग का साँप लाये और कहने लगे इसका नाम "वंशच्छेद सर्प' है । यह जिसे भी काटेगा उसके वंश के सभी मर जायेंगे। सपेरों ने हार मानी । -साध्वी श्रीवीपांजी से अत साँपों की गाड़ी काम की बात है, एक मन्त्रवेत्ता ठाकुर घोड़े पर चढ़कर कहीं जा रहे थे । दो काले नागों पर सवार होकर जाता हुआ एक हरा सांप मिला । टाकुर ने मन्त्र पहकर रास्ते में लकीर खींची, नाग रुके, सर्पराज ने नीचे Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०६ वक्तृत्वकला के बीज उतरकर जसको मिटा दिया । नाग चलने लगे, पुनः लकीर खींची, पुनः मिटाई । ज्यों ही तीसरी बार लकीर खींची, सर्पराज ने उस लकीर पर पूछ का प्रहार किया एवं घोड़े मे गिरवार ठाकुर मर गए । -धोडालगणी से प्राप्त ६. मन्त्रित कौड़ियां-डूमार (बंगाल) में एक आदमी को सांप ने काट खाया। मन्त्रबादी ने चारों दिशाओं में बन कौड़ियाँ फैकी । तीन दिशाओं में वापिस आ गई लेकिन चौथी विद्या से नौन कौड़ियां साँप को लेकर आई । मंत्रदादी में दूध के वार प्यासे रखे, साँक चूसता गया और दूध में डालता गया । तीन प्यानों के दूध का रंग नीला हो गया। फिर चौथे प्या का दूध पीकर सांप चला गया और वह आदमी जी गया । -पृथ्वीराज मुराणा से श्रुत ७. वर्ष भर का खर्व-अहमदाबाद लाल-पोल में एक पटेल की मृत्यु के बाद जब तक उनकी स्त्री जीवित रही. तब तक नये वर्ष के दिन भोयरा के द्वार पर सारे बर्ष के लार्च का हिसाब और एक दूध का प्याला रझा दिया जाता । साँप आकर ध पी जाता और सार्च के रूपए रख जाता । माता को मृत्यु के पश्चात पुत्रों ने भोयग लोला, एक आदमी मिला तब मे उस सौंप का आना बन्द हो गया। १. सिकोतरी-अकबर भटेबर के तालाब पर सो रहा था। महाराणाप्रताप जांबूड़ी की नाल में गए । कृषक खेत में पत्थर फेंक रहा था । बुड़िया बोली-"अरे ध्यान राहाजे ! Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : तीसरा कोष्ठवा पिलाया | वह मेवाडनाथ पधारे हैं फिर प्रताप को दूध बुढ़िया मिकोतरी श्री अतः विद्या से घोड़ी बनकर प्रताप का अकबर के ढेर में ले गई। राजा ने तलवार उठाई। २०७ 当り आवाज आई - "ॐ हूँ" राशी ने पूछा कौन ? उत्तर मिला वीर हूं। फिर दाढ़ी और मूंछ काटकर ले आयें। उसके बाद फिर अकबर ने मेवाड़ बना छोड़ दिया । - उदयपुर में श्रुत ६. रुई का फुआं-चुरू में हीरालालजी यति नेावकों का अतिआग्रह देखकर मन्त्र पढना शुरू किया । ३०-४० आदमी चमत्कार देखने के लिए बैठे थे। पहले एक रुई का फुलां आकर गिरा । चन्दही क्षणों में बहु फुआं बालक, जवान एवं दाड़ीवाला बूढ़ा बन गया । दर्शक सारे मूर्च्छित हो गए । फिर यति जी ने मत्रित खून का छोटा डालकर उस उन को बांत किया। कहा जाता है कि दर्शकों में से दो तो मर गये और एक (मुखलाल बरडिया के पिता चार दिन के बाद सचेत हुये । - सुखलाल वरड़िया से भूत १०. यतिजी का पत्र-पटियाला - महाराज ने सुनाम के यति से पूछा- मैं कौन से मार्ग से निकलूंगा ? यतिजी ने एक पत्र लिखा और उसे बन्द करके उन्हें दे दिया। राजा यतिजी को झूठा करने के लिए शहरपनाह की दीवार को फोड़कर बाहर निकला और एक वृक्ष की डाली पकड़कर वह Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ वक्तृत्वकला के बीज पत्र पड़ने लगा | राजा ने जो कुछ किया बह सब उस पत्र में पहले से लिख रखा था। राजा ने प्रसन्न होकर भेंट के रूप में प्रतिवर्ष उन्हें २४ रुपया देना स्वीकार किया | ११. उंडाई - टालो (पार) में एक दिन 'सगत मलजी' आदि संत यतीजी का पुस्तकभण्डार देख रहे थे । दोपहर के बाद यतीजी ने थोड़ी-सी (तीन पाव अन्दाज ) ठण्डाई बनाई और एक बर्तन में ढंककर रख दी। पीनेवाले आते गए और बतोजी पिलाते गये । लगभग तीस चालीस आदमी पी गये । बाद में ढंका हुआ वस्त्र हटाकर देखा तो ठंडाई ज्यों की त्यों थी । फिर सन्तों के जलपात्र पर हाथ घुमाया। पानी जम गया एवं पात्र से चिपक गया । सन्त कुछ घबराये | वतीजी ने पुनः पात्र पर हाथ फेरा | सन्त पात्र उठाकर देखने लगे । सारा पानी ठुल गया । -समतमलजी से अत १२. मन्त्रित उड़द - डाकिनियों ने एक यली के शिष्य को ग्रहण कर लिया एवं वह मर गया। क्रुद्ध गुरु ने मंत्रित उड़द दिये जलती चिता में फेंकने से चीलों के रूप में आकर डाकिनियां उसमें गिरकर भस्म होने लगीं । एक भुट्टी उड़द रख लेने से जीवित बच गयीं । कुछ १३. सुराणाजी बचे - सात्युं गांव में डाकिनी ने ग्रहण कर लिया। - उदयपुर में त तेजपालजी सुराणा को घसीजी ने अपना घुटना Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : तीसरा कोष्टक २०६ - मुंडा, ठाकुर साहब की माता (जो डाकिनी थी) का सिर मूंडा गया एवं मुराणा जी बचे । यतीजी को उसी समय ऊंट पर चढ़कर भागना पड़ा। -रू के श्रावकों से भुत १४, भूमलाधार बरसात-मालेरकोटला में यतीजी ने सबारी निकलते समय सलाम नहीं किया। नवाब ऋद्ध हुआ । लोगों ने कहा-ये चमत्कारी माल हैं । नवाब ने दस बजे तक बारिरा बरसाने के लिये कहा । साढ़े नौ बजे के बाद बादल निकले और मूसलाधार बरसात होने लगी । नवाब एवं लोगों ने माफी मांगी। वृष्टि बन्द की। फिर वहाँ से यतीजी सिरसा चले गये । -हाकमधन्य से श्रुत १५. जलाशय सुखा दिए-रानियां गांव पर बीकानेर का हमला हुआ 1 यतीजी ने रानियाँ से तीन-तीन कोस में सभी ....--- डाकिनी मनुष्यणी ही होती है और पदा-कदा जरख पर सवार होकर घुमा करती है । पहले वह माय के बल से बिलौने में रहे हार मानने को तथा तरबूज आदि फलों में रही हुई गिरी को म्यारने (स्थींचने) लगती है । इस प्रकार स्यारने के कारण वह स्यारी कहलाती है । ऐसा करते-करते जब वह बच्चों का कलेजा निकाल कर खाने लगती है तब उसे डाकिनी कहते हैं । हाकिनियो वारा गृहीत बालवः सुखने लग जाता है और अन्त में मर जाता है। ऐसी भी दन्त कथा है कि जमीन में दाटै हुए मृत बच्चे को डाकिनी रात के समय निकालकर जीवित कर लेती है, उस समय यदि डाकिनी को मार दिया जाय तो बच्चा जीवित भी रह सकता है। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० वनतृत्वकला के बीज जलाशय सुखा दिये । शत्रु सेनापति ने भिक्ष के वेष में आकर माफी मांगी तब तीन कोस पर एक तालाब में जल प्रकट किया। -हाकमचन्द से अत १६ (क) फीकी-कड़बी चीनी-राजलदेसर निवासी मालचंद जी वैद ने चीनी (शक्कर) को मन्त्र द्वारा फीकी एवं कड़वी बना दिया। प्रकाश बंद का मुंह बहुत देर तक तक कड़वा रहा। -चूरू में आँखों देखा (ख) इन्हीं मालगन्दजी ने दिव्य शक्ति में खिवाड़ा (मारवाड़) में विदामाजी की दीक्षा के ममय नो सेर गुड़ की लाासी ३४५ मनुग्यों को भोजन करवाया और सात सेर लापसी बचा भी ली। (ग) मारवाड़ जंकशन में खारची गांव से बालचन्दजी के घर से पांच सेर बादाम की वर्फी मगवाकर लोगों को चिलाई तथा लाडनूं में विवाह के प्रसंग पर ग्लुद तीस सेर मिठाई खा गये । और कुछ समय के बाद पुनः ज्यों की त्यों दिखा दी। -भालचन्दजी से श्रुत १७. कालगणी की आवाज-विक्रम संवत २००२ पोष की बात है । आचार्यश्री तुलसी मोमासर से सरदारशहर पधार रहे थे। उन दिनों आचार्यश्री के खांसी का प्रकोप इतना बढ़ रहा था कि कोई भी औषधि काम नहीं कर रही थी। मोमासर से छः मील दूर भादासर गाँव में रात के समय खांसी बहुत अधिक सता रही थी और नींद न आने से Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासवां भाग : तीसर कोष्ठक २११ काफी परेशानी हो रही थी। उस समय अष्टमाचार्य कालूगणी को आवाज आई-चिंता मत कर, ओड़कर सो जा ! आचार्यश्री सो गये । खांसी बिल्कुल बन्द थी। कुछ देर बाद पुनः विवार लाया कि कालूगरणी की आवाज नहीं आई, केबल मन का भ्रम था। बस, खांसी पहले में भी अधिक चलने लगी। प्राचार्यश्री बहुत खित्र हो गये और मोचने लगे कि जो सन्देह किया वह मेरी गलती हुई । इतना-सा सोचने के साथ ही नोंद आगई। प्रातः उठे तो खांसी का नाम-निशान भी नहीं थी। -आचार्यश्री तुलसी से श्रुत १५. खाटू का वृद्ध श्रावक-मभवतः वि. सं. २००१ मिगसिर की बात है | रात को हम कई साधु आचार्य श्री तुलसी की सेवा में बैठे थे और देवताओं की बातें चल रही थीं। आचार्य श्री ने फरमाया कि अभी कुछ दिन पहले 'वाद' मे एका वः श्रावक दर्शनार्थ यहां लापर! आगये । मैंने उनमें साश्चयं पूछा-आँखों से तुम्हें पुरा दीखता नहीं, चलने की तुम्हारी शक्ति नहीं और बवासीर रोग से तुम पीड़ित हो, इस हालत में अकेले दर्शनार्थ कैसे आये ? उन्होंने कहा-गुरुदेव ! दर्शन की अभिलाषा बहुत दिनों से लग रही थी, लेकिन साधन के अभाव में उसकी पूर्ति नहीं हो सकी। एक दिन रात के समय छोटा बेटा ( जो मर चुका था ) दृष्टिगोचर हुआ और कहने लगा, पिताजी ! चलिये मैं करवा लाऊं आपको दर्शन ! मैंने पूछा तू कहाँ _ . है ? उसने कहा-व्यंतरदेवता की योनि में है। कई बार Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज अपने मित्रदेव के साथ आचार्य श्री के पास जाया करता हूं, मैंने कहा तू मुझे दर्शन कैसे करवाएगा ? उसने कहा, आग टिकिट लेकर केवल गाड़ी में बैठ जाइए । फिर मैं अपने आप संभाल लूंगा । गुरुदेव ! मैं उसका विश्वास करके गाड़ी में बैठ गया, गाड़ी रवाना होते ही मैं पूर्णस्वस्थ हो गया और आपके चरणों में पहुँच गया । -धनमुनि २० श्रीभिक्षुस्वामी के स्मारक को उपलब्धि जनश्वेताम्बर तेरापंथ के आचार्य श्रीभिक्षु स्वामी का स्वर्गवास वि० सं० १८६० भाद्र सुदी १३ के दिन सिरयारी (मारवाड़) में हुआ था । १३ सांडी मंडी बनाई गई, १४० गाँवों के आदमी इकट्ठ ९५ एवं नदी के किनारे अग्निसंस्कार किया गया। वहां एक स्मारक बनाया तो गया था, लेकिन सिरियारी के श्रावकों की स्थिति बदल जाने से (कहा जाता है कि सिरियारी में तेरापंथी श्रावकों के जो ७०० घर थे वे प्रायः दक्षिण में व्यापार्थ चले गये और अब वहाँ केवल ३०-३५ घर ही रह गये हैं।) उसकी सार, संभाल यहां तक नहीं हुई कि वह स्मारक कहाँ है और कौनसा है ? यह भी पता नहीं रहा । तेरापंथ-द्विशताब्दी के अवसर पर पुराने स्मारकों का अन्वेषणकार्य युवकवर्ग ने संभाला। सम्पतकुमार गर्धया एवं मन्नालाल बरडिया आदि सिरियारी पहुंचे । काफी खोज की गई, किन्तु स्मारक का पता नहीं लगा। जिसे लोग थीभिक्ष स्वामी का स्मारक मान रहे Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : तीसरा कोष्ठक २१३ थे, उस पर वहाँ के 'गुरांसा' 'हमारे पूर्वजों का है।' ऐसा दावा करने लगे। रात को स्मारक की चर्चा करते. करते सब सो गये । प्रातः उठकर वे युवक लोग शौचार्थ जङ्गल गये । चर्चा वहीं चल रही थी, वे नदी के किनारे एक बीरान पहाड़ी-ढाल पर पहुँचे और स्मारक की खोज में हाथ-पैर मार रहे थे ; इतने में सफेद बाल, झुकी कमर और चमकीली आखोंबाला एक बूढ़ा (जंगली-सा) आदमी पहाड़ी से उतारका नीचे आया और पूछने लगा-'भाई। क्या हूँढ़ रहे हो? सबने सिर झुकाकर कहा 'बाबा। स्वामी जी का स्मारक !' बाबा--'कौनसे स्वामीजी का ?' युवक-तेरापंथ के आदि गुरु 'श्रीभिक्ष स्वामी का। बाबा--'हाँ हाँ, था तो सही, भाई ! मैं अपने दादागुरु के साथ यहाँ अनेक बार आया करता था और दादागुरु कहते भी थे कि जिसमें एक नया पंथ चलाया है यह उस 'बाजे' का चबूतरा है ।" युवक-'बाबा ! यह कहाँ है ?' बाबा ने अंगुली लगाकर कहा-'इस स्थान पर होना चाहिए।' बस, सभी युवक जुट गये और लोटों से मिट्टी खोदने लगे। कुछ ही क्षणों में एक ईट निकली और बाद में चबूतरा भी प्रकट हो गया, जो तीन तरफ ठीक था, एक - .- . . ---- --- - Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के वीज तप : सदरमुक होना तो बूढ़ा बाबा नजर नहीं आया था। काफी प्रयत्न करने पर भी पता नहीं लगा कि वह कौन था एवं कहाँ से आया था। बस, पता लगते ही स्वगीय श्री बस्तोमलजी छाजेड़ आदि शहर के अनेक श्रावक वहां आ पहुँचे एवं युवकों को धन्यवाद देने लगे । फिर समाज ने चबूतरे पर संगमरमर का 'स्मारक भवन' बनबा दिया, जो इस समय विद्यमान है। -बंगलौर से प्रकाशिल स्मारिका के आधार पर श्रीजयाचार्य के स्मारक का चमत्कार सन् १९४३ के अगस्त मास में जब जयपुर के नक्शे का आमूलचूल परिवर्तन किया जा रहा था और नयी सड़कें निकाली जा रही थीं, 'म्युजियम भवन' की एक सड़क के कटाव में, लूमियाजी के बाग में विद्यमान श्री जं. वे. तेरापंथ के चतुर्थपुज्य श्रीजयगरणी का स्मारक (बूतरा भी आ गया । उसका एक तिहाई हिस्सा तोड़ना तय हुआ । वहां के श्रावकों ने काफी प्रयत्न किया, किन्तु सफलता नहीं मिली। क्योंकि मुख्यमन्त्री श्री मिस्मिाइल ने बड़े-बड़े महल, मंदिर एवं मकबरे भी तुड़वा डाले थे। फिर स्मारक की तो बात ही क्या थी। उस समय आनार्य श्रीतुलसी का चार्गास गंगाशहर था । यह समाचार मुनकर सेठ ईश्वरचंदजी चौपड़ा आदि समाज के मुखिया लोग परपर मिले । सबकी सलाह के अनुसार ३-४ साथियों सहित श्री तिलोकचंदजी चौगड़ा Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांघर्धा भाग : तीसरा कोष्ठक जयपुर गये । वे छोटे-मोटे सभी इंजीनियरों एवं सरमिर्जा से भी मिले. लेकिन उत्तर यही मिला-"जो कुछ तय किया गया है, वही ठीक है।" श्रीचौपड़ाजी ने मुख्यमन्त्री से निवेदन किया-कृपया, एक बार मौका तो देख लीजिये | अति आग्रहवश मुख्यमंत्री ने मौका देखना स्वीकार किया। पता लगते ही पुलिस गश्त लगाने लगी पैमायश करनेवाले फीते लेकर स्मारक के चारों तरफ धूमने लगे थे। इंजीनियर प सीना हो रहे थे । यह था कि उनका नाप ठीक नहीं बैठ रहा था । दूसरे सब निशान ठीवा थे, लेकिन श्री जयगगी का मारक जिसका एक तिहाई हिस्सा सड़क में आने में रेडमार्क से विभूषित था, सड़क से तीन-चार फीट दूर हो गया था। समिर्जा के आते ही चीफ इंजीनियर ने कहा--'साहब ! धरनी पलट गई ।' विस्मित मिर्जा साहब के हाथ जुड़े गये, बूट खुल गये और वे सिर झुकाकर बाले---'सचमुच वह एक महान् पुरुष था। मैं उसे अदब से सलाम करता है। मिस्टर चौपड़ा, थेंक्स ! इस सम्बन्ध में पुराने लोगों का कहना है कि श्री जयाचार्य के संस्कार के बाद वहाँ एक चंदन का वृक्ष प्रकट हुआ, जो तीस-चालीस साल तक रहा । बाग क माली को वहाँ अनेक बार अर्धरात्रि के समय श्वेतवस्त्रधारी दिव्य पुरुष के दर्शन हुये थे । एक बार प्रत्यक्ष होकर मालो से कहा भी गया था---'यहां गंदगी न होने दी जाय ।' कई लोगों Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ने वहां प्रकाश-पुज भी देखा था । आज भी अंधेरे-अंधेरे न जाने कौन वहाँ अर्चन करने आता है । अस्तु ! श्री जयाचार्य का स्वर्गवास वि. सं. १९३८ भाद्रवदी १२ को हुआ था एवं अन्त्येष्टि-जुलूस राजकीय सम्मान के साथ अजमेरी गेट से निकाला गया था। उक्त स्मारक पहले चूने का था। अब संगमर्मर का है एवं उसके ऊपर एक छोटी-सी छतरी भी बनादी गई है। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा कोष्ठक १ तिर्यञ्च संसार १. नारक, मनुष्य और देवों को छोड़कर सब सांसारिक जीवजन्तु तिर्यञ्च कहे जाते हैं । तिर्यञ्च पाँच प्रकार के होते हैं -१ एकेन्द्रिय, २ द्वीन्द्रिय, ३ त्रीन्द्रिय, ४ चतुरिन्द्रिय, ५ पञ्चेन्द्रिय | एकेन्द्रिय तिर्यञ्च पांच प्रकार के होते हैं- पृथ्वीकाय, २ अकाय, ३ तेजस्काय, ४ वायुकाय, ५ वनस्पतिकाय पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च दो प्रकार के हैं समूच्छिम और गर्भज । दोनों ही मुख्यतया तोन-तीन प्रकार के है- जलचर, स्थलचर और खेचर | -लोकप्रकाशपुञ्ज ३ २. उहि हि जीवा तिरिक्खजोयिताए कम्मं पगरेंति, तं जहा - माइल्लयाए, निर्याडल्ल्याए, अलियवयणं कूडतुलक्कडमारणें । —स्थानाङ्ग ४|४|३७३ चार कारणों से जीव तिर्ययोनि के योग्य कर्म बांधते हैं-१ माया छल से, २ गूढ़ माया से, ३ असत्य बोलने से, ४ भूटा तोल -माप करने से | २१७ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ वक्तृत्वकला के बीज आश्चर्यकारी वृक्ष - १. दक्षिणी अमरीका के ब्राजीलदेश में एक ऐसा वृक्ष है, जिसके सने में करने से मीठा-पोष्टिक दूध निकलता है । इंडोनेशिया के सुमात्राद्वीप में एक जलवर्धक वृक्ष है, जो दोपहर के समय तेजसूर्य की किरणों से हवा के द्वारा भाष लेकर कुछ देर के बाद बरसता है, उससे घड़ा भी भर जाता है | अमरीका के मिशिनिंगन प्रदेश 'हालक्लार्क' नामक व्यक्ति के उद्यान में एक ऐसे वृक्ष का ठंटा खड़ा है, जो मानवाकृति है । उसके हाथ-पैर एवं सिर है, यहाँ तक कि सिर पर टोपी तथा दाहिने हाथ में घड़ी भी है । बिहार में पाँच लाख वर्ग फुट विस्तृत एक बड़ (बरगद) का वृक्ष है । कहा जाता है कि उसके नीचे बीस हजार कन्न हैं | २. मैक्सिको में एक वृक्ष पाया जाता है, उसका गुण यह है कि वह हर समय सुई - डोरा तैयार करता है। वृक्षों की प्रत्येक पक्षी पर सूई काँटा लगा रहता है जिसे खींचने पर दो फुट लम्बा धागा निकल आता है। पक्षिक बखूबी उस प्राकृतिक सूई से अपना काम चला सकता है । - नवभारतटाइम्स, १७ अक्टूबर १६७१ ३. अफ्रीका में माडागास्कर टापू के जंगल में 'कोडो' नामक वृक्ष था। वह निकट आते ही मनुष्य को खीच लेता एवं उसका सार चूसकर वापस फेंक देता था। -डा. कार्ल लीच Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचवा भाग : चौथा कोष्ठक २१६ ४. जल में रहनेवाला एक 'लेडर वर्ट' नामक वृक्ष होता है । उसके तने पर छोटे-छोटे थेले लगे रहते हैं, उन थलों के मुंह पर एक दरवाजा होता है, ज्योंही कोई कीड़ामकोड़ा अन्दर पहुंचता है, त्योंही दरवाजा अपने आप बन्द हो जाता है और वृक्ष कीड़ों का खून चूस लेता है । न्यू साउथवल्मा तथा स्वींसलैंड स्थित जंगलों में 'जीनसलापोर्टिया' नामक अस्सी से १०० फुट एक दैत्याकार वृक्ष पाया जाता है, जिसे वहाँ के लोग 'टच-मी-नांट' की संज्ञा देते हैं । इस वृक्ष के हृदयाकार पत्ते एक फुट से भी लम्बे होते हैं। पत्तों में रेशेदार भरे कांटे होते हैं, जो जहरीले होते हैं । यदि किसी प्रासी का शरीर इन पत्तों से रगड़ ग्वा जाय तो कम से कम चार दिन तक उसे प्राणघातक जलन व पीड़ा भुगतनी ही पड़ती है । जावा के समुद्री तट पर 'भूपन्स' नामका एक नरभक्षी-वृक्ष है | धोम्वे में इसके नीचे आते ही हाथी जैमें जानवर पर भी कंटीली शाखाएं भाषद गड़ती है। टस्मानिया के जंगल में हेरिजिटल नामक एक ऐसा ही खतरनाक वृक्ष पाया गया है । वहां के लोगों का कहना है कि अच्छे से अच्छा जंगल का अनुभवी व्यक्ति भी किसी अन्य की मदद के बिना इस वृक्ष के क्रूर पंजों से मुक्ति नहीं पा सकता । और नो और अगर कोई घुड़सवार भी इसको बगल से गुजरे तो यह उसे भी अपना शिकार बना लेता है । -नवभारत टाइम्स, १७ अक्टूबर, १९७१ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : चौथा कोष्ठक २२. ५. अद्भुत तरबूज - ताजिकिस्तान के तरबूज उत्पादक, ५५ किलोग्राम वजन तक के तरबूजों को पैदा करने में सफल हो गए हैं। [विशेषज्ञों के मतानुसार तरबूजों का वजन सामान्यतः १६ किलोग्राम तक ही होता है और उनमें ११ प्रतिशत मिठास होती है ] ऐसे तरबूज 'दुशान' में आयो जित एक प्रदर्शनी में रखे गए हैं, इनमें मिठास की मात्रा भी २० प्रतिशत है । - हिंदुस्तान, 2 सितम्बर १६७१ * Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ आश्चर्यकारी तिर्यञ्च १. ( क ) गाय - अमेरिका में एक गाय का १६० रत्तल दूध था एवं सांड की कीमत ४|| लाख रुपए श्री । (ख) बाव (गुजरात) के पास एक गांव में ६ महीनों की पाड़ी दूध देती थी । । ३. (ग) एक साथ पर भी चार स्तम थे, जिनसे दूध की धारा निकलती थी । संकलित घोड़े - उदयपुर महाराणा के यहाँ कई ऐसे घोड़े थे, जो एकादशी के दिन उपवास करते थे एवं 'ग्यारशिया' नाम से सम्बोधित किए जाते थे । ग्यारस के दिन यदि उनके सामने कभी दाना रख दिया जाता तो वे अपना मुंह मोड़ लेते । - संतों ने आँखों से देखा हाथी - (क) हाथी की सूंड में चार हजार मांसपेशियां होती हैं । उसका दिमाग मनुष्य के दिमाग से चारगुना तथा शरीर लगभग ५ टन का होता है । प्रतिदिन का भोजन ५० किलो पानी और ७० किलो घास पात पेड़ों की हरी पत्तियां आदि है। —सर्जना तथा विश्वकोष भाग २ के आधार से २२१ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ वक्तृत्वकला के बीज (ख) कनाडा में सारे लाय: या ए ऐ हाकी या जो पैरों में जूते पहने बिना बाहर नहीं निकालता था। --सरिता, सितम्बर, द्वितीय, १९७१ (ग) संसार का विशालकाय हाथी कन्धे के पास से ऊंचाई १२ फुट नौ इंच थी. चमड़ी खान) का व नन दो टन था । इस विशालकाय हाथी को अफ्रीका के जंगलों में हंगरी के एक शिकारी ने सन् १६५५ में मारा था। हाथा का अस्थिपंजर 'स्मिथ सानिएल इन्स्टीट्यूट की नेचरल हिस्ट्री कालेज' में रखा गया है। ----कादंबिनी, दिसम्बर १६६४ (घ) प्रतापगढ़ (उ० प्र०) जिले का एक पालतू हाथी एक बार कोधित होकर अपने चालक (पीलवान} को पैरों तले दाब कर मूड से नीर डाला | दुखित पत्नी विकल होकर अपने इकलौते पुत्र को क द्ध हाथी के आगे फेंक दिया । मदोन्मत हाथी ने उस बच्चे को सूड से उठाकर पर पर बैठा लिया। कहते है कि तबसे वही बच्चा उस हाथी का चालक पीलवान) बन गया। उसकी अनुपस्थिति में हाथी पागलों की भांति हाथ-पैर पटकता, चिग्घाइता । वह यावज्जीवन उस लड़के के इशारे पर चलता रहा । इसी जिले में एक बारात में गये हुये हाथी के चालक से बरातियों द्वारा लेन-देन के मामले में विवाद हो उठने से हाथी मदोन्मत होकर सारे बरातियों पर टूट पड़ा। कुछ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : चौथा कोष्ठक मरे, कुछ घायल हुये बहुत सारा सामान नष्ट-भ्रष्ट हो गया । अन्त में एक व्यक्ति ने उस हाथी को गोली में मार कर शान्ति स्थापित की। -गोंडा निवासी श्री हनुमानबस्शसिंह से प्राप्त ४. मिष्ठ कुत्त:(क) दुर्गापुर में एक वृद्ध कुत्ता एकादशी के दिन कुछ नहीं सारा : गइ रोड वास करता है । पारण के दिन माँस नही ग्वाता ! (स्त्र) गोहाटी के एक सरकारी अधिकारी का भोलू नामक क़त्ता अमावस्या-पूर्णिमा एवं एकादशी-ऐसे महीने में तीन उपवास करता है। उपवास के दिन भूलकर कोई उगे गेटी दे दे तो भी वह नहीं जाता। (ग) बस्तर के पास शैरवी मन्दिर में आरती के समय एक पत्ता हर रोज आता है एवं एक घण्टा तक आँखें बन्दकर प्रतिमा के मापने वडा रहता है, फिर सात बार परिक्रमा देता है । यह सब कर लेने के बाद ही वह कन्ट खाता-पीता है। (घ) आर्यबिद्रान शास्त्रार्थ महारथी पण्डित विहारीलाल शास्त्री की दादी का कत्ता मंगलबार को व्रत रखता था। (ङ) देहरादून के तपोवन-आश्रम में ठाकुर गमसिंहजी का कुत्ता एकादशी का व्रत करता है, उस दिन रोटी डालने पर पीछे हट जाता है और बाध्य करने पर मुंह में रोटी लेकर वृक्ष के नीचे छिपा आता है एवं Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ दूसरे दिन निकालकर खा लेता है । वक्तृत्वकला के बीज - नवभारतटाइम्स, २५ अप्रेल १६६५ चोरी डकैती का पता लगानेवाले कुत्ते (च) पुलिस डिपार्टमेंट में कई ऐसे कुरो होते हैं, जो चोरोंडाकुओं या चुराए हुए धन को खोज निकालते हैं । खगड़िया (बिहार) में रात के समय नौकर से मिलकर कई गुण्डों ने एक सेठ को कत्ल कर दिया । उसका सारा धन (लाख सवा लाख का ) लेकर वे तीन मील दूर जंगल में गए और वहाँ खड्ढा खोदकर उसे दाट दिया। फिर तत्काल उस पर एक ईंटों का खम्भा चिनकर ने कही भाग गये। सुबह पुलिसथाने में खबर दी गई। पुलिस के साथ दो कुत्ते आए। उन्होंने कत्ल किए हुए सेट को सुंघा फिर शहर में और आस-पास के जंगल में खूब चक्कर लगाए। दूसरे दिन एक कुत्ता वहीं पहुँच गया ओर चिने हुये खंभे को सूंघ कर उस पर पंजे मारने लगा । पुलिस ने खंभे को हटाया तो उसके नीचे सारा धन मिल गया । ---संचियालासजी नाहटा से स (छ) गिल्डा कुत्ता अमरीका में आगाखों की भूतपूर्व पुत्रवधू एवं 'प्रिंस अलीखा' की भूतपूर्व पत्नी त्रिश्त्र को विख्यात सुन्दरी अभिनेत्री 'रिताहेनर्थ' का कुत्ता 'गिल्डा' है। उसकी खाने की मेज ५ हजार की है। बैठने का सोफा १२ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग ; चौथा कोष्ठक २२५ हजार का है. बिस्तर-पलंग लाख-डेढ़ लाख के हैं . तथा वस्त्र एवं साज-गार ४० हजार से ३ लाख तक है। गिल्डा दिन में मात बार कपड़े बदलता है । विश्व-सौन्दर्य प्रतियोगिता में सर्वप्रथम आने से स्वामिनी ने बृहत् प्रीति-भोज दिया । ४५० मेहमान आए, सभी गिल्डा को चूमना चाहते थे । २०० मे एक हजार तक चुम्बनशुल्क रखा गया था लेकिन होड लगने लगी । आखिर पैरिस की कुमारी "निवाला" ने ५० हजार देकर सर्वप्रथम चुम्बन किया । गेवी (कुतिया) मे गिरप्ता का विवाह हुआ, पान लाख रुपए लगे । उससे होनेवाली प्रथम संतान का मूल्य : लास गया । गिड टोस्ट के साथ चाय पीता है। बारह बजे नहाकर भोजन करता है, तीसरे प्रहर एक गिलास अंगुर का ग्म पीता हे और गत को ६ बजे फिर साना खाता है। भोजन के समय गिल्डा रेडियो सुनता है एवं गाने का बहुत रसिक है। -नवनीत, सितम्बर १९५३ से ५. बन्दर-- (क) बुवानीखेड़ा में बंदरों को मारने के लिये विष मिलाकर खीर का कुण्डा एक छत पर रख दिया गया, बंदर सूंघ-संघ कर चले गये । एक बंदर जंगल से एक लकड़ी लाकर उससे खीर को हिलाने Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज लगा। हिलाता गया और सूंघता गया। आखिर सब मिलकर उस खीर को खा गये । ( लकड़ी में विष नष्ट करने की शक्ति थी। (ख) इन्दौर में बंदर के बच्चे को सांप ने काट खाया। अनेक बंदर इकठ्ठ हुए, एक बूढ़े बंदर ने गेंदे (फुल) की जड़ लाकर बच्चे के मुंह में उसका रस डाला एवं बच्चा जी गया। -इन्दौर में पंद्यजी से श्रत (ग) बुवानीखेड़ा में छोटे बच्चे को एक बंदरिया उठाकर ले गई। और रोटी देने पर वह बच्चे को धीरे से छन पर छोड़कर चली गई। -बुवानोलेड़ा में श्रुत ५. नेवलों का चमत्कार(क) भद्रपुर (नेपाल) से लगभग दस मील दूर सेंदरी गांव का एक राजवंशी-किसान कहता है कि नेवले साँप को टुकड़े-टुकड़े करके उसमें से खाने का द्रव्य खा लेते हैं, फिर शेप टुकड़ों को बराबर रख कर जंगल से कोई जड़ी-बुटी लाते हैं और खण्ड-खण्ड हुए सांप के शरीर पर उसे लगाकर सांप को जीवित कर देते हैं। यह चान बिल्कुल असम्भब सी लगती है। परन्तु उस किसान का कथन है कि मैंने अनेक बार यह खेल अपनी आँखों से देखा है। (ख) सुनने में आया है कि जब सांप और नेवले की लड़ाई होती है, उस समय सांप उसके शरीर पर काफी जोर Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवा भाग चौथा कोष्टक २२७ से डंक मारता है लेकिन जड़ी के प्रभाव से वह पुनः सज्जित होकर आ भिड़ता है और अन्त में उसे मार डालता है । (नेवले के पास एक जड़ी होती है जिसे छूते ही सांप का जहर उतर जाता है एवं घाव मिट जाता है | ) ६. सांप (क) मेरठ में बदन पर बालवाला एक सांप था। वह सात फूट तीन इंच लम्बा एवं पांच फुट मांझा था। जहरीला इतना था कि डंक मारते ही मनुष्य के कपड़े जल गए एवं उसके शरीर के दो टुकड़े हो गए। --- हिन्दुस्तान, २५ सितम्बर, १९५२ (ख) अफ्रीका में ५० फुट लम्बे सांप पाये जाते हैं । जावा के निकटवर्ती द्वीप में उड़नेवाले भी सांप पाये जाते हैं । - हिन्दुस्तान, २२ मार्च, १६७१ (ग) सर्पिणी की समझदारी - भद्रपुर (नेपाल) से ४-५ मील दूर रामगढ़ गांव के निकट एक खेत में सर्पिणी के बच्चे पड़े थे । उम खेतवाले को दया आई एवं एक कुंडे में डाल उन्हें खेत की खाई में रख दिया। पीछे से सर्पिणी आई और अपने बच्चों को न देखकर व्याकुल हुई। खेत में इधर-उधर काफी दौड़-धूप को लेकिन बच्चे न मिले। उसे बहुत ज्यादा प्यास लगो ! खेत में पड़े हुए घड़े में से पानी पीया और जाते समय उसमें जहर डाल गई। फिर अपने बच्चों की खोज करती हुई बह- खाई में पहुंची। बच्चे मिले, उन्हें लेकर वह उस पानी के Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Maha तुल्यकला के बोज घड़े के पास आई और अपनी पूंछ के प्रहार से उसे औंधा कर दिया । संभवतः मतलब यह था कि उसका पानी पीकर कोई भर न जाये । -- भंवरलाल चंडालिया से श्रुत (घ) सांपों का हमला - बगदाद १६ मई (राय) कुर्दीपत्र 'अलताखी' के एक समाचार के अनुसार उत्तरी इराक के एक गांव कुर्दी जाल के निवासियों पर पिछले दिनों लगभग २०० पीले सांगों ने अचानक हमला किया। गांववालों ने छुड़ा और नंगी तलवारों से उनका सामना करके उनमें से ६५ को मार डाला | शेष भाग गए । - हिन्दुस्तान १८ मई, १६७१ ७. चूहे (क) विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों के मतानुसार चूहेचुहिया के एक जोड़े से पैदा हुई सन्तानों से तीन वर्षों में ३५ करोड़ चूड़े हो सकते हैं। लेकिन सौभाग्य की बात है कि ऐसा होता नहीं । चूहा चुहिया का एक जोड़ा प्रति वर्ष ५० बच्चे पैदा कर सकता है । अगर वे सभी जीवित रह जाएँ तो उनसे तीन वर्षों में ३५ करोड़ चूहे हो जाए । - - हिन्दुस्तान, १६ जनवरी, १६६८ (ख) बम्बई में ऐसे चुहे देखने में आए, जिनसे डर कर बिल्लियाँ भी भाग जाती हैं । - धनमुनि Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँव भाग : चौथा कोष्ठक ८. मेंढक (क) महेन्द्रगंज में एक बड़ा पेंढक १८ इञ्च लम्बे सांप के साथ लड़ा एवं उसे मार कर निगल गया | - बम्बई समाचार, २७ सितम्बर १९५० (ख) दक्षिणी अमेरिका में एक प्रकार का मेंढक पांच फूट लम्बे सांप को खा जाता है । — २२६ ---काम्बिनो, मई, १६६४ १. जलजन्तु - (क) देवमासा मछली तीन दिन में ८०० माइल तेरती हैं। बम्बई समाचार, २१ अगस्त १६५० सनी और १४० टन भारी (ख) जोश मली १४० होती है। उसके मुंह में २४ हजार दाँत होते हैं । तीन-तीन सौ दांतों की ८० कतारें होती हैं । - नवभारत टाइम्स २८ मार्च १९५१ - (ग) अमरीका का समुद्री घोषा प्रति वर्ष ४० करोड़ अण्डे देता है। कुछ सीपियाँ और खर हैं, जो प्रतिदिन ४१ हजार एवं एक वर्ष में १४४ करोड़ अण्डे देते हैं। -कादश्विनी, मई, १९६४ J १०. कई अन्य पशु-पक्षी (क) पशुओं में चीता ७० मील प्रतिघंटा दौड़ सकता है, किन्तु अधिक लम्बा नहीं दौड़ सकता । - साप्ताहिक हिन्दुस्तान ३१ अक्टूबर १९७१ ' Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० वक्तृत्वकला के बीज (ख) शत्रुर्भु की गति प्रति घंटा २६ मील तक है । उसकी छोटी से छोटी पांख की कीमत ३०-४० रुपये हैं । (ग) कबूतर ६० मील और चिड़िया कोई-कोई ३०० मील प्रति सकती हैं ! - नवभारतटाइम्स, २८ मार्च १६५१ (घ) लंदन के अजायबघर में सुमात्रा से एक अद्भुत छिपकली लायी गयी थी, वह १५ फुट लम्बी थी और उसकी जीभ १५ इंच लम्बी थी । X Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृश्यमान विश्व में पशु-पक्षी विश्व के पशुओं को दो वर्गों में रख सकते हैं प्रथम वर्ग में पशु जो मनुष्य के भोजन के माधन हैं, जमे-गाय, भैंस, भेड़, बकरी, मुअर और मुर्गी आदि। द्वितीय वर्ग में पशु जो बोझा ढोने अथवा सवारी के काम आते हैं। जैसे-घोड़े, गधे, खच्चर, बैल, ऊँट, याक आदि । प्रो. मामांरिया के अनुसार पृथ्वी पर ३५०० प्रकार के पशुओं में से केवल १७ पशु, १३००० प्रकार को चिड़ियों में से केवल ५ चिड़ियाँ और ४,७०,००० कीड़ों में से कवल दो प्रकार के कीड़े पालतू बनाये गये हैं । नीचे की तालिका में विश्व के कतिपय पालतू पशु-पक्षियों की संख्या देखिये :पशु संख्या पशु-पक्षी भेड़ ६८ करोड़ ६. साख गाय-बल ७१ ॥ रेनडियर (बारहमींगा) २० लाख सुअर लामा आदि २० लाख बकरी ११ ॥ १ अरब E0 करोड़ घोड़े ६ । बता ११ करोड़ गधे ३.५ , ७ करोड़ ३ लाख खबर १५ ॥ टी २ करोड ३० लाख संख्या ऊँट मुगियों २३१ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य१. मला हिताहितं ज्ञात्वा कार्याणि सीव्यन्तीति मनुष्याः 1 अपने हित-अहित को समझकर काम करते हैं, इसलिए मनुष्यों का नाम मनुष्य है। २. यो वै भुमा तदमृतं, अथ यदल्पं तद् मय॑म् । -छांदोग्योपनिषद्, ७५२४ जो महान है, यह अमत है—शाश्वत है और जो लघु है, वह मस्यं है--विनाशशील है (मत्यं नाम मनुष्य का है)। ३. पात्रे त्यागी गुरणे रागी, भोगी परिजनः सह । शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा, पुरुषः पञ्च लक्षणः ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ १४८ (१) पात्र को देनेवाला, (२) गुणों का अनुरागी, (३) परिजनों के साथ वस्तु का उपभोग करनेवाला, (४) शास्त्रज्ञ, (५) युद्ध करने में बीर । पुरुष के ये पाँच लक्षण हैं । ४. मनुष्य का मापदण्ड उसकी सम्पदा नहीं, अपितु उसकी बुद्धिमत्ता है। -टी. एन. पास्वानो ५. हर आदमी की कीमत उतनी ही है, जितनी उन चीजों की है, जिनमें वह संलग्न है । -आरिलियस Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : घोषा कोष्टक ६, अगर तू अपनी कीमत आँकना चाहता है ता धन-जायदाद पदवियों को अलग रखकर अंतरंग जाँच करले! -सेनेका ७. आदमी की कीमत का अंदा। इसने लगा है कि खुद अपनी नजर में उसकी क्या कीमत है। मनुष्य समाज से तिरस्कृत होने पर दार्शनिक, शासन से प्रताड़ित होने पर विद्रोही, परिवार से उपेक्षित होने पर महात्मा और नारी से अनाहत होने पर देवता बनता है। -महर्षिरमण ६. मनुष्य जो कुछ खाते हैं उससे नहीं, किन्तु जो कुछ पचा सकते हैं, उससे बलवान बनते हैं। धन का अर्जन करते हैं, उससे नहीं, जो कुछ बचा सकते हैं, उससे धनवान बनते हैं। पढ़ते हैं उससे नहीं, जो कुछ याद रखते हैं। उससे विहान होते हैं। उदेश देते हैं उससे नहीं, जो आचरगा में लाने हैं, उससे धर्मवान बनते हैं ये बड़े परन्तु साधारण सत्य हैं । इन्हें अतिभोजी, अतिव्ययी, पुस्तक के कोट और पाखंडी लोग भूल जाते हैं। -लार्ड बेकन १०. यो न निर्गत्य निःशेषा-मालोकयति मेदनीम् । अनेकाश्चर्यसम्पुरा स नरः कूदईरः ।। -चंदचरित्र, पृ. ८६ जो घर से निकलकर अनेकआश्चर्यपूर्ण पृथ्वी का अवलोकन नहीं करता, वह कुएं का मेंढ़क हैं। . ११, अनि उघाड़ी ना खटे, जल फुटयां बिमड़त। नारी भटक्याँ बीगई, नर भटक्याँ सुधरंत ॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ १२. आदमी आदमी में अन्तर, कोई हीरा कोई कंकर । १३. मिनख से काम मिनख सूं सौवार पड़ । वक्तृत्वकला के बीज १४. मानवजाति दो बातों से नष्ट हुई हैं :विलासिता मे और द्व ेष मे - हिन्दी कहावत - राजस्थानी कहावत - शेक्सपियर - १५. गणित को अपेक्षा से मनुष्यों के चार आश्रमों का रहस्य(१) ब्रह्मचर्याश्रम जोड़ (+) है-इसमें वीर्य-विद्या- कला कौशल आदि इकट्ठे किये किए जाते हैं । (२) ग्रहश्राश्रम बाकी ( - ) है – इसमें संगृहीत वस्तु का खर्च होता है । (३) वानप्रस्थाश्रम गुरगा कार (X) है - इसमें हर प्रकार से गुणों की वृद्धि की जाती है । (४) सन्यास आश्रम भागाकार ( - ) के तुल्य है-इसमें प्राप्त किये हुये तप-जप-ज्ञान-ध्यान आदि बांटे जाते हैं । अर्थात् उनका लोगों में प्रचार किया जाता है । - संकलित * Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १. पलुकामो हि मत्यः । मनुष्य का स्वभाव - ऋग्वेद १।१७६०५ होता है । -- अभिज्ञान शाकुंतल मनुष्य स्वभाव में ही बहुत कामनावाला २. उत्सवप्रिया हि मनुष्याः । मनुष्य नित्य नये आनन्द के प्रेमी हुआ ३. (क) मनुष्याः स्खलनशीलाः । (ख) टू ईरर इज ह्यूमन । मनुष्य भूल करने की आदतवाने होते हैं । ४. पुढो छंदा इह मारवा करते हैं । -- संस्कृत कहावत --अंग्रेजी कहावत - आचारांग ५।२ नंसार में मानव भिन्न-भिन्न विचारवाले होते हैं । ५. अगचित्तं खलु अयं पुरिसे । से के अहिए पूरिए । -- आधारांग ३२ यह मनुष्य अनेक चित्त है, अर्थात् अनेकानेक कामनाओं के कारण मनुष्य का मन बिखरा हुआ रहता है। वह अपनी कामनाओं की पूर्ति क्या करना चाहता है, एक तरह खुलनी को अल से भरना चाहता है । ६. पकने पर कहुआ होनेवाला एक फल है- 'मनुष्य' । ७. मनुष्य अपनी श्रेष्टता को आंतरिकरूप से और पशुता को बाह्यरूप से | २३५ प्रकट करते हैं - रूसी कहावत Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ वक्तृत्वकला के दोज ८. सिर्फ आदमी ही रोता हुआ जन्मता है, शिकायत करता हुआ जीता है और निराश होकर मर जाता है। --सर वाल्टर टेम्पल ६. अनार्यता निष्ठुरता, क्रूरता निष्क्रियात्मता । पुरुषं व्यञ्जयन्तीह, लोके कलुषयोनिजम् ॥ -मनुस्मृति १०५८ अनार्यता, निष्ठुरता, अरता और निष्क्रियात्मता-आन्नमीपन-य कार्य मनुष्य को नीचयोनि से उत्पन्न है—से प्रकट करनेवाले हैं। ११. नदी बहना नहीं छोड़ती. समुद्र मर्यादा नहीं छोड़ता. चांद सूर्य प्रकाश देना नहीं छोड़ते, वृक्ष फालना-फूलना नहीं छोड़ते, फूल सुगन्धि नहीं छोड़ता, तो फिर मनुष्य अपना स्वभाव-गुण क्यों छोड़ता है ? १२. आदमी की सकल से अब डर रहा है आदमी , आदमी को लूट कर घर भर रहा है आदमी । आदमी ही मारता है , मर रहा है आदमी , समझ कुछ आता नहीं क्या कर रहा है आदमी ? आदमी अन्न जानवर की, सरल परिभाषा बना है, भस्म करने विश्व को,वह आज दुर्वासा बना है । क्या जरूरत राक्षसों की, चूसने इन्सान को जब , आदमी ही आदमी के, खून का प्यासा बना है । -खुले आकाश में Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य का कर्तव्य १. गुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः। -ऋग्वेद ६७५।१४ एक दूसरे की रक्षा-सहायता करना मनुष्य का पहला कर्तव्य है । २. आनृशस्यं परोधर्मः। -भाल्मीकि रामायण ५॥३८॥३६ मानवता का समादर करना मनुष्य का परमधर्म है। ३. अगरबत्ती की तरह जलकर भी दूसरों को सुगन्धित करना मनुष्य का कर्तव्य है। ४. यओज्दो मश्याइ अइपी जॉथम् वहिता । -परन. हा. ४८॥५ मनुष्य के लिए यह सबसे अच्छा है कि यह जन्म से ही पवित्र रहे। ५. मनुष्य के तीन मुख्य कर्तग्य हैं (१) दुश्मन को दोस्त बनाना, (२) दुष्ट को सदाचारी बनाना, (३) अशिक्षित को शिक्षित बनाना । __-शयस्त. सा. शयस्त ६०६ (पारसी धर्मग्रन्थ) ६. कि दुर्लभ ? नृ जन्म, प्राग्येदंभवति सिं च कर्तव्यम् ? आत्महितम हितसंग-त्यागो रागश्च गुरुवचने ।। पुलंभ क्या है ? मनुष्य-जन्म । इसे पाकर बया करना चाहिए ? आत्मा का हित , कुमंग का त्याग और सद्गुरु की वाणी में प्रेम । २३७ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य के लिए शिक्षाएं १. मनुष्य आकृति में जन है, उसे सज्जन या महाजन बनने की कोशिश करनी चाहिए, किन्तु दुर्जन बनने की कभी नहीं। उमे कार चढ़ते रहना चाहिए, वरना नीचे गिर जाएगा। २. हर एक आदमी भक्षक है, उसे उसादक होना चाहिए। -एमर्सन ३. तीन कारणों मे मनुष्य दूसरे के पास जाता है- सहायता देने, सहायता लेने और कुछ सीखने । यदि सहायता देने गया हो तो ऐसा न हो कि उसका बोभा बड़ जाए। यदि सहायता लेने गया हो तो बाप बनकर नहीं ले सकता । यदि कुछ सीखने गया हो तो सुने-विचारे, लकिन ऐसा न हो कि उल्टा सिम्बाने लगे। ४. विद्वॉरनेत पठनोधतान् सरलया रीत्या मुदा पाठय , शिल्पी चेदुचिताश्च शिक्षय कला निष्कामबृत्त्याखिलाः । बता चेदसि दर्शय प्रवचनैः सन्नीनिमार्ग सदा , वैद्यश्चेत् कुरु रोगनाशनकृते नंषां व्यवस्था शुभाम् । रे मनुष्य ! यदि तू विद्वान् है तो पढ़ने के इच्छुक व्यक्तियों को सरल २३८ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग : चौथा कोष्ठक २३६ रोति से पड़ा, यदि शिल्पी है तो निःस्वार्थ भाव से दूसरों को सन्कलाओं की शिक्षा दे, यदि वक्ता है तो अपने प्रवचनों द्वारा नीतिमार्ग का प्रदर्शन कर और यदि चंद्र है तो दुनियाँ में रोग नावा की शुभ व्यवस्था कर । * Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य का महत्त्व १. गुह्य ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि । न मानुषाच्छ,ष्टनरं हि किचित् ॥ -महाभारत शान्तिपर्व २६६।२० तुम लोगों को मैं एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ, मुनो ! मनुष्य से बढ़कर और कुछ भी पर नहीं है। २. पुरुषो वे प्रजापतेः ने दिष्टम् । -शतपथब्राह्मण २।५।१११ सब प्राणियों में मनुष्य गृष्टिकर्ता परमेश्वर के अत्यन्त समाप है । ३. बुद्धिमस्तु नराः श्रेष्ठाः । -मनुस्मृति ॥६६ बुद्धिमानों में मध्य सबरा अफठ है। ४. नरो वे देवानां ग्रामः ।। -तैसिरीय ताराज्यमहामायण ६६२ मनुष्य देवों का ग्राम है अर्थात् निवासस्थान है। ५. मुसलमानों के 'हदीमा' में अल्ला ने फाननों से कहा है कि तुम इन्सान को मेवा करो। ६. गधे, घोड़े, गाय, भैंस आदि पशू नहीं समझते कि यह राज महल है या राकुर जी का मन्दिर है अथवा जौहरीबाजार है, यहाँ मल-मूत्र का त्याग नहीं किया जाता जबकि Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवा भाग : चौथा कोष्टक २४१ . साधारण से साधारण मनुष्य भी इस बात को समझता है । क्योंकि मनुष्य में विवेक है । ७. 'राष्ट्र की सम्पत्ति तो मनुष्य है, रेशम, कपास, स्वर्ण नहीं। -रिचार्ड हॉर्च ८. यदि तुम पढ़ना जानते हो सा प्रत्यक मनुष्य स्वयं एक पूर्ण -निंग ६. संसार को स्वाद बनाने वाला एक नमक है—मनुष्य । १०. मिनरतां माया, विरखां छाया । ११. आदमी री दवा आदमी, आदमी रा शंतान आदमी । -राजस्थानी कहावते १२. मानवीय मस्तिष्क सुनार की पेटी में विराजमान चांदी का प्याला बोला"बस ! मैं तो मैं ही हूँ।" स्वर्णपात्र-चुप ! मेरे सामने तेरा अभिमान झूटा है। होरा-क्या मेरा तेज नहीं देखा, जो घमंड करता है ? पेटी-तुम सारे, क्यों मैं-मैं कर रहे हो, आखिर रक्षिका तो मैं ही हूँ। ताला-चुप रह, वाचाल ! मेरे बिना तेरे में क्या है ? धाबी-तू तो मेरे इशारे पर नाचनेवाला है क्यों गरज रहा है ? हाथ-पगली ! मेरे बिना तो तू हिल भी नहीं सकती है ! Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ वक्तृत्वकला के बीज सुनार बोला- अरे भाई ! यह सब मानवीय मस्तिष्क का प्रभाव है अतः बड़ा तो मानव ही है । . १३ मनुष्य के पीछे संसार कागज पर एक तरफ संसार का चित्र था और दूसरी तरफ मनुष्य का । पिता ने फाड़कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। फिर अपने छोटे पुत्र से उजाड़ने के लिए कहा। बच्चे ने संसार का चित्र जोड़ने का काफी यत्न किया, किन्तु जुड़ नहीं सका। तब दूसरी तरफ मनुष्य का चित्र देखा । ज्योंही उसे जोड़ा, संसार भी जुड़ गया वास्तव में संसार मनुष्य के पीछे ही है । I १४. मनुष्य से विधाता भी चकित कहते हैं कि भाग्यफल सुनाकर विधाता ब्रह्मलोक से ३२ मनुष्य मनष्य लोक में भेज चुके थे। तैंतीसवें का भाग्यफल इस प्रकार सुनाया जा रहा था --यह पनीखानदान में जन्म लेकर सब तरह से मुखी होगा । पन्द्रह वर्ष की आयु में दुर्घटनावश गूंगा बहरा होगा, माँ बाप मर जायेंगे, धन नष्ट हो जायगा. फिर भिखारी के रूप में भटकता - भटकता अंधा एवं कोढ़ी भी बन जायगा. ऐसे पुरे सौ वर्ष तक दुःखमय जीवन व्यतीत करेगा | बीच ही में मनुष्य बोल उठा-क्या सौ वर्ष ? बस, इतना कहने के साथ ही वह चीखता हुआ गिर पड़ा और मरगया । P Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ११ १. कम्माणं तु पहारणाए, आणुपुब्बी क्याइ उ । जीवा सोहिम राष्पत्ता, आययंति मगस्यं ॥ मनुष्य जन्म को प्राप्ति -उत्तराध्ययन ३७ क्रमयः कर्मों का क्षय होने से शुद्धि को प्राप्त जीव कदाचित् बहुत लम्बे समय के पश्चात मनुष्य जन्म को प्राप्त होता है । २. चउहिहि जीवा मस्सताए कम्मं पगरीत तं जहा-गमहा पगडीयाए, क्या अपरयाए । -स्थानांग ४१४३७३ " चार कारणों में जीव मनुष्यगति का आयुष्य बांधते है। सरल प्रकृति से विनीत प्रकृति से दयाभाव से और अनार्ष्याभाव से । J ३. मारतं भवे मूलं, लाभो देवगर भवे | मूलच्छे एा जीवाणं. रंग-तिरिक्खत्तणं घुवं ॥ २५३ - - उत्तर|ध्ययन ७१६ मनुष्यजन्म प्राप्त करना मूलधन की रक्षा है। देवत्व प्राप्त करना लाभस्वरूप है और नरक - तिर्यञ्च में जाना मुलवन को खो देना है । * Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मनुष्य जन्म की श्रेष्ठता १. मनुष्यजन्म से ही मुक्ति मिल सकती है, अतः यह जन्म सर्वश्रेष्ठ है। २. स्वर्ग के देवता भी इच्छा करते हैं कि हमें मनुष्यजन्म मिले, आर्य देश मिले और उत्तम कुल मिले । स्थानांग ३।३११७८ ३. जैसे सामग्री के अभाव में राजमहल की अपेक्षा खेत की झोपड़ी अच्छी है, उसी प्रकार धर्मसामग्री का अभाव होने से स्वर्ग की अपेक्षा मनुष्यलोक श्रेष्ठ है। कहा जाता है कि भक्ति से प्रसन्न होकर गोपियों के लिए इन्द्र ने विमान भेजा, तब गोपियों ने कहा'बज बहावं मारे बकुछ न थी जावु' त्यां नंदनोलाल क्या थी लावू । --वष्णवी मान्यता ४. अमेरिका के डाक्टर श्रीमर कहते हैं कि तुम्हारा भार उठानेवाली पृथ्वी से स्वर्ग को अधिक मानो तो तुम्हें इस पृथ्वी पर पैर भी नहीं रखना चाहिए। ५. मनुष्य जीवन अनुभव का शास्त्र है। -विनोबा ६. मनुष्यजीवन की तीन बड़ी घटनाएँ विवाद से पूर्णतया परे है-जन्म, विवाह और मृत्यु । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : चौया कोष्टक २५५ ७. मानवजीवन के पांच रन है - ( १ ) प्रेम अर्थात् मिलनसारी, (२) मित्रता - अकोध-भाव, (३) शान्ति-भाव - क्षमा ( ४ ) संगम - नियमितता (५) समता-संतोष । ८. पात्रे दानं सतां सङ्गः फलं मनुष्यजन्मनः । - सुकरत्नावली मनुष्यजन्म का फल है--- सुपात्र को दान देना और सत्संग करना । ६. जिह्व ! प्रतीभव त्वं सुकृति सुचरितोच्चारणे सुप्रसन्ना, भूयास्तामन्यकीति श्रुति रसिकतया मेऽद्यकर्णौ सुकरण । ates प्रीलक्ष्मा तमुपचित लोचने । रोचनत्वं, संसारेऽस्मिन्नसारे फलमिति भवतां जन्मनो मुख्यमेव || - शान्तसुधारस, प्रमोदभावना १४ ! हे जीभ ! धार्मिकों के दानादि गुणों का गान करने में अत्यन्त प्रसन्न होकर तत्पर रहो। कानों दूसरों की कीर्ति सुनने में रसिक होकर सुकर्ण (अच्छे कान) बनो नेत्रों ! दूसरों का बढ़ती हुई लक्ष्मी को देखकर प्रसन्नता प्रकट करो। इस असार-संसार में जन्म पाने का तुम्हारे लिए यही मुख्य फल है । । Xx * Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य-जन्म की दुर्लभता १. माणुस खु मुदुल्लहं। -उत्तराध्ययन २०११ मनुष्य जन्म मिलना अत्यन्त कठिन है ।। २. कबीरा नोबत आपुनो, दिन दस लेहु बजाय । यह पुर पट्टन यह गली, बहुर न दग्वो आय । ३. बड़े भाग्य मानुष तनु पावा, सुरदुर्मभ सदग्रहि गावः । -रामचरितमानस दुर्लभं श्रय मेवेतद् , देवानुग्रहहे तुकम् । मनुध्यत्वं मुमुक्ष त्वं, महापुरुष संश्रयः ।। -शंकराचार्य ये तीन चीजें दुर्लभ एवं सद्भाग्य की कृपा के कारण हैं । मनुष्यता, मुमुक्षुता और महापुरुषों की संगति । ५. चत्तारि परमंगारिण, दुल्लहागीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजममि य बीरियं ।। --उत्तराध्ययन ३१ संसार में सब जीवों के लिए चार परम अंग (उसम संयोग) दुर्लभ हैं--(१) मनुध्यता, (२) धर्म-श्रवण, (३) धर्म में श्रया, (४) मयम में वीर्य-पराक्रम करना । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : चौथा कोष्टक २५७ ६. छठाणाई सम्वजीवाणं सुलभाई भवंति तं जहा-माणुस्सए भवे, आरिए खित्ते जम्मे, सुकुले पच्चायाती, केवलिपन्नत्तस्स, धम्मस्स सबरीया, सुयस्स वा सद्दहणया, सद्धह्यस्स वा पत्तियस्स वा रोइयस्स वा सम्म कारणं फासरगया । स्थानांग ६।४८५ छः वस्तुएँ सभी जीवों के सिर दुल ..(२) दुष्प-भव (२) आर्य क्षेत्र (३) उत्तमकुल में जन्म (४) केवलीप्ररूपित धर्म का सुनना (५) उस पर श्रद्धा-प्रतीति--रुचि करना (5) उसके अनुसार आचरण करना। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ दुर्लभ मनुष्यजन्म को हारो मत ! १. दुर्लभ प्राप्य मानुष्यं, हारयध्वं मुधव मा। -पार्वनायचरित्र दुर्लभ मनुष्यजन्म को पाकर व्यर्थ मत गदाओ । २. नर को जनम बार-बार ना गवार सुन , ___ अजहु सवार अवतार ना बिगोइये । लौजेगो हिसाब तब दीजेगी जबाब कहा , कीज जु मताब तो सताने शुद्ध होइये । पाप करके अज्ञानी सुख की कहा कहानी , घृत की निशानी कित पानी जो विलोइये । स्वारथ तजी जे परमारथ किसन कीजे , जनम पदारथ अख्यारथ न खोइये । नदी-नाव को सो योग मिल्यो लख लोग तामें, काको-काको कीजे शोक काकू काकूँ रोइये । को है काका मित्त तापे काहे काकी चित परी , सीतपति मन में निर्मित होय सोइये । ध्याइये न विमुख उपाइये न कैते दुःख , बोये न बीज जो आक बीज बोइये । २५८ . Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : चौथा कोष्ठक ४. (क) रोम में एक ऐसा आदमी है जो सिर के बल चलता है, तथा उसका कहना है कि उल्टे होकर देखो तो दुनियां सीधी दिखाई देगी। (ख) एशिया का सबसे लम्बा आदमी १० फुट ५ इंच है। -राजना, पृष्ठ ३३ ५. छियानवे इंच की मूंछ सौराष्ट्र में लाटी ग्राम का रहीश जाति का अहीर एवं नाम अर्जुन डांगर था। उसकी मूंछ ९६ इंच लम्बी थी। वह १६३३ के विश्व में, में अमेरिका गया था । ६. बंगाल-बेलकोबा ग्राम में एक मनुष्य का पग २२ इंच था । ५. सात अंगुलि वाले सम्बेरा-डी-वीटरेगो नामक स्पेन के एक गांव में प्रत्येक आदमी के हाथों-पैरों के सात-सात अंगुलियां (छः अंगुलियाँ और एक अंगूठा) हैं । उनके शादी विवाह भी सात अगलीवालों में होते हैं । पांच अंगुली वाले मनुष्यों को देख कर वे अचम्भा करने हैं। --हिन्दुस्तान १३ जून, १९७१ . तीन सांप खानेवाला आदमीग्वालियर में सिनेमा के ओवरटाइम में एक आदमी बीन बजाकर सांपों को अपने सामने खड़ा कर लेता था एवं बुडका भरकर उन्हें खा जाता था। उसने कई दिनों तक ५-३ साँप खाकर लोगों को चमत्कार दिखाया । इन्वरचन्द नवलखा से श्रुत Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ वक्तृत्वकला के बीज ६. तुर्की के इसतम्बूल शहर में रहने वाला अहमद नामक ___ व्यक्ति सो को जीवित ही निगल जाता है । --विचित्रा, वर्ष ३, अंक ४, १९७२ १०. इंजेक्शन द्वारा काले नाग का विष निकालने वाले वैद्य वि. सं. १६६ की बात है। हम कई साधु कारणवश सुजानगढ़ में ठहरकर दवा ले रहे थे। वहाँ चोपड़ा औषधालय में एक काला नाग निकला । बड़नगर वाले बैद्यश्रीभगवतीप्रसाद जी ने उसे पकड़ा एवं इंजेक्शन द्वारा उसकी दाढ़ से जहर निकाला । आश्चर्यचकित सैकड़ों लोगों ने उरा चमत्कार को देखा । पूछने पर वैद्यजी ने कहा-काले साँप का ऐसा शुद्ध जहर मिलना बहुत मुश्किल है । यह समय पर अमृत का काम करता है । मरते समय जब मनुष्य की जबान बन्द हो जाती है, इसकी एक मात्रा देने पर तत्काल मनुष्य एक बार बोलने लग जाता है। -धनमुनि ११. विचित्र सर्प फार्म चलाने वाले अमेरिकन नवयुवक अमेरिकन नवयुवक विटेकर शैम्यूलस-जिन्हें बचपन से ही सांडों से अपूर्व स्नेह रहा है. केवल ६ वर्ष की आयु में ही सा:ों मे ऐसे हिल-मिल गये थे मानो वे उनके अंतरंग साथी हों। सांपों के साथ इतना निकट का लगाव होने के कारण व १६६३ मे १९६५ तक मियामी के विश्वविख्यात सर्प-अनुसन्धान फाम में सहकारी डाइरेक्टर का कार्य करते रहे । १६७० वर्ष के आरम्भ में विटेकर को अन्तर्राष्ट्रीय पशु Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवा भाग : चौथा कोष्टक २६५ संरक्षण संस्था से आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ । फलतः उन्होंने मद्रास में अपना विचित्र सर्प फार्म खोला। इस एक एकड़ के सर्प फार्म में लगभग ३० जातियों के ३०० से भी अधिक सांप है। यहाँ साँपों का जहर निकाला जाता है | इसकी विष निकालने की प्रणाली भी अद्भुत एवं खतरनाक है । सांप को एक पतली छड़ से जिसके सिरे पर मुड़ा हुआ 'हुक' लगा होता है, सावधानी से पूरा दबोच लिया जाता है । फिर गर्दन से पकड़ कर सांप की एक पतली झिल्ली से मढ़े हुए काँच के शीशे पर डंक मारने को मजबूर किया जाता है, साथ ही साथ गर्दन पर दबाव किया जाता है, जिससे मटमैले रंग का तरल विष शीशे में उतर आता है। यह विष यथाशीघ्र बम्बई के हाफकिन इन्स्टीट्यूट में भेज दिया जाता है । वहाँ उसकी अल्पमात्रा घोड़े के शरीर में सुई द्वारा प्रविष्ट की जाती है । क्रमशः घोड़े के रक्त में जहरमोहरा पैदा हो जाता है, जिसका प्रयोग सांप द्वारा काटे हुये व्यक्ति पर किया जाता है। . -- साप्ताहिक, हिन्दुस्तान, १ अगस्त १९७२ १२. रूमानिया का 'कैरोलग्रीन' नामक व्यक्ति अभी तक न सोया है और न उसको पकी हो आई है। - हिंदुस्तान, १३ जून, १९७१ सोया - (मेड्रिड २६ सितम्बर) करनेवाला ६ वर्षीय 'वेलेन्टिन १३. साठ साल से नहीं कृषि फार्म में काम Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अपमृत्वकला के बीज मैडिना' गत ६० सालों से नहीं सोया है। वह २४ घण्टे काम करके तिगुना बेतन प्राप्त करता है । मैडिना २४ घण्टों में दो बार नाश्ता, दो बार लच तथा दो बार डिनर खाता है। -हिन्दुस्तान, २८ सितम्बर, १९६४ १४. जोधपुर में 'भोपालचन्दजी लोढ़ा के सरकारी आरोप लगने से, दिल पर ऐसा धक्का लगा कि वे बेहोश हो गये। ७ वर्ष बाद एक दिन अचानक ताने आई और उनकी बेहोशी दूर हो गई। -जोधपुर में श्रुत १५. भारत के प्रसिद्ध साइकिल-चालक एवं कलाकार 'श्री एम. कुमार जौनपुरी' ने हिण्डौन में लगातार १०४ घण्टे तक साइकिल चलाने का सफल प्रदर्शन कर हजारों दर्शकों की प्रशंसा अजित की। उनके बिबिध प्रदर्शनों को देखने के लिये चार दिनों तक गांवों तथा नगर के हजारों लोगों का तांता लगा रहा। श्री जौनपुरी ने साइकिल चलाते हुए स्नान करना, ब-त्र बालना, जलपान करना आदि अनेक रोचक कार्यक्रम प्रदर्शित किये । -हिन्दुस्तान, २४ अगस्त, १९७१ १६. बेल्जियम का 'अलाइस द मिमी' नामक ढोल बजाने वाला सुबह छः बजे से शाम के छः बजे तक लगातार आधे घण्टे को खाने की छूट्टी के अलाबा) ढोल बजाता था और इन बारह एंटों में ५५ मील पैदल चलता था। -सरिता, अंक ३६५, सितम्बर, १९७१ १७. पिलबर्न के विलियम हेगरी' नेत्रहीन थे पर उन्होंने अंधेपन Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवा भाग : चौथा क्रोष्ठक २६७ के बावजूद अपनी जिन्दगी में १० लाख मीन को यात्रा की, इसमें से उन्होंने दो लाख मील घोड़े की पर यात्रा की। -सरिता अंक-३६५, सितम्बर १९७१ १८. पैदल चलने का नया विश्व रिकार्ड-इंग्लैंड के दूर पैदल यात्री ५३ वर्षीय 'वाकर.जौनसिक्लेयर' ने ऑकलैंड के निकट ग्राण्ड की रेस ट्रक में लगातार चलते हुए २१८ मोल ६० गज सफर किया (उसका पिछला रिकार्ड २१५ मील १६०० गज का था) उसने ६० घण्टे ४२ मिनिट लगाए। -हिन्दुस्तान, २ अप्रल, र १६. ताजे-मोटे मध्य(क) अमरीका के फ्लोरिङ्म के जैक्सानबिल का 'चार्ल्स स्टेन मेटन' ५२ स्टोन १२ पौंड ('७४० पौड) का था। वह ३८ वर्ष की आयु में मर। । मरते समय उसकी कमर १५५ इंच की थी। (स) अमरीका के उत्तरी कागलीना का 'माइन्स डार डेन' का वजन १००० पोंड था। बह ७ फूट ८ इंच ऊँया थ1। (ग) एक लमगीको नीग्रो महिला दुनिया को सबसे भारी ___ओत है । बन्न ४० पौंड की है। (घ) र ३॥ के इण्डियाना त्र। गवर्ट अर्ल ए जस' १.६७ पौंड का था। अस्पताल का दरवाजों में से उसबा घुसना असम्भब था। उसके लायक कोई चारपाई भी न थी । हिन्दुस्तान, ११ जुलाई, १९७० Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ तृत्वकला के बीच (ङ) अमेरिका के एक आदमी का वजन ५० पौंड एवं उसकी स्त्री का वजन ४८० पौंड था । पुरुष की लम्बाई पांच फीट चार इंच थी एवं उसका सीना छः फीट चार इंच चौड़ा था । २०. पाषाणयुगीन कबीला - मनीला (फिलिपाइन ) से ५०० मील दक्षिण की ओर मिण्डानाओ द्वीप में एक ऐसे कबीले का पता चला है जो पाषाणयुग के लोगों की तरह रहता है। इन लोगों को न भाषा का ज्ञान है, न ही इन्होंने कभी चावल, चीनी या रोटी खाई है और न नमक चखा है। ये लोग मांस या जंगली घास खाते है एवं चमड़ा पहनते हैं। इस कबीले का नाम तासाडस है एवं विश्व में इन लोगों की संख्या बहुत ही थोड़ी है । इनके हथियार पत्थर या बाँस के होते हैं । - हिन्दुस्तान १० जुलाई १६७१ २१. विश्व का सबसे छोटा मनुष्य - आष्ट्रेलिया निवासी जार्ज डावी का कद १ फुट ४ इंत्र अर्थात् २१. १/३ अंगुल का है । आयु ४६ वर्ष की है। द्वितीय महायुद्ध में जार्ज एक कुशल गुप्तचर ( मी. आई.डी.) का काम करते थे । महायुद्ध के बाद उन्होंने अपना अधिकांश समय होटलों में व्यतीत किया। अनोखा विवाह - श्रीमती जार्ज की जार्ज मे पहली भेंट पेरिस में हुई थी। उन्होंने देखते ही कौतूहलवश जार्ज को गोदी में उठा लिया और पूछा- क्या मेरे घर चलोगे ? Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग चौथा कोण्डक २७३ ४. एक हबशी स्त्री के होठ १४ इंच लम्बे हैं । उन पर छोटी रकाबी रखी जा सकती है । ५. बेंगलोर-कांग्रेस-प्रदर्शनी १६६७ में एक २२ वर्षीया तरुणी देखने में आई। उसके शरीर में निरन्तर बिजली प्रवाहित होनी थी। उसके शरीर के किसी भी भाग में बिजली के बल्ब लगाने से बल्व प्रकाशित हो उठते थे । ५ से १० हॉर्स पॉवर की मोटर का तार पकड़ते ही वह स्टार्ट हो जाती थी। उसे भोजन आदि काष्ठ के बर्तनों में दिया जाता था | जब कोई व्यक्ति उस युवती को स्पर्श करता तो एक जोर का झटका ( शॉक) लगता था । - देवसिंह ६. ओहियो अमेरिका में रबर की वस्तुएँ बनानेवाले एक कारखाने में रोज कहीं न कहीं छोटी-मोटी आग बड़े रहस्यमय ढंग से लग जाती थी। मालिक ने प्रो. "रोबिन बीच" को जाँच-पड़ताल के लिए बुलवा भेजा । सारी बात सुनकर प्रो. साहब ने एक-एक कर सभी मजदूरों को धातु की एक चादर पर खड़े होने के लिए कहा। मजदूरों में एक जवान औरत जब धातु की चादर पर आकर खड़ी हुई तो अचानक मीटर की सुई ने एक गहरी छलांग लगाई । उसके शरीर में ३०,००० वोल्ट की इलेक्ट्रोस्टेटिक बिजली और ५००,००० ओ एच. एम. एस. की प्रतिरोध शक्ति (रेसिस्टेंट) मौजूद थी । १५ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ૨૭૪ वक्तृत्वकला के बीज प्रो. बीच ने घोषरता की इस कारखाने में अग्नि-विस्फोट - विधिना वर्ष ३, अंक ४, १९७१ की जड़ यहां हैं ।" ८. ६. आस्ट्रिया के क फ्रेडरिक पंचम की पत्नी के हाथ इतने मजबूत थे कि वह लकड़ी के मोटे तख्ते में मुक्का मारकर कील ठोक देती थी। -सरिता, सितम्बर अंक ३६५, १६७१ * Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . वैज्ञानिकों के मतानुसार पृथ्वी आदि का जन्मकाल १, पृथ्वी का जन्मकाल २०० करोड़ वर्ष पूर्व, प्राणियों का उद्भव ३० करोड़ वर्ष पूर्व, मनुष्यों का जन्म तीस लाख वर्ष पूर्व, ज्योतिष विद्या तीस हजार वर्ष पूर्व, दुरवीक्षण यन्त्र व आधुनिक विज्ञान ३०० वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए । -सर जेम्स मोम्स 'बंगश्री" से २. भू-शास्त्री जेली के मतानुसार सागर की न्यूनतम आयु ७० करोड़ एवं अधिकतम दो अरब ३५ करोड़ वर्ष निश्चित की गई है । शैल-प्रमाणों से तथा हिलियम विधि से पृथ्वी की आयु दो अरब वर्ष से अधिक मानी गई है । खगोलीय आधारों पर पृथ्वी की बायु दस अरब वर्ष, मूर्य की आठ अरब वर्ष, चन्द्रमा की चार अरब वर्ष लगभग मानी गई है । 'हेरोल्ड जेफरीस' के मतानुसार आज त लगभग चार अरब वर्ष पूर्व चन्द्रमा पृथ्वी से आठ हजार मील दूर था किन्तु दूरी बढ़ते-बढ़ते आज लगभग ढाई लाख मोल दूर हो गया। -नवभारत, ८ मार्च, १९६६ ___-केदारनाथ प्रभाकर, सहारनपुर) Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० बक्तृत्वकला के बीज ३. भूगर्भ संसार की खोजविख्यात शोधक और लेखक "डा. रेमोण्ड बरनाड ए. बी. एम. ए. पी-एच. डी. न्यूयार्क विश्वविद्यालय'' अपनी नवीन पुस्तक दी हॉलो अर्थ में लिखते हैं कि-उड़न चकियों का असली गृह एक विशाल भूगर्भ-संसार है, जिसका प्रवेशद्वार उत्तरोय ध्रुव के एक मुखहार में है। पृथ्वी के खोग्वले अन्तरिक्ष में एक मानवोत्तर जाति निवास करती है। जो सतह पर रहने वाले मनुष्यों से कोई सम्बन्ध रखना नहीं चाहत! ! उसने अपनी उड़नचकियों को तभी उड़ाना प्रारम्भ किया, जब मनुष्यों ने अणुबमों के विस्फोटों से दुनियाँ को प्रस्त कर दिया । डा. बरनाई आगे लिखते हैं कि एडमीरल बाई ने एक नौकादल को उक्त ध्रौवीय मुखद्वार में प्रवेश करने का अधिनायकत्व किया तथा इस भूगर्भस्थित लोक में पहुँचे । यह लोक तुषार और हिम से स्वतन्त्र है। इसमें जंगलान्छादित पर्वत श्रगती हैं। झीलें, नदियों वनस्पति तथा विनिय पन भी हैं । इस आविष्कार के समाचार को अमरीका सरकार ने रोक लिया, जिससे दूसरे देश भवान्तरीमा लोक पर हक कायम न कर लें। इस भूगर्भ लोक का क्षेत्र उत्तरीय अमेरिका क्षेत्र से अधिक विस्तृत है । पृथ्वी की सतह मे ८०० मील नीचे एक नवीन संसार की बाज मानन इतिहारा को महानतम खोज है, जिसमें लाखो उच्चतर बुद्धिमान लोग निवास करते हैं । --मोहन, बोठिया "चंचल" जनभारती, ७ नवम्बर, १९६५ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. दृश्यमान जगत की आबादी १. अनुमान है कि पत्थर युग में इस दुनियां की जनसंख्या एक डेढ करोड़ थी ! दो हजार वर्ष पूर्व क्राइस्ट के युग में यह जनसंख्या २० करोड़ हो गई। ईसवी सन् १६५० में पचास करोड़, १७५ - में सत्तर करोड़, १८५० में करीब एक अरब, १६०० में डेढ़ अरब और १९६० में डेढ़ से तीन अरब हो गई। -जनमारती, अंक २३ २. संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार सन् १९६३ के मध्य तक विश्व की आबादी ३ अरब १८ करोड़ थी। -हिन्दुस्तान २४ अक्टूबर, १९६३ ३. वर्ल्ड रेडियो टी. वी. हैंडबुक १६७१ संस्करण के अनुसार वर्तमान विश्व की जनसंख्या ३,५२,८७,७०,५५८ है । (कुछ देशों की जनसंख्या उपलब्ध नहीं हो सकी है।) ४. विश्व में प्रति मिनट १२५, प्रतिदिन एक लाख ८० हजार, प्रति माम ५० लाख और प्रति वर्ष ६ करोड ४८ लाख मनुष्य बढ़ते हैं। नवभारत ६ दिसम्बर १९६५ ५. विश्व में प्रति घंटा १३५०० मनुष्य पंदा होते हैं और ५०० मरते हैं। -हिन्दुस्तान, २८ अगस्त, १९६६ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ वक्तृत्वकला के बीज ९. विश्व में प्रति मिनट ५६ प्रतिदिन ८५ हजार और प्रतिवर्ष ३ करोड़ गर्भपात कराये जाते हैं । - नवभारत, ७ सितम्बर १६७१ ७. विश्व के महासागर एवं महाद्वीप १. वैज्ञानिकों की दृष्टि में इस दृश्यमान पृथ्वी के धरातल का १/३ भाग स्थल है और २/३ भाग जल है । स्थल के ७ बड़े-बड़े खण्ड हैं जिन्हें महाद्वीप कहते हैं तथा जल के ५ बड़े-बड़े खण्ड हैं, जिन्हें महासागर कहते हैं । २. महासागर के नाम क्षेत्रफल वर्गमीलों में १- प्रशान्त महासागर २-अन्ध महासागर ३- हिन्द महासागर ४- उत्तरी ध्रुव महासागर ५- दक्षिणी ध्र ुव महासागर ( आर्कटिक महासागर ) ३. महाद्वीपों के नाम १ - एशिया २- अफ्रीका अत्रफल (वर्ग मील) १,७४,६१,५८३ १,१६,६६,५ २ ३५,२५,७५५ ३- यूरोप ४- उत्तरी अमेरिका ५ - दक्षिणी अमेरिका ६- आस्ट्रेलिया ७- अंटार्कटिका ६२,५७,०२६ ६८,६८,०९८ ३३,०३,००२ ५१,००,००० ६,३८,०१६६८ ३,१८,३६,३०६ २,८३,५६,२७६ } ५४,४०, १६७ जनसंख्या ( ७० ) १,६६,९१,६५,७८६ ३४,०६,८१,३६६ ७०,२४,१६,६४५ } ४६, ६०, २४,७६७ २,००,०१,६२८ आबाद नही है | Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : चौथा कोष्ठक २८३ महाद्वीपों के निकटवर्ती वेशों की जनसंख्या उन-उन महाद्वीपों के साथ जोड़ी गई है, जिन-जिनके वे विशेष निकट हैं।] ४. महादोपों का संक्षिप्त परिचय : एशिया-यह सबसे बड़ा महाद्वीप है। इसमें लगभग सभी प्रकार की जल-वायु, वनस्पति, जीव-जन्तु और मनुष्य मिलते हैं । यूरोप भी वास्तव में इसो महाद्वीप का एक बड़ा पश्चिमी प्रायद्वीप है। यह पूर्वी गोलार्द्ध (पुरानी दुनिया में भूमध्य रेखा से उत्तरी ध्रुब देश तक स्थित है। इसके उत्तर में उत्तरी ध्रुव सागर, पूर्व में प्रशान्त महासागर दक्षिण में हिन्दमहासागर और पश्चिम में रक्तसागर, अफ्रीका, रूमसागर, कृष्णसागर, कैस्पियन सागर, यूरालपर्वत और यूरोपमहाहीप हैं। अफ्रीका-एशिया के बाद अफ्रीका संसार के शेष महाद्वीरों में सबसे बड़ा है । क्षेत्रफल की दृष्टि से यह एशिया का दो तिहाई है, लेकिन इसकी आबादी एशिया का कुल साढ़े पांचवां हिस्सा है। एशिया और यूरोप इसके निकट के पड़ोसी हैं । अफ्रीका और यूरोप को जिब्राल्टर-जलसंधि अलग करती है, तथा अफाका और एशिया का स्वेज-थल सधि मिलाती है। अफ्रीका के उत्तर में कर्क रेखा के निकट ससार का सबसे बड़ा मारथाल सहारा है। दक्षिरण में मकर रेखा के निकट कालाहारो महस्थल है। इस महाद्वीप में विक्टोरिया, टांगातीका आदि झोने तथा नील, काङ्गो आदि नदिया है। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ वक्तृत्वकला के बीज इस महाद्वीप के अन्तर्गत मिध देश में सन् १८६६ में स्वेज स्थल-डमरूमध्य' को काट कर १६० किलोमीटर लम्बी जहाजी-नहर बनाई गई। उसका नाम स्वेज नहर है। वह रक्तसागर और रूमसागर को मिलाती है। उसके बनने से पहले यूरोप से भारत आदि पहुंचने के लिये सारे अफ्रीका महाद्वीप का चक्कर लगाना पड़ता था । अब ७००० किलो मीटर की बचत हो गई है। यूरोप–महादीप यूरोप एशिया के पश्चिम में और अफ्रीका के उत्तर की ओर स्थित है। वास्तव में यूरोप और एगिया एक ही महान् भू भाग है, जिसे यूरेशिया कहते है । यूरोप के उत्तर में उत्तरी ध्रुव सागर है, दक्षिण में रूम सागर, कृष्ण सागर और काफ पर्वत है, पश्चिम की ओर अन्ध महासागर है और पूर्व में कैस्पियन सागर, यूराल पर्वत और एशिया महाद्वीप है। यह महाद्वीप आस्ट्रेलिया को छोड़कर शेष सभी महाद्वीपों से छोटा है परन्तु धन-सम्पत्ति, व्यापार, शिक्षा-दीक्षा और सामाजिक उन्नति की दृष्टि से संसार भर में सबसे प्रथम स्थान पर है। उत्तरी अमेरिका-यह संसार के सात-महाद्वीपों में तीसरा सबसे बड़ा महाद्वीप है। सिर्फ एशिया और अफ्रीका ही क्षेत्र में इससे बड़े हैं । जनसंख्या की दृष्टि - - - -- नोट १ स्थल उमरूमध्य-ऐसे तंग भु भाग को कहते हैं, जो दो बड़े भू भागों को जोड़ता है। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवा भाग चौथा कोष्टक २८५ से भी इसका नम्बर एलिया और यूरोप के बाद सी है ............ उत्तरी अमेरिका अनेक देशों में बंटा हुआ है। उनमें सबसे बड़ा कनाडा है। उसके बाद संयुक्त राज्य अमेरीका है। (जिसके अन्तर्गत ५० राज्य हैं। इसीलिए इसके राष्ट्रध्वज पर ५० सितारे लगाये गये हैं ।) अन्य देश काफी छोटे हैं । दक्षिणी अमरीका - दक्षिणी अमरीका महाद्वीप उत्तरी अमरीका से छोटा है, किन्तु यूरोप से लगभग दुगना है । दक्षिण अमरीका छोटे-बड़े अनेक देशों में विभक्त है। इनमें सभी तरह के देश हैं। सबसे बड़ा देश ब्राजील जो सबसे छोटे देश फ्रेंच गायना से लगभग २००० गुना है । इन देशों में स्पेनी और पुर्तगाली भाषाओं का प्रयोग होता है । ये दोनों ही भाषाएँ लेटिन भाषा से निकली हैं। इसीलिए इन्हें लातिन अमरीकी देश कहा जाता है। ● मध्य अमरीका- उत्तरी अमरीका का मेक्सिको से दक्षिण वाला पतला-सा भाग दक्षिणी अमरीका तक चला गया हैं । इस भाग को मध्य अमरीका कहते हैं । मध्य अमरीका में मेक्सिको आदि अनेक देश हैं। लगभग दस मील चौड़ी जमीन की पट्टी, जिसमें से होकर पनामानहर बहती है, अमेरिका के अधिकार में है । मध्य अमेरिका के अधिकतर निवासी पूर्ण या आंशिक रूप से इंडियन आदिवासी हैं। -- आस्ट्रेलिया - यूरोप वालों को आस्ट्रेलिया महाद्वीप का पता सब महाद्वीपों के अंत में लगा । सन् १७७० में कप्तान Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E २८६ वक्तृत्वकला के बोज कुक ने इसकी खोज को । यहाँ विशेष रूप से गेहूं की खेती होती है और सोने- तांबे-चांदी शीशे आदि की खाने हैं तथा भेड़ों को बड़े पैमाने पर पाला जाता है । कुल मिलाकर यहाँ १३००००००० भेड़े हैं। दुनियाँ की एक तिहाई ऊन आस्ट्रेलिया से ही आती है। - नवीन राष्ट्रीय एटलस तथा सचित्र विश्वकोश भाग १० के आधार से ८. वर्तमान विश्व के देश, उनकी जनसंख्या एवं राजधानियां १. ( एशिया - जनसंख्या १,९६,६१,६५,७८६ ) देश १. अफगानिस्तान २. बहराइन ३. ब्रुनेई ४. वर्मा ५. कम्बोडिया ६. श्रीलंका ७. चीन (जनवादी) ८. चीन (गणतन्त्र ताइवान ) ६. होंग कोंग १०. भारत ११. इंडोनेशिया १२. ईरान जनसंख्या १,६०,००,००० ܘ ܘ ܚ ܕ ܘ ܀ १,५०,००० २,६३,६०,००० $8,40,000 १.२५,००,००० ७४,००,००,००० १,४४,७६, ४७ ४०,३६,७०० ५३,७०,००,००० ११,३०,००,००० २,६६,६५,००० राजधानी काबुल बहराइन बनेई रंगून नोमपेन्द्र कोलम्बो पैकिंग ताईगेई होंगलोंग नई दिल्ली जकार्ता तेहरान Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : चौथा कोष्टक २७ बगदाद जेरुशलम टोकियो अम्मान १३. ईराक ८६,३६,०० १४, इजरायल २६.७५ १३५ १५, जापान १०,२०,००,००० १६. जॉईन २१,४०,००० १७. कोरिया (उत्तरी) १,३२,५०,००० १८, कोरिया (दक्षिणी) ३,१८,००,००० १६. कुवेत ५,४१,००० २०. लाओस ३५,००,००० २१. लेबनान २७,३४,४४५ २२. मकाऊ २,६६,००० २३. मलयेशिया १०,६०,००० २४. भालदीव १,१०,७७० २५. मंगोलिया १,१,७५,००० २६. मस्कट एवं अमन २७. नेपाल १,१,०४४,००० २८. पाकिस्तान ११,२०,००,००० २६. फिलिपिन्स ३,७०,००,००० ३०. क्वेटर ८१,०० ३१. युवयू द्वीपसमूह ६,६८,००० ३२. सऊदी अरब ७२,००,००० ३३. सिंगापुर २१,७५,००० ३४. दक्षिण यमन (गणराज्य)१३,००,००० ३५. सीरिया ६०,३६,००० अभी इस्लामाबाद प्योंगयांग शियोल कुवेत विनतियान बस्त मकाक कुआलालम्पुर माले ऊलानबातर ओमन काठमांडू रावलपिंडी मनीला डोहा ओकिनावा रियाध सिंगापुर अदन दमिश्क Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. पक्तृत्वकला के बीज साना ३६. सबाह (मलयेशिया) ६,१६,००० कोटाकिनवाल्लू ३७. साराबाक(मलेशिया) ,४५,०६१ कृधिग ३६. थाइड ३३,७००,००० बैंकाक ३६. तिमार(पुर्तगालो टापू) ५,९०,००, डिखि ४०. आबुधावी आबूधावी (ब्रिटिश उपनिवेश) ४१. सारजाह (वि.ज.) सरजा ४२. दृबाई टापू (नि. ३.) _ दुबाई ४३. टी ३,३५.४५,००० अंकार ४४. वियतनाम उत्तरी २,१०, 0,000 हनोई ४५. वियतनाम (दक्षिणी)१,७४,१०,००० सेगौन ४६. अमन ६०,000.0 २. (अफ्रीका-जनसंख्या ३४६९७१६६६) १. अफार्म एन्ड १,५०,००० जिबूटी इमाम (फच) २. अलजीरिया १,२६.४८.००० अल्जीयर्स ३, अंगोला लुआन्डा ४. एसियनद्वीप (ब्रिटिश) १,६७२ एसेंसियन ५. बोट्स्स्वाना ६,२०,००० गै बस्न ६, बुझाडी बुजुम्बरा ७. कैमरून ५५,७०,००० याउण्डा ८. केनेरीद्वीप समूह १२,५०,००० देनेरिफ १. केपवर्ड द्वीपसमूह २,५४.४१४ प्राईभा १०. मध्य अफ्रीकन गणराज्य १५,००,००० बाई Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : चौथा कोष्ठक २८ फोर्टलामी कोमोसं চিন্তা ब्राजाविले काहिरा ११, चाड ४०,०२,००० १२. कोमरो द्वीप समूह २,६१,३८२ १३. कांगो जनवादी .:.:....: गणतंत्र १४. कांगो गणराय ८०.०० १५. संयुक्त अरब ३,२०,००,००० गणराज्य । १६. गिनी गणराज्य २,६२,००० १७. इथियोपिया २,३५,००,००० १६. गंबन ४.८०. . १६. गौम्बिया ३.५१,००० २०. धाना ८५,०२,००० २१. गिनी पूर्तगीज २२. गिनी ३८,००,००० २३. आइवरी कोस्ट २४, केन्या १,१०,००,१० २५. लिसोथो २६. लाइबेरिया २७. लिबिया १८,०८,००० २८. मेडेग २,७०,००० २६. मेगालो ५.,00,000 मेडागास्कर ३०. मलावी ४४,5,000 फर्नान्डोपो आदिस अबाबा लिनविले वार्थस्ट अकरा बिमाड कोनाकी माविदजान मरोवी मासे मानविमा त्रिपोली फूचन सेनानारिव - ग्लान्दीयर - . - . . . Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ३१..: ३२. भौरीतानिया ३३. मारीश ३४. मोरक्को १५. मोजाम्बिक ३६. नाइजर ३७. नाइजीरिया ३५. यूनियन ३६. रोडेशिया ४०. रवाण्डा ४१. सहारा ४२. साओटॉम एप्रिंसिप ४३. मेनेगाल ४४. सिचेलीज ४५. सियरोलियोन ४६. सोमाली ४७. दक्षिण अफ्रीका ४८. हेलेना ४६. सुहान ५०. स्वाजीलैंड ५१. तांजानिया ५२. टोगो ५२. ट्रिस्टन डा कुम्हा ५४. ट्यूनीशिया ४८,००,००० १५,००,००० 5,20,000 १,५०,००,००० ७२,७५,००० ४०,००,००० ६,२६,५०,००० ४,२५,००० ५१.८८,४०० ३५,००,००० -RAY ६८, १०० ३६,७२,००० ४६,५०० २३,००,००० २७,४५,००० १,१२,००,००० ४,८१५. १,४७,७५,००० 8,00,000 १,२६,००,००० १२,५५,९१६ pheralsdig ४६,६०,००० कला के बीज बोमाको नोवाकचोट मारीश स्वात लोरेंस मार्किस नियामी लागेस लारियुनियन गालीसबरी किगाली आइडन साटॉम डकार विक्टोरिया फीटाउन मोगाडी जोहांसबर्ग सेंट हेलेना ओमन मबाबान दारेस्सलाम लोम ट्रिस्टन डा कुन्हा यूश Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पांचवां भाग चौथा कोष्ठक ५५. युगांडा 58,80,000 ५६. अपरवोल्टा ५१,५६,००० ५७. जाम्बिया ४०,६४,००० लुगाका कोटोनु ५८. डहोमी २५,७२,००० ३. यूरोप - जनसंख्या ७०.२४,६६,६४५ १.पानिया २. महोरा ३. आस्ट्रिया ७३,९१,००० ४. कजोर्स (पुर्व उप० ) ३,५०,००० ६,६१,००० ८४, ७६.२०६ ५. वेल्जियम ६. बलगारिया ७. साइप्रस ८. चेकोस्लोवेकिया ܕܚܘܕ܀ ܘ܀ ११७,२२० ६,३५,००० १,४४,७४,७०५ ९. डेन्मार्क ४६.०७,००० १०. फारोई द्वीपसमूह (डेनिश ) ३८,५०० १९. फिनलंड ४६,६१,००० १६. ब्रिटेन १७. ग्रीस (यूनान) १८. हालैंड १२. फांस ५,०७,००,००० १३. जर्मनी (पश्चिमी) ६,१४,२६,००० १४. जर्मनी (पूर्वी) १,७०,०५,० ० ० १५. जिग्राल्टर २५,३०० ५,५५,२१,२०० ८१,००,००० १,३०,३२,४४.७ कम्पाला ओगाडीतू लिखना अण्डोरा वियेता अजोर्म सेल्स R सोफिया निकोमिया प्राग कोपेनहेगन तोरणावन सिक पेरिय बोन बन ਬਿਨਟ ਦਾ लन्दन एथेंस हिल्चर राम २६१ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्सम्वर्ग २६. नार्वे २६२ वक्तृत्वकला के बीज १६. हंगरी १,०३,००,००० बुडापेस्ट २०. आइसलैंड २,०३,३६५ रेइकजाचेक २१. आयरलैंड २६,२२,००० डब्लिन २२, इटली ५,४६,०१,६८३ रोम २३. लक्सम्बर्ग २४. माल्टा माल्टा २५. मोनाको २३,१०० मोन्टकारलो ३८,६६,४६८ ओस्लो २७, पोलैंड ३२,७२.७.१०० वारसा २८, पुतगाल १५,०५,००० लिस्बन २६. रूमानिया २,००,००,००० बुखारेस्ट ३७. सानमारिनों मानमारिनो ३१. स्पेन ३,३५,००,०० मेड्रिड ३२. स्वीडन ___०,५०,२०८ स्टाकहोम ३३. स्विट्जरलैंड ६२,००,००० बनं ३४, सोवियतरूस २४,१०,00,००० मास्को ३५. वाटिकन वाटिकन ३६. गूगोग्लाविया २,०५,७३,100 बेलग्रेड ४. उत्तरी अमेरिका-जनसंख्या २२,४४,५६,१०० १ बरमूडा (त्रिटिश) ५७,००० हेमिन्टन २ कनाडा २.१३.७७,010 ओटावा ३ ग्रीनलंड ४०,६०० যুগান্ত ४ संदपियरेटमाइक्येलन (फच) संटापिअम Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग चौथा कोष्ठक संयुक्त राज्य अमेरिका २०,२६,७६,००० वाशिंगटन ५. दक्षिणी अमेरिका - जनसंख्या १८,२६,१७,२०६ ब्यूनस आयर्स लापाज रियो डिजनेरो सौटियागो १ अर्जेन्टाना २ बोलिविया ३ ब्राजील ४ सिसो कोलंबिया gasोर फाकलैंड द्वीपसमूह ५ E ७ ८. गायना ६. मंत्र गायला १०. पैरागुए ११. पेरू १२. सुरीनाम १५. युरग्वे १४. बेनुजुएला २,३६,२०,००० ४४,४१,००० ܘܘܘܨ ܘܘܘ ܐ & ६३,५२,००० १,६८,२८,००० ५७,००,००० २०६८ ७,१८,११० ४५,००० २२,३५,५०० १,२७,७५,००० ३,७५,५०० २८,२५,००० ܘܘܘ ܗܘ,Es ६. मध्य अमेरिका एवं केरेबियन द्वीप जनसंख्या - ८,६०,५१, ४८६ १. कोस्टारिका २. अलसल्वाडोर ३. ग्वाटेमाले ४. होरा (शि) ५. होंडुरा १६,६५,००० ३२, ६७,५०० ४८,६५,००० १,२०,००० २५,३६,००० बोगोटा क्विटी स्टायले जार्ज टाउन कायेने असुन्सियन लीमा पैरामेरिब मोंट विडियो कैरेक सानजोरा सनराबाधेर ग्वाटेमाला बेलिज तंगिस्पा २९३ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ ६. मेक्सिको ७. निकारागुआ प. पनामा ६. बहामाम १०. बारबाडोस १९. दयचा १२. डोमिनिकन (रिपब्लिको १३. गुआडेलूग १४. हैटी १५. जमैका १६. लीवार्ड द्वीप समूह ४,९०,००००० १८,४४,००० १३,७३,००० १,६८,००० २,५३,००० २४. विडवार्ड द्वीपसमूह २५. एंगुइला ८१. १०,००० ४०, ११,५८६ ३,३६,००० ४६,७७,००० ११,१५,००० १,७५,००० ३,३५,००० २,१५,००० १७. मार्टीनीक्यू १८. नेदरलॅण्ड्स एंटिल्स १६. प्युरटोरिको २७,००,००० २०. ट्रिनिडाड एंड टोबेगो १०,३२,००० २१. टर्क एन्ड केक्स द्वीप समूह ६,८०० २२. वर्जिन द्वीपसमूह (ब्रिटिश) ६,६००० २३. बजिन द्वीपसमूह (अमेरिकन) · ६१,००० २,७२,००० कला के बीज मेक्सिको मानागुज पनामा नसाऊ बारबडोम हवाना टोडोमिगों अनविले कंपटियन किंग्सटन सेंट टामस ग्रेनेडा ७,००० एंगुइला -- रेडियो टी. वो हैंडबुक १६७१ संस्करण अंटीगुआ फोर्ट डिफांस बीमारी हाटांरे पोर्ट ऑफ सोन ਰੱਖਣ टोरटीला Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : चौथा कोष्टक ७. आल्ट लिया एवं प्रशान्त महासागरीय-देश जनसंख्या-२,००,०१,६२८देश जनसंख्या राजधानी १. आस्ट्रेलिया १,२५,५१,३०० केनबरा २. कुकद्वीपसमूह . २०,६५० रारोटोंगा ३. पिजी ५,००,००० सूचा ४. गिलबर्ट एवं एलिस द्वीप समूह (अमेरिका) ५५,२०० ताराया ५. गुआम ६. हवाई १,२०,००० ८,४१,००० गुआम होनोलुल्लू अमेरिका के अधीनस्म १,५०० ७. मायक्रोनेशिया ५. टोंगा ६. न्यू कैलेडोनिया (च) १५,००० १०. न्यू हेब्राइड्न ८०,५०० ११. न्यूजीलैण्ड २८,१५,०० १२. नाऊरू १३. नीयद्वीप ५,३५० १४. नोरफो के द्वीप १,५२५ १५. पापुआ गवं न्यू गिनीया (आस्ट्रेलिया) २३,००,००० न्युकओल्फा मोमिया विला वेलिंगटन - नाकरू नीयद्वीप किंगस्टन ... न्यू जालपड के अधीन कोनेव १६. गमात्रा २७,००० पागोमागो अमेरिका के अधीन १५. समोआ (पश्चिमी) १,४६,००० आपिया Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ! २६६ १८. सोलोमन द्वीपसमूह (ब्रिटिश) १२. ताहिती (फ्रेंच) ८. उपरोक्त गणना के स्थिति इस प्रकार हैं- अंटार्कटिका- इराके निकटवर्ती नावे देश में इसमें कोई आबादी नहीं है। स्थित नोकिन अन्तरीप में छः महीने दिन-रात सूरज चमकता रहता है और ६ महीने सूरज दिन में भी दिखाई नहीं देता । बर्तन में राष्ट्रों की 口 १. २. ३. एशिया में ४६, अफ्रीका में ५८. यूरोप में २६, उत्तरी, दक्षिणी एवं मध्य अमेरिका में ४४ एवं आस्ट्रेलिया में १६ | ( संभव है कि कई राष्ट्र गणना में नहीं भी आ एक हों ।) ६. वर्तमान विश्व की लम्बी नवियाँ नवी नील (मिश्र) मिसीसिपी (उ० अमेरिका) अमेजन (ब्राजील ) बांगयांग (चीन) ऑल (सोवियत संघ ) कांगो (कांगो) लोना (ग) ४. ५. ६. ७. १,५२,००० १,०५,००० ८. ६. कला के खोज होनियारा पापीति वेनिस (सोवियत नंच रूस ) अमूर (सोवियत संघ चीन) लम्बाई (मोलों में) ४०३७ ३६८३ ३६६० ३२०० ३२०० ३००० ३००० २८०० २६०० Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : चौथा कोटक २९७ परानाला प्लाता (ब्राज़ोल-अर्जेन्टीना) ११. १२. वोल्गा (रूस) २४०० सुन्यूब (यूरोप) १७२५ सिंध (पाकिरतान) १७०० ब्रह्मपत्र (भारत) गंगा (भारत) –सचित्र विश्वकोश भाग १ तथा हिन्दुस्तान २१-२-७१ १४. १५. 3-.' Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जावा १०. भूगोल के रिकार्ड१. सबसे बड़ा महाद्वीप २. . . समुद्र 1, . हीप । देश आशादी में) ५. । । ।। (क्षेत्रफल में ६, सबसे बनी आवादीत्राला क्षेत्र ७. नब में ऊँचा देश ८. गबसे बड़ा शहर (वत्रफल में) ६. नबगे बड़ा शहर (आबादी में) १०. , । वन्दरगाह ११. नबने बड़ी नदी १२. , . झील १३. मय बड़ा पार्क १४. । ।, रेगिस्तान १५. गबग ऊँचा पर्वत शिखर १६, पञ्चस लम्बा रेल मार्ग एशिया (१,७४,६१,५८३ वर्गमील) प्रशान महागागर (६,३८,०१,६६८ व, मी.) नीनान्ड (८,४६,८४० व. मी.) चीन (७० करोड़) (६,०२,५०० व. मी.) (८१७ व्यक्ति प्रति वर्गमील) तिब्बत लन्दन (७०० द. मी.) न्यूया (१,१५,५०,६००) राटाइम (हालैंड) (१,१०,००० जहाजों का प्रतिवर्ष आवागमन नील (४,०३५ मील लम्बी) सुपीरिअर (उ. अमेरिका) सं. रा. अमेरिका (१३,५०० व. मी. क्षेत्र फल) सहारा (२,००,००० व. मी, क्षे.फ.) माउण्ट एवरेस्ट (२,२८ फीट) रां, ना. अमेरिका (२,६४,८१६ मील) वक्तृत्वकला के बीज - -- . . Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . न्यूयार्क (४3 प्लेटफार्म) १७. सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन १८. , , प्लेटफार्म १६. सबसे बड़ी रेलवे सुरंग २०, राबसे बड़ा जहाज २१. सबसे ऊँचा हवाई अड्डा २२. मवम ऊँची सड़क २३. सबसे ऊँची इमारत (१२।। मील) (८५ हजार टन) सोनपुर (बिहार) सिम्पलन (एलग क्वीन एलिजाबेथ लद्दाख (भारत) मनाली-लेह मार्ग (भारत) एम्पायर स्टेट बिल्डिग न्यूयाः पांचवां भाग : चौथा कोष्टक (१४७२ फीट) 1-इस भवन में १०२ मजिन्हें हैं। इसका मुझय भाग १५ मंजिलों का है। उसके ऊपर १७ मंजिलों की पहली मी मीनार है । सन् १९५० में इस पर २२२ फुट ऊंची टेलीवीजन-प्रसारण-मीनार और बनाई गई। इसकी नींव सड़क की सतह से ५५ फुट नीचे एक मजदूत चट्टान पर रखी गई है। इस भवन के बनाने में केवल इस्पात ही ६०,५०० टन से ज्यादा लगा था। पूरे भवन का वजन न्गभा ,६५,००० टन है। इसमें इतनी जगह है कि किसी भी समय इसमें ८०,००० लोग रह सकते हैं। -सचित्र विश्वकोश भा. ४, पृष्ठ २२ २३२ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. सबसे बड़ा पुस्तकालय लनिन लाइन मास्को)। ६'. मबसे बड़ी मीनाः पेरिस (फ) २६. , ,, दीवार चीन की दीवा (२.५.२ मील लम्बी) ... सबसे बड़ा जजमहल मटि ., ., सिनेमाघर न्ययाक {६००० मीट । । अजायबघर विदिश म्युजिःम (नंदन) ३०. , , भवन वैटिकन गिटी (पोप का) ३१. " ।। गुम्बज बीजापुर का मोल गुम्बज (भारत) ३२. गवस बड़ी हीरों की खान किम्बों (६. मीका) ३३. , , दुबीन माउन्ट बिल्ान अरिका -पूर्जना, सचित्र विश्वकोश, व्यापारिक आर्थिक भूगोल (सक्सेना-हक्कू तथा विज्ञान के नये आविष्कार के आधार से | - 11...1 Aam १-इसमें १६. भाषाओं की १ करोड १० लाख पुरत है। इस लाइनरी के लम्ने एक के बाद एक जानने में वे १३० माइल स्थान घले है। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : चौथा कोष्ठक १०१ ११. संसार के बड़े शहर और उनकी आबादी शहर यु. एस. ए. आबादी १,१५,५०,६०० ७६,९४,२५७ १,१३,५०,००० १०,१२,००० न्यूयार्क न्यूपार्क शहर तोकियो तोकियो (शहर) ब्जूनस आयर्स ब्यूनस आयर्थ (शहर) जापान आर्जेण्टीना पग्सि फ्रांस ग्रेट ब्रिटेन २५,४६,000 ८१,६६,७४६ २५,६-१७६१ ७६,६३,८०० ७०,६१,००० ६६,४२,००० ७०,५०,३६२ ३१,४१,१८० रूम भारत पेरिस (महर) मन्दन मास्को माम्को (शहर) कलकत्ता फलकत्ता (शहर) शंघाई लास एंजिल्स लास जिल्म (शहर) लांगबीच सांगवीच (टर) शिकागो शिकागो (शहर) चीन यु. एस. ए. ६८,५१,६०० २४,७६,०१५ ६८,५१,६०० यू. म. ए. ६८,३५,३०० ३५,५.२,४०४ 2.६,६८,५४६ फिलाडेल्फिया भारत यू. एस. ए. Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज फिलाडेल्फिया (शहर) २०,३२,४०० काहिरा सं. अरब गणगज्य ४२,२५,७०० रिओडेजेनरिओ आजील ४२,०७,३२२ पीकिंग नीम ४०,१०,००० लेनिनग्राद ३६,५०,००० लेनिनग्राद (शहर) सियोल कोरिया (द. ३७,६४,६५६ दिल्ली भारत ३६.२६४२ दिल्ली (शहर) मेविसको यू. एस. ए. ३४,८३,६४६ अभाका जापान ३०,७८,000 जिन शहरों के नाम दो बार लिखे हैं, उन में प्रथम के साथ दी गई जब संख्या में वहाँ के अन्तर्गत आनेनानी ग्रामीण आबादी भी सम्मिलित है। (साप्ताहिक हिन्दुस्तान, १० अक्तूबर, १९७१) १२. वर्तमान विश्व के निरक्षर और अंवों को संख्या १. निरक्षर ---यद्यपि पिछले बीस वर्षों में ६० करोड़ व्यक्तियों को साक्षर बनाया गया है, तथापि यूनेस्को-रिपोर्ट के अनुसार दुनियां में आज निरक्षरों की संख्या ७६,३०,००,००० है । उक्त रिजोर्ट का यह भी कहना है कि सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद अगले ३० वषों में भी दुनिया में ६५,००,००,००० लोग निरक्षर ही बने रहेंगे। निरक्षरता व्यापक रूप से, अफ्रीका, एशिया और लेटिन Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवां भाग : पीया कोष्टक ३०३ अमरीका में डेरा जमाये हैं । ये वे ही महाद्वीप हैं, जो विदेशी प्रभुत्व के अन्तर्गत थे । - हिन्दुस्तान ३ सितम्बर १९७१ २. अन्धे - आज के विश्व में अंधों की कुल संख्या १५ करोड़ है, जबकि अकेले भारत में उनकी संख्या ४५ से ५० लाख के लगभग है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् के सर्वेक्षण के अनुसार मैमूरराज्य में अंधों की संख्या सबसे अधिक है। सर्वेक्षण से पता चला है कि भारत में अन्धेपन का मुख्य कारण रोहा, कोदवा, मोतियाविन्द, ग्लाकोमा, अनसर जैसी बीमारियों के अलावा पौष्टिक खाद्य की कमी भी है । - हिन्दुस्तान ६ अक्टूबर १९७१ १३. विश्व के प्रलयकारी भूकम्प १. एक अमरीकी सर्वेक्षण के अनुसार पिछली ४ शताब्दियों में कलकत्ता को, भूकम्प के कारण सर्वाधिक विनाश सहना पड़ा है। कलकत्ता क्षेत्र में ११ अक्टूबर १९३० में आये भूकम्प में २.००,००० व्यक्ति मौन के शिकार हुये थे । २. विश्व के इतिहास में सबसे भयानक भूकम्प २४ जनवरी १६५५ ई. को धोन के शांसी नामक स्थान में आया था, जिसमें ८.३०,००० व्यक्ति मरे थे। इस शताब्दी के आरम्भ में पुनः चीन एक भयंकर भूकम्प का शिकार हुआ । १६ दिसम्बर १६२० को कांसू प्रान्त में आये भूकम्प में १,८५०,००० व्यक्ति मौत के शिकार हुए थे। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ वक्तृत्वकला के बीज ३. भारतीय द्वीप में इस शताब्दी का सबसे अधिक विनाश कारी भूकम्प क्वेटा में ३१ मई १६३५ को आया था। यह स्थान अब प. पाकिस्तान में हैं । इसमें ६०,०००व्यक्ति मारे गये थे। ४. अभी 30 मई सन् १९५० को पेट. मैं आया हुआ सूकम्प हाल के वर्षों में आये हुए भूकम्पों में सबसे अधिक विनाशकारी भूकम्प कहा जाता है। इसमें : लास व्यक्तियों के मरने का अनुमान है। -नवभारत टाइम्स, ५ जून १९७० Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ भारत एशिया महाद्वीप में स्थित यह भारत एक विस्तृत देश है । सन् १९४७ में विभाजित होने के बाद भी यह संसार का सातवाँ सबसे बड़ा देश है । इसका क्षेत्रफल लगभग ३२,३६,१४१ वर्ग किलोमीटर है एवं इसकी स्थली सीमा १५,१७० किलोमीटर से भी अधिक है। इस देश के तीन नाम हैं-- (१) भारत अथवा भारतवर्ष (5) हिन्दुस्त (३) इस राजा के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर ही इस देश का नाम 'भारत' पड़ा। ईरानियों ने इस देश को हिन्दुस्तान और ग्रीक लोगों ने इसे इण्डिया कहकर पुकारा । - मार्थिक व व्यापारिक भूगोल द्वारा (क्कू सक्सेना) पृष्ठ २६ । २. भारत की आबादी (क) भारत की आबादी पहली शताब्दी में दस करोड़, १५वीं शताब्दी में १५ करोड़, सन् १८७३ में (जत्र सर्वप्रथन जन गगाना हुई) २१ करोड़, सन् १९२१ में २५ करोड़, १९५१ में ३५ करोड ५० लाख एवं १९६१ मे ४३ करोड़ थी । - जैनभारती अंक २३ (ख) भारत की जनसंख्या (१२ अप्रैल १९७० तक ) ५४ करोड़, ६१ लाख ५५ हजार नौ सौ पैंतालीस हैं। पुरुष २० करोड़ ३० लाख और स्त्रिय । २६ करोड ३९ लाख से कुछ अधिक २० Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तृत्वकला के बीज हैं । विगत दस वर्षो में (१९६१ से १९५१ नक) १० करोड़ ७७ लाख के लगभग जनसंख्या बड़ी है। (ग) गत ७० वर्षों में आबादी की वृद्धि की दर नीचे सालिका में १६०१ से लेकर प्रशि माब्दि जनसंख्या वृद्धि की दर दी गई है :... वर्ष आबादी प्र. श. वृद्धि १६०१ के बाद को वशाश्चि से प्र. श. वृद्धि १६.१ २३८३३७३१३ (संयुक्त भारत) १६११ २५२७०५४७० १५.७३ .:.१.७१ (संयुक्त भारत १९२१ २५१२३६४६३ -1-५.४१ (संयुक्त भारत) १९३१ २७८८६७४३० +.११.०० -१७॥१ (मंयुक्त भारत) १९४१ ३१८५३६०६० +१४.२३ ... ३३.६६ (संयुक्त भारत) १९५१ ३६७६५०३६५ ५१.४५ (बंटवारे के बाद) १६६१ ४३६०७२५८२ +२१.६४ -८४.२२ १६५१ ५४६६५५६४५ +२४५७ +१२६.४६ (घ) भारत में प्रतिदिन ५० हजार से अधिक एवं प्रतिवर्ष लगभग २ करोड़ बच्चे जन्म लेने हैं और ८० लाख मनुष्य मरने हैं । अतः १ करोड २ लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष बढ़ते हैं । -भारतीय अर्थशास्त्र खण्ड २, पृष्ठ ६३, सन १६७० Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. भारत गणराज्य के अन्तरवर्ती राज्य-- (क) भारत गणराज्य के १६ राज्य है और १० केन्द्र प्रशासित प्रदेश हैं । उनके नाम, प्रफल, जनसंख्या, राजवानिर, आबादी का घनत्त्व और भाषाएँ इस प्रकार हैंक्र. सं. राज्य क्षेखफल जनसंख्या राजधानी आबादी मुख्य भाषा (कि. मो. में) (१९७१ में) पांचवां भाग : चौथा कोष्ठक घनत्त्व १. मध्य प्रदेश २. राजस्थान ४,४३,४०० ३.४६,३०२ ४,१४,४६,७२८ २,५७,२४,१४२ (प्रति कि. मी.) भोपाल ९३ हिन्दी जयपुर ७५ विभिन्न प्रकार की गजस्थानी तथा ३. महाराष्ट्र ३,०३,५३०५,०२,९५,०८१ ४. उतर प्रदेश २,६४,३६५ ८,८२,६६.४५३ ५. आन्ध्र प्रदेश २,५५,२८१ ४,३३.६४.६५१ बम्बई १६३ लखनऊ ३०० हैदराबाद १५३ मराठी हिन्दी, उर्दू तेलगू ३०७ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जम्मू कश्मीर २,२२,८०० २,०३,३९० १,६२,२०४ १,८७,११० १,७४,००० १,५५,८०० १,३०,३६० १३. पूर्वी पंजाब ५०,३२८ १४. हरियाणा ४३,८६६ १५.. प. बंगाल 13,800 केरल ३५, १०० हिमाचल प्रदेश २८,२०० १६, ४५० १७. अनम 5. भैसुर ९. गुजरात १०. बिहार ११. उड़ीसा १२. तमिलनाडु ݂ܕ १७. १८. नागालैण्ड १६. मेघालय ४६,१५,१७६ १,४८,५१, ३१४ २,१२,२४,०४६ २,६६,६०,६२६ ५,६३,८७,२६६ २,१६,३४,८२७ ४,११,०३,१२५ १,३४,७२,९०२ २६,७१,१६५ ४,४४,४०, ०६५ २,१२,८०,३१७ ३४,२४,३३२ ५,१५,५६१ ६,८३,३३६ श्रीनगर शिलांग १४६ बंगलौर १५२ अमदाबाद १३६ पटना ३२४ भुवनेश्वर १४१ मद्राम ३१६ चंडीगड़ २६८ चंडीगढ़ २२५ ५७७ ५,४८ कलकत्ता त्रिवेन्द्रम् शिमला कोहिमा शिलांग कश्मीरी, डोगरो उर्दू बंगला, असमिया कभड़ गुजराती हिन्दी उड़िया तमिल पंजाबी, हिन्दी हिन्दी " बंगला मलयालम हिन्दी, पहाड़ी बंगला, अममिया स्वसिया ३०८ रकला के बोज Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केन्द्र प्रशासित प्रदेश क्र. सं. प्रदेश १. अंडमान व निकोबार द्वीप समूह ८२३० 2 लक्षद्वीप, मिनिकाय व अमीन द्वीप समूह क्षेत्रफल ( कि. मी. में) दिल्ली २८ १,४८४ जनसंख्या ( सन् ७१ ) १,१५,०६० ३१,७६८ ४०,४४,३३८ राजधानी आबादी का घनत्व (प्रति कि. मी. ) पोर्ट लेयर कोजिहको ६६४ (केरल) नई दिल्ली २,२५४ मुख्यभाषा पुरानो मलयालम हिन्दी, उर्दू, पंजाबी पांचवां भाग : त्रीमा कोष्ठक AL ܩ P. Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. मशर २.२३४.५ ५. त्रिपुरा -,? दादरा और नगर हवेली ४८६ गोआ दमन और दीव 15. ३,६१६ ४७६ ८०, ४८१ ६. १०,६६,५४४. १५,५६,८२२ ७४,१६५ उम्फाल अगरतला १४६ मिलवासा १५१ पंजिम ** पांडिचेरी ६८२ शिलांग चंडीगढ़ बंगला असमिया ""25 = ५७,१८० पांडिचेरी ४,७१.३४७ नेफर ४. ४४, ७४४ चंडीगढ़ २, ५६, १०६ पंजाबी भूडान और सित्रिकम पश्चिमी बंगाल के उत्तर में दो स्वाधीन हिमालयवत्त राज्य हैं। से विदोष संधियों द्वारा भारत गणराज्य में सम्मिलित हैं । इनके क्षत्रफलादि निम्न प्रकार हैं :-- १. भुटान १६.३०५ 5, ४०,००० थिम्फू मराठी, गुजराती फांसीमी, तमिल तिब्बती से मिलतीजुलती सिक्किमी गोरखाबाली सिक्किम २,१८५ १,८४,६०० गंगटोक : विश्वकोश भाग १०. आर्थिक व्यापारिक भूगोल तथा हिन्दुस्तान १४ अप्रेल १६७१ के आधार से) ३१० कला के बीज Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : चौथा कोष्टक ३११ (ख' भारत की जनसंख्या का आयु विवरण (१२५ के आधार पर आयु समूह (वर्षों में) कुल जनसंख्या का प्रतिशत ४ वर्ष तक के मनुष्य १५.० ५ से १४ वर्ष तक के मनुष्य १५ से २४ , . २५ से ३४ . . . ५ मे ४४ ॥ ॥ ६५ से ७४ , ७५ स अधिक योग १०७० : . (ग) भारत में वैवाहिक स्थिति(संख्या हजारों में) आयु वर्ग (वर्षों में) विवाहित महिलाएं विधवा महिलाएं १० वाई स १४ वर्ष तक ४,४२६ १५ , १६ ।। , १२,०२२ २० .. २४ ,, . २४८ -भारत का आर्थिक भूगोल तथा भारतीय अर्थशास्त्र द्वितीय खण्ड पृष्ठ ५८, ५६ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बक्सुस्वकला के बीज (४) भारत के गाँव और शहर--- (क) सन् १६६१ की जनगणना के अनुसार भारत में '५ लाख ६६ हजार ८७८ गाँव हैं, जिनमें ६२ प्रतिशत व्यक्ति निवास करते हैं। शहरों की संख्या २६६ हैं और उनमें १८ प्रतिशत व्यक्ति रहा है। -भारतीय अर्थशास्त्र, स्मृण्ड २ पृष्ठ ५३,५४ सन् ७० (ख) भारत के ६ महानगर और उनकी आधरवी सन् ७१) १. कलकत्ता-७०.४०,३४५ ६. अहमदाबाद-२,७,४६,१११ २, बम्बई-५६,३१,६८६ . बंगलोर-१६४८२३२ ३. दिल्ली -2 ६,२६,८४२ २. कानपुर-१२,५३,०४२ ४. मद्राल-२४,८०,२४८ ८. पुना-११,२३,३६६ ५. हैदराबाद-१७,६८,६१० नोट-दस लास्त्र में अधिक जनमायावाले नगर महानगर कहलाते हैं।) -हिन्दुस्तान-१४ अप्रेल ७१ (५) भारत में बेघर और घरवाले सन् १९६१ की जनगणना के अनुसार भारत में ५० लाख व्यक्ति वेबर है। उनमें स ६ प्रतिशत शहरों में रहते हैं। एक बम्बई में इनकी संख्या ७६ हजार है । देश में कुल घर १० करोड ७ लास्त्र हैं। उनम = करोड़ ३ लाख परिवार रहने हैं। एक परिवार एक रसोई का प्रयोग करता है नया उसके औसत ५ व्यक्ति सदस्य हैं । ४ करोड़ परिवारों के पास एक कमरा है। ३६४ प्रतिशत के पास-पास कमर है । २६.३ प्रतिशत के पास ३ या अधिक कमरे हैं। ५६. Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचा भाग : चौथा कोष्ठक ३१३ प्रतिशत लोग अच्ने गारों के मकान में रहते है, ४४ प्रस. के अपने घर है और ५२ प्र. श, किराये के मकानो में रहते हैं। -हिन्दुस्तान २३ अप्रैल, १९६४ (६) भारत में पशुधन सन् १६.६ को पगुगाना के अनुसार गत में गाय-बैल लगभग १७|| करोड़, भैसें ५ करोड़, बकरियों ६॥ करोड़, भेड़ें ४ करोड़, मुगियां ११.३ करोड़. ऊँट ६ लाख से अधिक और घोड़े १६॥ नाग्ख हैं। (७) भारत में दूध--- भारत में अन्य देशों को अपेक्षा गर्दा। अधिक गाय है, किन्तु यहां की औसत गाय प्रतिवर्प अन्य देशों की अपेक्षा बहुत कम दुध देती हैं । दखिा, नीचे की तालिका__ वेश प्रति गाय दूध देश प्रति माम दूध (प्रति वर्ष (प्रति वर्ष) १. नीदरलैंड्म ८,००० पोइ . गं, ग. ५,८०० पौड 1. आस्ट्रेलिया ७,००, अमेरिका ३. म्बीन ६,००० . .. भारत ४१३ पौड भारत में कुल उत्पादन का लगभग ४२ प्रतिमत भाग दूध गायों में प्राप्त होता है, ५४ प्र.श. दुध भैसों में और २ प्र.श. दूध बकरियों से । ऊपर की तालिका में म्यष्ट है कि भारत में प्रति गाय औसलरूप से वर्ष में लगभग ४१३ पौड दूध देती है। परन्तु भैस औसत रूप से भारत में १,१०० पौंड वाषिक दूध देती हैं । - - -- .J H - Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : i ३१४ वक्तृत्वकला के बीज यद्यपि उत्पादन की मात्रा की दृष्टि से विश्व में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के बाद भारत ही सबसे अधिक दूध उत्पादन करता है, परन्तु यहाँ को धनी आबादी को देखते हुए यह मात्रा बहुत कम है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग ७ करोड़ मन दूध होता है, जबकि अमेरिकन रिपोर्टर' कं अनुसार संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में प्रतिवर्ष १५ अरब मन से भी अधिक दूध होता है । इस कथन के अनुसार इतना दूध होता है कि ८२४ कि.मी. लम्बी १२ मीटर चौड़ी और १ मीटर गहरी नदी को दूध ने सुगमता पूर्वक भरा जा सकता है। ठीक स्वास्थ्य के लिए प्रति व्यक्ति को प्रतिदिन कम से कम १५.२० ओस दूध की आवश्यकता है, किन्तु भारत में प्रति व्यक्ति को प्रतिदिन औसतन ५५ औंस (२ छटांक ) दूध मिलता है, जबकि अन्य देशों में कहीं उसकी सात जुनी और इसगुनी से भी अधिक उपलब्धि है। देखिए, नीचे की तालिका— उपलब्धि ५६ ऑस 1 " " देश डेनमार्क मं. रा. अमेरिका देश कनाडा न्यूजीलैंड ५५ आस्ट्रेलिया ५५ इंगलंड ४० भारत .. -आर्थिक व व्यापारिक भूगोल (हुक्कू - सवसेना) पृष्ठ १६४ उपलि ४० आँस ३३ ५५ " Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां भाग : चौथा कोष्ठक (5) भारतीय इतिहास की प्रमुख तिथियाँईसा पूर्व गिधु सभ्यता आयो का भारत में आगगन आरम्भ ३. क १५००-२००० ऋग्वद की रचना ग्य १००० महाभारत युद्ध ४. ५९६.५२७ वर्द्धमान महावार का जन्म और निर्वाण ५.६५६३.४६३ गौतम बुद्ध वा जन्म और निर्वाण भारत पर गिकन्दर का आक्रमण ७, ३२२-२६५ चन्द्रगुप्त मौर्ग का मामल ८. २६.२३३ अशोक का शासन ईस्वी सन कनिष्क का शमन १ मम्राट कनिक पाणवसीय था । इन बंश के लोग आक्रमणकारी के रूप में चीन के उत्तर-पश्चिम में भारत असे और उन्होंने पेशावर को अपनी राजधानी बनाया। कनिष्क कश्मीर, मगध, बंगाल, कात्रुल, चीन आदि देशो की जीत कर सम्राट अन्ना एवं बौद्धधर्म स्वीकार करके भारतीय कहलाने लगा। इसके राज्य में अश्वघोष (जिनम इसने बौद्धधर्म स्वीकार किया था), वसुमित्र एवं नागार्जुन जैसे अनेक प्रसिद्ध बौद्ध-दार्शनिक और लखक थे । बौन बनने के बाद कनिष्क ने अनेक विहारों तथा स्तूपों का निर्माण करवाया। सुप्रसिद्ध बत) बौद्ध मंगीत (सम्मेलन की योजना भा इसो ने की। इस मंगीति में बौद्धधर्म पर नये भाष्य लिने गये और बौद्धधर्म को एक नया रूप दिया गया, जो 'महायान' कहलाया। CAD Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या मृत्वकला के बोज १०. ३२०-४७५ ११. ५३५-३७५ १२. ३७६-४१३ १३. ४५-४११ १४. ६०५-६४७ १५. १०००-१.२६ १६. १११२ गुप्तवंश का शासन, भारतीय कला और साहित्य का स्वर्ण-युग नमुद्रगुप्त का शासन चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन फाहियान की भारत यात्रा हर्षवर्द्धन का शासन भारत पर महमूद गजनयों के आक्रमण पृश्योराज की पराजन्न और मृत्यु उत्तर भारत में मुस्लिम शासन आरम्भ भारत पर चंगेजलां का आक्रमण भारत पर तैमूरलंग का आक्रमण अकबर का शासन हल्दीघाटी की लडाई महाराणा प्रताप की मृत्यु भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन जहांगीर का शासन मुरत मैं अंग्गजों की पहली कोठी की स्थापना शाहजहाँ का शासन HTTTLY १८. १३६८ १५५६-१६०५ १. १५७६ २२. १५९५ द. १६०७-१८५८ २४. १६०५-१६२७ . १ हर्षवर्धन अन्तिम हिन्दू सम्राट था। इसकी राजधानी कन्नौज था । सम्राट स्वयं काय था और कवियों का सम्मान भी बहुत करताथा । बाणभट्ट (कादम्बरी के निर्माता) इसी के राज्य घरबार के रत्न थे। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग चौथा कोष्ठक २७. ܀ २६. १६५८-१७०७ १७३६ ܘܟ܀܀ ३०. १८१८ ३१. १८७४ ३२. १८०.५ ३३. १६२० ३४. १६२१ ३५. १६२७-२८ ३१७ औरंगजेब का शासन भारत पर नादिरशाह का आक्रमणः महाराजा रणजीत सिंह द्वारा सिक्व राज्य की स्थापना ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्य और ब्रिटिश सरकार का सीधर शासन प्रारम्भ बंगाल में भयंकर अकाल बम्बई में का प्रथम अधिवेशन लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु महात्मागांधी द्वारा असहयोग आन्दो लन आरम्भ साइमन कमीशन का बहिष्कार, लाला लाजपतराय को मृत्यु २ नादिरशाह का आक्रमण- निरंकुश क्ररे और अत्याचारी शासन के लिए प्रायः 'नादिरशाही' शब्द का प्रयोग होता है । नादिरशाह फारस का शासक था और १७३६ ई० में उसने दिल्ली पर आक्रमण करके वहां कत्लेआम करवाया था। दिल्ली में पन्द्रह करोड़ रुपये नकद तथा पचास करोड़ रुपये से भी अधिक के रत्न आभूषण आदि लूटकर ले गया था जिनमें विश्व विख्यात हीरा 'कोहेनूर' और जटित सिंहासन 'तने ताऊस' भी था। जहान -- सचित्र - विश्वकोष ६, पृष्ठ ४६ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के वीज ३६. १९२६ ३७. १९४२ ३८. १९४३ ४०. १९४८ ४१. १९५० कांग्रग द्वारा लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की घोषणा "भारत छोड़ो' आंदोलन सुभाषचन्द्र बोस द्वारा सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज की स्थापना भारत स्वाधीन हुआ तथा देवा का विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना काश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण महात्मा गांधी की हत्या भारत नये संविधान के अनुसार TOजन भयो। मदार पटेल की मृत्यु गारत में पहला आम चुनाव भारत की क्रांमीमी बस्नियों का भारत में विलय भाषा के आधार पर भारतीय राज्यों का पुनर्गठन गोआ पर भारत का अधिकार भारत पर चीन का आक्रमण प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमन्त्री बने भारत-पाक युद्ध ४३. १९५४ ४४. १९५६ ४५. १९६१ ४६. १९६२ ४७. १९६४ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : सौपा कोक ताशकंद में प्रधान मंत्री लालबहादर गास्त्रीको मृत्यु ।श्रीमती इन्दिरा गांधी प्रधान मंत्री बनीं -सचित्र विश्वकोष भा. ६, पृ. ३० (E) भारत में साक्षरता१. स्कूल जानेबाले बच्चों की संख्या २ करोड ३५ लाख से बढ़कर करोड़ नमाज हो गई और १६६०-७१ तक वह योजना के मसविद के अनुसार) ६ करोड ७५ लाख हो जायगी। कालेज जानेवाले छात्रों की संख्या ३ लाख में बढ़कर १ लाख हो गई। -हिन्दुस्तान २१ अगस्त, १९६६ वर्तमान भारत में ५४,६६,५५,६४५ मनुष्य निवास करने हैं। उनमें से १६.०५,३१,५५० व्यक्ति साक्षर और ३८,६४,२४,३७५ व्यक्ति निरक्षर हैं। गुरुप २६॥ प्रतिशत मे कुछ काम शिक्षित हैं और ७०।। से कुछ अधिक अशिक्षित हैं । स्त्रियाँ २४ प्र. श. पड़ी हुई हैं और ७६ प्र. श. अपढ़ है । विगत इस वर्षों में यहाँ २२ प्र. ग. साक्षरता बढ़ी है। सम्पूर्ण भारत और विविध राज्यों में १६६१ और १६७१ में प्रतिशत साक्षरता के आँकड़े इस प्रकार हैंराज्य सन् १६.६१ सन १९७१ भारत मंडीगढ़ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 : वक्तस्वकाला के वीज ४३.४३ केरल दिल्ली ५२७, गोआ-दमन-दीव ३०७५ अंडमान-निकोबार ३३.६३ लक्षद्वीप मिनिकाय ] . अमीन द्वीप पांडिनेरी १७.४३ समिलनाडु महाराष्ट्र गुजरात ३६.३६ पंजात्र २५७ ३३३६ ३३.०५ ३२.८० ३०.४२ २५.४० ३१.३२ ३०८७ २६२६ प. बंगाल मणिपुर मैमूर हिमाचल प्रदेश त्रिपुरा अमम मेघालय नागालैंड हरियाणा उड़ीसा आन्ध्र मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश २८.४१ १७६१ ६६.६६ २४.५६ २१.१६ १७.१३ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा भाग : चौथा कोष्टक बिहार १८.४५ १९६७ राजस्थान १५.२१ १८७६ जम्मू-कश्मीर ११.०३ दादरा और 7 नगर हवेली । नेफा -हिन्दुस्तान, १४ अप्रेल, १९७१ (१०) भारत की बड़ी चीजेंअधिक क्षेत्रफल वाला राज्य मध्य प्रदेश अधिक जनसंख्यावाला राज्य उत्तर प्रदेश अधिक घनत्व (जनसंख्या) वाला राज्य दिल्ली अधिक जनसंख्यावाला नगर कलकत्ता बड़ा बंदरगाह बम्बई बड़ी सड़क प्रांड ट्रक रोड अधिक शिक्षित केरल लम्बा पुल मोन नदी लम्बा प्लेटफार्म सोनपुर (विश्व में) बड़ी झील बुलर भील (कश्मीर) बड़ी सारी झील सांभर (राजस्थान बड़ा डेल्टा सुन्दरबन बड़ा इस्पात का कारखाना टाटा का कारखाना (जमशेदपुर) Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ वक्तृत्वकला के बीज सुन्दर भवन ताजमहल बड़ी मुर्ति गोमतेश्वर की मूर्ति (मैसूर) ऊँची मीनार कुतुब मीनार (दिल्ली) बड़ी गुम्बद गोलमुम्बद बीजापुर बड़ा एस्तकालय राष्ट्रीय पुस्तकालय (कलकत्ता) बड़ा चिड़ियाघर अलीपुर (कलकत्ता) बड़ा अजायबघर इंडियन म्यूजियम (बालकत्ता) सबसे ऊँचा पर्वत शिखर माउंट एवरेस्ट लम्बा बाँध हीराकुण्ड बांध सबसे अधिक वर्षा वाला क्षेत्र चेरापूँजी आसाम –आर्थिक व व्यापारिक भूगोल पृष्ठ ३३, द्वारा हुक्कू, सक्सेना Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. भारत की कतिपय विशेष ज्ञातव्य बातें १. (क) औसत आयु : ५६ वर्ष । (ख) प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आयःचालू मूल्यों पर ५५२ रुपये और १६४८-४६ के मूल्यों पर ३२४४ रुपये । (ग) खाद्यान्नों की उत्पत्ति : लगभग १ करोड़ टन (१९६९-७०) (घ) प्रति व्यक्ति खाद्यान्नों की पत : १५४ औसत प्रतिदिन (१९६६-50) (न्त्र) प्रति व्यक्ति के लिए उपलब्ध कैलोरी (Cutories) २१४५ प्रतिदिन । (छ प्रति व्यक्ति वस्त्र की उपलब्धि १३ मीटर बार्षिक । (जो प्रति सहन वार्षिक जन्मदर ४२ व प्रनि सहस्र मृत्यु दर १७२। -भारतीय अर्थशास्त्र ख २, पृष्ठ २६ और ४३ २. भारतवर्ष में लगभग ५२ लाख ए हैं, ३ हजार तालाव हैं और नहरों की लम्बाई लगभग १ लाख ४६ हजार किलोमीटर है। भारतवर्ष में नदियों का पानी केवल ५६ प्रतिशत भाग सिंचाई आदि के उपयोग में आता है, शेष यों ही समुद्र में चला जाता है। ३२३ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ६:४ यवतुत्वकला के बीज ४. भारत में केवल ३६ करोड ६० लाख एकड़ जमीन में खेती होती है जबकि अमेरिका में ४७ करोड ८० लास्य और रूस में ५५ करोड़ ६० लाख एकड़ जमीन खेती के उपयोग में आती है। ५. भारत में (सन् ६६ से १६ के आंकड़ों के अनुसार) प्रति वर्ष गह लगभग ११५, ३ लाख टन, चावल ३ करोड ७६ लाख टन, मक्का ५० लाख टन, बाजरा ३८ लाख टन, चना ४५० पौंड प्रति एकड. गन्ना ६८ लाख हजार टन, कपास की ६७ लाख गांठे (३६२ पौंड की एक गांठ), जूट भी ८४ लाख ५ हजार गाँठे (४०॥ पौंड की गांठ), चाय ३७५४ करोड़ किलोग्राम, कहवा ६८ हजार मीट्रिक टन, मूंगफली ५६७ लाग्छ टन, तम्बाकू || लास्त्र टन, शक्कर (चीनी) ४३ लाख टन, रबर ६४४५ हजार टन, लोहा १४८ लाख मीट्रिक टन, अभ्रक २५ हजार टन, साना ३७४० किलोग्राम हीरा पाँच लाख करट, मंगनीज (भूरे रंग की धातु) १६ लाख दन, कायला ७१ करोड़ टन, पेट्रोलियम (चट्टान से निकाला हुआ तेल) ३० लाख टन, इस्पात ४४८८ लाख टन, सीमेंट ११० लाख टन और कागज ५५ लाख टन पैदा हुए। ६. भारत में सूती कपड़े की ६०० मिमें हैं (अमरीका में १५०० हैं। उनमें ७२५ करोड़ के मूल्य का ६.० ६ अरब गज कपड़ा प्रतिवर्ष बनता है, उसमें ६२ करोड़ का विदेश जाता है। उनके चार कारखाने हैं। रेशम के छोटे छोटे - - Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांची कोक ६२५ अनेक कारखाने हैं और बड़े चार हैं। प्रतिवर्ष १५७१ लाख किलोग्राम (१ करोड़ गज) नकली रेशम बनता है । १३ लाख टन जूट प्रतिवर्ष उत्पन्न होता है । ७५ लाख टन जूट का सामान विदेश जाता है, उससे भारत को १५० करोड़ की आमदनी होती है। ६. भारत में रेल इंजिन के दो कारखाने हैं - एक तो चितरंजन नगर में और दूसरा जमशेदपुर में दोनों कारखानों में सन् १८६०-६१ तक एक हजार से भी अधिक इंजिन तैयार हो चुके थे । आधुनिक इंजिन में लगभग ५३५० पुर्जे लगते हैं । उनमें प्रतिशत पूर्जे तो निरंजन नगर के कारखाने में ही बनते हैं और दस प्रतिशत बाहर से मंगवायें जाते है । एक इंजिन पर लगभग चार लाख रुपये लगते हैं । * - सन् ६०-६१ में यहां (भारत में ) चार लाख टेलीफोन बनते थे। एक टेलीफोन में ५३६ पुर्जे लगते हैं । उनमें ता १६ पुर्जे तो अन्य उत्पादकों से प्राप्त किये जाते हैं और तीन पुर्जे विदेशों से मंगवाये जाते है । - व्यापारिक व आर्थिक भूगोल, सन् ६६ के आधार से * Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महीना कलकत्ता जनवरी सूर्योदय और सूर्यास्त सारणी भारत के विभिन्न प्रांतों में समय का अन्तर दिनांक दिल्ली बम्बई मद्रास उदय अस्त उदय अस्त उदय अस्त उदय १ ७.१४ १७३५ ७१२ १८.१२ ६.३१ १७५३ ६.१७ १५ ७.१६ १७४५ .१५ १८२१ ६.३५ .१ ६.१६ १ ७.१० १७.५६ .१६ १८.३१ ६.३६ १८०६६.१६ १५७०१ १८.१० ८ १८३८ १३३ १८१४ ६.७१ १ ६४७ १२१ ६.५८ १८.४४ ६२५ १८१८ ५.५८ फरवरी अस्त १७०३ १७१२ १३.२४ १७.३२ १७४० मार्च अप्रेन १ १ ६.१२ १५ ५.५६ ४१ १५ ५.३१ १ ५.२४ १५ ५२३ १८३४६३३ १८५२ ६०६ १८२१ ५.३० १७५२ १८४३६२२ १८५६ ५.५७ १८२२ ५.१७ १७५७ १८५६ ६५१ १६.०२ ५४६१८३४ ५.०४ १०३ १६०४ १५ १६.०६ ५४४ १८.२७ ४५७ १८०९ १६.१४ ६०१ १६.१ ५.४२ १८३२ ४५२ १८१७ १९.२०६१ १६.१५ ५.४३ १८३६ ४.५२ १८२२ वक्त्वकला के बीज Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसिना भाग : चौथा कोष्ठक जुलाई १ ५.२७ १६.२३ ६०५ १६२. ५.४६ १८३६ ४५५ १८२५ १५ ५.३३ १६.१ ६.१० १६.१९ ५.५० १८३६ .०१ १०२४ अगस्त १ ५.४३ १६.१२ ६१६ १६.१४ ५.५५ १८३६ ५.०८ १८.१७ १५ ५.५० १६०१ २० ० ६ ५.१७ १८३० ५.१३ १८८ सितम्बर १ ५.५४ १८४३ ६.२४ १८५३ ५.५८ १८.२०५९११५४ १५ ६०६ १८२६ ६.२६ १८"४१. ५.५८ १८.१० ५.२३ १:४० अक्तुबर १ ६.१४ १८७७६.२६ १८२७ ५.५६ १७५६२८ १३.२४ १५ ६.२२ १७५२ ६.३३ १८.१६ ५.५६ १७५० ५.३३ १११२ नवम्बर १ ६.३३ १३.३६ ६.३९ १८०४ ६.०३ १६४२ ५.४२ १५६ १५ ६४४ १७२७ ६.४६ १८५६०८१७३६ ५४० १५३ दिसम्बर १ ६.५७ १४२४ ३.५६ १.०० ६.१६ १७४० ६.०० :५१ १५. ७०७ १७.२६ ७०४ १.०४ १२३ १७४५ ६.०६ १५४ टिप्पणी-(१) ममय लौंद वर्ष के हैं तथा अन्य वषों में लगभग १ मिनट का अन्नर पड़ मवः।ा है। (२) क्षितिज पर मूर्य की ऊपरी कार के दिखाई देने का समय भारतीय प्रामाणिक समयानुगार दिया गया है। --भारत-भारती मान चित्रावली, १६७:: Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या नगरों के नाम संसार के प्रमुख नगरों के समय और दूरियां देशों के नाम नगरों का वह समय जब दिल्ली में दोपहर के बारह बजे हों घन्टा मिनट नगरों को दूरियां किलोमीटर में दिल्ली से अशकश घांना ३,७६० MITrm 10 ४,५६० ३० अदन युनान इथोपिया टर्की नीदरलैंड्स कनाडा नार्वे पाकिस्तान नेपाल १२ अफगानिस्तान सं. अरब गणराज्य (मिश्र) 5 अदन अग्रॅम अदिम अवाबा अंकारा एम्सटाइम ओटावा ओस्लो कराची काठमांडू काबुल काहिरा ११,३४० १,०६० ०० वक्तृत्वकला के बीज ६६० ४,४२० Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाया १ ३ कुआलालूमपुर केनबेरा केपटाउन कोपेनहेगेन कोलम्बो खारतुम जकार्ता जेनेवा टोकियो १०,३२० ६,२८० ५,८५० २,४३० ४,७८० ५,०१० पाँचा भाग : चौथा कोष्ठक 4 PM L,८२० आस्ट्रेलिया दक्षिण अफ्रीका संघ डेनमार्क श्रीलंका सूडान हिन्देशिया स्विटजरलैंड जापान पूर्व बंगाल ईरान सीरिया नीदरलैंड्स सं. रा. अमेरिका जेकोस्लोवाकिया चीन फ्रांस ३ ३ ढाका W US २,५४० ३,६२० तेहान दमिश्क दी हेग न्यूयार्क प्राग पेकिंग पेरिम ११,७४० אח ינון ३,७८० Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बगदाद ३३० By av ३,१५० ५,०० ४,८०० ५,३७० २,६२० Mr Y Tr हंगरी ३४ M बीन ६.२३० mm Tr" इराक बलिन पूर्वी जर्मनी चुफारेस्ट रोमानिया ब्रुडापेस्ट बैंकाक थाइलैंड वेस्त लेबनान बेलग्रड यूगोस्लाविया पश्चिमी जर्मनी व सेल्स बेल्जियम ब्यूनस आयर्स आरजंटाइना मनीला फिलीपाइन मास्को मोवियत संघ मेडरिड स्पेन रायोडिजेनीरो ब्राजील इस्लामाबाद पाकिस्तान रियाघ सऊदी अरब रोम इटली १५,५५० ४,८० ४३ १४,०४० ६८० ३,०५० ५,६२० वक्तृत्वकला के बीज Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ गुन लिस्बन लंदन २,३४० ७,७६० ६,७१० ४६ ५० पनच भाग : चौथा कोष्ठक वारसा ब्रह्मा पुर्तगाल ब्रिटेन पोलैंड सं. रा, अमेरिका आस्ट्रिया न्यूजीलैंड कोरिया मलेशिया संघ दक्षिणी वियतनाम स्वीडन उत्तरी वियतनाम फिनलैंड हांगकांग द्वीप १२,०४० ५,५७० १२,६२० याशिंगटन त्रियना वेलिंगटन मिओल सिंगापुर गांव स्टॉकहोम हनोई हेलसिंकी हांगकांग ५५ ५७ ४,१४० ३.६४० ५,५७० ५,०४० ५.२२० १४ ३० ३,७६० -भारत भारती मान चित्रावली, १९७१ x Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बातृत्वकता के बीज भाग १ से ५ तक में अधत प्रन्यों के व्यक्तियों को नामावली Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ग्रन्थ सूची अङ्गत्तर निकाय अंगिरास्मृति अग्निपुराण अथर्ववेद अर्थशास्त्र अध्यात्मसार अध्यात्मोपनिषद् अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिशिका अनुयोग द्वार अपरोक्षानुभूति अभिधम्मपिटक अभिधानराजेन्द्र अभिधानचिन्तामणि अभिज्ञान शाकुन्तल अमितिगति श्रावकाचार अमृतध्वनि अमर भारती (मासिक) अवेस्ता अविस्मृति अष्टांग हृदय-निदान आगम और त्रिपिटकःएक अनुशीलन आचाराङ्गसूत्र माथिक व व्यापारिक भूगोल आप्त-मीमांसा आत्मानुशासन आवश्यकनियुक्ति आवश्यक मलयगिरि आवश्यक सूत्र आत्म-पुराण आत्मविकास आतुर प्रत्याख्यान आपस्तम्बस्मृति आवां अद्धी सुर्यरत औपपातिक सूत्र इतिहास समुच्चय ईशोपनिषद् इस्लामधर्म इष्टोपदेश ईश्वरगीता उत्तरराम चरित्र Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन मूत्र उत्तराध्ययन वृहदवृत्ति उदान उपदेश तरङ्गिणी उपदेशनासाद उपदे माला उपदेशसुमनमाला उपासक दशा ऋग्वेद ऋषिभासित ऐतरेय ब्राह्मण कठोपनिषद् कथासरित्सागर कल्याण (मासिक) कवितावली कात्यायन स्मृति किशन बावनी किरातार्जुनीय कीर्तिकेयानुप्रेक्षा कुमारपाल चरित्र कुमार सम्भव कुरानशरीफ केनोपनिषद् कौटिलीय अर्थशास्त्र खुले आकाश में गच्छाचार प्रकीर्णक गरुड़ पुराण गृहस्थधर्म गीता गीता भाष्य गुर्जरभजनपुरुपावली गुरुग्रन्थ साहिब गोम्मटसार गौतमस्मृति गोरक्षा-शतक घटचर्पटपंजरिका चन्द्रप्रजाप्ति सूत्र चन्द-चरित्र चरक संहिता चरित्र रक्षा चरकसूत्र चाणक्यनीति चाणक्यसूत्र चित्राम की चोपी चीनी सुभाषित छान्दोग्य उपनिषद् जपुजी साहिब कुरुक्षेत्र कुवलयानन्द कूटवेद Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागृति (मासिक) जातक जाबालश्रति जाह्नवी जीतकल्प जीवन-लक्ष्य जीवन सौरभ जीवाभिगम सूत्र जैनभारती अंचसिद्धान्त दीपिका जैनसिद्धान्त बोलसंग्रह टॉड राजस्थान इतिहास टी. बी. हैण्डबुक डिकेन्स डेलीमिरर तत्वामृत तत्त्वार्थ-सूत्र तन्दुलवैचारिकगाथा तत्त्वानुशासन ताओ-उपनिषद् ताओ-तेह-किंग तात्विक त्रिशतो तिरुकुरल तीन बात - तंत्तरोय उपनिषद् दशाथ त-स्कन्ध दशा त-स्कन्धवृत्ति दक्षसंहिता दर्शनपाहुड दान-चन्द्रिका दिगम्बर प्रतिक्रमण यी दीर्घनिकाय दोहा-संदोह द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका द्रव्य-संग्रह धन-वावनी ध्यानाष्टक धम्मपद धर्मबिन्दु धर्मयुग धर्मसंग्रह धर्मरत्न प्रकरण धर्मशास्त्र का इतिहास धर्मों की फुलवारी तत्तिरीय ताण्ड्य महाब्राह्मण तोरा थेरगाथा दशवकालिक सूत्र दर्शन-शुद्धि धर्म-सूत्र Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय दीप नन्दी सूत्र नवी नविश्ते नवभारत टाइम्स (दैनिक) नवनीत (मासिक) नवीन राष्ट्र एटलस नारद पुराण नारद नीति नारद परिचाजकोपनिषद् निर्णयसिन्धु नियमसार निरुक्त निशीथ चुणि निणीय भाष्य निरालम्बोपनिषद् नीतिवाक्यामृत नैषधीय चरित्र पंचतंत्र पंचास्तिकाय पंजाबकेशरी पद्मपुराण पहेलवी टेक्सट्रम् पब्लियस साइरस पद्मानन्द पंचविंशति प्रवचन सार प्रवचन सारोद्धार प्रवचन डायरी प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रशामरति प्रज्ञापना सूत्र पातंजल योगदर्शन पारस्कर स्मृति प्रास्ताविक श्लोकशतकम् पुरानी बाइबिल पुरुषार्थ सिद्धिय पाय पुराण पूर्व मीमांसा बृहत्कल्प भाष्य ब्रह्मग्रन्थावली ब्रह्मानन्द गीता बृहदारण्यकोपनिषद् बृहस्पतिस्मृति बाइबिल बुखारी वीरपश्त् बुद्ध-चरित्र बेंदीदाद बौद्ध-साधक बंगश्त्री Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तपरिशा प्रकीर्णक भक्ति-सूत्र भगवती-सूत्र भर्तृहरि नीतिशतक ,, वैराग्य शतक , शृगार शतक भविष्य-पुराण भावप्रकाश भाषा श्लोकसागर भामिनीविलास भाल्लवीय श्रुति भूदान पत्रिका भोजप्रबन्ध मज्झिमनिकाय मन्थन महाभारत महानिस पालि महानिशीथ भाष्य महानिर्वाण तन्त्र मनुस्मृति मनोनुशासनम् मत्स्यपुराण महाप्रत्याख्यान मरस मिलाप मुण्डकोपनिषद् मुस्लिम मेडम द स्नाल मेगजीन डाइजेस्ट मोहमुद्गर यन् यश्त् यशस्तिलकचम्पू यजुर्वेद याज्ञवल्क्य स्मृति यूहन्ना योगवाशिष्ठ योगदृष्टि समुच्चय योगशास्त्र योगबिन्दु रघुवंश रश्मिमाला राजप्रश्नीय सूत्र रामचरित मानस रामसतसई रामायण रोड मेगजीन लूका व्यवहार चूलिका व्यवहार-भाष्य nagri. Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार-सूत्र व्यासम्मति व्यास-संहिता वृहत्पाराशर संहिता वृहद् द्रव्य संग्रह वाल्मीकि रामायण वशिष्ठ-स्मृति विचित्रा (मासिक) विवेकचूड़ामणि विदुर नीति विनयपिटक विवेक विलास विशेषावश्यक भाष्य विशेषावश्यक चूणि विश्वकोष विज्ञान के नए आविष्कार विमुद्धिमग्गो विष्णुस्मृति विश्वमित्र (दैनिक) वीतराग स्तोत्र वैद्यक ग्रंथ वैद्यक-शास्त्र वैद्य रसराजसमुच्चय वशेषिक दर्शन वैदिक धर्म क्या कहता है ? वैदिक-विचार विमर्शन मातपथ बाहरण श्वेताश्वेतारोपनिषद् शंकरप्रश्नोत्तरी शस्त्र स्मृति माझ्धर शान्त सुधारस शान्तिगीता श्राद्ध विधि शास्त्रवार्तासमुच्चय श्रावकप्रतिक्रमण शिशुपालवध शिवपुराण शिव-संहिता श्रीमद्भागवत शील की नववाड़ शुक्रबोध शुक्ल युजर्वेद पट्याभृत स्कन्ध पुराण स्थानांग सूत्र सभा तरंग सचित्र-विश्व कोष सत्यार्थप्रकाश समयसार Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग सूत्र सम्बोधसत्तरि सप्तव्यसन सन्धान काव्य सरिता सर्जना सर्वया शतक स्वप्न शास्त्र स्वर-साधना समाधिशतक सम्मति तर्कप्रकरण स्टडीज इन डिसीट सरल मनोविज्ञान संयुत्तनिकाय सामायिक सूत्र सामवेद सावधानी से समुद्र सिद्धान्तकौमुदी सिन्दूर प्रकरण सुखमणि संहिता सुत्तनिपात सुभाषितावलि सुभाषितरत्न खण्ड- मंजूषा सुभाषितरत्नभाण्डागार सुभाषित संचय सुतपाहुड. ( ८ ) सुवोध पद्माकर सुभाषित रत्न सन्दोह सुश्रुत शरीर-स्थान सूत्रकृतांग सूत्र सूक्तरत्नावलि सूक्तमुक्तावलि सौर परिवार हउश् मज्दा हदीश पारीफ हरिभद्रीयआवश्यक हनुमान नाटक हृदय प्रदीप हृषिकेश हितोपदेश हिंगुलप्रकरण हिन्दुस्तान (दैनिक व साप्ताहिक) हिन्दसमाचार क्ष ेमेन्द्र त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र ज्ञाता - सूत्र ज्ञानार्णव ज्ञान-सार ज्ञानप्रकाश CO Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अफलातून अनुमुर्ताज अवीदाउद अबूबकर केलानी अल्फान्सीकर अरविन्द घोष अरस्तु आचार्य उमाशंकर आचार्य श्रीतुलसी आचार्य रजनीश आरकिंग आरजू afratमले ओडोर पारकर इरिटेट्स इब्राहिम लिंकन उमास्वाति एच, मोर एन्जिलो एनी विसेन्ट एमर्सन एडीसन एविड व्यक्ति - नामावली २ कैथराल कोल्टन खलील जिवान ग्वाल कवि गांधी गिवन एलाव्हीलर एलोसियस कविराज हरनामदास कवीर कन्फ्युसियस कण्डोर सेट कांगसी कार्लाइल कार्लमार्क्स कामवेल क्विकक् कालुगणी कुन्दकुन्दाचार्य कूपर केटी कैनेथवालसर कैम्पिस ( ९ ) गुरु गोरखनाथ गुरु नानक गेटे ग्रं विल नविल गोल्डस्मिथ गोल्डो जी गौतम बुद्ध जगन्नाथ कदि जयचन्द जयशंकर प्रसाद जयाचार्य जवाहरलाल नेहरू जार्ज चेपमैन Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान मिल्टन जामी जॉनसन जाविदान ए. खिरद जीनपाली जुगल कवि जुन्नं द जुनून जूर्वट जंगबिल जे. फरोश जे. नोफेन जे. पी. सो. बर्नार्ड जे. पी. हालैण्ड जौक उप्पर टालस्टाय टामस कॅम्पस टालमेज टी. एल. वास्वानी ह. ल. डाइट रॉट डॉ. हरदयालमाथुर डॉ. एलेग्जी केरेल डॉ. ग्यास जे रोल्ड जार्ज ( १० ) कट्रिन डिकेन्स डिजरायली डी० जेरोल्ड डी० एल० मूडी डेल कार्नेगी तिरमजी तुलसीदास थामत केम्पी थामस फूल र थेल्स थें करे थोरो दादू trafa धनमुनि धूमकेतु नकुलेश्वर नजिन नलिन नाथजी निकोलस निपट निरंजन निर्मला हवंशसिंह नोत्से लखन प्लुटार्क प्लेटो पटोरिया पद्माकर परसराम पीटर वैसे पीपाकवि पेस्क प्रेमचन्द पेरोसेल्स पोप फुलर फ्र कलिन बर्टन वनारसीदास बर्नार्डशा बलबर ब्रह्मदत्त कवि ब्रह्मानन्द बालजक बावरी साहिब बिल्हण कवि बीचर बुल्लेशाह r Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकमान्य तिलक लेर ( ११ ) बूलकोट रज्जवदास बेकन रडयार्ड किलिंग बेताल कवि रहीम बैल रविया बो. वो. रवि दिवाकर बोधा रस्किन भगवतीचरण वर्मी रवीन्द्रनाथ टैगोर भिक्ष गणी रामकृष्ण परमहंस भूधर दास रामचरण कवि महात्मा भगवानदीन रामतीर्थ मदन द० रियू रामरतन शर्मा महर्षि रमण रिस्टर मार्कटेन रिशर माण्टेन माघकवि रोम्यारोला मिल्टन गोश मेरीकोन ए-डी रोशफूको मुहम्मद-विन-वशीर लाफान्दैन मेरी बाउन लावेल मेसेंजर लांगफेलो मैकिन्तोस लोटन मैथिलीशरण गुप्त लोनलिज मोलियर लुनामान हकीम यशोविजय जी लूथर यूसूफ अस्वात লালন समो व्यावली वृन्द कवि वायरन वायर्स दारटल वाल्टेयर बाशिंगटन इविन विजयधर्मसूरि विनोबा भावे विकाश विलियमपिट विलियमपेन विवेकानन्द शंकराचार्य शापेनहावर शिलर शिवानन्द शुभचन्द्राचार्य शेक्सपियर शेख सादी स्टैनिलस स्टील स्पेंसर Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर म हाफिज हायत हालीवर्टन हार्टले (१२) सत्यदेवनारायण सिन्हा सुन्दरदास सन्त आगस्तीन सूरत कवि संत ज्ञानेश्वर सुरदास संत तुकाराम सेलहास्ट सन्त निहालसिंह सैनेका सद्गुरुचरण अवस्थी सेमुअल जानसन समर्थगुरु रामदास सोमदेव सुरि सायरस हजरत अली सिंगुरिनी हजरत मुहम्मद स्विट हरिभद्र सूरि सिसरो हलवर्ट सुकरात यहया हे एन. भांग हेनरी वाई वीचर हैजलिट हैली वर्टन होमर होरेश बाल पोल त्रायण्ट Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्वर की महत्वपी रचनाएं प्रकाशित १. एक आदर्श आत्मा ०-४० २. चमकते चांद ०-४० हरकचन्द बम्बचन्द नोलखा माधोगंज, लश्कर ग्वालियर (म.प्र.) रतीराम रामस्वरूप अन पो० कैथलमण्डी (हरियाणा) श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा बालोतरा (गजस्थान) ३. चरित्र-प्रकाश २-५० ४. भजनों की भेंट ५. लोक प्रकाश ६. चौदह नियम १-२५ ०-२० आदर्श साहित्य संघ पो० 'घुर (राजस्थान) ७. मोक्ष प्रकाश ८. जैन-जीवन ०-६५ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा टोहाना (हरियाणा) ( १३ ) Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) ९. प्रपन प्रकाश ०-८० श्री जैन श्धे० तेरापन्थी महासभा ३, पोर्चगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१ १०. मनोनिग्रह के दो मार्ग १-२५ । मदनचन्द सम्पतराय बोरड़ दुकान नं ४०, धानमण्डी, श्रीगंगानगर (राजस्थान) ११. मच्चा धन श्री दलीपचन्द द्वारा : ला० दयाराम बजलाल जैन १२. सोलह मतियां २-०० टोहाना मण्डी (हरियाणा) (द्वि. सं.) सोलह मतियां श्री चांदमल मानिकचन्द चौरड़िया (. सं.) पो० छापर, (चूरू, राजस्थान) १३. जान के गीत लाला दयाराम मंगतराम मैन (चौथा संस्करण) १-०० टोहानामण्डी (हरियाणा) १४. ज्ञान-प्रकाश १-१० श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा पो० भीडामर (राजस्थान) १५, जीवन प्रकाश (उ६) श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा नाभा (पंजाब) १६. सच्चा धन (उर्दू) -३० १७. तेरापन्थ एटले शु? ०-६२ ।। नेमीचन्द नगीनचन्द्र अवेरी 'चन्द्र महल' १३०,शेख मैं मन स्ट्रीट, बम्बई-२ १८. धर्म एटले शु? ०१५. । १९. परीक्षक बनो! ०-१५ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) २०. वक्तृत्वकला के बीज (भाग १ से १० तक) प्रत्येक भाग प्रकाशित ५ भाग प्रेम में ५ भाग समन्वय प्रकाशन द्वारा : मोतीलाल पारख पो. बाक्स नं० ४२, अहमदाबाद-२२ ५-५० संजय साहित्य संगम दास दिलिग न० ५, बिलोचपुरा, आगरा-२ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की अप्रकाशित रचनाएं हिन्दी : श्रीकालू कल्याणमन्दिरम् স্নান-নিধি श्रीभिक्ष शन्दानुशासन वृत्तिद्धिउपदेश-द्विपञ्चाशिका तनकरणम् उपदेश समनमाला गुजराती : जैनमहाभारत : गुर्जर व्याख्यान नापलि जैन रामायण गुर्जर भजन पुष्पावलि दोहा-मंदोह राजस्यानो : व्याख्यान मणिमाला औपदेशिक ढालें व्याख्यान रत्नमञ्जूषा कथा प्रवन्ध वैदिक विचार विमर्शन (बड़ा) ग्यारह छोटे व्याख्यान संक्षिप्त वैदिक विचार विमर्शन छः वड़े व्याख्यान संस्कृत बोलने का सरल तरीका धन वावनी संस्कृत : प्रास्ताविक डालें ऐक्यम् सर्वधा-शतक एकाह्निक कालूशतकम् सावधानी रो समुद्र देवगुरु धर्म द्वात्रिशिका पंजाबी: प्रास्ताविकश्लोक शतकम् पंजाब पच्चीसी भाविनी ।। ( १६ ) Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... " पंक्तृत्व-काला - बीज श्री धनमुनि "प्रथम" Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सर्वाधिकार सुरक्षित--प्रबन्ध-संपादक के लिए। वक्तृत्वकला के बीज भाग६ समन्वय-प्रकाशन सम्पाइन-सहयोग : स्व० श्री लालचंदजी येव (भादरा) प्रबन्ध-सम्पादक : मोतोलाल पारख प्रकाशक : बेगराज भंवरलाल चौरड़िया.. चैरिटेबल ट्रस्ट, ५, सोनागोग स्ट्रीट, कलकाता १ संस्करण: वि० सं० २०३० चैत्र सुदि १३ महावीर जयंती अप्रैल १९७३ २१०० प्रतियां मुद्रक : मूल्य : चार रूपया पचास पैसे संजय साहित्य संगम, आगरा-२ के लिएरामनारायन मेड़तवान श्री विष्णु प्रिंटिंग प्रेस राजा की मंडी, आगरा-२ । Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन जिज्ञासुओं को जिनको उबर-मनोभूमि में ये बीज अंकुरित पुष्पित फलित हो अपना विरादरूप प्राप्त कर सकें ! Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिकेन्द्र : श्री बेगराज भवरलाल चोरडियाचैरिटेबल ट्रस्ट, ५, सोनागोग स्ट्रीट कलकत्ता-१ श्री मोतीलाल पारख C/0दि अहमदाबाद लक्ष्मी काटन मिल्स, कं. लि. पो० बा० नं० ४२ अहमदाबाद-२२ श्री सम्पतराय बोरड़ Co मदनचंब संपतराय धोरण ४०, धानमंडी, श्रीगंगानगर (राजस्थान) Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन मानव-जीवन में वाचा की उपलब्धि एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । हमारे प्राचीन आचार्यों की दृष्टि में बाया ही सरस्वती का अधिष्ठान है, वाचा सरस्वती भिषग्वाचा ज्ञान की अधिष्ठात्री होने से स्वयं सरस्वतीरूप है, और समाज के विकृत आचार-विचाररूप रोगों को दूर करने के कारण यह कुशल वैद्य भी है । , अन्तर के भावों को एक दूसरे तक पहुँचाने का एक बहुत बड़ा माध्यम चाचा ही है। यदि मानव के पास वाचा न होती तो उसकी क्या दशा होती ? क्या वह भी मूकपणुओंों की तरह भीतर ही भीतर घुटकर समाप्त नहीं हो जाता ? मनुष्य जो गूँगा होता है, वह अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए कितने हाथ-पैर मारता है, कितना छटपटाता है, फिर भी अपना सही आशय कहां समझा पाता है दूसरों को ? बोलना वाचा का एक गुण है, किंतु बोलना एक अलग चीज है, और वक्ता होना वस्तुतः एक अलग चीज है। बोलने को हर कोई बोलता है, पर वह कोई कला नहीं है, किंतु वक्तृत्व एक कला है । वक्ता साधारण से विषय को भी कितने सुन्दर और मनोहारी रूप से प्रस्तुत करता है कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । वक्ता के बोल श्रोता के हृदय में ऐसे उतर जाते हैं कि वह उन्हें जीवन भर नहीं भूलता कर्मयोगी श्रीकृष्ण, भगवान् महावीर, तथागत बुद्ध, व्यास और भद्रबाहु आदि भारतीय प्रवचन- परम्परा के ऐस महान प्रवक्ता थे, जिनकी वाणी का १ यजुर्वेद १९ १२ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) नादी हजारों लाखों लोगों के हृदयों को साप्यायित कर रहा है । महाकाल की तूफानी हवाओं में भी उनकी याणी की दिव्य ज्योति न बुझी है और न बुझेगी । हर कोई वाचा का धारक, वाचा का स्वामी नहीं वन सकता | वाचा का स्वामी ही वाम्मी या वक्ता कहलाता है । वक्ता होने के लिए ज्ञान एवं अनुभव का आयाम बहुत ही विस्तुत होना चाहिए । विशाल अध्ययन, मनन-चिंतन एवं अनुभव का परिपाक वाणी को तेजस्वी एवं चिरस्थाई बनाता है। बिना अध्ययन और त्रिपय की व्यापक जानकारी के भाषण केवल भपण ( भोंकना ) मात्र रह जाता है, वक्ता कितना हो चीखे चिल्लाये, उछले कूदे यदि प्रस्तावित विषय पर उसका सक्षम अधिकार नहीं है, तो वह सभा में हास्यास्पद हो जाता है, उसके थ्यक्तित्व की गरिमा लुप्त हो जाती है । इसलिए बहुत प्राचीनयुग में एक ऋषि ने कहा था- वक्ता शतसहस्रेषु' अर्थात् लाखों में कोई एक वक्ता ; होता है । J शतावधानी मुनिश्री धनराजजी जैनजगत् के यशस्वी प्रवक्ता है। उनका प्रवचन, बस्तुतः प्रवचन होता है | श्रोताओं को अपने प्रस्तावित विषय पर केन्द्रित एवं मन्त्रमुग्ध कर देना उनका सहज कर्म है। और यह उनका वक्तृत्व एक बहुत बड़े व्यापक एवं गंभीर अध्ययन पर आधारित है । उनका संस्कृत प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं का ज्ञान विस्तृत है, साथ ही तलस्पर्शी भी ! मालूम होता है, उन्होंने पांडित्य को केवल हुआ भर नहीं हैं, किन्तु समग्रशक्ति के साथ उसे गहराई से अधिग्रहण किया है। उनकी प्रस्तुत पुस्तक 'वक्तृत्वकला के बीज' में यह स्पष्ट परिलक्षित होता है । प्रस्तुत कृति में जैन आगम, श्रीश्ववाङ्मय, वेदों से लेकर उपनिषद् ब्रह्मण, पुराण, स्मृति आदि वैदिक साहित्य तथा लोककथानक कहावतें, रूपक, ऐतिहासिक घटनाएं, ज्ञान-विज्ञान की उपयोगी चर्चाएँ - इस प्रकार श्रृंखलावरूप में संकलित हैं कि किसी भी विषय पर हम बहुत कुछ विचारसामग्री प्राप्त कर सकते हैं। सचमुच वक्तृत्वकला के अगणित बीज इसमें सन्निहित हैं। सूक्तियों का तो एक प्रकार से यह रत्नाकर ही है । अंग्रेजी Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य व अन्य धर्मग्रयों के उद्धरण भी काफी महत्वपूर्ण हैं । कुछ प्रसंग और स्थल सो ऐसे हैं, जो केवल सूक्ति और सुभाषिल ही नहीं है, उनमें विषय की तलस्पर्शी गहराई भी है और उसपर से कोई भी अध्येता अपने ज्ञान के आयाम को और अधिक व्यापक बना सकता है। लगता है. जैसे मुनिश्री जो बारू मय के रूप में विराट् पुरुष हो गए हैं । जहां पर भी दृष्टि पड़ती है कोई-न-कोई वचन ऐसा मिल ही जाता है, जो हृदय को छू जाता है और यदि प्रवक्ता प्रसंगतः अपने भाषण में उपयोग करे, तो अवश्य ही श्रोताओं के मस्तक झम उठेगे। प्रश्न हो सकता है—'क्क्तृत्वकला के बीज' में मुनिश्ची का अपना क्या है ? यह एक संग्रह है और संग्रह केवल पुरानी निधि होती है। परन्तु मैं कहूंगा-कि कूलों की माला का निर्माता माली जब विभिन्न जाति एवं यिभिन्न रंगों के मोहत पुष्पों की माला बनाता है तो उसमें उसका अपना क्या है ? विखरे फूल, फूल हैं, माला नहीं । माता का अपना एक अलग ही विलक्षण सौन्दर्य है । रंगबिरंगे फूलों का उपयुक्त चुनाव करना और उनका कलात्मक रूप में संयोजन करना -- यही तो मालाकार का काम है, जो स्वयं में एक विलक्षण एवं विशिष्ट कलाकम है । मुनिश्नी जी वक्तृत्वकला के बीज में ऐसे ही विलक्षण मालाकार हैं। विषयों का उपयुक्त चयन एवं तत्सम्बन्धित सूक्तियों आदि का संकलन इतना शानदार हुआ है कि इस प्रकार का संकलन अन्यत्र इस रूप में नहीं देखा गया। एक बात और–श्री चन्दनमुनिजी की संस्कृत-प्राकृत रचनाओं ने मुझे यथावसर काफी प्रभावित किया है। मैं उनकी विद्वत्ता का प्रशंसक रहा हूं। श्री धनमुनि श्री उनके बड़ भाई हैं—जब यह मुझे ज्ञात हुआ तो मेरे हर्ष की सीमाओं का और भी अधिक विस्तार हो गया । अन्न कैसे कहू कि इन दोनों में कौन बड़ा है और कौन छोटा ? अच्छा वही होगा कि एक को दूसरे से उपमित कर हूँ। उनको बहुश्रुतता एवं इनकी संग्रह-कुशलता से मेरा मन मुग्ध हो गया है। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( = } मैं मुनिश्री जी, और उनकी इस महत्वपूर्ण कृति का हृदय से अभिनन्दन करता हूं । विभिन्न भागों में प्रकाशित होनेवाली इस विराट् कृति से प्रबचनकार. लेखक एवं स्वाध्यायप्रेमीजन मुनि श्री के लिए ऋणी रहेंगे। वे जब भी चाहेंगे, वक्तृत्वकला के बीज में से उन्हें कुछ मिलेगा ही, बे रिक्तहस्त नहीं रहेंगे ऐसा मेरा विश्वास है । प्रवक्त- समाज - मुनिश्रीजी का एतदर्थं आभारी है और आभारी रहेगा । - जैन भवन आश्विन गुप्ता-३ आगरा -- उपधाम नमरमुनि Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल ममुख्य विभिन्न शक्तियों का स्रोत है। नहीं, वह अनन्तशक्तियों का स्रोत है। पर, जिन-जिन शक्तियों को अभिव्यक्त होने का समय और साधन मिल पाता है वही हमारे सामने विकसित रूप से प्रगट होती है, शेष अनभिव्यक्त रूप में अपना काम करती रहती हैं। संग्राहक शक्ति भी उन्हीं में से एक है, जो अन्वेषण-प्रषान है और दूसरों के लिए बहुत उपयोगी बन जाती है। मवक्षन का आस्थापन करना एक बात है, पर उसे दही में से मथकर निकालकर संग्रहीत करना एक विशिष्ट शक्ति है। पुनि श्री धनराजजी (सिरसा) में यह शक्ति अच्छी विकसित हुई है। शुरू से ही उनकी यह धुन रही है, आवत रही है, वे बराबर किसी न किसी रूप में खोज करते रहते हैं और फिर उसको संग्रहीत कर एक आकार दे देते हैं । यह साहित्य बन जाता है, जम-जन की खुराक बन जाता है। "वक्तृत्वकला के बीज" एक ऐसी ही कृति हमारे समक्ष प्रस्तुत है जो मुनि धनराजजी को संग्राहकशक्ति का एक विशिष्ट उदाहरण है। उसमें प्राचीन, अर्वाचीन अनेक ग्रन्थों का मन्थन है, अनेक भाषाओं का प्रयोग है। मूल उद्धरण के साथ हिन्दी अनुवाद देकर और सरसता उसमें साई गई है। १. मड़ा सुन्दर प्रयास है 1 अपनी वक्तृत्वकला का विकास चाहनेवाले वक्ता के लिए बहुत उपयोगी है यह ग्रन्थ, जो अनेक भागों में विभक्त है। मेरा विश्वास है--यह प्रयत्न बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय मिड होगा । -आचार्य तलसी । - rary. Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तृत्वगुण एक कला है, और वह बहुत बड़ी साधना की अपेक्षा करता है । आगम का ज्ञान, लोकव्यवहार का शान, लोकमानस का ज्ञान और समय एवं परिस्थितियों का ज्ञान तथा इन सबके साथ निस्पृहता, निर्भयता, स्वर की मधुरता, ओजस्विता आदि गुणों की साधना एवं विकास से ही वस्तुत्वकला का विकास हो सकता है, और ऐसे वक्ता प्रस्तुतः हजारों लाखों में कोई एकाध हो मिलते हैं। तेरापंथ के अधिशारत! युगप्रधान आचार्य श्रीतुलसी में वक्तृत्वकला के ये विशिष्ट गुण चमत्कारी उंग से विकसित हुए हैं। उनकी वाणी का जादू याताओं के मन-मस्तिष्क को आन्दोलित कर देता है । भारतवर्ष की सुदीर्घ पदयात्राओं के मध्य लाखों नर-नारियों ने उनकी ओजस्विनी वाणी सूनी है और उसके मधुर प्रभाव को जीवन में अनुभव किया है । प्रस्तुत पुस्तक के लेखक मुनिश्री धनराजजी भी वास्तव में वक्तृत्वकला के महान गुणों के धनी एक कुशल प्रवक्ता संत है। वे कवि भी हैं, गायक भी हैं, और तेरापंच शासन में सर्वप्रथम अवधानकार भी हैं। इन सबके साथ-साय बहुत बड़े विद्वान् तो हैं ही । उनके प्रवचन जहां भी होते हैं, श्रोताओं को अपार भीड़ उमड़ आती है । आपके विहार करने के बाद भी श्रोता आपकी याद करते रहते हैं। आपकी भावना है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी वक्तृत्वकला का विकास करे और उसका सदुपयोग करें, अत: जनसमाज के साभार्थ आपने वक्तृत्व के योग्य विभिल सामग्रियों का यह विशाल संग्रह प्रस्तुत किया है। Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { १० ) बहुत समय से जनता की विद्वानों की और वक्तृत्वकला के अभ्यासियों की मांग थी कि इस दुर्लभ सामग्री का जनहिताय प्रकाशन किया जाय तो बहुत लोगों को लाभ मिलेगा । जनता की भावना के अनुसार हमने मुनिश्री की इस सामग्री को धारना प्रारंभ किया । इस कार्य को सम्पन्न करने में श्री डूगरगढ़, मोमासर, भादरा, हिसार, टोहाना, उकसाना, कैथल, हांसी, भिवानी, तोसाम, ऊमरा, सिसाय, जमालपुर, सिरसा और भटिंडा आदि के विद्याथियों एवं युवकों ने अथक परिश्रम किया है । फलस्वरूप लगभग सौ कापियों में यह सामग्री सकलित हुई है । हम इस विशाल संग्रह को विभिन्न भागों में प्रकाशित करने का संकल्प लेकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुए है। परमथम आचार्य प्रवर ने पुस्तक के लिए अपना मंगल-संदेश देकर इस प्रयत्न को प्रोत्साहित किया—उनके प्रति मैं हृदय की असीम श्रद्धा व्यक्त करता हूं । तथा पुरानी बहता 'योगिता में पानी की प्रतिमा लिखी है जनसमाज के बहुश्र त विद्वान तटस्थ विचारक उपाध्याय श्री अमरमुनि जी ने । उनके इस अनुग्रह का मैं हृदय से आभारी हूं । इमके प्रकाशन का समस्त भार श्री बेगराज भंवरलाल जी चोरडिया, चरिटेबल ट्रस्ट, कलकत्ता ने वहन किया है, इस अनुकरणीय उदारता के लिए हम उनके अत्यंत आभारी हैं। इसको प्रकाशन एवं प्रूफ संशोधनमुद्रण आदि की समस्त ब्यवस्था 'संजय-साहित्य-संगम' के संचालक श्रीचन्द जी सुगना 'सरस' ने की है, तथा अन्य सहयोगियों का जो हार्दिक सहयोग प्राप्त हुआ है उसके लिए भी हम हृदय से कृतज्ञता-ज्ञापित करते हैं। आशा है वह पुस्तक जन-जन के लिए, वक्ताओं और लेखकों के लिए एक संदर्भग्रंथ (विश्लोग्राफी) का काम देगी और युग-युग तक इसका लाभ मिलता रहेगा।.... Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ त्म निवेदन 'मनुष्य की प्रकृति का बदलना अन्यन्त कठिन --यह मूक्ति मेरे लिए सवा सोलह आना ठीक साबित हई। बचपन में जब मैं बालकत्ता--श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंधी-विद्यालय में पढ़ता था जहाँ नक याद है, मुझे जलपान के लिए प्रायः प्रति-दिन एक आना मिन्नता था। प्रकृति में संग्रह करन की भावना अधिक थी, अतः मैं खर्च करके भी उसमें से कुछ न कुछ बचा ही लेता था। इस प्रकार मर पान कई रूपये इकटर हो गये थे और मैं उनको एक डिब्बी में रखा करता था। विक्रम संवत् १६७६ में अचानक गाताजी को मृ होने से विरक्त होकर हम (पिता थी केवलचन्द जी मैं, छोटी बहन दीपांजी और मोटे भाई चन्दनमल जी) परमकृपान् श्रीकालमणीजी के पास दीक्षिन हो गए । यद्यपि दीक्षित होकर रुपयों-पैसों का संग्रह छोड़ दिया, फिर भी संग्रहृत्ति नहीं घट सकी । वह धनसंग्रह से हटकर ज्ञानसंग्रह की ओर झुक गई। श्री कालुगणो के चरणों में हम अनेक बालक मुनि आगम-व्याकरण-काव्य-कोष आदि पढ़ रहे थे। लकिन मेरी प्रकृति इस प्रकार की बन गई थी कि जो भी दोहा-छन्द-लोकहान-ध्याख्यान-कथा आदि गुमने या पढ़ने में अच्छे लगतं, मैं तत्काल उन्हें लिन लता या संसार-पक्षीय पिताजी ने निम्नवा लेता। फलस्वरूप उपरोक्त सामग्री का काफी अच्छा संग्रह हो गया। उन देरदकर अनेत्र मुनि विनोद की भाषा में कह दिया करते थे कि न तो न्यारा में जाने की अलग बिहार करने की तैयारी कर रहा है ।" उत्तर में मैं कहा करता—क्या आप मारंटी दे सकते हैं कि इलने (१० या १५) माल तक आचार्य श्री हमें अपने साथ ही Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखेंगें ? क्या पता, कल ही अलग विहार करने का फरमान करदें ! व्याख्यानादि का मंग्रह होगा तो धर्मोपदेण या धर्म-प्रचार करने में सहायता मिलेगी। समय-समय पर उपरोक्त सायी मुनियों का हास्य-विनोद चल ही रहा था कि वि० सं० १६८६ में श्री कानुगणी ने अचानक ही श्री केवलमुनि को अग्नगण्य बनाकर रतननगर (थनासर) चातुर्मास करने का हम दे दिया । हम दोनों भाई (मैं और वन्दन भुनि) उनके साथ थे । व्याख्यान आदि का किया जा संग उरा मानना कम माया चं भविष्य के लिए उत्तमोनम ज्ञान संग्रह करने की भावना बलवती बनी। हम कुछ वर्ष तक पिताजी के साध विचरत रहे । उनके दिवंगत होने के पश्चात् दोनों भाई अग्नगण्य के रूप में पृथक्-पृथक् विहार करने लगे। विशेष प्रेरणा-एक बार मैंने 'वक्ता बनो नाम की पुस्तक पढी। इसमें वक्ता बनने के विषय में खामी अच्छी बातें बताई हुई थीं। पढ़ते-पढ़ते पढ् पंक्ति दृष्टिगोचर हुई कि "कोई भी ग्रन्थ या शारक गढ़ो, उसमें जो भी बात अपने नाम की नगे, उसे तत्काल लिख लो।" इस पंक्ति में मेरी संग्रह करने की प्रवृत्ति को पूत्रपिक्षया अत्यधिक तेज बना दिया । मुझे कोई भी नई युक्ति, सूनि, या कहानी मिलती, जम तुरन्त लिम्न लता । फिर जो उनमे विशेष उपयोगी लगती, उसे औपदेशिक भजन, स्तधन या व्याख्यान के रूप में गूध लेता । इस प्रनि के कारण मेरे पास अनेक भाषाओं में निबद्ध स्वरचित सैकड़ी भजन और सैकड़ो च्याग्डयान इकट्ठे हो गए । फिर जन-कथा साहित्य एवं नात्त्विकसाहित्य की ओर रुचि बड़ी । फलस्वरूप दोनों ही विषयों पर अनेक पुस्तकों की रचना हुई । उनमें छोटी-बड़ी लगभग २० पुस्तके तो प्रकाश में आ चुकीं, शेष ३०-३२ अप्रकाशित ही हैं।। एक बार संगृहीत सामग्री के विषय में यह सुझाव आया कि यदि प्राचीन संग्रह को व्य त्रस्थित करके एक ग्रन्ध्र का रूप दे दिया जाए, तो यह उत्कृष्ट उपयोगी चीज बन जाए। मैंने इस सुझाव को स्वीकार किया और अपने प्राचीन-संग्रह को व्यवस्थित करने में जुट गया। लेकिन पुराने संग्रह में फौन-सी सूक्ति, श्लोक या हेतु किस ग्रन्थ' या शास्त्र के हैं अथवा किस कषि, Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बक्ता या लेखफ के है—यह प्रायः लिखा हुआ नहीं था। अतः ग्रन्थों या शास्त्रों आदि की साक्षियां प्राप्त करने के लिए इन आठ-नौ वर्षों में वेद, उपनिषद्, इतिहास, स्मृति, पुराण, कुरान, बाइबिल, जनशास्त्र, बौद्धशास्त्र, नीतिशास्त्र, बैद्यकशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, शकूनशास्त्र, दर्शन-शास्त्र, संगीत शास्त्र तथा अनक हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, राजस्थानी, गुजराती, मराठी एवं पंजाबी मूक्तिसंग्रहों का ध्यानपूर्वक यथासम्भव अध्ययन किया । उससे काफी नया संग्रह बना और प्राचीन संग्रह को साक्षी सम्पन्न बनाने में सहायता मिली । फिर भी खेद है कि अनेक सूक्तियां एवं श्लोक आदि बिना साक्षी के ही रह गए। प्रयत्न करने पर भी उनकी साक्षियां नहीं मिल सकी। जिनजिन की साक्षियां मिली है, उन-उनक आग वे नभा दो गई है। जिनकी साक्षियां उपलब्ध नहीं हो सकी, उनके आगे स्थान रिक्त छोड़ दिया गया है। कई जगह प्राचीन संग्रह के आधार पर केवल महागारत, वाल्मीकिरामायण, योग-शास्त्र आदि महान् ग्रन्थों के नाममात्र लगाए हैं, अस्तु ! इस ग्रन्थ के संकलन में किसी भी मत या सम्प्रदाय विशेष का खण्डनमाड़न करने की दृष्टि नहीं है, केवल यही दिखलाने का प्रयत्न किया गया है कि कौन क्या कहता है या क्या मानता है ? यद्यपि विश्व के विभिन्न देश निवासी मनीषियों के मतों का संकलन होने से ग्रन्थ में भाषा की एकरूपता नहीं रह सकी है। कहीं प्राकृत-संस्कृत, पारसी, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा है तो कहीं हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, पंजाबी और बंगाली भाषा के प्रयोग हैं, फिर भी कठिन भाषाओं के श्लोक, वाश्य आदि का अर्थ हिन्दी भापा में कर दिया गया है। दूसरे प्रकार से भी इस ग्रन्थ में भाषा की विविधता है । कई ग्रन्थों, कवियों, लेखकों एवं विचारकों ने अपने सिद्धान्त निरवद्यभाषा में व्यक्त किए हैं तो कई साफ-साफ सायद्य भाषा में ही बोले हैं । मुझं जिस रूप में जिसके जो विचार मिले हैं, उन्हें मैंने उसी रूप में अंकित किया है लेकिन मेरा अनुमोदन केवल निर्वद्य-सिद्धान्तो के साथ है। ग्रन्थ को सर्वोपयोगिता—इस ग्रन्थ में उच्चस्तरीय विद्वानों के लिए जहाँ जैन-बौद्ध आगमों के गम्भीर पद्य हैं, वेदों, उपनिषदों के अद्भुत मंत्र हैं, Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ( १४ स्मृति एवं नीति के हृदयग्राही श्लोक हैं, वहाँ सर्वसाधारण के लिए सीधी-सादी भाषा के दोहे, छन्द, सूक्तियां, लोकोक्तियां, हेतु दृष्टान्त एवं छोटी-छोटी कहानियाँ भी हैं । अतः यह ग्रन्थ निःसंदेह हर एक व्यक्ति के लिए उपयोगी सिद्ध होगा ऐसी मेरी मान्यता है । बक्ता, कवि और लेखक इस ग्रन्थ से विशेष लाभ उठा सकेंगे, क्योंकि इसके सहारे वे अपने भाषण काव्य और लेख को ठोस, सजीव, एवं हृदयग्राही बना सकेंगे एवं अद्भुत विचारों का विचित्र चित्रण करके उनमें निखार ला सकेंगे, अस्तु ! ग्रन्थ का नामकरण — इस ग्रन्थ का नाम 'वक्तृत्वकला के बीज' रखा गया है । अतृत्वकला की उपज के निमित्त यहां केवल बीज इकट्ठे किए गए हैं। बीजों का बनकर कर बता [ बीज बोनेवालों ] की भावना एवं बुद्धिमत्ता पर निर्भर करेगा। फिर भी मेरी मनोकामना तो यही है कि बप्ता परमात्मपदप्राप्तिरूप फलों के लिए शास्त्रोक्तविधि से अच्छे अवसर पर उत्तम क्षेत्रों में इन बीजों का वपन करेंगे । खस्तु ! - यहां मैं इस बात को भी कहे बिना नहीं रह सकता कि जिन ग्रन्थों, लेखों, समाचार पत्रों एवं व्यक्तियों से इस रन्थ के संकलन में सहयोग मिला हैवे सभी सहायक रूप से मेरे लिए चिरस्मरणीय रहेंगे । विषयों का सकलन आचार्यश्री तुलसी फरमाया कि यह ग्रन्थ कई भागों में विभक्त है एवं उनमें सैकड़ों है । उक्त संग्रह बालोतरा मर्यादा महोत्सव के समय मैंने को भेंट किया। उन्होंने देखकर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की एवं इसमें छोटी-छोटी कहानियाँ एवं घटनाएँ भी लगा देनी चाहिये ताकि विशेष उपयोगी बन जाएं। आचार्यश्री का आदेश स्वीकार करके इसे संक्षिप्त कहानियाँ तथा घटनाओं से सम्पन्न किया गया । मुनि श्री चन्दनमलजी, डूंगरमलजी, नथमलजी, नगराज जी, मधुकरजी, राकेशजी, रूपचन्दजो आदि अनेक साधु एवं साध्वियों ने भी इस ग्रन्थ को विशेष उपयोगी माना । बोवासर महोत्सव पर कई संतों का यह अनुरोध रहा कि इस संग्रह को अवश्य घरा दिया जाए ! Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व प्रथम वि० स०,२३ में श्री डूंगरगढ़ के श्रावकों ने इसे धारना शुरू किया । फिर थली, हरियाणा एवं पंजाब के अनेक ग्रामों-नगरों के उत्साही युवकों के तीन वर्षों के अधकपरिश्रम से धारकर इसे प्रकाशन के योग्य बनाया। मुझे दृढ़ विश्वास है कि पाठकगण इसके अध्ययन, चिन्तन एवं मनन से .. अपने बुद्धि वैभव को क्रममाः बढ़ात जायेंगे-- वि० सं० २०२७, मृगसर बदी ४ मङ्गलवार, रामामंडी, (पंजाब) --श्रममुनि 'प्रथम' Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पहला कोष्ठक : पृष्ठ १ से ६३ तक १ सज्जन (सत्पुरुष), २ सज्जनों का स्वभाव, ३ सजनों के स्वभाव की निश्चलता, ४ सत्संगति, ५ मत्संगति का प्रभाव, ६ दुर्जन (बुट), ७ दुर्जनों का स्वभाव, , दुर्जनसंग-परित्याग, कुसंगति का असर, १० कुसंगति से हानि, ११ दुष्टों का सुधार कादिन, १२ दुर्जनों के माय व्यवहार, १३ धूर्तदगाबाज, १४ ढोंग और होंगी, १५ सज्जन-दुर्जन का अन्तर, १६ भलाईसज्जनता, १७ बुराई-दुर्जनता, १८ भलाई बुराई की अमरता, १६ संगति के अनुसार गुण-दोप, २० महान्पुरुप-महात्मा, २१ महापुरुषों का पराक्रम, २२ महान पुरुषों के विषय में विविध, २३ महापुरुषों का सम्पर्क, २४ बड़ा मादमी और बड़प्पन, २५ उत्तमपुरुष, २६ उत्तमपुरुषों का स्वभाव, २७ अधम (नीच) पुरुष, २८ शारीरिक दोष पर आधारिन अधमता, २६ धीर-पुरुष, ३० धैर्य, ३१ उत्तावल, ३२ तेजस्वीपुरुष, ३३ समर्थपुरुष, ३४ शूरवीर पुरुष, ३५ क्रायर, ३६ शूरता और काथरता, ३७ बलवान व्यक्ति ३८ अद्भुत बलिष्ट व्यक्ति, ३६ निर्मन, ४० बल-पराक्रम, ४१ कुलीन पुरुष । दूसरा कोष्ठक : पृष्ठ १४ से १७४ तक १ गुण, २ गुणों का महत्व, ३ विभिन्न प्रकार के गुण, ४ गुणों का नाश एवं प्रकाश, ५ गुणज, ६ गुणी, ७ गुणग्राहक बनो ! ८ गुणग्राही के अभाव में, है गुणहीन, १० गुणहीन नाम, ११ दोष, १२ स्वदोप, १३ पर-दोष, १४ गुणों में दोष १५ दृष्टि-दोष एवं उसके आश्चर्य, १६ उपकार (अहसान), १७ परोप- . कार, १८ प्रत्युपकार (उपकार का बदला), १६ कृतज्ञता और कृतज्ञ, २० परोपकारी, २१ निरूपकारी, २२ कृतघ्न, २३ उदार और उदारता, २४ दाता, Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ दासा के उदाहरण, १६ दान, २७ दान की महिमा, २८ दान की प्रेरणा, २६ दान में विवेक,३० दान के भेद,३१ अभयदान, ३२ सुपात्रदान,३३ कुपात्रदान, ३४ पात्र-कुपात्र, ३५ ज्ञानदान, ३६ कृपण, ३७ याचक, ३८ याचना । तीसरा कोष्ठक : पृष्ठ १७५ से २३४ १ धन,२ धन की भूख, ३ धन का प्रभाव, ४ धन का उत्पादन, ५ धन का उपयोग,६ धन का खजाना अमेरिका में, धन के विविधरूप, धन की निंदनोयता, १ अन्याय का धन,१० न्यावाजित धन,११ वास्तविक धन, १२ समी, १३ लक्ष्मी का मुल आदि, १४ लक्ष्मी को नश्वरता एवं अस्थिरता, १५ लक्ष्मी का निवास, १६ लक्ष्मो के अप्रिय स्थान, १७ लक्ष्मी के विकार, १८ धनवान, १९ दुनिया के बड़े धनी, २० धनिकों की स्थिति, २१ निर्धन और निर्धनता, २२ गरीब और गरीबी, २३ गरीबी के चित्र, २४ दरिद्र, २५ दरिद्रता, २६ काय, २७ व्यय, २८ अपव्यय निषेध, २६ ऋण (कर्ज), ३. उधार, ३१ संग्रह, ३२ व्याज । चौथा कोष्ठक : पृष्ठ २३५ से ३१६ तक १ आत्मा, २ आत्मा का स्वरूप, ३ आत्मा की शाश्वतता आदि, ४ मात्मा का कर्तृत्व, ५ आत्मा का दर्शन, ई आत्मा का ज्ञान, ७ आत्मज्ञ, ८ आत्मरक्षा, E आत्मरक्षक, १० आत्मसम्मान, ११ आत्मविश्वास, १२ आत्मप्राप्ति, १३ आत्मशुद्धि, १४ बात्मदमन, १५ आत्मविजय, १६ आत्मचिन्सन, १५ आत्मा की महिमा,१८ आत्मा के भेद, १६ इन्द्रिय, २० इन्द्रियों की शक्ति, २१ इन्द्रियदमन , २२ जितेन्द्रिय, २३ कान और बधिरता, २४ आँख,२५ अन्धा, २६ जिह्वा, २७ मन, २८ गन का स्वभाव, २६ मन के आश्रित बन्ध-मोक्षादि, ३० मन की मुख्यता, ३१ मन के बिना कुछ नहीं, ३२ मनःशुद्धि, ३३ मनःशुद्धि दुष्कर, ३४ मनःशुद्धि के अभाव में, ५ मन की शिक्षा, ३६ मनोनिग्रह, मनोनिग्रह के मार्ग, ६८ मनोनिग्रह से लाभ, ३६ मन का तार, ४० विलपाखर-दृढ़संक्राल्प, ४१ मन की उपमाएँ, ४२ मन के विषय में विविध । चारों कोष्ठकों में कुल १५३ विषय तथा वस भागों में लगभग १५०० विषय एवं उपविषय हैं। - - - - Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ २२३ २२७ वक्तृत्वकला के बीज [ भाग ६ ] अकारादि क्रम-विषयानुक्रमणिका अद्भुतबलिष्ठ व्यक्ति आत्मा की महिमा २६६ अधम (नीच) पुरुष आत्मा की शाश्वतता अन्धा २६३ आदि अन्याय का धन आय अपव्यय-निषेध इन्द्रिय २७२ अभयदान १५४ इन्द्रिय-दमन २७६ आत्मचिन्तन २६४ इन्द्रियों को शक्ति २७४ आत्मदमन उन्म-युग्म मात्मप्राप्ति २५६ उत्तम पुरुषों का स्वभाव ६३ आरमरक्षक २५२ उत्तावल यात्मरक्षा उदार और उदारता १३८ आत्मविजय उधार २३० आत्मविश्वास उपकार (अहसान) आत्मसम्मान २५३ कान और बधिरता आत्मशुद्धि कायर आत्मज आख कृतज्ञता और कृतज्ञ आत्मा कृपण आत्मा का कतत्व कुपात्रदान आत्मा का दर्शन कुलीन-पुरुष आत्मा का स्वरूप कुसंगति का असर आत्मा के भेद २७० कुसंगति से हानि आत्मा का ज्ञान गरीब और गरीबी २५० २६२ २५४ to ૨૭ tel E कृतन २४१ E २३७ २१५ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरीबी के चित्र २१७ गुण ६४ गुणग्राहक बनो ! १०६ गुणग्राही के अभाव में १११ उपय १९३ गुणशून्य नाम ११४ गुगज १०३ गुणी १०४ गुणों का नाश एवं प्रकामा १०२ ६ गुणों का महत्व गुणों में दोष जितेन्द्रिय जिह्वा ढोंग और ढोंगी तेजस्वी पुरुष दरिद्र दरिद्रता दाता दाता के उदाहरण दान दान की प्रेरणा दान को महिमा दान के भेद दान में विवेक दृष्टिदोष एवं उसके आश्चर्य दुर्जन (दुष्ट) १२३ २५८ २८५ ३३ ७५ २१६ २२१ १३६ १४२ १४३ १४६ ક્** १५२ {૨ { १२४ १५ } दुर्जनों का स्वभाव दुर्जनों के साथ व्यवहार दुर्जन संग परित्याग दुनियाँ के बड़े धनी १६ दुष्टों का सुधार कठिन दोष धन न का खजाना (अमेरिका में) धन का उत्पादन न का उपयोग धन की निन्दनीयता धन का प्रभाव धन की भूख धनवान धन के विविधरूप धनिकों को स्थिति धीरपुरुष धूर्त- दगाबाज धैर्य न्यायाजित धन निर्धन और निर्धनता निर्बल निरुपकारी प्रत्युपकार- उपकार का बदला परदोष १५ २६ २२ २१० २७ ११६ १७५ १८३ १८० १५१ १६१ १७८ १७६ २०५ १८४ २१२ ६८. ३१ ७० १९५. २१३ पद १३५ १३० १२१ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ) it 06 २०३ { परोपकार परोपकारी पात्र-कुपात्र व्याज बड़ा आदमी और बहरापन बलवान व्यक्ति बन-परानाम बुरा दुर्जनता भलाई सिज्जनता) भनाई और बुराई की अमरता ४ मन मनका तार मनका स्वभाव मनके आथित बन्ध-मोक्षादि २९६ मन के बिना कुछ नहीं ९७ मन के विषय में विविध ३१६ मन की उपमाएँ मन की मुख्यता मन की शिक्षा मनोनिग्रह मनोनिग्रह के मार्ग मनोनिग्रह से लाभ मनःशृद्धि मनःशुद्धि के अभाव में मनःशुद्धि दृष्कर महापुरुषों का पराक्रम महापुरुषों का सम्पर्क महान्पुरुषों के विषय में विविध ५५ महान् पुरुष-महात्मा ४६ याचक याचना १७१ ऋण (कर्ज) २२८ लक्ष्मी लक्ष्मी का निवास लक्ष्मी का मूल आदि लामी की नश्वरता एवं अस्थिरता लक्ष्मी के अप्रियस्थान लक्ष्मी के विवार व्यय वास्तविक धन विभिन्न प्रकार के गुण क्लिपावर-दृढ़संकल्प ३१२ शारीरिकदोष पर आधारित अधमता शूरता और कायरता शूरवीर पुरुष स्मदोष मज्जन (सत्पुरुष) राज्जाद-दुर्जन वा अन्सर सज्जनों का स्वभाव सत्संगति सज्जनोंके स्वभावकी निचलता सत्संगति का प्रभाव समर्थपूरुष २३२ गति के अनुसार गुण-दोष ४५ सुपात्रदान ज्ञानदान २६४ 4 D Mrma OF ' ० ० ८ ० M' Or ० ७७ ४ मंग्रह ४ ट्र Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग छठा वक्तत्वकला के बीज Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान् पुरुष-महात्मा १. अक्षोभ्यतैव महता, महत्त्वस्य हि लक्षणम् । —कयासरित्सागर प्रतिकूल परिस्थिति में क्षुब्ध न होना, महापुरुषों की महत्ता का लक्षण २. निर्दम्भता सदाचारे, स्वभावो हि महात्मनाम् । महापुरुषों का यह स्वभाव है कि वे अपने सदाचरणों पर बनावटीपन नहीं आने देते। २. विवेकः सह संपत्या, विनयो विद्यया सह । प्रभुत्वं प्रश्रयोपेतं, चिह्नमेतन्महात्मनाम् ॥ —सुभाषितररम-भागागार, पृष्ठ ४७ संपत्ति के साथ विवेक का होना, विद्या के साथ विनय का होना और प्रभुत्व के साथ प्रनय-विनय का होना-ये महात्माओं के लक्षण हैं । ४. विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि बाक्पटुता युधिविक्रमः । यशसि चाभिरुचिप्सनं श्रु तो, प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।। --भतृहरि-नौतिशतक ६३ विपत्ति में धर्म, ऐश्वर्य में सहिष्णता, सभा में वचन की चतुराई, संग्राम में पराक्रम, सुयश में रुचि, शास्त्रपठन में व्यसन-ये बातें महात्माओं में स्वाभाविक होती है। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज १५. करे इलाध्यस्त्यागः शिरसि गपाप्रशमनं, मुखेसत्या वाणी विजयिभुजयो:र्यमतुलम् । हृदि स्वच्छावृत्तिः थतमधिगतंकवतफलं, विनाप्येश्वरग प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ।। -भत हरि-नीतिशतक ६५ हायों में सुपात्रदान, मस्तक पर गुरुजनों के चरणों का अभिवादन, मुम्न में सत्यवचन, विजयी भुजाओं में अतुल पराक्रम, हृदय में स्वच्छ भावना और कानों में शास्त्रों का श्रवण । लो प्रकृति से महापुरुष होते हैं, उनके ये सब गुण विभा ऐश्वर्य के आभूषण हैं। ६. पाषाणरेखेव प्रतिपन्न महात्मनाम् । महात्माओं द्वारा लिया हुआ प्रण पत्थर की रेखा की तरह अमिट होता है। ७. न कालमतिवर्तन्ते, महान्तः स्वेषुकर्मधु । --पोगवाशिष्ठ ५।१०६ महापुरुष अपने कार्यों में कलातिनाम नहीं होने देते अर्थात् समय के पाबन्द होते हैं। ८. मनस्वी म्रियते कामं, कार्पण्यं न तु गच्छति । अपि निर्धारणमायाति, नानलो याति शीतताम् ।। -हितोपदेश १।१३३ महापुरुष मर जाते हैं, किन्तु कृपणता कभी नहीं करते । आग बुझ जाती है परन्तु शीतल कभी नहीं होती। 1. संपत्तौ च विपत्तौ च, महतामेकरूपता। उदये सविता रक्तो, रक्तोऽस्तसमये तथा ।। ....-पञ्चतन्त्र २७ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Li छठा भाग पहला कोष्ठक R महापुरुष संपत्ति और विपत्ति में एकरूप रहते हैं। देखो ! सूर्य उदय होने के समय भी लाल रहता है और अस्त होने रहता है । के समय भी लाल १०. अहो किमपि चित्राणि विचित्राणि महात्मनाम् । लक्ष्मी तृणाय मन्यन्ते तद्भारेण नमन्त्यपि ॥ " - देवेश्वर महापुरुषों के चित्र कुछ विचित्र हो होते हैं। वे लक्ष्मी को तृण के समान समझते हैं, पर लक्ष्मी के भार से नम भी जाते हैं । १४. हिताय नाहिताय स्याद् महान् संतापितोऽ हि । रोगापहाराय भवेदुष्णीकृतं पयः ॥ पश्य ! महापुरुष संतापित होकर भी हितकारी ही होता है, अहितकारी नहीं होता | देखो ! अग्नि में गर्म कर लेने पर भी दूध रोगनाशक होता है । २. दुर्जनवचनाङ्गारं दग्धोऽपि न विप्रियं वदत्यायैः । मानोऽप्यगुरुः, स्वभावगन्धं परित्यजति ॥ नहि - प्रसङ्गरत्नावली ‍ २३. संपत्सु महता चित्त भवत्युनलम् । आपत्सु च महाशैल - शिला संघातकर्कशम् || - दृष्टों के अंगारों से जला हुआ भी आर्यपुरुष कभी अप्रिय नहीं बोलता | जैसे - जलता हुआ भी अगर तूप अपनी सुगन्ध नहीं छोड़ता । मतृहरि नीतिशतक ६६ संपत्ति के समय महात्माओं का चित्त कमलवत् कोमल रहता है और आपत्ति के समय महान् पर्वत की शिलाओं के समूहवत् कठोर हो जाता है । तत्त्व यह है कि संपत्ति में से अभिमान नहीं करते और आपति में बबड़ाते नहीं । Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के मीज १४. गवादीनां पयोऽन्येद्य, सद्योवा जायते दधि । क्षीरोदधेस्तु नाद्यापि, महतां विकृतिः कुतः ।। —देवेश्वर गाय आदि का दूध दूसरे ही दिन दही बन जाता है, किन्तु क्षीर-समुद्र का . जल आज तक दही नहीं बन सका ; क्योंकि बड़ों में विकार नहीं आता । १५. महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः । -शिशुपालवध २।१३ महान्पुरुष स्वभाव से ही मितभाषी (कम बोलनेवाले) होते हैं। १६. महापुमांसो गर्भस्था, अपि लोकोपकारिणः। --त्रिषष्ठि-शसाकाषचरित्र २।२ महापुरुष गर्भ में होते हुए भी लोकोपकारी होते हैं । १७. बड़े सनेह लघुन पर करहीं, गिर निज सिरन सदा तृन धरहीं। निजगुन श्रवन सुनत सकुचाहीं, परगुन सुनत अधिक हषाहीं ।। --रामचरितमानस १८. दोषाकरोपि, कुटिलोपि कलङ्कितोपि, मित्रावसानसमये विहितोदयोपि । चन्द्रस्तथापि हरवल्लभतामुपैति न ह्याश्रितेषु महतां गुण-दोषचिन्ता ॥ -चन्वचरित्र, पृष्ठ ७५ चन्द्रमा दोषा-रात्रि का करने वाला है, कुटिल है, कलसहित है, मित्रसूर्य के अस्त होने पर उदय होनेवाला है। फिर भी महादेव को प्रिय लगता है ; क्योंकि महापुरुष आश्रितों के गुण-दोषों का विचार नहीं करते। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i २१ १. विजेतव्या लङ्का चररणतरणीय जलनिधि-विपक्षो लङ्केशी रणभुवि सहायाश्च कपयः । तथाप्येको रामः सकलमबधीद् राक्षसकुलं, क्रियासिद्धिः सत्वे वसति महतां नोपकरणे । 1 - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ५४ लंका पर विजय पानी थी, समुद्र पैरों से तैरना था, रावण जैसा दुश्मन था, रणभूमि के सहायक केवल वानर थे । इतने पर भी अकेले राम ने राक्षसकुल को नष्ट कर दिया। क्योंकि महापुरुषों के पराक्रम में ही उनकी कार्यसिद्धि रहती है, सहायक उपकरणों में नहीं । २. रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिता सप्ततुरगा, निरालम्बो मार्गश्चरणरहितः सारथिरपि 1 ब्रजत्यन्तं सूर्यः प्रतिदिनमपारस्य नभसः, क्रियासिद्धिः सत्त्वे वसति महतां नोपकरणे ॥ - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ५४ महापुरुषों का पराक्रम सांप लिपटे हुए हैं, इतने पर भी सूर्य रथ के पहिया एक है, घोड़े साल हैं, जिनके पैरों में भागं निरालम्ब आकाश है एवं सारथी पांगला है । प्रतिदिन अपार आकाश को पार कर देता है । कारण यही पुरुषों के पराक्रम में ही उनकी कार्यसिद्धि रहती है, सहायक उपकरणों में नहीं । है कि महा ३. अनुकुरुते धनध्वनि, नहि गोमायु-रुतानि केसरी । ५३ -- शिशुपालवध Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धक्तृत्वकला के बोज सिंह मेघ के पीछे गर्जा करता है, किन्तु गीदड़ के पीछे नहीं। ऐसे ही बड़े आदमी छोटों के साग न एलझते ! ४. तृणानि नोन्मूलयति प्रभजनो, मृदुनि नीचेः प्रणतानि सर्वतः । समुच्छ तानेव तरून प्रबाधते, महान महत्वव करोति विक्रमम् ।। -हितोपदेशा २१८८ नीचे की ओर झुके हुए कोमल तृणों को वायु नहीं उग्वाङ्गती, यह तो उच्ख लता से खड़े हुए वृक्षों का ही उन्मूलन करती है, क्योंकि बड़ा-बड़े · के सामने ही अपना पराक्रम दिखाता है। ५. ग्राम्याकर ने सिंह से कहा-मेरे साथ युद्ध कर, अन्यथा में सबसे वह दूंगा कि मैंने सिंह को जीत लिया। सिंह ने उत्तर दिया गच्छ शुकर ! भद्रं ते, वद सिंहो जितो मया। पण्डिता एवं आनन्ति, सिंह-शुकरयोर्वलम् ॥ -दृष्टान्तशतक शूकर ! तेरा कल्याण हो । जा, भले ही कहदे कि मैंने सिंह को जीत लिया । विद्वान्, सिंह और सूअर के बल को जानते हैं। ६. सुर-मिल्टन अंधे थे, कर्ण-ईशा में वंश की कमी थी, अष्टावक, चाणक्य, सुकरात व धनार्डशा में रूप की कमी थी, नेपोलियन और हिटलर में धन एवं प्रतिष्ठा की कमी थी ; किन्तु इन महापुरुषों ने कभी अपने में कमी महसूस नहीं की। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ महापुरुषों के विषय में विविध १. कुछ व्यक्ति जन्मजात महान है, कुछ महानता प्राप्त करते हैं और कुछ पर महानता बाद दो जाती है । - शेक्सपियर ९. ऐसा कोई वास्तव में महान व्यक्ति नहीं हुआ, जो वास्तव में सदाचारी न रहा हो । - फ्रक लिन ३. संसार के इतिहास में कभी भी काफी सुलभे हुए आदमी सभी जगह नहीं हुए । ४. न खलु परमाणोरल्पत्वेन महान् मेरुः किन्तु स्वगुन । मेरु पर्वत अपने गुण से महान है, परमाणु के ५. कोई भी व्यक्ति अनुकरण - गात्र से आज तक महान् नहीं हुआ । - नीतिवाक्यामृत २२०१६ छोटापन से नहीं । : ६. पानी जैसा चंचल व्यक्ति, कभी महान् नहीं होता । -विज्म ጸን - सेमुएल जॉनसन ७. निकट जाने से पत्ता लगता है कि महापुरुष केवल मानव ही हैं अतएव निकटवर्ती व्यक्तियों को वे कभी महान् प्रतीत नहीं होते । - लाये Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ८. महान व्यक्ति हमें महान इसलिए लगते हैं कि हम घुटनों पर टिके --स्टर्नर ६. परिमाण किसी भी व्यक्ति एवं राष्ट्र की महानता की निकृष्टतम कसोटी है । -जवाहरलाल नेहरू १०. महान दोषों से संपन्न होना भी महान पुरुषों का ही अधिकार है। -रोशफूको ११. विश्व को महान पुरुषों की भावश्यकता है, किन्तु उनके पुजारियों एवं खुशामदियों की नहीं। -बीरजी १२. महानुपुरुष वही है, जो कहने से पहले करके दिखाता है ! --कन्पपूसियस १६. मनुष्य को तुच्छ (छोटी) बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए ; यदि वह । उन्हीं में फसा रहेगा तो बड़े काम कब करेगा एवं महान कब बनेगा। -कन्फ्यूसियस १४. किसी महापुरुष को तब तक महान् नहीं समझना चाहिये, जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो जाती। १५. स्वामी रामतीर्थ (जब कालेज में प्रोफेसर थे) ने काले पट्टे (दीन बोर्ड) पर लकीर खींच कर कहा-इसे छोटी बनाओ। तब एक लड़का उसे मिटाने लगा, स्वामी जी ने कहा-मिटाओ मत ! सभी छात्र स्तब्ध थे । इतने में एक बुद्धिमान लात्र ने उस लकीर के नीचे घड़ी लकीर खींच दी एवं वह छोटी बन गई । तत्त्व यह है कि दूसरों को मिटाओ मत, अपने गुणों को बढ़ाकर महान् बनो। Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : पहला कोष्ठक १६. गजानां पङ्कमग्नानां गजा एव धुरंधराः पंकनिमग्न हाथियों का उद्धार हाथी हो कर सकते हैं, इसी प्रकार महापुरुषों की सहायता महापुरुष ही कर सकते हैं । १७. महानता के विघातक दोष- आलस्यं स्त्री-सेवा, सरोगता जन्मभूमिवात्सल्यम् ! सन्तोषो भीरुत्वं षड् व्याघाता महत्त्वस्य ॥ आलस्य, स्त्री-सेवा, अस्वस्थ छह दोष महानता का नाश करनेवाले हैं । ५७ - हितोपदेश १५ भूमि से मस और गये * Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ १. महत्सङ्गस्तु दुर्गामोऽगम्योऽमोधश्च । महापुरुषों का सम्पर्क महात्माओं का सङ्ग दुर्लभ, अगम्य और अमोध है । २. महाजनस्य संमर्गः कस्य नोन्नतिकारकः ? पद्मपत्रस्थितं वारिधत्त मारकर्ति द्युतिम् । -वतन्त्र ३।५६ महापुरुषों का संसर्ग किसे उत्रत नहीं करता ? देखो कमलपत्र पर ठहरा हुआ जलबिन्दु मरकतमणिवत् चमकने लगता है। ३. कीटोऽपि सुमनःसंगा - दारोहति सतां शिरः । अमायाति देवत्वं महद्भिः सुप्रतिष्ठितः ॥ 1 r -भक्तिसूत्र ३६ - हितोपदेश प्रास्ताविका ४५ कीड़ा मी फूलों की संगति से सज्जनों के सिर पर पहुंच जाता है तथा महापुरुषों द्वारा स्थापित किया हुआ पत्थर भी देवता कहलाने लगता है । 1. ४. काचः काञ्चनसंसर्गाद् धत्त मारकतीं द्य तिम् । -- हितोपदेश- प्रास्ताविका ४१ सोने के संसर्ग से कांच भी मरकतमणिवत् प्रभा धारण करने लगता है । ५. मलयाचल गन्धेन, विन्धनं चन्दनायते । i मलयाचल पर रहे हुए चन्दन की सुगन्धि से साधारण वृक्ष भी चन्दन बन जाते हैं। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : पहला कोष्ठक ६. रथाम्बु जाह्नवी संगात्, विदर्शरपि पूज्यते । -प्रसंगरलावली गलियों का गंदा पानी भी गंगा में मिलने से गंगाजल कहलाकर देवों द्वारा बन्दनीय बन जाता है। ७. स्वीस्यातां सिद्धरसे, शीशक-अपुरणी अपि । --विषष्ठिशलाका-पुरुषपरित्र २३ रस के संयोग से शीशा और अपु भी सोना बन जाते हैं। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ बड़ा आदमी और बड़ापन t. He who humbles shall !": "ied --अंग्रेजी कहावत हि हू हम्बल्स शैल बि एग्जाल्टैड । बड़ा बनना हो तो छोटा बनो। २. गांधीजी थर्ड क्लास में मुसाफिरी कर रहे थे। किसी के पूछने पर बोले "भारत की जनता गरीब है और में जनता का सेवक हूँ। फोर्थ क्लास तो है नहीं, अन्यथा उसी में बैठता।" ३. प्रभुता मेरुसमान, आप रहै रजकण जिसा । तिके पुरुष धन जाण, रविमण्डल में राजिया ! -सोरठा संग्रह १४. हाथी होंडत देख, खर कुकर लब-लव करें। बड़पण तणों विवेक, क्रोध न आरण किस निसा ! -सोरठा संग्रह ५, छोटे आदमियो से सद्व्यवहार करके बड़े आदमी अपना बड़प्पन प्रकार करते हैं। __ -कार्लाइल १. तीन बड़प्पन पाते हैं--(१) दूसरों को भोड़ा भरोसा देकर अधिक काम करनेवाले (२) काम कर देने के बाद अहंकार न करनेवाले (३) दूसरे को सफल होते देखकर रंज न करनेवाले । ७. बातांस्यू बड़ा को हुवेनी । -राजस्थानी कहावत लव कर। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : पहला कोष्ठक है, पहले थे हम मर्द, पीछे नारी कहाये । कर गंगा में स्नान, पाप सब घोय गमाये ।। कर शिल्ला से युद्ध, घाव बरछिन के खाये । उछल पड़े अग्निकुंड में, तब हम बड़े कहाये ॥ -भाषालोकसागर ६. सुमेर की बैठक में दो डोरा हुवं । • बड़ा लाज री खातर मर। -रामस्थानी कहावतें १०. Higli winds blow on high hills, - अंग्रेजी कहावत हाई विड्स ब्लो ओन हाई हिल्स। बड़ों की बड़ी बात । ११. बड़ी रात रा बड़ा तडका । • बड़ां रा बड़ा काम । मोटां री पंसेरी ही भारी । बड़ा कहै ज्यू करणो, कर ज्यूं नहीं करणो । • मोटा री बात करे सो बिना मौत मरे । • मोटारे मायने बड़नो सोहरो, पण निकलणो दोहरो । • बड़ा रै काम हुवे, आंख्या को हुबनी। • राम जठे अयोध्या, • रागगाजी थर जठेई उदयपुर । --राजस्थामी कहावत Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तमपुरुष १. गुणस्त्तमतां यान्ति, नोच्दैरासनसंस्थिताः । प्रासादशिख रारूढः, काकः किं गरुडायते ॥ --चाणक्यानोति १६६ ऊचे आसन पर बैटने-मात्र में मनुष्य उत्तम नहीं बन जाता, गुणों से बढ़ता है । क्मा महल के शिखर पर बेठने से काम गरुड़ बन जाता है ? कभी नहीं। २. सर्वोत्तम मनुष्य वे ही है, जो अवसरों की बाट न देवकर इनको अपने दास बना लेते हैं। ----. एस. पा ३. भल करता गणेल सरस, गणेल करतां फरेल सरस अनें फरेल करतां कषायेल सरस । -गुजरातो कहावत ४. जलेर् मध्ये गंगाजल, फलेर मध्ये आम ! नारीर् मध्ये सीता सती, पुरुषेर् मध्ये राम ।। --नंगला कहावत ५. झाड़ी-बंको झाबुवो, रणबंको कुशलेश। नारी-बको पुग्मल तणी, नर बंको मरुधर देश । ६. उत्तमपुरिसा तिविहा पगाता, तं जहा-धम्मपुरिसा, भोगपुरिसा, कम्मपुरिसा-१. धम्मपुरिसा-अरिहंता, २. भोगपुरिसा-चक्कघट्टी, ३. कम्मपुरिमा-वासुदेवा। --स्थानांग ३।१११२८ उत्तम पुरुष तोन प्रकार होते हैं—(१) धर्मपुरुष (२) भोगपुरुष (३) कर्मपुरुष । धर्मपुरुष-तीर्थ तर, भोगपुरुष-बक्रवर्ती और कर्मपुरुषवासुदेव माने जाते हैं। Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ १. दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवर्ण घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनदचन्दनं चारुगन्धम् । छिन्नंन्नि पुनरपि पुनः स्वाददं नेक्ष खण्ड, प्राणान्तेऽपि प्रकृति-विकृतिर्जायते नोत्समानाम् ॥ उरुष का स्वभाव बार-बार जलाने पर सोना अधिक चमकीला बनता है, बार-बार घिसने पर चन्दन अधिक सुगन्ध फैलाता है। बार-बार काटने पर इक्षुखण्ड अधिक मीठा स्वाद देता है-तत्व यह है कि प्राणान्त कष्ट में भी उत्तमपुरुषों की प्रकृति में विकार नहीं आता । २. गव्हां चा आटा आणी कुपव्या चा बेटा | सताने पर भी उत्तम उत्तम ही फल देता है | ३. आपला र्ति - प्रशमन फलाः संपदो ह्यतमानाम् - मराठी कहावत - मेघदूत १०५३ उत्तमपुरुषों की संपत्तियों, दुःखितों के दुःखों को शान्त करने के लिए ही होती हैं । ४. युजन्त्युत्तमसत्वा हि प्राणानपि न सत्पथम् । ६३ - कथासरित्सागर उत्तमपुरुष प्राणों का त्याग कर देते हैं, लेकिन मार्ग का नहीं । ५. प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः, प्रारभ्य विघ्नविता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना, प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥ -भतृहरि नीतिशतक २७ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुकला के बीज किन्तु विघ्न होते ही मीच - मनुष्य विघ्नों के होने के भय से काम का आरम्भ ही नहीं करते | मध्यम- मनुष्य काम का आरम्भ तो कर देते हैं, उसे बीच में छोड़ देते हैं । परन्तु उत्तमपुरुष जिस देते हैं, उसे बार-बार विघ्न आने पर भी पूरा करके ही छोड़ते हैं । ६. केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना ह्यत्तमेषु ॥ काम का आरम्भ कर - मेघडूत J ७. शास्त्रं बोधाय दानाय धनं धर्माय जीवितम् । वपुः परोपकराय, धारयन्ति मनीषिणः ॥ -- उत्तमपुरुषों की संपत्तियाँ, दुःखितों के दुःखों को शान्त करने के लिए ही होती है । —चन्दचरित्र, पृष्ठ ७० उत्तमपुरुष शास्त्रपठन ज्ञान के लिए, घन दान के लिये, जीवन धर्म के लिए और शरीर परोपकार के लिए धारण करते हैं । ¤ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ १. परवादे दशवदनः पररन्धनिरीक्षणे सहस्राक्षः । सद्वृत्त वित्तहरगों बाजुनी ॥ - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ५६ नीच व्यक्ति परनिन्दा करने के लिए दशवदन ( दस मुंहवासा - रावण) है, पर-दि देखने के लिए सहस्राक्ष ( हजार नेत्रोंवाला- इन्द्र ), ओर दूसरों का सदाचाररूपी धन हरने के लिए महलबाहु (हजार भुजाओंवाला अर्जुन) है। २. यस्मिन् देशे समुत्पन्नस्तमेव निज- चेष्टितैः । घुणकीट दूषयत्यचिरेणैव अधम ( नीच) पुरुष इवाधमः ॥ -सुभाषितरत्नभाण्डागार पृष्ठ ५६ घुण (कीट) जिस लकड़ी में पैदा होता है, उसी का ख़राब करता है । ऐसे ही नीच व्यक्ति दुराचरणों द्वारा अपने ही वंश को दूषित करता है । ३. चरणका इव नीचा, नोदरस्थापिता अपि नाविः कुर्वाणास्तिष्ठन्ति । - नीतिवाक्यामृत २७/३० नीच मनुष्य वर्णों के समान हैं, जो पेट में रखने पर भी आवाज किए बिना नहीं टिकते | ६५ ४. बहुत किये हू नीच को, नीच सुभाव न जात छांडि ताल जलकुम्भ में कौआ चोंच भरात ॥ -- कवि Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ་་ 1 ५. तीचः श्लाघ्यपदं प्राप्य स्वामिनं हन्तुमिच्छति । मूषिको व्याघ्रतां प्राप्य मुनिं हन्तुं गतो यथा ॥ -- हितोपदेश नीच अच्छे पद को पाकर अपने स्वामी को ही मारना चाहता है । जैसेचूहा बाघ बनकर मुनि को मारने चला । कला के बीज पड़कने बिल्ली दौड़ी। एक योगी की झोंपड़ी में चूहा फिर रहा था। उसे योगी को दया बाई और मंत्रशक्ति से चूहे को बिलाव बना दिया । बिल्ली तो भाग गई, लेकिन उस पर कुत्ता दोड़ा। योगी ने बिलाव को बाघ का रूप दे दिया। उसे भूख लगी और कृतघ्न योगी को ही खाने के लिए तैयार हुआ । योगी ने कहा - 'पुनको भव' वह बाब तस्काल चूहा बन गया और दिल्ली आकर उसे खा गई । ६. कुजात मनायां बांथ पड़े। सुजात मनायां पगाँ पड़े ॥ T ● हाथी रा दांत, कुत्ते री पूंछ और कुमारास रो जीभ सदा आंटी ही रेवे । -- राजस्थानी कहावत ७. वरं प्राणत्यागो न पुनरघमानामुपगमः । मर जाना मला पर नीच का सङ्ग अच्छा नहीं । ८. नीन चंग सम जानिबो, सुनि लखि "तुलसीदास " । ढील देत महि गिर परत खेचत चढ़त अकास ॥ I x Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ शारीरिकदोष पर आधारित अधमता १. सौ नीत्र र एक आंख मी। - राजस्थानी कहावत २. सौ में फुन सहत में कारणों, लाखां मांहो ईचातायो । ई चाताण वागे पुकार, मुझसे अधिको है मंजार ।। ३. खाटरा खदाग, आरोग्रेग मंन्न रा । वाला वहत्तर दोगेगा, काणे संख्या न विद्यते ।। ४. बागियो, बागियो ने ग्वामीनारागिणगो । -गुजराती कहावत ५. भस्मा लिन मनमाणी, बामौदी अामी : भागवती लक्रवर्ती घडेले पुरुषाधमाः ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३८० स्त्री की गुलामी करने वाले पुरुषों की अपेक्षा से प्रकार के अधम, पुरुष कहे हैं--- (१) भइमाङ्गली. प्रातः जरते ही रत्री के आदेशानुसार प्रतिदिन चूल्हा जलानेवाला । (२) वकोडायो-प्रानः उठते ही स्त्री के आदेशानुगार पानी भरने के लिए तालाब पर जाने वाला एवं यहां वालों को उठाने वाला। (३) बालशौची---प्रातः उरने ही स्त्री र आवशागार प्रतिदिन बालकों कोटी बिटानेवाला । {४) होहो.-स्त्री को हर बात पर हीही कर के दांत दिग्वानेवाला ।। (५) धारावर्ती-रत्री के बनाए हा बालनों को पूरी तरह से पालनवाला। ६) चक्रवर्ती--स्त्री के कुचक्र में बुरी तरह से फंसा रहनेवाला । Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोरपुरुष १ विकारहेतौ सति विकियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः । ---कुमारसम्भव ११५६ विकार उत्पन्न होनेवाली वस्तु पास होने पर भी जिनका मन नि* नहीं होता, वास्तव में वे ही धीर पुरुष हैं ।। २. चलन्ति गिरयः कामं, युगान्तपवनाहताः । कृच्चऽपि न चलत्येव, धीराणां निश्चलं मनः ।। -मुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ८१ प्रलयकाल के पवन से इलकर पर्वत भले ही अपने स्थान से हट जाए परन्तु धीरपुरुषों का निश्वाः पन घोर कानों में भी विलित नहीं होता। ३. निन्दन्नु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु बा यथेष्टम् । अद्य व वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यानाथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।। -भत हरि-नीतिशतक-८४ नीतिशपुरुष चाहे निन्दा करें, चाहे प्रशंसा करें । लक्ष्मी चाहे आए चाहे जाए तथा चाहे बाज ही मरना पड़े, चाहे युगान्तर में, लेकिन धीरपुरुष न्यायमार्ग से एक कदम भी पीछे नहीं हटते। ४. काच कथीर अधीर नर, कस्यां न उपजे प्रेम । कसरणी तो धीरा सहै, के हीरा के हेम ॥ ५. क्वचिद् भूमौ शभ्या क्वचिदपि च पर्यङ्गशयनं, क्वचिच्छाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः । व Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घठा भाग : इसरा कोषठक A कि केतकी फलति किं पनसः सुपुष्पः, कि नागापि सह-लपेता !! -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ १८३ मिसी में कोई एक विशेषता होती है, उसी से वह जगत में प्रसिद्ध हो जाता है। सर्वज्ञ तथा सर्वगुण सम्पन्न कोई नहीं हुआ करता। क्या केवड़े पर फल, पनस (कटहल) पर फूल एवं नागवल्ली-पान की बेल पर फल-फूल आते हैं ? नहीं आते । फिर भी ये एक-एक विशेषगुण से प्रसिद्धि पा रहे हैं। ७. गुणाः सर्वत्र पूज्यते, पितृवंशो निरर्थकः । वसुदेवं परित्यज्य, वासुदेवं नमेज्जनः ।। -प्रसंगरत्नावली सब जगह गुणों की पूजा होती है, पिता के बंधा की नहीं। देखो लोग वसुदेव को छोड़कर वासुदेव को नमस्कार करते हैं। ८. धन से सद्गुगा नहीं मिलते, अपितु सद्गुणों से ही धन व अन्यान्य वस्तुएं मिलती हैं। -कपसियस १. हमारे सद्गुण प्रायः वेष बदले हुए दुर्व्यसन होते हैं। --लाई रोशफूको १०. बहुत से व्यक्ति सद्गुणों की प्रशंसा करते हैं, किन्तु पालन नहीं करते। -मिल्टन ११. सम्मान ही सद्गुण का पुरस्कार है । -सिसरो १२. आकृतिगुणान् कथयति । मनुष्य की आकृति गुणों को प्रकट कर देती है। १३. जे नर रूपे रूबड़ा, तं नर निगुण न होय । कनक तणो कर पीजरो, काग न घहि कोय ।। -राजस्मरनी-बोहा -- - Juic Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | गुणों का महत्त्व १. पदं हि सर्वत्र गुणनिधीयते । -रघुवंश ३३६२ गुण सर्वत्र अपना प्रभाव जमा लेते हैं। २. गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः । -किरासा मोय गुणों से आकृष्ट संपदायें, गुणी के पास अपने-आप आ जाती हैं। ३. गुणः खल्वनुरागस्य कारणं, न बलात्कारः । -मृच्छकटिक अनुराग का कारण गुण ही होता है, बलात्कार नहीं होता । ४. गुरुतां नयन्ति हि गुरणा न संहतिः । किरातार्जुनीय गुण ही मनुष्य को गुरुता देते हैं, समूह नहीं । ५. गुणाः कुर्वन्ति दूतस्त्र, दूरेऽपि वसतां सताम् । केतको गन्धमाघ्राय, स्वयं गच्छन्ति षट्पदाः ॥ प्रसंगरत्नावली सज्जनों के टुर बसने पर भी उनके गुण जीवननिर्माण में दूत का काम करते हैं। केतकी की सुधि पाकर भ्रमर उसके पास स्वयं चले जाते हैं। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : दूसरा कोष्ठक ६. न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत् । -कुमारसंभव ॥५४ रत्न किसी की तलाश नहीं किया करता, उसी की तलाश की जाती है। ७. गुणो भूषयते रूपम् । -घागस्यनीति ५५१५ गुण से ही रूप शोभा पाता है। ५ ८. गुणेन ज्ञायते त्वार्यः । -चाणक्यनीति र गुण से आर्य जाना जाता है। १. एको गुगः खलुः निहन्ति समस्तदोषम् । एक ही गुण सब दोषों को नाश कर देता है । १०. छोटा-सा अंकुश हाथी पर नियन्त्रण कर लेता है, छोटा-सा दीपक अन्धकार को दूर कर देता है, छोटा-सा बन पर्वत को चूर-चूर कर डालता है । छोटा-सा रत्न लास्त्रोंपति बना देता है। छोटा-सा मन्त्र देवता को खींच लाला है । छोटा-सा यन्त्र (घड़ी) समय बतला देता है, छोटी-सी सुई दो को एक बना देती है, छोटी-सी अमृत की दूद बेहोशी दूर कर देती है, छोटी सी कविता सभा में रंग ला देती है, इसी प्रकार छोटा-सा एक सद्गुण बेड़ापार कर देता है। -संकलित - ११. सद्गुण स्वास्थ्य है और दुष्यंसन रोग । -पेट्राचं । १२, सद्गुण चिथड़ों में भी उतना ही चमकता है, जितना भव्य वेशभूषा में । --डिकेम्स Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३ MU १. आठ प्रकार के गुणअष्ट गुणाः पुरुषं दीपयन्ति, प्रज्ञा च कौल्यं दमः श्र ुतं च । पराक्रमश्चावहुभाषिता त्र, विभिन्न प्रकार के गुण दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥ (१) बुद्धि, (२) कुलीनता (३) इन्द्रियसंयम, (६) मितभाषण, (७) यथाशक्ति दान मनुष्य की शोभा को बढ़ानेवाले हैं । (८) - विदुरनीति १।१०४ · (४) ज्ञान (५) शूरता, कुनज्ञता – ये आठ गुण २. चार सहजगुण दातृत्वं प्रियवक्तत्वं. धीरत्वमुचितज्ञता । अभ्यासेन न लभ्यन्ते, चत्वारः सहजा गुणाः ॥ चाणक्यनीति ११ १ उदारता, मिष्टवादिता, धीरता और उचित की जानकारी — ये चार गुण स्वभाविक होते हैं, किन्तु अभ्यास से नहीं मिल सकते । ३. तेरह मानसिकगुण- ६८ १. उदारता - इस गुण से मनुष्य दूसरे मनुष्य की भूल होने पर सहनशील बना रहता है । २. अनुकरणप्रियता- इससे मनुष्य महापुरुषों के सद्गुणों को ग्रहण कर सकता है । Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा भाग : दूसरा कोष्ठक ३. प्रसादगुण-इससे मनुष्य दूसरे को सुगमता से सुधार सकता है । ४. आकृतिज्ञान-इससे मनुष्य चाहे जिसको पहचान सकता है। ५, ज्यवस्थाज्ञाम–इससे मनुष्य अपनी या दूसरों की मुव्यवस्था कर __ सकता है। ६, अवलोकनगुण -इससे मनुष्य नई-नई चीजों का ज्ञान प्राप्त करता है । ७. गणितज्ञान-इससे एकाग्रता बढ़ती है | 2. इतिहासमाम–इससे प्राचीन वस्तुएं ध्यान में रहती हैं । ६. समयज्ञान-इससे समय का उपयोग कैसे करना, यह जाना जाता है । १०. वक्तृत्वज्ञान -इससे आकर्षणशक्ति मिलती है । ११, स्वरमान--इससे निकट भविष्य की बहुत कुछ बातें जानी जा सकती हैं। १२. तुलनाशक्ति-इससे बियेचना, वर्गीकरण एवं समालोचना करने की योग्यता प्राप्त की जा सकती है। १३. सौजन्यगुण-इससे विनय, विवेक, सभ्यता एवं समझाने की योग्यता मिलती है। ४. कन्फ्यूशियस के कहे हुए पांच सगुण-- (१) जैन, (२) घुन जू, (३) लो, (४) ते, (५) बेन । (१) जेन-सदाचारी होना । (२) चुन जु–अच्छा व्यवहार, दिल में दया, करुणा एवं प्रेम होना । (३) लो-उदजान और विक होना, आत्मविश्वास से जो ठोक जचे यह कार्य करना । (४) ते नैतिक साहस-ईमानदारी, सच्चाई एवं उदारता होना । (५) बेन-गुणों पर उटे रहना। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बक्तत्वकला बीज ५. तीन गुण एवं उसके कार्य भावि--- (क) सत्वं रजस्तम इति, गुणाः प्रकृतिसंभवाः । निबध्नन्ति महाबाहो ! देहे देहिनमव्ययम् ।। -गीता १४५ है अर्जुन ! प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण अविनाशी-आत्मा को देह में बांध लेते हैं। (ख) सत्त्वं ज्ञानं तमोप्ज्ञानं, राग-द्वेषो रजःस्मृतम् । एतद्व्याप्तिमदेलेषां, सर्वभूताश्रितं वपुः ।। -मनुस्मृति १२१२६ ययार्थशान होना सस्वगुण का लक्षण है, ज्ञान का न होना तमोगुण का लक्षण है और राग-द्वेष का होना रजोगुण का लक्षण है । सबके शरीरों में इन सब गुणों का स्वरूप व्याप्त रहता है । (ग) सत्त्वं सुखे संजयति, रजः कर्मणि भारत ! ज्ञानमावृत्य तु तमः, प्रमादे संजयत्युत ।। —गीता १४॥ अर्जुन ! सत्वगुण सुख में एवं रजोगुण फर्म में लगाता है, किन्तु तमो गुण ज्ञान को ढंक कर प्रमाद में लगाता है । (घ) देवत्वं सात्त्विका यान्ति, मानुषत्वं च राजसाः । तिर्यकत्वं तामसा नित्य-मित्येषां त्रिविधा गतिः ।। -मनुस्मृति १२१४० सात्त्विक-वृत्तिवाले देवयोनी में, रजोगुणी मनुष्यगति में और तमोगुणी तिर्यञ्चगति में जाते हैं। (3) गुणानेतानतीत्य त्रीन्, देही देहसमुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःख - विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ -रीता १४२० Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . छठा भाग दूसरा कष्टक शरीर के कारणभूत इन तीनों गुणों को लांघकर (निर्गुण होकर ) आत्मा जन्मजरा-मृत्यु के दुःखों से छूट जाता है एवं अमृतपद मुक्ति को प्राप्त होता है। (च) वैगुण्यविषया वेदा, निस्त्रैगुण्यो निन्द्रो नित्यत्वम्बो, निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ भवार्जुन ! ६. गुणातीत समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टादमकाः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । सर्वारम्भपरित्यागी, गुणातीतः स उच्यते ॥ - गोता २०४५ -- हे अर्जुन ! सब वेद तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को विषय करनेवाले हैं | इसलिए तू असंसारी अर्थात् निष्कामी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से रहित, नित्यवस्तु में स्थित तथा योगक्षेम को न चाहनेवाला और ཏྭཱ आत्मपरायण बन । १०१ -- गीसा १४/२४-२५ जो दुःख-मुख में समान है। आत्मभाव में स्थित है, जिसकी मिट्टी, पत्थर और सोने में समान बुद्धि है, जो प्रिय अप्रिय को तुल्य समझता है, धैर्यवान है, निन्दास्तुति में समान भाववाला है। मान-अपमान में तुल्य है, मित्र शत्रु में समान पक्षवाला है और सब प्रकार के आरम्भ का परित्याग करनेवाला है, वह पुरुष गुणातीत कहलाता है । * Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों का नाश एवं प्रकाश १. चहि ठाणेहि संते गणे नासेजा, तं जहा-पोहेगी, पडिनिवेसेणं, अकयन्न याए, मिच्छताभिशिवेसेणं । --स्थानांग ४।४१२६४ चार कारणों से जीव विद्यमान गुणों का नाश कर देता है (१) क्रोध से, (२) गुण सहन न होने से, (३) अवलज्ञता से, ) मिथ्याधारणा के कारण । २. चउहि कोहि संते हो मो ... मदन परछंदाणुवत्तियं, कज्जहे, कयाधिकइएइ वा। -स्थानांग ४१४१९८४ चार कारणों से जीव विद्यमान गुणा को प्रकाशित करता है(१) विद्याभ्यास के लिए, (२) दुसरे को अनुमूल बनाने के लिए, (३) अपना काम सिद्ध करने के लिए, (४) कृतज्ञता प्रकट करने के लिए । ३. इक्षु दण्डास्तिलाः शूराः, कान्ता हेमं च मेदिनी, चन्दनं दधि-ताम्बूले, मर्दन गणवर्धनम् । -चाणक्यनीति ६।१३ इक्षुदण्ड , तिल, शूर, स्त्री, हेम. पृथ्वी. चन्दन, दही और तांबूल, मर्दन होन से, इन ६ चीजों के गुप्यों में वृद्धि होती है । १०२ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणज्ञ १. बिरला जानन्ति गुणान् । -- सुगा सितारगार, पृष्ठ १७७ गुणों को जाननेवाले विरले हैं। २. मुगी सैकड़ों में कहीं. मिल जाते दो एक। नास्त्रों में मिलना कटिन, गुणदण्टा मुविवेक । --लास्विकत्रिशतो १६५ ३. गुणी गुरणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणः । ___ गुण को गुणी ही जानता है ।। ४, गुणिनि गुणज्ञो रमने, नागुगशीलस्य गुरिणनि परितोषः । अलि रेति वनात् पद्मं, न दर्दुरस्त्वकवासोऽपि । --शाकुसल गुणज्ञ ही गुणीजनों से प्रेम करता है । गुणहीन गुणियों में सन्तुष्ट नहीं होता । भौरा वन से बनकर कमल के पास जाता है, किन्तु मेड़क पानी में रहता हुआ भी कमल के निकट नहीं जाता। ५. जितनी चेष्टा दूसरों के दोषों को जानने की करते हो, उससे आधी भी यदि उनके गुणों को जानने की करो तो तुम अजातशत्र बन सकते हो । ६. न वेत्ति यो यस्य गुगाप्रकर्षः स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम् । यथा किराती करिकुम्भलब्धां मुक्ता परित्यज्य विभक्ति गुजाम् ॥ --चाणक्यनीति ११८ जो व्यक्ति जिसके गुणों को नहीं जानता, यह सदा ही उसकी निन्दा किया करता है । जैसे—भीलनी हायी के मस्तक से प्राप्त मोती को छोड़कर गुम्जा को ही पहनती है । Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणी १. गुणी च गुणरागी च, विरलः सरलोजनः । गुणी एवं गुण के प्रेमी विरले ही सरलपुरुष हैं । २. गुगावत: विलस्यले, प्रायेला मन्ति निगुंगा!: मुखिनः । बन्धनमायान्ति का, यथेष्टसंचारिताः काकाः ।। - मुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ८५ गुणीजन प्रोयः दुःख पाते हैं और निगुण गुम्बी होते हैं । शुक बन्धन को प्राप्त होते हैं और काक इच्छानुसार धूमते हैं। ३. कौटोयं कृमिजं सुवर्ण मुग्लादिन्दीवरं गोमयान्, पक्रात्तामरसं शशाङ्कमुदधे-र्गापित्तता रोचना । काप्ठादग्नि रहेः 'फगादपि मागाोपि गोरोपतः, प्राकाश्यं स्वगुणोदयेन गुगिनायास्यन्ति कि जन्मना ।। __ - --पञ्चतन्त्र ११७६ रेशमी वस्त्र कौड़ों से, गोना गत्यर , नील-कमन्न गोबर में, कमन कदम से, नन्द्रमा समुः। से, गोरोचन गाय के पिता से, अग्नि कान्ट गे, मणि साप के फण रा और दोय गाय के रोमां से उत्पन्न होती है। उत्पनि स्थान निम्न कोटि के होन पर भी पूर्वाचन यस्ता जगप्रसिद्ध हो रही है, क्यों न हों ! मणी व्यक्ति अपने गों की उदय में ही जगत में प्रसिद्धि को प्राप्त होते है, जन्म से नहीं । ४. गुणाः पूजास्थानं गुरिंगषु न च लिङ्ग न च वयः 1 -उत्तररामचरित ४११ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाटा माग : दूसरा कोष्ठ १०५ गणिजनों का सम्मान गुणों से ही होता है, स्त्री-पुरुष के भेद से या आयु के कारण से नहीं होता। ५. हंसां ने सरवर घणां, देश-विदेश गयाह । में सरजन्न करता, कुसुम पणः भवहि ।। ६. गुणः सर्वज्ञतुल्योऽपि, सीदत्य को निराश्रयः । अनयमति माणिक्य, हमाश्रयमपेक्षते ॥ -चाणक्यनीति १६१० गुणों से युक्त ईश्वर के समान पुरुष भी निराश्रय एवं अकेला व ही पाता है । जैसे-अनमोल माणिक्य भी सोने में जड़े जाने की अपेक्षा रखता है। ७. गुणिजनसंगति(क) जनयति नृणां कि नाभीष्टं गुरणोत्तम संगमः ? -सिदूरप्रकरण ६६ गुणिजनों का सम्पर्क क्या इच्छित काम नहीं करता ? (ख) स्तोकोऽगि गुणिसंसर्गोः, श्रेयसे भूयसे भवेत् । -सूक्तरत्नावली गुणिजनों का थोड़ा-सा संसर्ग भी महान कल्याणकारी हो जाता है। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणग्राहक बनो! १. कसे गणे जाव शरीरभेउ । --उसराध्ययन ४११३ अन्त समय तक गुणों की आकांक्षा करते रहो।। २. गुगाः क्रियतां यत्नः, किमाटोपः प्रयोजनम् । विक्रीयन्ते न घण्टाभि - गांवः क्षीरविजिताः ।। -प्रसङ्गरत्नावली गुणों के लिए प्रयत्न करो । आडम्बर में क्या है ? दूध न देनेषालो गायें केवल घंटियां बांधने से नहीं बिका करतीं। ३. गुणेष्वनादरं भ्रातः, पूर्णश्रीरपि मा कृथाः । संपूर्णोऽपि घटः क्पे, गुणच्छेदात् पतत्यधः ॥ अरे भाई ! पूर्ण श्रीमान् होकर भी गुणों का अनादर मत कर 1 देख ! भरा हुआ घड़ा भी गुण (डॉरी) के कट जाने से कुंए में गिर जाता है। ४. सन्धयेत् सरला सूचि-ब का छेदाय कर्तरी । अतो विमुच्य बकरने, गुणानेव समाश्रय ॥ सीधी-सरल मूई फटे-टूटे को जोड़ती है और वक्र-केंनी अखण्ड को काटती है । अतः वक्रता को छोड़कर गुणों को धारण कर ! (मूई गुण अर्थात् धागे) को धारण करके ही वस्त्र आदि को सोती है)। ५. ज्ञान गरीबी गुरग धरम, नरम वचन निरदोष ।। तुलसी कबहुं न छाँड़िये, शील सत्य सन्तोष ॥ ६. गुण जब मिले, जहां से मिले, जिस कदर मिले, ले लो। Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग दुसष्ट ७. अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्यः कुशलो नरः । सर्वतः सारमादद्यात्, पुष्पेभ्य इव पट्पदः ॥ ८. P - भागवत ११८ । १० जैसे- भौंरा छोटे-बड़े सभी फूलों से रस लेता है, उसी प्रकार कुशल (गुणी ) मनुष्य को चाहिए कि वह छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से सार ग्रहण करे | अनन्तशास्त्रं बहुला च विद्याः, अल्पयच कालो बहुविनता च । यत्सारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा श्रीरमिवाम्बुमध्यात् ॥ 7 १०७ -- चाणक्यनीति १५/१० शास्त्रों का ज्ञान अनन्त है, विद्यायें अनेक हैं, समय अल्प है एवं दिनबाधायें बहुत है | अतः जैसे हंस जलमिश्रित दूध में से दूध-दूध पी लेता है, वैसे ही जो पदार्थ सारभूत लगे, उसे तत्काल ग्रहण करलो ! 2. Art is long and time is short, आर्ट इज लोग एन्ड टाइम इज शोर्ट | -अंग्रेजी कायस स्वल्पवच कालो बहुला च विद्या । समय थोड़ा है और विद्याएँ बहुत है । १०. दृष्टं किमपि लोकेऽरिमन्, न निर्दोष न निर्गुणम् । आवृणुध्वमतो दोषान् विवृणुध्वं गुरणान्बुधाः ।। -- संस्कृत] कहावत - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३६४ इस संसार में ऐसी कोई भी चीज नहीं देखी गयी, जिसमें कोई न कोई दोष अथवा गुण न हो । मतः बुधजनों को चाहिए कि वे दोषों को छोड़ कर गुणों को ले लें । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ११. क्षारभावमपहाय वारिधेः, गृलन्ते सलिलमेव बारिदाः । __ --उपदेशप्रसाद मेघ समुद्र के खारेपन को छोड़कर केवल जल को ही ग्रहण करते हैं। १२. म्लेच्छानामागि सुवृत्त ग्राह्यम् । --कोटिलीय अर्थशास्त्र म्लेच्छों के भी सदाचरण ले लेने चाहिए । १३. शोरपि मुगा ग्राह्या। ---कौटिलीय अर्थशास्त्र सत्रु से भी गुण ले लेना चाहिए । १४. विपादप्यमृतं ग्राह्य-ममेध्यादपि काञ्चनम् । मीचादयुत्तमा विद्या, स्त्रीरत्नं दुष्कुनादपि ॥ --चाणषयनीति २०१६ मिल सकता हो तो विष से अमृत, गन्दगी से सोना, नीच' में उत्तम विद्या और दुप्कुल से भी स्त्रीरत्न ले लेना चाहिए। १५. स्त्रियो रत्नान्यथोविद्या, धर्मः शोचं सुभाषितम् । विविधानि च शिल्पानि, समादेयानि सर्वतः ।। -मनुस्मृति ६२४० गुण यती स्त्रियां, रन, विद्या, धर्म, पवित्रता, सुभाषित और नाना प्रकार की कलायें-- ..ये चीजें हर एक से ले लेनी चाहिए। युक्तियुक्त उपादेयं, वचनं बालकादपि । अन्यत् तृणमिव त्याज्य-मप्युक्तं पद्मजन्मना ।। --योगवाशिष्ठ २।१८५६ युक्तियुक्त वचन को बालक से भी ले लेना चाहिए और युक्तिहीन वचन चाहे ब्रह्मा का भी क्यों न हो, वह सृणवत् त्याज्य है । १७. ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा, गुणगृह्या वचने विपश्चितः । ---किरातामुनीय र Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : दूसरा कोष्ठक विधान लोग किसी वचन के विषय में यह नहीं देखते कि उसका कहने वाला कौन है । ये तो केवल गुण के पक्षपाती होते हैं। १८, गुग्गी इन गुणा को लेना है, हमें दृगुगा से क्या मतलब ?' कुएँ से नीर पीना है, हमें कचरे से क्या मतलब ? ॥ध्रव।। हम तो ग्राहक हैं चन्दन के, भले ही साँप लिपटे हो ! मुग्ध है पुष्प-सुरभी पर, हमें कांटों से क्या मतलब ? गुणी॥१॥ छाछ खट्टी भले ही हो, हम तो मक्खन के भूखे हैं। इक्ष रस के पिपासु हैं, हमें छिलकों से क्या मतलब ? गुणी।।२।। न खल से काम है बिल्कुल, हमें तो तेन लेना है। आम खाने के इच्छुक हैं, हमें गुठली से क्या मतलब? गुणी।।३।। मणी के हम तो ग्राहक हैं, सांप जहरी भले ही हो । गोल मोती के गर्जी हैं, सीप बोकी से क्या मतलब ? गुणी।।४।। रूप कोयल का काला है, तो भी मिठास ल लेंगे। काम तकिये की रू से है, हमें खोली से क्या मतलब ? गुग्णी।।५।। मिले गुण जिस कदर जिससे, हम तो तैयार हैं लेने । चाहे किमही मजन का हो, हमें मजहब से क्या मतलब ? गुगी।।५। ऐव बिन आज दुनियाँ में, नजर कोई नहीं आता । सभी अन्दर से नगे हैं, कहे 'धन' हमको क्या मतलब ? गुरगी।।७।। -उपदेश-सुमनमाला १६. गुरिंगण गण नारम्भे, नापतति कठिनी मुसंभ्रमाद् यस्य । तेनाम्बा यदि सुतिनी, वद 1 बन्ध्या कीदृशी नाम ।। --हितोपदेश प्रास्ताविका १६ १. सर्ज-कव्वाली Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पत्वकला के बीज गुणीजनों की गणना करते समय जिसकी लेखनी शीघ्रता से नहीं चलती, उस पुत्र से यदि माता पुत्रवती कही जाय तो कहो ! फिर वन्ध्यास्त्री कंसी होगी ? २०. आरोप्यते शिला शैले, यत्नेन महता यथा । निपात्यते क्षशेनाधस्तथा गुद -- हितोपदेश २०४७ जैसे-- किसी ऊँचे स्थान पर शिला बड़े यत्न से चढ़ाई जाती है और नीचे क्षणभर में गिरा दी जाती है, गुण और दोष के विषय में आत्मा की भी ऐसी ही स्थिति है, यानी गुणों का ग्रहण कठिन है एवं दोषों का ग्रहण सरल है । ¤ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणग्राही के अभाव में १. गुणिनोऽपि हि सीदन्ति, गुणग्राही न चेदिह । सगुणः पूर्णकुम्भोऽपि कूपएव निमज्जति ।। - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ८५ Up यदि गुणग्राही न हो तो गुणीजन भी खिन्नता को प्राप्त हो जाते हैं । देखो ! भरा घड़ा कुएं में गिर जाता है, यदि उसकी रस्सी (गुण) को कोई पकड़नेवाला न हो । २. जब गुन के गाहक मिलें, तब गुण लाख बिकाय | जब गुन का ग्राहक नहीं, कौड़ी बदले जाय ॥ १११ —कबीर ३. सुयोग्य व्यक्ति के अभाव में योग्यता का मूल्य बहुत कम रह जाता है । -- नेपोलियन * Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणहीन १. निगणस्य हतं रूपम् । --चाणक्यनीति मा१६ गुणहीन के रूप-सौन्दर्य को घिवचार है । २. सीरत नहीं जो अच्छी, सूरत फिजूल है। जिस गुल में बू नहीं, वह कागज का फुल है । सीरत के हम गुलाम हैं, सूरत हुई तो क्या ? सुखो-सफेद मिट्टी की, मूरत हुई तो क्या ? --उर्दू शेर ३. स्वयम्गुणं वस्तु न खलु क्षमाताद् गुणवद् भवति । न गोपालग्नेहाद् उक्षा क्षरति क्षीरम् ॥ नीतिवाक्यामत १६५.६ निगुण बस्नु किसी के पक्षपात से गुणयुक्त नहीं होती, ग्वाले के स्नेह से बल दूध नहीं दे सकता । ४. पुरुषा अपि बागा अपि म गच्युताः कस्य न भयाय ? -सुभाषितरत्न-खण्डमंजूषा गुण से च्युत-पतित पुरुष और बाण किसको भय उत्पन्न नहीं करता? (यहाँ गुण शब्द के दो अर्थ हैं—सद्गुण और धनुष की डोरी)। ५. गुणविहीना बहुजल्पयन्ति । -सुभाषितरत्न-खण्डमंजूषा गुणहीन व्यक्ति अधिक बोला करते हैं। ११२ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : दूसरा कोष्ठक - . ..... ६. नहीं चम्पा नहीं केतकी, भंवर ! देख मत भूल । रूपरूड़ो गुणवाहिरो, रोहीड़ा रो फूल । ७. डूंगर दूरासू रलियामरणा, दीस ईसरदास । ___नेड़ों जाकर देखिए, (तो) पत्थर पाणी धास ।। ८. पाषाणः परिपुरिता वयुमती बनो मरिण दुर्लभः । पत्थरों से पृथ्वी भरी पड़ी है, किन्तु वञमणि मिलना कठिन है । ऐसे ही निमुंग-व्यक्ति बहूत हैं, किन्तु गुणी दुर्लभ हैं । ६. गुग्णहीन मृतकतुल्य । शालिवाहन राजा एवं कालिकाचार्य का संवादराजा-कौन जोक्ति है ? आचार्य-जो गुणी एवं चारित्रशील है, वही पीवित है। राजा-क्यों ? आचार्य ---मैंने एक दिन शिष्यों से कहा-निगुण एवं चारित्रहीन पुरुष पशु-मुग आदि के समान है । तब मृग आदि सभी ने इस मंतव्य का विरोध करते हुए इस प्रकार कहामृगादि पशु-हम मरने के बाद भी अमं मादि के रूप में लोगों के काम आते हैं। गजएँ-हुम पास खाकर भूध देती हैं । कुत्ते-हम नमकहलाल हैं। वृक्ष-हम छाया फल-फूल आदि देते हैं । पास-मैं पशुओं का जीवन टिकाता हूँ। राण-मैं वर्तन साफ करती हूँ। राजन् ! उसी दिन से यह निर्णय किया गया कि निगुण-चारित्रहीन व्यक्ति मृतक के तुल्य है। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० गुणशून्य नाम १. आख्यां रो आंधो, नाम नैणसुख । जन्म से संगतो, नाम दाताराम । जन्म रो दुखियारी, नाम सदासुख । बांधे लंगोटी, नाम पीताम्बरदास । मांगे भीख, नाम लखपतराय । कनें कोड़ी कोनी र नाम किरोड़ीमल । पठ्यो न लिख्यो नाम विद्याधर 1 झाँटमान झंपड़ी र नाम तारागढ़। - राजस्थानी कहावत २. नाम दियो सूरो रणधीर, भाग्यो जावै दीठां तीर । नाम दियो छे धर्माशाह, पाप करण री नहीं परवाह ।। नाम दियो बाई रो लाछ, मांगी न मिले कुल्हड़ी छाछ । नाम दियो बाई रो चंपकली, गोबर बीरणे गली-गली ॥ ___-राजस्थानो-पद्य ३. हीरालाल नाम सो तो कंकर को कर कार, वृद्धिचंद नाम पूंजी गाँठ की गमावे है। नाम तो संतोषदास पल में झलक उठे, ___ गंभीरमल नाम सो तो लोकान लड़ावे है ।। शोभाचंद नाम सो तो कुशोभा करत नित, । प्यारचंद नाम खार जग में बसावे है । ११४ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ १. गुण पूरी रूरी सुरभि, कस्तूरी कमनीय । एकहि अवगुण मलिनता, हरे जनक को जीय ॥ २. फूल हुवे जठे कांटा भी हु । · गाम ह ज (वाड़ी) अक्करड़ी भी हु । • हवेली दूर्व जर्के तारतबानो भी हु । ● लंका में दलदरी भी हुवे । No garden without weeds. नो गार्डन विदाउट वीड्स । गुणों में दोष १२३ - राजस्थानी कहावत — अंग्रेजी कहावत कोई उद्यान ऐसा नहीं है, जिसमें घास-फूस बिल्कुल न हो । Xx Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ २. दृष्टिदोष एवं उसके आश्चर्य १. किसी वस्तु को देखकर सहर्ष आश्चर्य प्रकट करने से जो विकार होता है, उसे दृष्टिवोष या नजर कहते हैं । युथकारा डालने से इसका विकार शान्त हो जाता है। ऐसी भी दन्तकथा है कि जिसकी अनामिका और कनिष्ठा-ये दो नगलियाँ सहजरूप में मिलती हों, उसका युथकाग पलता है। ग्वाले की माता खीर बनाकर पानी भरने गमी। पीछे से मासोपवासी मुनि पधारे । बालबाल ने सारी खीर बहरा दी । मुनि चले गये, बालक थाली चाट रहा था । माता पानी भरके आयी और देखकर मन में कहने लगी- अहो ! पुत्र सारी खीर खा गया। बस, नजर लगी एवं बालक बीमार होकर थोड़ी ही देर में मर गया। भावना पवित्र भी अतः वह मरकर सेट शालिभद्र बना । (अचानक मरना नजर के दोष से माना जाता है।) वि० सं० १९८४ छापर में मुनि जशकरणजी आदि की दीक्षा हुई । सेठ गोविन्दरामजी नाहटा नवदीक्षितमुनि का सुन्दर चेहरा और गौरवर्ण देखकर मन में कहने लगे-साधु तो बहुत फूटरो बन्यो है। बस, कहने की ही देरी यी । दीक्षा लेकर स्थान पर आते ही मुनिजी के भयंकर उदरपीड़ा होने लगी। दिनभर अनेक उपचार किये पर कोई लाभ नहीं हुआ । रात पड़ गयी, क्रमशः जीने की आशा कम होने लगी। रोटजी को पता नगा, दौड़कर आये एवं शुथकारा डाला । युयकारा क्या डाला, बुझाने दीपक में तेल ही डाल दिया। नवदीक्षित मुनि तत्काल स्वस्थ हो गये । देखनेवाले सभी आश्चर्य मुग्ध थे । १२४ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : दूसरा कोष्ठक १२५ सुना जाता है कि एक बार उन्हें किसी ने नई हवेली देखने को बुलाया। देखकर उन्होंने कहा - हवेली तो चोखी बणी हैं। बस रात रात में सारी हवेली फट गयी । ४. मोमासर में एक बार छायर की बरात आयी । बरातियों में छापर के नाहटा सरदार भी काफी थे। एक चूना पीसने का घरहट पड़ा था । बरातियों ने कहा - अहा । कितना गोल है। कहते हैं कि कुछ ही क्षणों के बाद उसके दो टुकड़े हो गये । ५. वि० सं० २००१ को लत है आचर्य होन व्याख्यान में पधारे। मुखमुद्रा से प्रभावित होकर मोतीलाल नाहटा ने कुछ विशेष गुणग्राम किये। आचार्यथी को नजर लगी और १०४ डिग्री बुखार हो गया । पला लगते ही मोतीलालजी ने आकर शुभ कारा डाला, बाचार्य श्री ठीक हो गये । इनके कथनानुसार इनकी नजर इतनी लगती है कि यदि ये टोकरी में से एक आम खाकर प्रशंसा कर देते हैं तो शेष आम फौरन बिगड़ जाते । इससे भी अधिक आश्चर्य यह है कि ये टेलीफोन पर भी थकारा डालकर दृष्टि दोष का इलाज किया करते हैं । ६. अपनी नजर अपने-आप को भी लग जाती है। जैसे मेरा शरीर अब बिल्कुल ठीक है, ऐसे सोचते ही कोई न कोई बीमारी आ जाती है । इस साल हमारी खेती बहुत बढ़िया है, ऐसा विचार करने से टीड़ी, राद आंधी-तूफान आदि के उपद्रव होकर नुकसान हो जाता है। मोटर कितनी तेज चल रही है, ऐसा कहते ही उसमें खराबी हो जाती है । मेरी यात्रा कितने अच्छे ढंग से सम्पन्न हो गयी, ऐसा चिन्तन करते हो यात्रा में कुछ न कुछ विघ्न आ जाता है। लिखना कितना अच्छा हो रहा है - ऐसा दिन में आते ही स्वाही हुलकर या कलम टूट कर उनमें बाधा आ जाती है। वास्तव में नजर लगाने से नहीं लगती। मन में खुश होकर आश्चर्य प्रकट करने से लगती है । * Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर १६ उपकार (अहसान) १. सहयोगदानभुपकारः, लौकिको लोकोतरश्च । —जैनसिद्धान्तदीपिका ६।१६-२० किसी को सहयोग देने का नाम उपकार है, वह दो प्रकार का हैलौकिक और लोकोत्तर । भौतिक सहायता देना तौकिक उपकार है और आरिमकसहायता अर्थात् धर्मोपदेश एवं निबद्मदानादि द्वारा सहायता देना लोकोत्तर उपकार है । २. नीचेपूरकृतं उदके विशीर्णं लवणमिव । -नीतिशाक्यामृत १११४३ नीचों का उपकार करना जल में लवण डालने के तुल्य है । ३. उपकृत्योदघाटनं वैरकरणमिव । ...-नीतिवाक्यामृत ११०४७ उपकार करके कहना, वर करने के बराबर है । ४. जिसने कुछ अहसा किया, एक बोझ हम पर रख दिया । सिर से तिन का क्या उतारा, सर पे छप्पर रख दिया । चकबस्त ५. तलवार मारे एक बार, अहसान मारे बार-चार । -हिन्वी कहावत १२६ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूवठा भाग दूसरा कोष्ठक ६. अगर किसी को मारना, अहसान करके छोड़ दो। खुद बखुद मर जाएगा, वह अगर्चे इन्सान है || १२७ - शेर ७. दल्यानुं दलामण आहे तेमां पाड़ शानो ! माग्यु आपे तेमां शानो पाड़ | नातनुं नोलर्स ने परवनुं पाणी तेमां पाशर शुं ! - गुजराती कहावत * Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ परोपकार १. अष्टादशपुराणेपु, व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।। अठारहपुराणों में व्यासजी के दो ही न चन मुस्य है--दूसरों का उपकार करना पुण्य है और दूसरों को दुःख दना पाप है । २. परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अघमाई -रामचरितमान ३. संसारे न परोपकार सदृश, पश्यामि पुष्यं सताम् । -क्षेमेन्द्रका मेरो इफिट में सत्पुरुषों के लिए परोपकार जमा पुण्य संसार में दूस कोई नहीं है । ४. परोपकृति-कवल्ये, तोलयित्वा जनार्दनः । गुर्वी मुपकृति मत्वा, ह्मवतारान् दशाऽग्रहीत् ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ७८ परोपकार और मोक्ष-इन दोनों को तोलने पर उपकार भारी निकला, अतएव घिष्णु भगवान ने परोपकार करने के लिए दस अवतार लिए। ५. नोपकारं बिना प्रीतिः, कथंचित् कस्यचिद् भवेत् । उपयाचित-दानेन, यती देवाः फलप्रदाः॥ -पंचतंत्र २०५२ उपकार किए बिना किसी को किसी के साथ प्रेम नहीं होता । मनौती करने पर ही देवता मनोरथ पूरा करते हैं। १२८ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ा भाग दूसरा कोष्ठक ६. घड़ी घड़ी घड़ियाल, प्रकट सद एम पुकारे ! भवर भवे ऊंघतां जागले मिनख जमारे ! दुनियां रं सिर दंड, घड़ी-घड़ी आयु घटतां । काठ सिरे करवत्त, बार कितियेक कटंतां । तिण हेतु चेत चेतन चतुर | धर्ममी दिलमांहि भए । सह बात सार संसार मे क्यूँहिक पर उपकार कर ७. लोकोपकारी जीवन के तीन सूत्र - सत्य, संयम और सेवा । K - भाषारुलोकसागर - विनोबा परोपकार का अर्थ है -- दूसरों का भला चाहना, दूसरों का भला करना और सेवा करना । - गांधी श्री तेनैव न कुण्डलेन, दानेन पाणिनं तु कङ्कणेन । विभातिकायः करुणापराणा, परोपकारैर्न तु चन्दनेन ॥ - भर्तृहरिनीतिशतक ७२ दयालु सत्पुरुषों के कान शास्त्रश्रवण से हाथ दान से, और शरीर परोपकार से शोभित होते हैं, लेकिन कुण्डल, कङ्कण और चन्दन से नहीं । X Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्युपकार [उपकार का बदला] . १. उपकार करना मनुष्यता का उच्चगुण है और उपकार चाहना पामरता है। २. महान्, मेघराज की तरह उपकार का बदला नहीं चाहते । -तिचवल्लुवर . .. ईसा ने दस कोढ़ियों के घाव साफ किए । एक ने आभार प्रकट किया, शेष यों हो गए। ४. मय्येव जीर्णतां यातु, यत् स्वयोपकृतं हरे ! जनः प्रत्युपकारार्थी, विपदामभिकाङ्क्षते । -वाल्मीकि रामायण लंकाविजय के बाद हनुमान विदा होने लगे, तब राम ने कहाहनुमान ! नुमने जो हमारा उपकार किया है. उसे हम हजम करना चाहते हैं अर्थात उसका बदला देना नहीं चाहते, क्योंकि प्रत्युपकार करने का इच्छुक व्यक्ति उपकारी के लिए वास्तव में विपत्ति की इच्छा करनेवाला होला है । ५. प्रत्युपकुरुते बह्वपि, न भवति पूर्वोपकारिणस्तुल्यः । -श्राद्धविधि प्रत्युपकारी-उपकार का बदला चुकानेवाला पूर्वोपकारी के बराबर कभी नहीं होता। Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छा भाग : दूसरा कोष्ठक more ६. तिण्हं दुष्पडियारं समाउसो ! तं जहाअम्मापिउरगो, भट्टिस्स, धम्मायरियस्स । -स्थामांग ३।१।१३५ है आयुष्मन् श्रमण ] तीनों के उपकार का बदला चुकाना फटिन है-- माता-पिता का, स्वामी का और धर्माचार्य का । ७. स पुमान् वन्द्यपरितो यः प्रत्युपकारमनपेक्ष्य परोपकारं करोति । -नीतिवाक्यामृत २७।३१ प्रत्युपकार को आशा न करके दूसरों का उपकार करने वाले का चरित्र स्तुति करने योग्य है। . - - - . . - -a - . . Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! १६ कृतज्ञता और कृतज्ञ १. उपकारी का अपराध हो जाने पर उसे क्षमा कर देना कृतक्षता है । २. कृतज्ञता शाब्दिक धन्यवाद से कहीं बढ़कर है और कार्य, शब्दों से अधिक प्रकट करता है । ३. कृतम्नता के बाद सहने में सबसे ज्यादा कष्टप्रद कृतज्ञती है । ४. किसी दार्शनिक को शब्दों की कमी महसूस नहीं कृतज्ञ को ५. प्रथमत्रयसि पीतं तोयमल्पं स्मरन्तः, शिरसि निहितभारा नालिकेरा नराणाम् । उदकममृततुल्यं दद्य - राजीवनान्तं, नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥ - लाबेल - एच. डब्ल्यू. बौचर जितनी -कोल्टन - शाकुन्तल नारियल के बचपन में पिये हुए थोड़े से पानी का स्मरण करते हुए वृक्ष जीवनभर अपने सिर पर फलों का बोझा धारण करते हैं एवं मनुष्यों को अमृततुल्य जल देते रहते हैं, क्योंकि सत्पुरुप किए हुए उपकार को कभी नहीं भूला करते । ६. कृतज्ञ शेर - अपराधी गुलाम निकल भागा। उसने गुफा में कराहते हुए शेर का काँटा निकाला। सिपाहियों ने गुलाम और शेर दोनों को पकड़कर हाजिर किया । बादशाह ने गुलाम को मारने के लिए शेर के पिंजरे में डाला । कृतज्ञ शेर ने अपने उनकारी को नहीं मारा ! १३९ ¤ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० १. परहितनिरतानामादरो नात्मकार्ये । परोपकारी - सुभाषितरत्न खमञ्जूषा परोपकार में लगे हुए पुरुषों को अपने काम का ध्यान नहीं रहता । २. पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः । नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः, परोपकाराय सतां विभूतयः ॥ एनाकर कि कुछ खरक करिभिः करोति । श्रीखण्डखण्ड मलयाचलः किं परोपकाराय सतां विभूतयः ॥ —उपमहागर नदियाँ स्वयं पानी नहीं पीतीं, वृक्ष फल नहीं खाते और मेघ धान्य का भक्षण नहीं करते, क्योंकि सत्पुरुषों की विभूतियाँ परोपकार के लिए हो होती हैं । रत्नाकर (समुद्र) को रत्नों से क्या लाभ ? विन्ध्याचल को हाथियों से क्या लाभ? और मलयाचल को चन्दन के खण्डों से क्या लाभ ? लाभ कुछ भी नहीं है, केवल परोपकार के लिए ही में सब रत्नादि द्रव्यों को धारण करते हैं । ३. यद्यपि चन्दनविटपी फल-युगविवर्जितः कृतां विधिना । निजवपुपंय तथापि हि संहरति संतापभपरेषाम् ॥ - गोवर्षमाचार्य विधाता ने चन्दन के वृक्ष को फल-फूल से होन बना दिया, तो १२३ " Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्रमाला पीज तो क्या हुआ ? वह अपने शरीर से भी दुनिया के संताप का नाश कर रहा है। ४. पत्र-पुष्प-फल-चछाया, मूल-बहकल-दारुभिः। गन्ध-निर्यास-भस्मास्थि-ताम्मः कामान् वितन्वते ।। -सुभाषितरल-भाण्डागार, पृष्ठ २४७ वृक्ष अपने पत्त', फूल, फल, छाया, मूल, वल्कल, काष्ट, गन्ध, दूध, रमा, भस्म, गुटली और कोमलमंकुर से प्राणियों को सुख पहुंचाते हैं 1 [हरा-मरा वृक्ष फल, फूल एवं छाया देता है. सूखने पर टेबल-फुर्सी, पटे, किवाड़ आदि बनकर जगत की सेवा करता है, ईधन बनकर रसोई आदि बनाता है तथा मनुष्यों के मुर्दे को जलाता है। आखिर राख बगकर भी बर्तन आदि को साफ करता है। ५. दीपक जलकर भी प्रकाश देता है, पंखा स्वयं घूमकर भी लोगों को हवा देता है तथा केया काले होकर भी मनुष्यों को शोभा बढ़ाते हैं 1 मनुष्यों। तुम भी इनसे कुछ सीखो एवं परोपकारी बनो ! Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ १. परोपकारशून्यस्य, धिग् मनुष्यस्य जीवितम् । धन्यास्त पशवो येषां चर्माप्युपकरोति हि || परोपकारहीन मनुष्य का जीना धिक्कार चाम भी लोगों का उपकार करते हैं । २. स लोहकारभस्त्रेव दवसन्नपि न जीवति । 3 - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ freeकारी । ये पशु धन्य हैं, जिनके — योगशास्त्र उपकारहीन व्यक्ति लोहार की धोंकणी की तरह श्वास लेता हुआ मी मुर्दा है । २. तृणं चाहे वर मन्ये नरादनुपकारिणः । घासो भूत्वा पशु पाति, भीमन् पाति रणाय ।। ver ४. जो नृप मे अधिकार ले करें न परउपकार | पुनि ताके अधिकार में, आदि न रहत अकार ॥ ५. बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर | पंथो को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥ उपकारहीन व्यक्ति में तो में तृण को भी अच्छा मानता हूं, वासरूप से पशुओं की रक्षा करता है और संग्राम में रक्षा करता है । - शाकुन्तल क्योंकि वह कायरपुरुषों की -कमोर ॐ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. कृतघ्न १. कृतमुपकारं हन्तीति कृतघ्नः । किए हुए उपकार की जो घात करता है वह कृतघ्न है । २. कृतमपि महोपकारं, पयइब पीत्वा निरातङ्गः । प्रत्युत हंतु यतते काकोदरसोदरः खलो जयति । -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ५६ दुष्ट वृतघ्न किए हुए महान उपकार को दूध की तरह पीकर सर्प त्रत् उल्टा दूध पिलानेबाने को ही काटने की चेष्टा करता है। ३. खावे जिकी ही थाली में हंगे। • खावे जिकी ही थाली में कोई। • खावै खसम रो र गीत गावे वीर रा। -राजस्थानी कहावतें ४. मेरी बिल्ली और मेरे से ही म्याउ ! -हिन्दी कहावत ५. कृतना धनलोभान्धा नोपकारेक्षशक्षमाः ।। - कथासरित्सागर धन के लोभ में अन्धे वृत्तम व्यक्ति उपकार की दृष्टि से देखने योग्य नहीं होते। ६. कृतघ्नानां शिवं कुतः ! कयासरित्सागर कृतघ्नों का कल्याण कहाँ । १३६ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा भान दूसरा कोष्टक ७. गोध्ने चंध सुरापे च, चौरे भग्नव्रते तथा । निष्कृतिविहिता सदभिः, कृतने नास्ति निष्कृतिः ।। -बाल्मीकिरामायण ४१३४।१२ गोघाती, शराबी, चोर और व्रतभ्रष्ट-इन सबके लिए तो सत्पुरुषों ने प्रायश्चित्त का विधान किया है, किन्तु कतघ्न के विषय में कोई प्रायश्चित नहीं है। ८. ऋषि और चाण्डालिनी का संवादऋषि कर खप्पर शिर श्वान है, लोहु जू खरड़े हत्थ । छटकत मग चंडालिनी, ऋघि पूछत है बत्त: चाण्डालिनी-- तुम तो ऋपि भोरे भए, नहिं जानत हो भेव । कृतघ्नी की चरणरज, छटकत हूँ गुरुदेव ! Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ ► १. अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। उदार और उदारता - पञ्चतन्त्र ५/३० यह अपना है और यह पराया है - ऐसा विचार छोटी समझदा ही करते हैं, उदारचरितों के लिए तो सारी पृथ्वी ही उनका कुटुम्ब है । २. उदारमतवाले विभिन्न धर्मो में अनुदार फर्क देखते हैं । -सोनी कहावत ३. उदार आदमी का वैभव गांव के बीचोंबीच उगे हुए फलों से लदे हुए के समान है । वृक्ष -- तिरुवल्लुवर ४. परगृहे सर्वोऽपि विक्रमादित्यायते ॥ - नीतिवाक्यामृत १११३१ सभी मनुष्य दूसरों के घर में जाकर उसके धनादि को ध्यय कराने के लिए राजा विक्रमादित्य की तरह उदार हो जाते हैं । ५. उदारता अधिक देने में नहीं, किन्तु समझदारी से देने में है । १३८ — फ्रेंकलिन ६. उदारता के बिना मीटी वाणी पीतल की झनझनाहट एवं करताल की खनखनाहट है | - इसाईमंत पाल X Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठा भाग : दूसरा कोष्ठका वहीं तक गुणियों के गुण हैं और वहीं तक गुरुओं का गौरव है, जहाँ तक ये दूसरों के पास नहीं मांगते । मांगने पर गुण और गौरव दोनों नष्ट हो जाते हैं। ६. स्वार्थ धनानि धनिकात्प्रतिगृह्णतो य . ." दास्यं भजेद् मलिनता किभिवं, विचित्रम् । गृहन् परार्थमगि बारिनिधेः पयोऽपि, मनोऽप्रमति' सत्रलो.पि च कालिमानम् ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ७७ अगिरी में मरने लिए भनो माग में मेले के मुद ए आलिमा छा जाती है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। दूसरों के लिए समुद्र का जल गने पर भी देखो ! यह मेघ काला हो जाता है । ७. एहि गच्छु ! पतोत्तिष्ट ! वद 1 मौनं समाचर ! एवमाशाग्रहास्तः, को दन्ति घनिनोथिभिः ॥ -हितोपदेश २।२४ इधर आजा, चला जा, बंट जा, खड़ा हो जा, गोल, चुप हो जा ! आगारूप ग्रह में अमित याचकों के माय धनिक लोग-ऐसे खेलते रहते हैं। ८. याचक की प्रभु से प्रार्थना- ... हे करतार करू अरजी अब, भूल लिखी मत काहू के टोटो । ऐसी लन्नाट लिने मत काहु के, मांगन जाय महीपति मोटो॥ तू अपनो वृध जानत है प्रभु ! मांगन से कछु और न खोटो। नु बलि के जव द्वार गयो तब, यावन आंगल हो गयो छोटो ।। __-भाषाश्लोकसागर ६. मंगने से कोई गली छानी कानी । है लायो मांगन्तांग, तु ल ग री टांग। - राजस्थानी कहावत Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. वस्तृत्वकला के बीज १०. अद्भुत भिखारी-वि. सं. २००४ की बात है, बिलेपारला (बम्बई में हम एक दिन बाहर जा रहे थे । रंड़ी में बैठा हुआ एक अपाहिज मिला । जिसके हाथ-पैर नाक-कान कटे हुए थे। लंगोटी पहनी हुई थी एवं मुंह में सिगरेट थी। बड़ी खींचने वाला व्यक्ति कह रहा था, अपाहिज को कुछ दो, बड़ा पुण्य होगा। देखकर आश्चर्य हुआ और स्थानीय भाइयों से पूछा तो पता लगा कि गुंडों-बदमाशों की एक टोली है। उसका काम यही है कि बच्चों को उड़ाकर विक्षतांग बना नना और उनके सहारे दुनिया को ठग खाना । सुबह से शाम तक पचासों रुपये इकट्ठे कर लेते हैं । अपाहिज को केवल रोटी-सिगरेट आदि मिलते हैं । शेष रुपये बदमाशों की टोली हजम कर जाती है। - वनमुनि Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ याचना १. सेवेव मानमखिलं. ज्यारनेव तमो जरेत्र लावण्यम । हरि-हर कथे व दुन्ति, गुराशतमऽप्यऽथिता हरति ।। - हितोपदेश १।१३६ जैसे- मेया स्वाभिमान कोः बादली अपनाएको बुढ़ापा खूबसूरती को और हरि-हर की कथा सब पापों को हरती है, वैसे ही याचना संकड़ों गुणों को हर लेती है। २. विशाखान्ता गता मेधाः, प्रसवान्त हि यौवनम् । प्रशामान्तः सतां कोपो, याचनान्त' हि गौरवम् ।। -- सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ १६३ जसे विशाखा नक्षत्र के बाद मेघ, प्रसव के बाद स्त्रियों का यौबन और प्रणाम के बाद सत्पुरुषों का क्रोध नष्ट हो जाता है, वैसे ही किसी से कुछ मांगने के बाद गौरव नष्ट हो जाता है । ३. लघुल्बमूल हि किथितं व, गुरुत्वमुलं यदयाचनं च । -शङ्कर-प्रश्नोत्तरी १५ लघुता का मूत्र क्या है ? मांगना । गुरुता का मूल क्या है : नहीं मांगना । ४, बुरो प्रीति को पंथ, बुरो जंगल को वासो। बुरो नार को नेह, बुरो रख सों हांसो । बुरी सूम को सेब, बुरो भगिनीघर भाई । चुरो कुलन्छनि नार, सास घर बुरो जमाई । Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ वफ्लत्वकला के बीज बुरो पेट पंपाल है, कुरो युद्ध से भागनो। गंग कहे अकबर सुनो ! सबसे बुरो है मांगनी ।। ५. देपथुमलिनं वयं, दीना वाग, गद्गदस्वरः । मरणे यानि चिह्नानि, तानि चिह्नानि याचने ।। --म्यास कंपन, बदन का मलिन होना, दीनतायुक्त वाणी एवं गद्गदस्वर आदि, जो मरण के चिन्ह हैं, याचना करते समय यारक के शरीर में भी वे ही चिन्ह हो जाने हैं। ६. वदनाच्च बहिन्ति, प्रागाराचाक्षर: मह । ददामीत्यक्षरानुः, पुनः कदि विशन्ति हि ।। -कल्पतरु पाचना के सारे के साथ पानया के प्राण मह । बाहर निकल जाते हैं। फिर देता हूँ दाता के इन अक्षरों के गाथ कानों द्वारा पुनः अन्दर प्रवेश करते हैं। ७. देहीति वचनं श्रुत्वा, हृदिस्थाः पञ्च देवताः । मुखान्निर्गस्य गदछन्ति, श्री-हो-धी-शान्ति-कीर्तयः ।। -यातल मुझे कुछ दो-ऐसे बोलते ही हृदय में विराजमान श्री-लक्ष्मी, ह्रीलज्जा, धी-बुद्धि; शान्ति-कीति-ये पांचों देवता यात्रा के मुख से निकल जाते हैं। =. आव गया आदर गया, नैनन गया सनेहु । ये तीनों तब हो गए, जबहि कहा कालु देहु ।। -कबीर १. धनमस्तीति वाणिज्य, किंचिरस्तीति कर्पयाम् । सेवा न किनिदस्तीति, भिक्षा नैव च नंव च ।। -पास Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : दूमरा कोष्ठक १७॥ पर्याप्त न हो तो याणिज्य, थोड़ा धन हो तो खेती एवं धन बिल्कुल ही न हो नो सेवा-नौकरी करनी चाहिए, लेकिन भोख तो कभी नहीं मांगनी चाहिए। १०. मांगन-मरन समान है, मत कोई मांगो भीरख । मांगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥१॥ मर जाऊ मांग नहीं, अपने तन के काज । पर कारज के वारगो, मांगत माहि न लाज ॥२॥ बिन मांगे मो दुध बरावर, मांगे मिले सो पानी। कहे कबीर सो रक्त बराबर, जामें खींचातानी ।।३।। .-कबीर ११. अगमांग्या मोती मिन, मांगी मिले न भोख । - राजस्थानी कहावत १२. हर एक के पास मत मांग-- (क) याचा मोघा बरमधिगुग्गे नाधमे लब्धकामा। -~-मेषदूत गुणिजनों के समीप निष्फल मांगना भी अच्छा है, एवं अधमजनों से सफल मांगना भी बुरा है। (ख) आप तो अतीतदाम बाप तो फकीरदास, दादी है दिगम्बरदास भिखारीदास भाई है। काको है कंगालदास मामो है मंगतदास, ____ नानी है निरंजनदास जोगीदास जमाई है। पुत्र तो लफंदरदास, मित्र है कलंदरदास, साली है जलंदरदास ऐसी ही बड़ाई है। ताके पास जाये कुछ मांगिवे की आस करी, आस तो गई पं लाज गाँठ को गमाई है । -भाषाश्लोकसागर Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारपाना बीन (ग) रे रे चातक ! सावधानमनसा मित्र! क्षरणं अयता मम्भोदा बहवो सन्ति गगने सर्वेऽपिः नेतादृशाः । केचिद् वृष्टिभिरादयन्ति धरणी गर्जन्ति केचिद् वृथा, यं यं पश्यसि तस्य-तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः । --भतृहरि-नीतिशतक ५१ अरे मित्र चातक ! आकाश में अनेक मेश्र निवाग करते हैं, वे सभी बरसने वाले नहीं हैं। कई तो वृष्टि से पृथ्वी को गीली करते हैं एवं कई व्यर्थ ही गर्जना करते हैं, अतः मेरी बात सुन और हर एक के सामने दीनवचन मत बोस ! १३. किसने क्या मांगा? सासू माग्यो बोलरणों, बहुवर मांगी चुप । करसणी माग्यो वरषणों, धोबी माँगी धुप । -राजस्पानी नहा Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोसरा कोष्ठक १. यतः सवैप्रयोजनमिद्धिः सोऽर्थः । --मोतिवाझ्यामृत २०१ जिससे सब प्रयोजनों की सिद्धि हो, वह अर्थ (धन) है । २. अलब्ध कामो, लब्धपरिरक्षरणं, रक्षित परिवर्धन नार्थानुबन्धः । -नीतिवाक्यामृत २।३ अर्थ के तीन अनुबन्ध अर्थात् किये जाने वाले काम हैं-(१) अप्राप्त की कामना, (२) प्राप्त की रक्षा, (३) रक्षित को बढ़ाना। ३. अर्थस्य पुरुषो दासो, दासस्त्वों न कस्यचित् । -महाभारत-भीष्मपर्व मनुष्य धन का दास है. किन्तु धन किसी का दास नहीं । ४. अर्थषणा व्यसनेषु न गण्यते । -कौटिलीय अर्थशास्त्र धन की गवेषणा व्यसनों में नहीं गिनी जाती । ५. को न तृप्यति वित्तन ? -सभाषितरत्नसामंजूषा धन से कौन तृप्त नहीं होता? ६. दुन्दुभिस्तु सुतरामचेतन-स्तन्मुखादपि धन-धन-धनम् । इत्थमेव निनदः प्रवर्ततं, कि पुनदि जनः सचेतनः ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ६७ अचेतन दुन्दुभि के मुख से भी धन-धन-धन ऐसा शब्द निकलता है, तो फिर सचेतन मनुष्य धन-धन की रटना लगाये-इसमें क्या आश्चर्य है ? १७५ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन की भूख १. जातिर्यात रसातलं गुणगणस्तस्याप्ययोगचढ़ताच्छीलं खेलतटात् पतत्व भिजनः सन्दयतां वह्निना। शो गिगी बचमाशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः कवलं, येने केम बिना गणास्तृगालवप्रायाः समस्ता इमे ।। ..-मह हरि-नीतिशतक-३६ चाहे जाति पाताल को चली जाय, सारे गुण पासाल से नीचे चले जायें, शील पर्वत से गिर कर नष्ट हो जाय, स्वजन अग्नि में जलकर भस्म हो जाये और वरी-शौर्य पर शीघ्र ही वयात हो जाय-तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन हमारा धन नष्ट न हो, हमें तो केवल धन चाहिए, क्योंकि कब के दिशा गट के जाने में गुण तिन दीड निकम्मे हैं । २. बुभुक्षितव्याकरणं न भुज्यते, पिपासितः काव्यरसो न पीयते । न छन्दसा केनचिदुद्धतं कुलं, . हिरण्य मेवाजय निष्फला गुणाः ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार पृष्ठ ६७ भूखे व्याकरण नहीं लाया करते, ग्यासे वायरस नहीं पिया करते तथा वेद से किसी ने कुल का उद्धार नहीं किया, अतः धन का ही अर्जन करो I दूसरे सारे गुण निष्फल हैं। ३. न दुनियाँके हों काम धन के बगर , न मुर्दा भी उठता कफन के बगैर । मिले जर से कुब्बत ओ जर से तमीज , खजाने हैं जिसके वही है अजीज ॥ - शेर Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बता भाग : तोसरा कोठक ४. बसु बिना नो पशु, लक्ष्मी बिना नो लपोड़ अनें गरथ बिना ___नो गाँगलो। --गुजराती कहावत ५. धन जाय तिणरो ईमान जाय । -राजस्थानी कहावत ६. काका मामा गावानां, पासे होग ने स्दावाना। --गुजराती कहावत Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ السلم धन का प्रभाव १. यस्यास्ति वित्त स नरः कुलीनः, स पण्डितः स श्रतवान् गुमशः 1 स एव बक्ता स च दर्शनीयः, सर्व गणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।। भर्तृहरिनीतिशतक ४१ जिसके पास धन है-वस्तुतः वही कुलवान है, वही पण्डित है, वही झालो है, वही गुणज है, वही वयता है और बही दर्शनीय है। सारे गुण धन के आश्रित रहा करते हैं। २. पूज्यते यदपूज्योऽपि, यदगम्योऽपि गम्यते । वन्द्यते यदवन्द्योऽपि, स प्रभावो धनस्य च ॥ -पञ्चतंत्र १७ जो अपूज्य पूजा जाता है, अगम्य में गमन किया जाता है और अवन्दनीय को वन्दना को जाती है—वह सारा धन का ही प्रभाव है ! ३. धननिष्कुलीना: कुलीना भवन्ति, धनरापदं मानवा निस्तरन्ति। धनेभ्यः परो बान्धवो नास्ति लोके, धनान्यर्जयध्वं-नान्यर्जयध्वम्।। नीति सार धन से अकुलीन, कुलीन बन जाते हैं। धन से मनुष्य आपत्ति को पार कर देते हैं । संसार में धन के समान दूसरा कोई भी स्वजन नहीं है, अतः धन का जनार्जन कगे ! धन का उपार्जन करो !! ४. धन से बड़े-बड़े पापों पर पर्दा पड़ जाता है। --प्रेमचन्द ५. धन भाग्य की गड़ी है। -हिन्दी कहावत Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- बडा भाग : लीसरा कोड ६. हुवे पाताल-तप लिलाड़। . उदगी काई बोले है. जमों मायलो बोल है। ..-राजस्थानी कहावते 3. जिहदी कोठी दाने; ओहदे कमले वि सियाने। --- यह १. खिस्मा लर तो चाहे सो कर । . गांडे होय धन, सो हाजर जन । . गकर्मी नाँ साला धरणा, लीला वन नाँ सूडा घणा। --गुजराती कहावते ६. माया थारा तीन नाम, फरसो, फरसू, फरसराम । -रामस्थानी कहायत १०. अशा भक्त—यह एक दिन मैले काहों से मन्दिर में दर्शनार्थ गया किन्तु उसे अन्दर नहीं जाने दिया। दूसरे दिन बन ठन कर गया। लोगों ने कहा- आइये ! आदर आकर दर्शन कर लीजिए । भक्त ने अन्दर जाकर अपने आभूषण आदि मूर्ति के सामने रख दिये और कहने लगा-करो भाई भगवान के दर्शन, तुम्हारी ही पूछ है । ईश्वरचन्द्र विद्यासागर-इनको लाई हेस्टिग की तरफ से चार घोड़ों की बग्यो बबसी हुई थी। ये राज्य-सभा के मेम्बर थे । एक बार "दीगापतिया नरेश" के निमंत्रण पर ये सादी पोशाक में दल ही चले गये । अन्दर नहीं घुमने दिये, फिर बग्घी चढ़कर लाट-बाट से गये, सब बड़े होकर उनके परी पड़ने लगे तब उन्होंने कहा -"मेरे नहीं घोड़ों के पैर पकड़ो।" - १२. चुल्हा फूकनियां-निधन भाई को मौजाई बहन ने 'चूल्हा फकनियाँ" कहा । फूटी हांडो में ठंडी रोटी और खट्टी छाछ खाने को दो। फिर धनी बनकर आया तो पात्रों पकवान परोसे । भाई ने रुपों-मोहरोंहीरों-पन्नों के थाल भरकर रखते हुए कहा-लो भाई ! बहिन के पकवान खाओ 1 बहिन लग्नित हुई । Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन का उत्पादन १. न क्लेशेन विना द्रव्यम् । -वक्षस्मृति कष्ट सहे विना धन नहीं मिलता । २. विद्या उद्यम बुद्धि बल, रूप तथा संयोग । षट्कारा धन लाभ के, जानत है सब लोग || -पं. भद्धारामजी ३ सप्त बित्तागमा घा, दायो लाभः कयो जयः। प्रयोगः कर्मयोगश्व, सत्प्रतिग्रह एव च ।। -मनुस्मृति १०११५ धन की प्राप्ति के सातमार्ग धर्मयुक्त हैं—(१ दाय-पिता आदि का धन, (२) लाभ, (३) क्रम-व्यापार से प्राप्त, (४) जय–मुख में प्राप्त, (५) प्रयोग-ध्याज से प्राप्स, (६) कर्मयोग-खेती आदि से प्राप्त, (५) सत्प्रतिग्रह-अच्छे दाता से दान में प्राप्त । ४. यथा मधु समादत्ते, रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः । तद्वदन्मिनुष्येभ्य, आदद्यादत्रिहिसया ।। --विदुरनीति २०१७ जैसे-भौंरा पुप्पों को नष्ट किये बिना उनमें से मधुग्रहण कर लेता है, वसे धन के मूलसाधन को नष्ट किए बिना उसमें में घन ग्रहण करना चाहिए। १५० Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ धन का उपयोग १. घन उसका नहीं, जिसके पास है, बल्कि उसका है, जो उसका उपयोग करता है । - फ्रेंकलिन २. धन और विद्या का उपयोग नहीं करनेवालों ने व्यर्थ ६. जिसने घन से यश कमाया और भोगा वह भाग्यवान कमाया और छोड़कर मर गया वह भाग्यहीन | ४. उत्तमं स्वार्जितं भुक्त, मध्यमं पितुरजितम् । कनिष्टं भ्रातृवित्त' च स्त्रीवित्तमधमाधमम् ॥ - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ १६६ अपना कमाया धन खाना उत्तम है, पिता का कमाया हुआ खाना मध्यम है, भाई का घन खाना अधम है और स्त्री का धन खाना धमाधम है । ५. दानं भोगो नाश-स्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुङ्क्त, तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ १८१ कष्ट उद्याया । और जिसने बन - - पञ्चतन्त्र २११५७ धन की तीन गतियाँ होती हैं-दान, भोग और नाश । जो व्यक्ति न तो किसी को देता एवं न स्वयं खाता-पीता, उसके धन को तीसरी गति अर्थात् नाश होता है । ६. दातव्यं भोक्तव्यं, धनविषये संचयो न कर्तव्यः । पश्ये मधुकरीणां संचितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥ A - पञ्चतन्त्र २ १४४ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ वकला के बीज धन का दान एवं उपभोग करना चाहिए, किन्तु संग्रह नहीं । देखो ! संचितधन (म) दूसरे लोग हर लेते हैं । ७. त्यागाय श्रयसे वित्त वित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स प ेन, स्वास्यामीति विलम्पति इष्टोपदेश - १६० जो दान और पुण्य के लिए धन का संचय करता है, वह फिर नहा लूंगा – ऐसे सोचता हुआ अपने शरीर को कीचड़ से लिप्त करता है । ८. मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- माया के मालिक और माया के गुलाम । मालिक माया में आसक्त नहीं होते एवं उसके लिए अन्याय नहीं करते । गुलाम माया में फँस जाते हैं एवं उसके लिए अन्याय करते नहीं डरते | ६. महाजन की धन रोहों में, को - राजस्थानी कहावत X 1 : ן Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन का खजाना (अमेरिका में) समुद्र की सतह से ४० फुट नीचे एवं न्यूयार्क व्यापारी बस्ती से ७० फुट नीचे स्वतन्त्र संसार का सबसे बड़ा स्वर्ण-भण्डार है, जिसमें १२.५३ अरब डालर मूल्य का सोना मकान बनाने की ईटों के आकार में सुरक्षित है । प्रत्येक ईट २७-२८ पौंड यजन एवं १४ हजार अमरीकी डालर मूल्य की है। इसके सिवा ६.५ अरब डालर मोना फोट नोक्स (कंगटकी) में एवं ११.८ अरब डालर माना टकसालों व धातुविश्लेषक कार्यालयों में है । यह सारा सोना विदेशी सरकारों, बैंकों व अन्तर्राष्ट्रीय संस्थागों का है । इसे कोई खरीद नहीं सकता। .-मस्तान, १८ मार्च १९९८ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ रुपया १. संसदास संसार में, रुपियो बड़ी रसाए । अरणजादा जाण्या वो, पडदे पछाण ॥ संतवास संसार में, के रूपियो के राम वो दाता है मुगतरी, वो सारे सब काम || २. कर मैं कलदार, मन बाह्या लूटो मजा । दुनियां में दिलदार, चेहराशाही चकरिया ! ३. दाम करे काम, दुनियां करें सलाम । • रुपिया हुवं जद टट्टू चाल धन के विविधरूप • रूपली पल्ले, जद रोही में चल्ले । • रूपली हुई जद, शोभली आपे ही आय जायें • रूपलालजी गुरु और सब चेला | | ४, जेब में हो नगदुल्ला, नाचे बेटा अब्दुल्ला | १८४ ५. नगद नापी बींद परगोजे कारणो । हुआ सौ, भागा भी हुआ हजार, फिरो बजार - सोरठा-संग्रह - राजस्थानी कहावतें - हिन्दी कहावत - राजस्थानी कहावतें . L .. Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sण भाग : तीसरा कोष्ठक ६. पांचे मित्र, पच्चीसे पड़ोसी ने सोए सगो। -गुजराती कहावत ७. भज कलदारं भज कलदारं-मज कलदारं मूढमते ! -संस्कृत कहावत ८. रुपिय कनें रुपियो आवं। -.-राजस्थानी कहावत जाट के पास एक रुपया या, इधर टकसाल में कपमों के ढेर लग रहे थे। इसमें मुन्न , या भारों के ना ? आता है । जाट ने अपना रुपया उन्हें दिखाया। वह अकस्मात् हाथ से छूट कर टकसाल के रुपयों के पास चला गया । जाट देखता ही रह गया । ६. भरे ही को भरती है दुनियाँ मदाम । समंदर को जाते हैं दरिया तमाम् ॥ --उर्दू शेर १०, झपियों हाथ से मेल है। -राजस्थानी कहावत ११. खरी कमाई का रुपया-मारवाड़ के एक राजपूत ने दिल्ली के बादशाह के यहाँ नौकरी की। बारह वर्ष बाद उसे एक रुपया मिला । उसने उससे चार अनारें खरीदी और उन्हें बच्चों के लिए घर भेज दिया । वे चार लान में बिकीं। एक वर्ष बाद स्वदेश जाते समय नौकरी मांगने पर उसे म्न जाने से एक रुपया मिला और वह रास्ते में ही ग्यचं हो गया । विस्मित राजपूत ने बादशाह से भेद पूछा । उत्तर मिला कि पहला रुपया पसीने की कमाई का था (मैंने बस्तीम दिन लोहा कूट कर कमाया था) और दूसरा रुपमा प्रजा रो छीनकर लिया हुआ था। Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ (ख) पैसा १. पैसा पाप का मूल हैं, फिर भी विनिमय का साधन है, आवश्यकता का पूरक है, बेइज्जती व अकस्मात् घात का नाशक है, मान-प्रतिष्ठा का दायक है, आथमादि-लोकोपकारी प्रवृत्तियों का संचालक है। महाय युद्धों का उपशामक है, भोग-विलास की इसके बिना अशक्यता है तथा हाथ का मैल होने पर भी करोड़ों हाथ इसके लिए दौड़ रहे हैं । - पैसे के प्रशासक वक्तृत्वकला के बीज भगवान हो गया । सम्मान हो गया । २. पैसा बना मनुज के कर से, आज वहीं क्रय करता मानव का पैसा, उस ही का गई मनुजता दूर विश्व से पशुता का साम्राज्य हो गया। कहाँ गया वह रागराज्य, यह देखो रावणराज्य हो गया । P -- हिन्दी कविता ३. "तुलसी" इस संसार में, मतलब का व्यवहार । जब लम पैसा गाँठ में तब लग लाखों यार || 1 ४. पैसा जग में प्राण, पैसो ही जग में प्रभु । पैसो से सम्मान चिहुँ दिशि होने 'चकरिया' ! 5. Money my God, woman my guide. मनी माई गॉड वुमन माई गाइड पैसा मेरा परमेश्वर और स्त्री मेरी अगुआ । ६. कठेई जावो इस री खीर है। -- सोरठा संग्रह –अंग्रेजी कहावत - राजस्थानी कहावते तांबे की मेख, तमासा देख || ७. पैसे बिन तात कहे, पूत है कपल मेरो, पैसे बिन मात कहे मोहि दुखदायी है। पैसे दिन काका कहे, कौन को भतीज तीज, पैसे बिन सासू कहे कौन को जमाई है || 4 C Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खठा भाग : पहला कोष्ठक पैसे बिन नारी घरवारी घुटि करे पैसे बिन यार-दोस्त आँख ही छिपाई है। कहे कवि "देवीदास", याही जग साची भाष, कलियुग के वर्तमान पैसे की बड़ाई है। ८. जिसके पास नहीं है पंसा। जग में उसका जीवन कैसा ? -हिन्दी पण ६. पेसादार नी बकरी मरी ते बधा गामे जाणी। गरीबनी छोकरी मरी ते कोई ए न जाणी। --गुजराती कहावत १०. पैसे की कीमत भिवारी बनकर मांगने से जानी जाती है। ११. पैसा मां कोई पुरो नहीं, अक्वालमां कोई अधूरो नहिं । --गुजरातो कहावत १२. किसी भी कार्य का ध्येय पैसा नहीं होता, लेकिन अभानवश लोग मान बटे हैं। ज्ञान से देखें तो सरकार का ध्येय प्रजा का रक्षण करना है, माता-पिता का ध्येय संतान-पालन है, न्यायाधीश का ध्येय न्याय करना है. वकील का ध्येय न्यायी को बचाना है, हा पटर-वंद्य-हकीमों का ध्येय रोगियों को स्वस्थ बनाना है, शिक्षकों का ध्येय अशिक्षितों को शिक्षित बनाना है, लोकमान्यतिलक तथा महात्मागांधी जैसे महापुच्षों का ध्येय देश को मुखी और स्वतंत्र करना था, किन्तु पंसे से घर भरना नहीं।। -संकलित १३. न्याय-अन्याय का पंसा अम्बु अम्बासा एक टोपी सीकर एक पंसा पैदा करता था। दूसरा मित्र अन्याय से धन कमाता था। एक दिन उसने अन्धे को एक मोहर दी. धे ने शराब पीकर रंडीबाजी की। प्रथम ने मरा-पक्षी खानेवाले गरीब को एक पैसा दिया । उसने मांस खाना छोडा, चनों से निर्वाह किया, बुद्धि मुधरी । कारण न्याय का पंसा था । Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ वक्तृत्वकला के बीज (ग) चौदह रत्न-- १. एगमेगस्स गं रन्नो चाउरतं चक्कट्टिस चउदरस रयणा पन्नत्ता, तं जहाइत्थीरयणे, सेणाबइरयणे, गाहाबइयणे, पुरोह्यिरयणे, बड़ढइरयरणे, आसरयणे, हत्यि रयणे, असि रयणे, दण्डरयणे, चक्करयणे, छत्तरयणे, चम्मरमणे, मरिंगरयग, कागिरि। रयण । -- समचार्याग १४ जन सिद्धान्तानुसार प्रत्येक चत्रावर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं। उनके नाम-(१) स्त्रीरत्न (२) सेनापति रत्न (३) गाथापति रत्न (४ पुगेहितरत्न (५) वड़कि रत्न (६) अस्वरन (७) हस्तिरन (८) आसरस्न (E) दण्डरत्न (१०) चत्ररत्न (११) छत्ररन (१२) चर्म रत्न (१३) मणिरत्न (१४) काक्षिणी रहा । उपरोक्त चौदह रत्न अपनी-अपनी जाति में सर्वोत्कृष्ट होते हैं । इसीलिए ये रत्न कहलाते हैं । इन चौवह रत्नों में से पहले के साप्त रत्न पञ्चेन्द्रिय हैं । भेष सात रत्न एकेन्द्रिय गृथ्वीकायमय हैं । २. लक्ष्मीः कौस्तुभ-पारिजातक-सुग धन्वन्तरिश्चन्द्रमा, गावः कामघा सुरेश्वरगजो र मादिदेवाङ्गनाः । अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनः शङ्को दिप चाम्बुधे, रत्नानीति चतुर्दश प्रतिदिनं वायु: सदा मङ्गलम् ।। (३) लक्ष्मी (२) कौस्तुभमणि (३) कल्पवृक्ष (४) मदिरा (५) धन्वन्तरि . वैद्य (६) चन्द्रमा {७) कामधेनु गाय (८) ऐरावत हाथो (६) रम्भामआदि अप्सरा (१०) सात मुंहबाला उच्चश्रवा घोड़ा (११) अमन (१२) विष्ण-धनुष (१३) गन (१४) विष-वे चौदह रत्न सदा मंगल करें । (मागवतादि पुराणों के अनुसार जब देवों और दानवों ने मिलकर समुद्र-मंथन किया था तब उसमें से उपरोक्त १४ रत्न निकले थे ।) Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : दसरा कोष्ठक देश कुर क्रोना (घ) विभिन्न देशों की मुद्राएं :मुद्रा देश मुत्रा १. अर्जाइना पेसो २६. ग्वातेमाला श्वेतजल २, आम्द लिया पौड २५. ग्रीस ड्राम ३. अल्गोरिया झांक २८. धाना ४. आस्ट्रिया शिलिंग २९. हैती ५. बेल्जियम फ्रांक ३०. हांगकांग हांगकांग १. विटेन पौड (स्टलिंग) ३१. होंडुरास लेम्पोरा ७. बर्मा कियाट ३२. भारत रुपया .. बल्गेरिया लेवा ३३, आइसलैंड ६. सीलोन रुपया ३४. ईरान रिपल १०, कनाडा डालर ३५. इराक दीनार ११. कोलम्बिया सो ३६, हिन्देशिया रुपया १२. कोस्टारिका ३७. इटली लीरा १३. क्यूबा ३८, जापान १४. मलयेशिया डालर १६. मायरिश रिपब्लिक पौंड १५. चिली पेसो ४०. कोरिया ह्वान १६, कम्युनिस्ट चीन युआन ४१. जोर्डन दीनार १७. चेकोस्लोवाकिया काउन ४२. महान पौंड १८. डेन्मार्क क्रोनर ४३, सिएरासिओन कीटाउन १६, डोमीनिकन ४४. लेबनान २०. एल सालवडर कोलोन ४५. लक्रोमबर्ग फ्रांक २१. रिपब्लिक पेसो ४६. मवितको पेसो २२. फिनलैण्ड मारकका ४६. लीबिया २३, इथोपिया डालर १८. नीदरलैण्ड गिल्डर २४. जमनी माक ४६. मोरवको हरहम . २५. फांस न्यूफांक ५.. नावे कोम पेसो पौंड Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. पेश ५१. न्यूजीलैण्ड ५२. पाकिस्तान ५३. नोकारगुजा ५४. पेरू ५५, पनामा ५६. पोण्ड ५७. फिलीपं न ५८. रुमानिया ५६. पुर्तगाल ६०. सऊदी अरब ६१. स्पेन १२. सुडान ६३. दक्षिणी अफ्रीका मुद्रा पौड रुपया फोरडोबा सोल बालबोआ ज्लैरी पेसो लेव एसटी रियाल पेसेटा पौंड देश ६४. स्वीडन ६५. सीरिया ६६. तुर्की ६७. स्विट्जरलैंड ६८. मिस ६६. थाईलैण्ड ७०. गृहवे ७१. अमेरिका बबनला के बीज ७२. युगोस्लाविया ७३. सोवियत संघ ७४. नेपाल ७५. येनेजुएला सुवर क्रोनर पोड लीच 你 पाँड बहूर पेशे अलर दीनार स्कूल रुपया बोलिवर Xx Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन को निन्दनीयता १. अविश्वासनिधानाय, महापातकदेतदे, पिता-पुत्र विरोधाय, हिरण्याय नमोऽस्तुते । है घन ! तू अविश्वास का निधान है, महापाप का हेतु है और पिता पुत्र को लड़ाघाला है अतः तुझे दूर से ही नमस्कार है । २. अर्थानामजने द:ख-मजितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं विगर्थाः कप्टसंश्रयाः ॥ --पञ्चतन्त्र १७४ घन का संग्रह करने में दुःख है और संपहीतधन की रक्षा करने में भी दुःख है। धन की आय में दुःख है एवं उसके श्यय में भी दुःख है। अतः दु:ख के संश्रयरूप धन को विवकार है। ३. अर्थस्य साधने सिद्ध, उत्कर्षे रक्षणे व्यये । . नाशोपभोग आयास-स्त्रासश्चिन्ता भयं नृणाम् ॥ __..-सागवत १११२३९७ धन कमाने में, कमाकर उसे बढ़ाने में, रखने में, खर्च करने में, उसके नाश में या उपभोग में, जहां भो देखो, वहाँ परिश्रम है, पास है, चिन्ता है और मय है। ४. माया में भय है, काया में भय कोनी। -राजस्थानी कहावत ५. दौलत को दो लात है, "तुलसी" निश्चय कीन्ह । आवत अन्धा करत है, जावत करे अधीन । Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ पक्तत्वकला के बोल ६. कोर्थान् प्राप्य न मविन: ? —पञ्चतंत्र एन पाकर कौन गवित नहीं हुआ ? ७. स्तेयं हिसानृते दम्भः, कामः क्रोधः स्मयो मदः , भेदो वैरमविश्वासः, संम्पर्द्धा व्यसनानि च । एते पञ्चदशानर्था, ह्यर्थमूला मता मृणाम् । तस्मादनर्थमाख्यं, अंयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत् ॥ –श्रीमदभागवत ११।२३।१८-१९ . . १. चोरी, २. हिंसा, ३. झूठ, ४. दम्भ, ५. काम; ६. पोष, ७. चित्तोप्रति, ८. अहंकार, ६. भेदधुद्धि, १०. वर, ११, अविश्वास, १२. संस्पर्दा, १३. व्यसन अर्थात् व्यभिचार, १४. धूमा, १५. शराबये पन्द्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण से ही माने गये हैं। अतः कल्याणकामी पुरुष को अघ नामधारी इस अनर्थ का पूर से ही परित्याग कर देना चाहिए। ८. धन से नर्म बिछौना मिल सकता है, नींद नहीं; मन्दिर-मस्जिद बन सकते हैं, भगवान नहीं; भौतिकसुख मिल सकते हैं, आत्मिकसुख नहीं; प्रशंसक मिल सकते हैं, हितचिन्तक नहीं; दिलाव का मान मिल सकता है, हार्दिक सम्मान नहीं; पुस्तक खरीद सकते हैं. विद्या नहीं; नौकर रखा जा सकता है, सच्चा सेवक नहीं। --महेन्द्रकुमार वशिष्ठ ६. धन के लिए लाखों-करोड़ों व्यक्ति मुर्द-से होकर घूम रहे हैं, मगीनों की तरह दिन-रात खाट रहे हैं, जेलों में (चोर-डाकू आदि) सड़ रहे हैं, सघवा, विधवा, कुमारी स्त्रियां वेश्या बन रहो हैं, तोपर्यों में पंडे-पुजारी लोग लोगों को ठग रहे हैं, भाई-भाई लड़-झगह रहे हैं तथा सरकार प्रजा को लूट रही है और प्रजा सरकार को धोखा दे रही है । -संकलित Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठा भाग : तीसरा कृष्डिक - १०. दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीभुजो, गृह्णन्ति च्छलमाकलय्य हुतभुग् भस्मीकरोति क्षणात् । अम्भः प्लावयति क्षितो विनिहितं यक्षा हस्ते ह दुर्वास्तनया नयन्ति निधन far बह्वधीनं धनम् ॥ - सिन्दूरप्रकरण ७४ जाविजन स्पृहा करते हैं, चोर चुरा लेते हैं, छन द्वारा राजा ले लेते हैं, अग्नि भस्म कर डालती है, पानी बहा देता है, जमीन में लगा कर रखे को यक्ष हर लेते हैं तथा दुराचारी पुत्र इसको नष्ट कर देते हैं। अतः धिक्कार है बहुतों के अधीन रहनेवाले इस मन को ! ११. एक सौतेली मां ने अपने सौतेले पुत्र को विष देकर इसलिए मार डाला कि यह बड़ा होने पर मेरे पुत्रों के हक में हिस्सा लेगा । .... उत्तर प्रवेश की घटना वह उन्हें लेकर स्थान बताया । १२. ईरान के एक जमींदार को खेत में दो सिक्के मिले। बाजार में आया। पुलिस अधिकारी के पूछने पर उसने रात को साथियों सहित पुलिस अधिकारी ने वह स्थान खोदा । नीचे एक मकान निकला । अंधेरे में उतरे । सोने की रेत में बड़े मरे थे । ६५ करोड़ का धन था । बात फूटी ! सारे के सारे गिरफ्तार एवं घन 1 जब्त ! -अध्ययन के आधार पर * 7 Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्याय का धन १. पिपीलिकाजितं धान्यं, मक्षिकासंचितं मधु । अन्यायोपाजितं द्रव्यं, चिरकालं न तिष्ठति ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ १६१ चीटियों का इकट्ठा किया हुआ धान्य, मक्खियों का संचित मधु और अन्याय से उपार्जित श्रन-ये तीनों चीजें अधिक समय तक नहीं ठहरतीं। २. अन्यायोपार्जितं द्रव्यं, दशवर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते चंकादशेवर्षे, समूल च विनश्यति ॥ -जाणक्यनीसि १५॥६ अन्याय से पैदा किया हुआ धन दश वर्ष रहता है। ग्यारहवें वर्ष समूल नष्ट हो जाता है। ३. दुर्जनस्याजितं वित्त, 'भुज्यते राजतस्करः । -सुभाषितरत्नखण्डमंजूबा दुर्जनों का संचित धन प्रायः राज्य-कर्मचारी ही खाया करते हैं । ४. कीड़ी सच, तीसर खाय (आंधी पीस, कुत्ता खाय)। पापी रो धन पर लं जाय । -राजस्थानी कहावत ५. दूध ना दूध मां जाय न पाणी ना पाणी मां जाय । • चोर न पोटले धूल नी धूल। - गुजराती कहावतें ६. चोरी रो धन मोरी में। -राजस्थानी कहावत Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आय ४३० भारत १. विभिन्न देशों में प्रति व्यक्ति वार्षिक राष्ट्रीय आयनाम आय रुपयों में बर्मा ५५२ किस्तान (बंगालसंयुक्त) श्रीलंका ६४५ जापान ४२६० फांस १०,००० इंगलैण्ड १०,०८० आस्ट्रेलिमा ११,६४० अमरीका २२,००० -भारतीय अर्थशास्त्र, खण्ड २, पृष्ठ ३३ २. भारी आयमुगलेआजम–(फिल्म) ३९ सप्ताहों में सब खर्च निकाल कर १ करोड ७५ लाख का नफा कर चुका । --रंगभूमि से ३. आयकर (इनकमटैक्स)--वावर्ती लाभ का २८वां भाग, वासुदेव १०यो भाग एवं मांडलिक राजा छठवा भाग लिया करते थे। वर्तमान भारत सरकार के आय-कर का हिसाब, हिन्दुस्तान, २ मार्च १९६५ के अनुसार इस प्रकार है २२३ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ चार हजार रुपये तक की आमदनीवर कर नहीं । ५००० रु. पर २५०६०, १०००० हु० पर ७५० रु०, १५००० रु० पर १५००रु०, २०००० ६० पर २५००रु०, २५००० रु० पर ४००० रु०, ३०००० ० पर ६००००, १६००० रा० २५००० रु०, ४७५००१.० ५० हजार रु० पर ६० हजार रु० पर १ लाख रु० पर कला के बीज २|| लाख रु० पर १५०००० ०. ढाई लाख से ऊपर की आमदनी पर ७५ प्रतिशत । सम्पत्ति कर - ५० लाख पर १ लाख ६२ हजार । मृत्यु करें – ३० लाख पर १५ लाख २२ हजार | -सन् १६६६ को सरकारी रिपोर्ट के आधार पर ¤ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ध्यय १. इदमेब हि पण्डित्यं, चातुर्यमिदमेव हि। इदमेव सबद्धित्व-मायादल्पतरो व्ययः ॥ यही पण्डितता, चतुरता और सुत्रुद्धिमना है कि आमदनी से कम खर्च किया जाये। 2. Cul your coat according to your cloth, कट योर कोट एकोइिंग टू योर क्लोथ । --अंग्रेजी कहावत अपनी आमदनी के अनुगार खर्च करो। ३. खर्च व अंदाजे दखल कुन । -पारती कहावत आमदनी को देख कर खर्च । ४. बीस पौंड की आमदनी में यदि खर्च उन्नीस पौंड उनीस सिलिग छः पेन्स है तो सुन्न होगा और मदि बीस पौंड उन्नीस सिलिंग छः पेन्स है तो दुल होगा। -मिकापर ५. आयमनालोचन व्ययमानो वैश्रवणोऽपि श्रमणायत एव । -~-नीतिवाक्यामृत ११० आमदनी को न देखकर खर्च करनेवाला वैश्रवण (कुबेर) भी फकीर हो जाता है। २२५ -- Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ६. नित्यं हिरण्यव्ययेन मेरुरपि क्षीयते । करने हमेशा ७. अस्सी री आंबद चौरासी रो खर्च | • साहजी सूरा लेखा पूरा । • घर तंग-बहू जबरजंग | ● आभो टोपसी-सो दीखे है । का मेरा भी क्षीण हो जाता है । कला के मीक नीतिवाक्यात ८५ - राजस्थानी कहावतें ८. सन् १९६६-६९ के बजट के अनुसार भारत सरकार की कुल आमदनी ४२६६ करोड ५६ लाख यो तथा खर्च ४५६६ करोड़, ५६ लाख हुआ । हिन्दुस्तान, २ मार्च १९६८ सुरक्षा बजट में अध्ययन के के वर्ष अक्तूबर में ६. संसार का वार्षिक रक्षाव्यय १५ हजार खरब रु०संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्थास्त्र की होड़ तथा निरन्तर वृद्धि के सामाजिक और अधिक परिणामों लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित की थी। उसने गत महासचिव को एक रिपोर्ट दी। उसके अनुसार १६६१ से बीच के दस वर्षो में संसार का रक्षा व्यय ५०० खरब अलर (३७५० खरब रुपये) से बढ़ कर २००० सुरब डालर (१५००० खरब रुपये } वार्षिक हो गया है। - हिन्दुस्तान १ अगस्त १६७२ १६७२ के Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- । अपव्यय-निषेध १. व ला तुबज़ ज़िर तब् जीरन् ऽ० ! --गुराग १७।२६ फिजूल-खर्ची न करो। २. न तो अपना हाय गर्दन से बांध रख और न (फिजूलखर्ची से) उसे बिलकुल खुला फैलादे। -कुरान १७॥२६ ३. धन कमाने की अपेक्षा खर्च करने में अधिक बुद्धिमत्ता चाहिए । अयोग्य स्थान में स्त्र करने से धन का दुरुपयोग होता है । ४. किसी भी चीज में पैसा लगाने से पहले अपने आप से दो प्रश्न पूछो क्या मुझे इस चीज की जरूरत है ? क्या इसके बिना मेरा काम चल सकता है ? –सिडनी स्मिथ ५. जान मुरेनी को बत्तियां जला कर कुछ लिख रहे थे। दो कार्यकर्ता उनसे कुछ चन्दा लेने आये | आते ही एक बत्ती बुझा दो एवं उन्हें आशातीत चन्दा दिया । बसी बुझाने का कारण पूछने पर बोल-दो बत्तियां लिखने के लिए थीं, आपसे बातचीत एक बत्ती के प्रकामा में भी हो सकती है, व्यथं व्यय करना मेरे सिद्धान्त से विपरीत है। Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ १. ऋण लेने का अर्थ है, दुःख मोल लेना । ५. ऋण लेनेवाला ऋण देनेवाले का वास है । ६. अधम ग्राहकस्यादुत्तमर्णस्तुदायकः । ऋण (कर्ज) २. आदमी के लिए कर्ज ऐसा है, जैसा चिड़िया के लिए साँप ५. न त्रिषविषमित्याहु ब्रह्मस्वं विषमुच्यते । विषमेकाकिनं हन्ति, ब्रह्मस्वं पुत्र-पौत्रकम् ॥ - सुभाषितरत्नभाण्डार, पृष्ठ १०२ चिप विष नहीं है, वास्तविक विष ऋण है। क्योंकि विष तो केवल खाने वाले को मारता है, किन्तु ऋण उसके पुत्रपौत्रों की भी ४. ऋणी होना ही सबसे बड़ी निर्धनता है । - टसर २२८ - एम. जी. लोश्वर - म कोष- ३।५४६ श्रण लेनेवाला अभ्रमणं और देनेवाला उत्तमर्ण कहलाता है । ७. स्त्रियों को सोचना चाहिए कि हमारी वेषभूषा एवं शृङ्गार के लिए पतिदेव कर्जदार तो नहीं बन रहे हैं ? ८. सरकार चाहें तीन वर्षे बाद छुटकारा करदे तथा बेशर्म होकर यहाँ चाहे कोई दिवालिया कहलाकर ऋणमुक्त हो जाय लेकिन धर्मशास्त्रानुसार अनन्तजन्मों तक भी कर्ज को चुकाये बिना प्राणी ऋण मुक्त नहीं हो । सकता । Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : तीसरा कोष्ठक ६. एक व्यापारी को बड़ा घाटा लगा । वह राजा भोज के यहाँ से एक बड़ी रकम ऋण के रूप में लेकर घर की ओर चला । रास्ते में यह एक रात तेली के घर रुका। व्यापारी भाषा समझता था। उसने तेली के दो बलों की बातें सुनी। एक ने कहा- मैं इस तेली का कर्ज सुबह तक चुका कर इस योनि से छूट जाऊंगा। दूसरे ने कहा- यदि १००० रु० की शर्त पर राजा भोज के बैल की मेरे साथ दौड़ हो जाय तो जीत जाऊ और में भी ऋण मुक्त हो जाऊं पहला बैल अगले दिन सुबह व्यापारी के सामने ही मर गया । उसके ने रात का सारा हाल तेली को कह सुनाया । यह सुनते ही तेली ने राजा के बैल के साथ दौड़ की होड़ लगाई। दौड़ में तेली का बैल जीत गया । १००० रु. तेली को मिल गये 1 रुपये मिलते ही बैल मर गया । यह देखकर व्यापारी ने राजा को रुपये लौटाते हुए बैलों का सारा हाल सुनाया और कहा- राजन् ! इस जन्म में तो मैं यह कर्ज हरगिज चुका नहीं सकता और अगले जन्म के लिए कर्ज का बोझ उठाना मुझे उचित नहीं लगता । - कल्याण सत्कथा अंक से मरते ही ब्यापारी १०. अधिक ऋणवाले— (क) बहु दुखिया ने दुख नहीं, ने बहु ऋरणीया ने ऋण नहि । -गुजरती कहावत (ख) चड़िया सौ ते नट्ठा भउ । ११. भारत पर विदेशों का ऋण २२६ - पंजाबी कहावत - १९४७ में जब भारत स्वतन्त्र हुआ, उस समय भारत का विदेशों में १,७०० करोड़ रुपये जमा थे, अर्थात् प्रत्येक भारतवासी ५० रुपये का पावनेदार था । 'स्टेट्समैन' १२ जुलाई १६७१ के अनुसार अप्रैल १६७१ के अन्त तक भारत ६,६०२ करोड़ रुपये का विदेशी कर्जदार बन चुका है अर्थात प्रत्येक भारतीय १५० रुपये का देनदार हो चुका है । नवभारत टाइम्स १६ नवम्बर १९७१ (श्री रामेश्वर टॉटियां के लेख से ) x Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० उधार १. उधार न दो और न लो । देने से पंसा और मित्र दोनों खो जाते हैं तथा लेने से किफायत सारी कुण्ठित हो जाती है। --शेक्सपियर २. उधार देने के विषय में(क) नटे विटे च वेश्यायां, द्य तमार विशेषतः । उद्धारके न दातव्यं, मुलनाशो भविष्यति । नट, विट, वेश्या और जुआरी-इन को उधार (ऋण) धन नहीं देना चाहिए, दने से मूलधन का ही नाश हो जाएगा। (ख) रिश्तेदारों को दिए, रुपये अगर उधार । तो समझो ! दुश्मन बने, अन्न वे रिस्तेदार ।। —बोहासंचोह (ग) उधारी चे बोतें सब्बा हाथ रीते । - मराठी कहावत उधार देना आना नुकसान करना है । (घ) उधार दी र, दुश्मरण की । . उधार दियो र, गिरायक गमायो । • उधार देवणो, लड़ाई मील खेवणी है। -राजस्थानी कहावत ३. उधार लेने के विषय में(क) उधार मांगना भीख मांगने ले ज्यादा अच्छा नहीं है । -लसिंग २३० Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग तीसरा कोष्टक (ख) उधार लिया हुआ पैसा गम का सामान बन जाता है । (ग) जिसे उधार लेना प्रिय लगता है, उसे अदा करना अप्रिय लगता है । (घ) फूस का तपना और उधार का खाना | (ड) उधारनी मां ने क़तरा परणे । (च) उधार घर की हार ४. नगद और उधार (क) ए बर्ड इन हैंड इज वर्थ टू इन दि बुश । नौ नकद न तेरह उधार | (ख) सपने रासात, परतख रा पाँच । (ग) रोकड़ा आज में काले उधार | उधार तो कहे ओ ! खूर्ण बंसीने रो, नगद कहे जी ! जी ! खा खीचड़ो में घी । - हिन्दी कहावते --Aret vapau - राजस्थानी कहावत २३१ अंग्रेजी कहावत — राजस्थानी कहावत — गुजराती कहावतें (घ) माँग खाओ, कमा खाओ, चाहे उषाय खाओ | - राजस्थानी कहावत ५. उधार के प्रशंसक - (क) उधारे हाथी बंधाय. रोकड़े बकरी पर न बंघाय । (ख) लाख लखांरा नीपजं, बड़-पीपल री साख । नटियां महतां नेणसी, तांचो देश तलाक ॥ ( उधार लेकर न देनेवालों के लिए) - गुजराती कहावत * Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ १. मॅनी ए लिटल मेक्स एमिक्ल । बूंद-बूंद से तालाब भर जाता है । २. अन्दक बन्दकले शबद व कज़रा-कतरा से गर । और ग बूंद ३. जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः । -- अंग्रेजी कहावत संग्रह जल की एक-एक बूंद गिरने से घड़ा भर जाता है । ४. कालेन संचीयमानः परमाणुरपि संजायते मेः । २३२ - पारसी कहावत - सुभाषितरत्न-खण्ड मंजूषा - नीतिवाक्यामृत १३० संचय करते-करते कालान्तर में परमाणु भी मेरु बन जाता है । ५. कोड़ी-कोड़ी संचलां रुपियो श्राय, कांकरे कांकरे पाल बंधाय टीपे-टीपे सरोबर भराय । ६. कोड़ो कोड़ी करतां लंक लागे । ७. कर कसर ते बीजो भाई ने बेवड़ (संग्रह) त्रीजी भाई । -- गुजराती कहावत -- राजस्थानी कहावत - गुजराती कहावत Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : तीसरा कोष्ठक २३३ ८. धन का सहजसंग्रह करने के लिए गृहणियों घर खर्च में से कुछ बचाती मां-बाप बच्चों के 'गोलख' व्यापारी लोग अपने नोकरों के वेतन का कुछ भाग काटते हैं । अल्पबचत योजना का भी मूल ध्येय यही है | हैं, गृहस्थ लोग जीवन बीमा करवाते हैं, बनाते हैं तथा सरकार और बड़े-बड़े ¤ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याज - - -. १. व्याज ने प्रोड़ा न पहोंचे । • ब्याज ने विसामो नहिं । --- गुजराती कहावत २. मिनख कमावं चार पार, ब्याज कामा आठ पोर । -राजस्थानी कहावत ___३. व्याज भला-भलानी लाज मुकावें। —गुजराती कहावत ४. ६५ वर्ष पूर्व मुकाबूराम ने मकान गिरवे राज़ कर १६५६ में उसे छुड़ाने गया । चक्र ध्याज के हिसाब से २२ करोड ३४ लाख ६५ हजार ७८३ रुपये हुए। ५. एक रामेलका लीधी तो माझा राम (आनो)। चढ़े त्या शुं बाकी रहे । ---- गुजराती कहावत ६. मूल व्याज प्यारो। --राजस्थानी कहावत ७. हबीब अजमी एक दिन कर्जदारों के यहाँ से आटा, चावल एवं नवाड़ी उठाकर ले आये । रांबते समय हांडी में खून देखकर स्त्री चौकी । हबीब प्याज का धन्धा छोड़कर फकीर हो गये । --इस्लाम धर्म क्या कहता है ?" के माधार पर ९३४ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा कोष्ठक आत्मा १. जे आया से बिनाया, जे विन्नाया से बाया । जेरग वियागाइ से आया । तं पडुच्च पइिसंखाए ।। -आचारोग-५५ जो आत्मा है, वह विज्ञाता है । जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है । जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती है। २. जो अहंकारो, भगिनं अयलक्खणं । -आचाराग चूणि-१।११ ग्रह जो अन्दर में 'अहं' को चेतना है, यह आत्मा का लक्षण है। ३. यत्राहमित्यनुपरितप्रत्यय, स आत्मा। -नौतिवाक्यामृत ६४ जहाँ "मैं हूँ" ऐसा सुदृढ़ निश्चय हो, वह आत्मा है । ४. जिस हस्ती को वेदान्ती ब्रह्म कहते हैं, भवत भगवान कहते हैं, उसे योगी आत्मा कहते हैं। --रामकृष्ण ५. बिने अपने जीवन के लिए मन, प्राणा, और शरीर की गर्ज नहीं, अपने ज्ञान के लिए मन और इन्द्रियों की गजं नहीं और अपने आनन्द के लिए पदार्थभाष के बाह्यस्पशं की गर्ज नहीं, उसी तत्त्व का "आत्मा' नाम दिया गया है। ---अरविर घोष २३५ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तृत्वकला के बीज ६. अत्ता हि अत्तनो नायो, को हि नाथो परे सिया ? --धम्मपद-१२।४ आत्मा हो आत्मा का नाथ (स्वामी) है, दूसरा कौन उसका नाथ हो सकता है ? ७. जारिसिया सिङ्गापा, भवमल्लियजीव तारिसा होति । --.नियमसार-४७ जसो शुद्ध आत्मा सिद्धों (मुक्त आत्माओं) की है । मूलस्वरूप में असी ही संसारस्थ प्राणियों की है। ८. हस्थिस्स य कुथुम्स य समे चेब जीवे । -भगवती ७ आत्मा की दृष्टि से हाथी और कुथुआ-दोनों की आत्मा एक समान है । Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का स्वरूप १. अस्वी सत्तः, पासा पनि । -आचारांग-५६ आत्मा का मूलस्वरूप अरूपी है । उसको कहने के लिए कोई शब्द नहीं है । वास्तव में यह अवाच्य है। २. सव्वे सरा नियति, तक्का जत्थ न विजई। मई तत्थ न गाहिया ॥ -~आचारांग ५१६ आत्मा के वर्णन में सबके राब शब्द नियत हो जाते है-समाप्त हो जाते हैं ! यहो तर्क को गति भी नहीं है और न बुसि ही उसे ठीक तरह ग्रहण कर पाती है। ३. नेषा तर्केरण मतिरापनेमा । --कठोपनिषद-२६ यह आत्म-ज्ञान कोरे तर्क-वितर्को से झुटलाने जैसा नहीं है । ४. अमुर्तरचेतनो भोंगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः ।। अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म, आत्मा कपिलदर्शने । -स्थाद्वादम जरी १५ टोका सांख्य दर्शन में आत्मा अरूपी है, चेतनायुक्त है, कर्मफल भोगनेवाली है, नित्य है, सर्वव्यापी है, क्रियाशून्य है, अकर्ता है, निर्गुण है और सूक्ष्म है। २३७ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. से न स . न स्वे, न गंधे, न रसे, न फासे । --आचाराग-५१६ आत्मा न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है। ६. आत्माऽगृह्यो, न हि गृह्यते, अशीयों न हि शीर्यते । असंगो, न हि सज्यते; असितो न हि व्यथते, न रिष्यो । - वृहदारण्यक उपनिषद-३।६२६ आत्मा अग्राम है, अतः वह पकड़ में नहीं आता; आत्मा अशीयं है, अतः वह क्षीण नहीं होता, आत्मा अमंग , तः वह सी से लिप्त नह। होता, आत्मा असित है--बंधन रहित है, अतः वह व्यषित नहीं होता, नष्ट नहीं होता। ७. नो इन्द्रियग्गेज्म अमृत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्वं । -उत्तराध्ययन-१४।१६ आत्मा आदि अमूर्त तत्त्व इन्द्रियग्राह्य नहीं होते और जो अमूर्त होते हैं, वे अविनाशी-नित्य भी होते हैं । - ८. अरिदियगुणं जीवं, दुग्नेयं मंसचक्रबुणा । ___-दशवकालिक नियुक्ति भाष्य ३४ आत्मा के गुण अनिन्द्रिप-अमूत्त है, अतः उन्हें चर्म-चक्षुओं से देख पाना कठिन है। Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ आत्मा की शाश्वतता आदि १. नत्थि जीवस्स नासो नि । -उत्सराध्ययन २।२७ आस्मा का कभी नाश नहीं होता। २. गिगच्चो अविरणासि सासबो जीवो। -वशवकालिक नियुक्ति-भाष्य ४२ ___ आत्मा नित्य है, अविनाशी है एवं शाश्वत है । ३. न जायते म्रियते वा कदाचिद्, नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२०॥ नेन छिन्दन्ति शस्त्रारिए, ननं दहति गावकः । न चैन क्लेदपन्यागो, न शोषयति मारुतः ।।२३।। -गीता अ०२ यह आत्मा न कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है अथवा न यह आत्मा होकर के दुबारा होने वाली है। क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और गुगतन है ॥२०॥ इस आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न इसको आग जला सकती है न इसको जल गीला कर सकता है और न इसको वायु सुखा सकती है ॥२३॥ ४. आत्मा को परिमितता(क) बालाग्रशतभागस्य, शतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञ यः, स चामन्त्याय कल्पते ॥ -श्वेताश्वतर उपनिषत् ५।६ २३२ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनत्वकला के बीज बाला केसी भाग के सौ भाग जितना जीव होता है, वह अनन्त परिणामवाला है। (ख) अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ऽन्तरारमा । सदा जनानां हृदये सनिविष्टः॥ -स्वेताश्वतर उपनिषद-३।१३ अगुष्ठ मात्र परिमाण याला अन्तर्यामी परमात्मा मनुष्यों के हृदय में सम्यक् प्रकार रो स्थित है। ५. आत्मा को अलिङ्गिता(क) न इत्थी, न पुरिसे न, अन्नहा। -आचारांग-५६ आत्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है ।। (ख) नंब स्त्री न पुमानेप, न चेवायं नपंसः । यद् यच्छरीरमादत्त, तेन-तंन स युज्यते ।। -श्वेताश्वतर उपनिषत् ५।१० यह आत्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न यह नपुसक है। जो-जो शरीर धारण करता है, उस-उस नाम से युक्त हो जाता है। (ग) वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ गीता २२ जैसे-मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नए शरीरों को धारण कर लेता है। Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का कर्तृत्व १. अप्पा नई वेयरपी, अप्पा में कूद सामली। अप्पा कामदुहाधेणू, अप्पा मे मन्दणं वणं ॥३६।। अप्पा कत्ता विकत्ता य. दुहारा प सूहाण य । अणा मित्तममिनच, दुप्पट्ट्यि सुपट्ठिओ ।।३७॥ ___ - उत्तराध्ययन २० मेरी (पाप में प्रवृत्त) आत्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष के समान (कष्टदायी है । और (सत्कार्म में प्रवृत्त) कामधेनु गरी आत्मा ही एवं नन्दनवन के समान (मुखदायी) भी है ।३६॥ आत्मा ही सुख-दुःख की कर्ता और भोक्ता है। सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र के तुल्य है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है ।१७। २. आत्मानमेव मन्येत, कारं सुख-दुःखयोः ।। -चरकसंहिता मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आत्मा को ही सुख-दुःख की कर्ता माने । ३. स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तरफलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते ।। ___-चाणक्यनीति ६९ आत्मा स्वयं कर्म करती है और स्वयं उसका फल भोगती है। स्वयं संसार में भ्रमण करती है और स्वयं उससे मुक्त होती है । Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ गमका तीन ४. से सुयं च मे अज्झरिययं च मे, बंध-पमोस्रो तुज्झ अज्झत्थेव । --आचारसंग-शर मैंने सुना है और अनुभव भी किया है कि बन्धन की मुक्ति आरमा के अन्दर ही है। ५. उद्धरेदात्मनात्मान, नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धु-रात्मैव रिपुरारमनः ॥५॥ बंधुरात्मात्मनस्तस्य, येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे, बर्रातात्मैव शत्रुवत् ॥६॥ -गीता-म. आत्मसंयम द्वारा आत्मा का उद्धार करो। कुत्सित प्रवृत्तियों द्वारा आत्मा को विवाद-दुःख मत पहुँचाओ। आत्मा ही आत्मा को बन्धु है और आत्मा ही आत्मा की शत्रु है ॥५॥ जिसने आत्मा को अर्थात मन-इन्द्रियों को आत्म-संयम द्वारा जीत लिया है, उसके लिए उसकी आत्मा मन्षु है और जिसके मन-इन्द्रियो अपने वश में नहीं है, उसके लिए उसकी आत्मा शन है ॥६॥ ६. एगप्पा अजिए सत्त । -सराध्ययम-२०१८ स्वयं की अविजित-असंयत आत्मा ही स्वयं का एक शत्र है। ७. न त अरी कंठछिता करेई, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । --उत्तरम्पयम-२०४८ गर्दन काटनेवाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी हा दुराचार में प्रवृत्त अपनी आत्मा कर सकती है। Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन • १. आत्मा व अरे द्रष्टव्यः, श्रोतव्यो, मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः। आत्मनो वा अरे दर्शनेन, श्रवगेन, मत्या, विज्ञानेन इदं सर्वविदितम् ॥ -बहदारण्यक उपनिषट्-२।४।५ आत्मा का हो दर्शन करना चाहिए, आत्मा के सम्बन्ध में ही सुनना चाहिए, मनन-चिन्तन करना चाहिए और आत्मा का ही निदिध्यासनध्यान करना चाहिए । एकमात्र आत्मा के ही दर्शन से, श्रमण से, मनन-चिन्तन से और विज्ञान से-सम्यक् जानने से सब कुछ जान लिया जाता है। २. आत्मावलोकने यत्नः, कर्त्तव्यो भूतिमिच्छता। --पोगवाशिष्ठ ५॥७१।४६ कल्याण की इच्छा रखनेवाले को आत्मदर्शन करने का प्रयल करना चाहिए। ३. पुष्पे गन्धं तिले तैलं, काष्ठेऽग्नि पयसि घृतम् । इक्षौ गुडं तथा देहे, पश्यात्मानं विवेकतः ॥ —चाणक्यनीति २१ (जैसे--पुष्प में गन्च, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि और ईख में गुड़ विद्यमान है, वैसे हो देह में आत्मा विद्यमान है। उसे विवेकपूर्वक देखो। २४३ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ४. अणोरणीयान्महतो महीयानाः। तमस्तु पश्यति वीतशोको, धातुप्रसादान्महिमानमीशम् ॥ --कठोपनिषत् २।२० आत्मा अणु से भी अणु (छोटी) है और महान से भी महान ( बड़ी ) है । प्रत्येक प्राणी के भीतर छिपी है । जो निरीह है, उसे अपने मन और इन्द्रियों की शक्ति से इसके दर्शन होते हैं। ५. रागद्वेपादि कल्लोलं- रलोलं यन्मनोजलम् । स पश्यत्यात्मनस्तस्वं तत्तत्त्वं नेतरो जनः ॥ -समाधिशलक ३५ राग-द्वपादि की कल्लोलों से जिसका मनरूप जल चंचल नहीं होता; वहीं व्यक्ति आत्मा के तत्व को देख सकता है, दूसरा नहीं । ६. नष्टं पूर्वत्रिकरपे तु यावदन्यस्य नोदयः । निर्विकल्पवचतन्य, स्पष्टं तावद्विभासते ॥ कला के बी - लघुवाक्यवृत्ति पूर्व विकल्प नष्ट होने के बाद, जब तक दूसरा विकल्प उत्पन्न नहीं होता, उम समय तक निर्विकल्प आत्मा स्वष्टरूप में दृष्टिगोचर होती है । उपरतस्तितिक्षुः, ७. शान्ती दान्त समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पचति । -बुदारण्यक उपनिषद् - ४/४/२३ शम, दम, उपरति, तितिक्षा (श्रद्धा) तथा समाधानरूप षट्सम्पतियुक्त जिज्ञासु ही आत्मा का आत्मा मे दर्शन करता है । Xx Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ १. एतदात्मविज्ञान' पाण्डित्यम् । आत्मा का ज्ञान - राज्यक उपनिषद ३५१ वस्तुतः आत्म-ज्ञान ही पाण्डित्य है । २. अज्ञातस्वरूपेरण, परमात्मा न आत्मैव प्राग् विनिश्जेयोः विज्ञातुं पुरुषं परम् ॥ बुध्यते । - ज्ञानार्णव, पृष्ठ ३१६ अपने स्वरूप को नहीं जाननेवाला परमात्मा को नहीं जान सकता । अतः परमात्मा को जानने के लिए पहले अपनी आत्मा को हो निश्चयपूर्वक जानना चाहिए। ३. वाखरी शब्दभरी शास्त्र-व्याख्यानकौशलम् । दुय विदुषां तद्वत् भुक्तये न तु मुक्तये ॥ अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला । विज्ञापि परे तत्त्थे, शास्त्राधीतिस्तु निष्फला - विवेकचूडामणि- ६०-६१ आत्मज्ञान के बिना विद्वानों को वाक्कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्यान को कुशलता और विद्वत्ता - ये सब चीजें भोग का ही कारण हो सकती हैं, मोक्ष का नहीं ॥ ६०॥ -L आत्मतत्त्व न जानने पर शास्वाध्ययन व्यर्थ हैं तथा उसे जान लेने पर मी शास्त्राण्ययन व्यर्थ हूँ ॥ ६१ ॥ २४५ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ वक्तृस्वकला के बीज ४. ज्याँ लगे आतम तत्त्व चीन्ह्यो नहीं, त्यां लगे साधना सर्व झूठी । -- नरसी भगत ५. वद- रिणयमारिण घरंता सीलाणि तहां तवं च परमट्ठबाहिरा जे, शिध्वाणं ते ग - समयसार - १५३ भले ही व्रत नियम को धारण करें, तप और शील का आचरण करें, किन्तु जो परमार्थरूप आत्मबोध से शून्य है, वे कभी निर्माण को प्राप्त नहीं कर सकते 1 ६. आत्मज्ञानात् परं कार्य न बुद्धी धारयेच्चिरम् । 3 कुर्यादवशात किंचिद् वाक्कायाभ्यामतत्परः । कुव्वता । त्रिति ॥ -समाधिशतक ५० आत्मज्ञान के अतिरिक्त कोई भी कार्य का चिन्तन नहीं करना चाहिए, प्रयोजनयश कोई कार्य रहकर केवल वचन ही काया द्वारा करना चाहिए । ७. अगर मुझे अपनी फिलॉसफी कोई एक शब्द में कहने को कहे, तो मैं कहूंगा - 'आत्मनिर्भरता' - 'आत्मज्ञान' 1 5. दुक्खे गज्जद अप्पा | आत्मा बड़ी कठिनाई से जानी जाती है । ६. तस्मं तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा । — रामतीर्थ - मोक्षपाहुड-६५ - केनोपनिषद्-४८ आत्मज्ञान की प्रतिष्ठा अर्थात् बुनियाद तीन बातों पर होती है--- पदम (इन्द्रियनिग्रह) तथा कर्म - सत्कर्म । Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : चौथा कोष्ठक २४७ १०. आत्मज्ञान के लिए इन्द्र को १०१ वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालना पड़ा। -छान्दोग्योपनिष ११. कहं सो घिप्पइ अप्पा ? पपगाए सो उ घिप्पए अप्पा -समयसार २६६ यह आरमा किस प्रकार जानी जा सकती है ? आत्म-प्रज्ञा अर्थात भेदविज्ञानरूप बुद्धि से ही जानी जा सकती है। वात्माविद्या ब्राह्मणों में क्षत्रियों से आई हो-ऐसा संभव है । छान्दोग्योपनिषद् (१३७) में अपने पुत्र 'श्वेतकेतु' से प्रेरित होकर 'आरुणि' 'पंचाल के राजा प्रवाहण' के पास गया। आत्मविद्या देते हुए राजा ने कहा--मैं तुम्हें जो आत्मविधा और परलोकविद्या दे रहा हूं, उस पर आज तक क्षत्रियों का अधिकार रहा है, आज पहली बार वह ब्राह्मणों के पास जा रही है। भागवत-११।२।१६ में ऋषभप्रभु को सर्थक्षत्रियों का पूर्वज कहा है । (ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम्) यही ऋषभप्रभु मरतक्षेत्र में जनधर्म के आदिकर्ता हैं । इन्हीं से आत्मविद्या का प्रारम्भ हुआ है । १३. षड्दर्शन ना जुआ-जुआ मता, माहों माही खाधा खता, एक नों थाप्यो बीजो हणे, अन्यगी ओपने अधिको गणें । अक्खा । एज अंधारो कुओ, झगड़ो मांगी में कोई न मुओ ॥१|| देहाभिमान हतो पा सेर, विद्या भगतां बाध्यो सेर, चर्चा बधतां अधमरण थयो, गुरु थयां थी मण मां गयो। अक्खा ! एम हलका थी भारी होय, आत्मज्ञान मूल गो खोय।।२।। -अक्षा भगत के गुजराती पध Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. यः आत्मवित् स सर्वविद् । जिसने आत्मा को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया । २. तरति शोकमात्मविद् छांदोग्योपनिषद-७/१/३ जो आत्मा को अपने आपको जान लेता है, वह दुःख सागर को तेर जाता है । J ३. तमेव विद्वान् न विभाय गृत्योः धीरमजरं आत्मानं युवानम् । जी धीर, अजर, अमर, यह कभी मृत्यु से नहीं डरता 1 तरहरामी आत्मज्ञ ४. नीतिज्ञा नियतिज्ञा, वेदना, अपि भवन्ति शास्त्रज्ञाः । ब्रह्मज्ञा अपि लभ्याः स्वज्ञानज्ञानिनो विरलाः ॥ J . अथर्ववेद १०३८।४४ बामा को जानना है, जगत में नीति के जानकार है, नियति- होनहार के जानकार हैं, वे व अन्य शास्त्रों के जानकार हैं, ब्रह्मज्ञानी भी मिल जाते है, लेकिन आत्मा को जाननेवाले विरले हैं । ५. पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः । आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं ग्रथा ॥ २४५ - चाणक्यनीति १५.१२ 4 1 I 1 1 Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : पौधा कोष्ठक २४६ जसे-मोजन में रहता हुआ भी घाटू उसके रस को नहीं जानता, उसी प्रकार बहुत से व्यक्ति चारों वेद और अनेक धर्मशास्त्र पढ़ते हैं, फिर भी आत्मा का ज्ञान नहीं कर पाते । ६. श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः, शृण्वन्ऽपि बहवो यं न विद्यः । आस्चयों बक्ता कुशलास्य लब्धा-ऽऽरचई ज्ञाता कुशलानुशिष्टः। -कठोपनिष २७ यह आत्मज्ञान अत्यन्त गूढ़ है | बहुतों को तो यह पहले सुनने को भी नहीं मिलता, बहुत से लोग सुन तो लेते हैं, किन्तु कुछ जान नहीं पाते । ऐसे गूलतत्त्व का प्रवक्ता कोई आश्चर्यमय बिरला ही होता है, उग़को पानेवाला तो कोई बुशल ही होता है और कुशल गुरु के उपदेशा से कोई विग्ला ही उसे जान पाता है । ७. जे अज्झत्थं जाण्इ, से बहिया जारगइ, जे बहिया जागड, से अज्झतथं जारगइ । -आचारांग-१७ जो अध्याम को आत्मा के मूलस्वरूप को जानता है वह बाह्म को (पृद्गलादि द्रव्यों को) जाना है और जो बाह्य-पदार्थों को जानता है, वह आत्मा के मूलस्वरूप को-अध्यात्म को जानता है। ८. रण याणंति अपणा वि, किन्नु अपोसि । —आचारांगचुणि-१॥३॥३ जो आत्मा को नहीं जानता, वह दूसरों को क्या जानेगा ? Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मरक्षा 1. आत्मरक्षण कुदरत का सबसे पहला कानून है और आत्मबलिदान सौम्यता का सर्वोच्च नियम । !. अप्पाहु खलु सयवं रक्खियब्बो, सबि'दिएहि सुसमाहिएहि । अरविवओ जाइपह उबेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहारण मुच्चइ ॥ दशवकालिक, धूलिका २ गाथा १६ सब इन्द्रियों को वश में करके भात्मा की पापो से सदा रक्षा करनी चाहिए । .. आपदर्थे धन रक्षद्, दारान् रक्षेद् धनरपि । आत्मानं सततं रक्षेद्, दारैरपि धनरपि ॥ -चाणक्यनोसि १।६ आपत्काल के लिए धन की रक्षा करो। घन से स्त्री की रक्षा करो तथा स्त्री एवं घग से भी सदा आत्मा की रक्षा करो। -- अत्तहियं खु दुहेणु लम्भई । --सूत्रकृतांग २२२२३० आत्महित का अवसर मुश्किल से मिलता है । भत्तत्ताए परिवए। सूत्रकृसांग ११६३२ मात्मरक्षा के लिए संयमशील होकर विचरे । २५० Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग : चौथा कोष्ठक ६. आत्मरक्षायां कदाचिदपि न प्रमाद्यत । -नीतिवाक्यामृत २५१७२ मनुष्य को आत्मरक्षा करने में कभी आलस्य नहीं करना चाहिए। ७. त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।। -चाणक्यनीति ३।१० कुल रक्षा के लिए एक व्यक्ति का, ग्राम रक्षा के लिए एक कुल का और देशरक्षा के लिए एक ग्राम का त्याग कर देना चाहिए । किन्तु आत्मरक्षा के लिए यदि समूची पृथ्वी का भी त्याग करना पड़े, वह भी कर देना चाहिए। ८. यज्जीवस्योपकाराय, तहस्यापकारकम् । यह हस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम् ।। –इष्टोपदेश १९ जो कार्य आत्मोपकारी है, वह शरीर का अपकार करनेवाला है एवं जो कार्य शरीरोपकारी है, वह आत्मा का अपकार करनेवाला है। - - - - - Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAT १०. (क) अप्पा रक्खी चरेऽप्पमतो | आत्मरक्षक - उत्तराध्ययन ४।१० अपनी आत्मरक्षा करनेवाला अप्रमादी होकर विचरे । (ख) तओ आयरक्खा पत्ता तं जहा धम्मियाए पडिचोयाए पडिचोएता भवइ तुसिणीए वासिया, उता वा आया एगंतमवक्कमेज्जा । - स्थानांग १।३११७० २५२ तीन प्रकार के आत्मरक्षक रहे हैं - (१) अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग करनेवाले अनार्य पुरुष को धर्मोपदेश देनेवाला, (२) उपदेश देने पर न माने तो चुप रहकर ध्यान करनेवाला ( ३ ) ध्यान न कर सके तो विधियुक्त अन्य एकान्त स्थान में चला जानेवाला । * Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छुठा भाग : चौथा कोष्ठक ५. मुक्तद्वीन्द्रियोमुक्तो, बद्ध-कमन्द्रियोऽपि हि । बबुद्धीन्द्रियो बद्धो, मुक्तकर्मेन्द्रियोऽपि हि !! -योगवाशिष्ठ बुद्धीन्द्रियों के विषयों में अनासक्त मनुष्य मुक्त हो हैं, फिर वह चाहे कत्रियों से शुकश क्यों न हो ? तथा जो कन्द्रियों से मुक्त होकर भी यदि बुद्धीन्द्रियों के विपनों में आसक्त है तो वह वास्तव में बंधा Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० इन्द्रियो की शक्ति १. इन्द्रियाणि प्रमाथीनि, हरन्त्यपि यतेमनः । -श्रीमतभागवत ७।१२।७ अत्यन्त तंग करनेवाली इन्द्रियो यति-संन्यासी के मन को भी हर लेती हैं अर्थात विषयों की ओर ले जाती है । २. बिहकतोजमुमपकर्षति कहित -- शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कृतश्चित् । घारणोऽन्यतश्चपल हक क्व च कामशक्तिवश्यः सान्य इब गेहपति लुनन्ति । जैसे-विभिन्न सौते (मपलिया) गृहस्वामी को भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींच ले जाती है, वैसे-जीभ अपने स्वामी शरीर को एक और खीचती है तो ध्यास अपनी ओर ले जाती है। जननेन्द्रिय उसको एक ओर प्रेरित करती है, उसी प्रकार--स्पर्श, पेट और कार उसे दूसरी भोर प्रेरित करते हैं। प्राणेन्द्रिय उसको भिन्न दिशाओं में खींचती है तो सपल आँखें और कामशक्ति उसको अन्यत्र ही ले जाती है । ३. शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पञ्च, पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धा । कुरङ्ग-मातङ्ग--पतङ्ग---मीनभङ्गा नरः पञ्चभिरञ्चितः किम् ॥ —विवेकचूडामणि ७८ २५४ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाग चौथा कोष्टक २७५ शब्दादि एक-एक इन्द्रियों के विषयों से बंधे हुए मृग, हाथी, पतंग, मछली और भ्रमर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। तो फिर इन पाँचों से जकड़ा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है ? ४. एक सदन में पाँच का पृथक-पृथक आदेश | सम्भव चन्दन ! क्यों नहीं होना क्लेश विशेष ॥ P ५. 1 दोहा- डिली - कोटलीय अर्थशर इन्द्रियों के विषयों में बासक्त व्यक्ति चतुरंगवान् होता हुआ मी नष्ट हो जाता है । xx Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-दमन 4. दुद्दता इंदि पंच, संसाराए सरीरिणं । ते चंच णियमिया संता, ऐज्जाणाए भवन्ति हि ॥ -ऋषिभाषित १६१ दुन्ति, इन्द्रिया प्राणियों को संसार में मामला है एवं वे ही संयमित होने पर मोक्ष को हेतु बन जाती हैं। २. सारथीव नेतानि गहेत्या, इन्द्रियानि रक्खम्ति पण्डिता । -दीघनिकाय २०७१ जिस प्रकार सारपि लगाम पकड़कर रथ के घोड़ों को अपने वश में किये रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी-साधक शान के द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में रखते है। ३. कद अल्फ हमन् जक्का हा । -कुरान निश्चय ही उस आदमी का जन्म सफल हुआ, जिसने अपनी इन्द्रियों को पवित्र किया । ४. इन्द्रियों को वश करना सुशपुरुषों का काम है और उनके वश हो जाना मूखों का काम है। -एपिवटेट्स x. वशे हि यस्येन्द्रियागि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। ___ - गीता २०६० जिस पुरुष के इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है । २७६ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भाम : चौथा कोटक २७७ 2. जहाँ धुद्धि और भावना का मेल नहीं माता, वहाँ इन्द्रियनिग्रह का अभाव है। ७. विश्वामित्रपराशरप्रभृनयो बाताम्बुपाशिना-- रतेऽपि स्त्रीमुखपंकजं मुललित दृष्ट्वैव मोहं गताः । शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं ये भुजते मानवा-- स्लेयामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद् विन्ध्यस्तरेत् सागरे । -भर्तृहरि-गारशतक ६५ फेवल वायु, अल और पतों को खाकर जीने वाले विश्वामित्र-पराशर आदि बड़े-बड़े ऋषि भी स्त्रियों के मनोहर मुख-कमल को देखकर मोहित हो गए, तो फिर पी-दूध- -दघिमिश्रित चावलों का भोजन करने वाले मनुष्य अपनी इन्द्रियों का दमन कर ही कैसे सकते हैं ? उनसे यदि इन्द्रिय निग्रह हो जाम, तो विन्ध्याचल पर्वत भी समुद्र में तरने लग जाय । Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जितेन्द्रिय १. जोयन्तां दुर्जया दह, रिपवश्चक्षुरादयः । जितषु ननु लोकोऽय, तेषु कृत्स्नस्त्वया जितः ॥ --किरातार्जुनीय ११।३२ अपने शरीर में रहे हुए वक्ष आदि इन्द्रियाँ दुजंय शत्रु हैं। इन्हें भर्वप्रथम जीतना चाहिए । इन्हें जीत लेने पर समझो कि तुमने मारा संसार जीत लिया। २. सुच्चिय सूरो सो चेव पडिओ, से पसंसिमो नि । इन्दियचोरेहि सया, न लुटिटयो जस्स चरणधनं ।। -प्रकरणरनाकर वही शूर है, बही पण्डित है, हम सदा उसी की प्रशंगा करते हैं, जिसका चरण-घन इन्द्रियाप घोरों द्वारा नहीं लूटा गया ।। ३. श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च, भुक्त्वा धात्वा च यो नरः । न हृष्यति ग्लायति वा, स विज्ञ यो जितेन्द्रियः ।। -मनुस्मृति २६८ निन्दा-स्तुति मुनकर, सुखद-दुखद वस्त्रादि को छूकर, गुरूप-कुरूप कों देखकर, सरस-नीरस वस्तु को खाकर एवं सुगन्ध-दुर्गघ वस्तु को संघकर जिसे हर्ष-विषाद नहीं होता, उसे जितेन्द्रिय समभाना चाहिए। Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ कान और बाँधरता १. कान गुणीजनों के गुण एवं गुरुओं का ज्ञान सुनने के लिए हैं, स्वभयंता और परनिन्दा सुनने के लिए नहीं । २. बोला भी बोलता भी बोला, जो न सुण्यां गुरुज्ञान ! ३. कान में टेटी बाल राखी है। ४. भले कान गो जवानों को सुखाकर खुद कर देते हैं । - धनमुनि — - मारवाड़ी भजनमाला - राजस्थानी कहावत - फ्रक लिन ५. भारत मे १ करोड १५ लाख ६० हजार स्कूली बच्चे बहरे हैं। (डा. वाई. पी. कपूर) - नवभारत टाइम्स, २ फरवरी १६६३ ६. बोलो पूछे बोली ने कोई गंधा होली में । २७६ ७. पंडितजी पाए लागं तो कहे कपासिया है। पंडितजी मंत्र में हो, तो कहे भड़ीता करने खासुं । - राजस्थानी कहावत (अंगम हाथ में थे) ८. बहरे के प्रश्नोत्तर चहरा आदमी सुनता तो है नहीं अतः अपने प्रश्नों का उत्तर थड़कर ही विसी से बात करता है | Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० वक्तृत्वकला के बीज एक बहरा अपने बीमार मित्र से मिलने गया किन्तु वह मर चुका था । बहरे ने उपस्थित लोगों से पूछा कि भाईजी किस तरह हैं ? लोगों ने कहा-वे तो मर चुके । बहरे ने सोचा, कुछ टीवर बतला रहे हैं, अत: तपाक से कह दिया, बहुत खुशी की अगवान दें. अगछा किया। लोग हंसने लगे, लेकिन बग़ नहीं समझा और पूछने लगा-किसका इलाज चल रहा है ? उपस्थित मजाकिये ने कहा-यमराजजी का। वहरा अमुक डाक्टर का नाम समझकर बोल पड़ा-वे डाक्टर बहुत अच्छे हैं, इनके हाथ में समा भी है। तवीयत नरम-गरम हो तो आन भी इन्हीं की दवा लिया करें । (हंसी बढ़ती जा रही थीं) सहजभाव से बहरे ने पुन: प्रश्न किया-भाईजी को पथ्य क्या दिया जाता है ? उत्तर मिला-कांकर-पत्थर 1 इसने दलिया-खिचड़ी आदि समझकर कहा–पथ्य बिल्कुल ठीक है। जाप लोग भी मौके-मौके इसी का प्रयोग किया करें। अस्तु 1 भाईजी सोते कहाँ है ? उत्तर दिया गया-- श्मशान में 1 बहरे ने कमरा आदि समझकर वह डाला--स्थान सुरक्षित है । बाल-बच्चों को भी नहीं सुला दिया करें । उपस्थित लोगों के हंसी के मारे पेट दुखने लगे । आखिर ज्यों-त्यों रामझाकर बहरे को घर भेजा। Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिला १. जिह्वायत्ती वृद्धि विनाशौ । ---चाणक्यसूत्र ४४० मनुष्य को उन्नति-अवनति जिला के अधीन है। २. जीभ के वश में जीवन भी है और मृत्यु भी । -पुरानी बाइयिल, नगिश्ते, नीतिवचन का२१ ३. जबान सीरी, मुल्क गिरी । जबान टेढ़ी, मुल्क बांका। -हिन्दी कहावत ४. इस अनुभाग, केरल हसिक। कडवो लागे काग, रसना रा गुण 'राजिया ! -सोरठासंग्रह ५. यदि रसना रसहीन है, दया सकल घकवाद । दांत नहीं फिर मुंह मैं, क्या खाने का स्वाद ।। --कोहा-संदोह ६, कागा किसका धन हरे, कोयल किसको देत । एक जीभ के कारण, जग अपनो कर लेत ।। ७ रे जिह्व ! कुरु मर्यादां, बचने भोजने तथा । बवने प्रारण संदेहो, भोजने स्यादजीणंता ॥ है जीभ ! बोलने एवं खाने की मर्यादा कर । अपर्यादित बोलने में। प्राणों में संदेह होने लगता है और अमर्यादित खाने से अजीर्ण हो जाता है। २८५ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धकला के बीज जबान को इसमा तेज मत चलने दो कि यह मन से आगे निकल जाय । ६. पानी हटे, ची : --गुमाली कहावत १५. यह जवा नहीं, लोहे को शमसीर है, जो कह दिया, पत्थर की लकीर है। छुरी कातुरी का, तलबार का घाव लगा सो भरा। लमा है जखम जत्रां का, वो रहता है हमेशा हरा ।। -उर्दू शेर ११. तीन इंच लम्बी जबान छ: फिट ऊंचे आदमी को मार सकती है । -जापानी कहावत १२. लम्बी जबान छोटो जिन्दगी । -अरको कहावत १३. जीभ ने बरजजे, नीकर दांत पड़ावो 1 जीभ करे छे आल पंपाल, ने खाँसड़ा खाय सिर-कपाल । जीभ सौ मग घी खाय पण चीकणी न थाय । चमक हजारों वर्ष पाशी मो रहे पण बाग जायज नहीं। -गुजराती कहावरों १४. रसना में तीन रनियां-अन्य इन्द्रियों के गोलकों में एक-एक इन्द्रिय ही होती है, पर जिला में तीन इन्द्रिया (इन्द्रियों की शक्तियाँ) हैं। इसलिए, अन्य सब इन्द्रियों की अगेक्षा-जिद्रिव अतिप्रबल है । ग्रह रसनेन्द्रिय है, स्पर्श नेन्द्रिय है और वागीन्द्रिय भी है। विन्द्रिय से रसास्वादन कर सकते हैं, शीत-तण-मा-कठिन पर्म को जान सकते हैं और बोल भी सकते हैं । आः एक रसनेन्द्रिय को जीतने से अन्य मब विषय और इन्द्रियों जीती जाती हैं । श्रीमद्भागवत १११।२१ में कहा भी है-- Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1] वक्तृत्वकला के बीज भाग ६ और ७ में उत प्रभ्थों व व्यक्तियों की नामावली परिशिष्ट Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-सूचो : १. अंगुत्तरनिकाय २. अत्रिसंहिता ३. अथर्ववेद ४. अध्यात्मकल्पद्रम ५. अन्ययोगव्यवच्छेद--- द्वात्रिशिका ६. अपरोक्षानुभूति ७. अभिज्ञानशाकुन्तल (गाकुन्तल) ८. अभिधानचिन्तामणि हमकोष) १. अभिवानराजेन्द्रकोष १०. अमितगति-श्रावकाचार ११. अमूल्यशिक्षा १२. अटकप्रकरण-(वादाष्टका) १३. अष्टाङ्गहृदय १४. आइन-अकबरी १५. आकर्षण शक्ति १६, आचासंग-णि १७. आचारांगसूत्र १५. आचार्य शिवनारायण की रिपोर्ट १६. आत्मविकास २०. आत्मानुशासन २१. आपस्तम्बस्मृति २२. आवश्यकनियुक्ति २३. आवश्यकसूत्र २४. इतिहासतिमिरनाशक २५, इष्टोपदेश २६, इस्लाम धर्म क्या कहता है ? २७. उज्ज्वलवागा २८. उत्तररामचरित २६. उत्तराध्ययनसूत्र ३०. उद्भटसागर ३१. उर्दू शेर ३२. उपदेशतरंगिणी ३३. उपदेशप्रासाद ३४. उादेशमनमाला ३५. ऋगवेद ३६. ऋविभागिल १७. ऐतरेय ब्राह्ममा ३८. ओघनियुक्ति ३६. औपपातिकसुत्र ४०. कठोपनिषद् Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१, कथासरित्सागर ४२. कल्पना ४३. कल्या--संत बंक ४४. कल्याण-बालक अंक ४३. कहावतें (क) अंग्रेजी कहावत (ब) इटामि , (ग इरानी , (घ) उर्दू (१) गुजराती (च) चीनी (5) जापानी (ब) पंजाबी (झ) पारी (ञ) बंगला (ट) मराठी (3) राजस्थानी (इ) संस्कृत (ढ) हिन्दी | ४६. कात्यायनस्मृति 1 ४७. पिवतानीय - ४८. किदानावनों | ४६. फुगा र संभव १५०. कानगरीफ ५१. केनोपनिषद् 1५२. कोटलीब-अर्थशास्त्र ५३. खुले आकाश में ५४. गणधरवाद ५५. गाडपराग ५६. गोता (थीमद्भगवद्गीता) ५७. मुरुग्रन्थसहिच ५८. घटखर्पर का नीतिसार ५६. चन्यचरित्र (संस्कृत) २४. पति ६१. चरकसूत्र ६२, चाणक्यनीति ६३. चाणक्यसूत्र ६४. छान्दोग्य उपनिषद् ६५. जालक ६६. जीवन लक्ष्य ६७. जैन पाण्डव-चरित्र ६८. जन-भारती ६६. जैनसिद्धान्त-दीपिका ७०. ज्ञानप्रकाश ७१. झानाव ७३. तत्त्वामृत ७३. तत्वार्थमुत्र 38. तन्दुलवंगारिक-प्रकीर्णक ७५' तामो-निगद् तामोतेह किंग) ७६. तात्विक विशती ७७, चीन बात ७. तत्तिरीय-उपनिषद ७६. विपटिशलाका पुरुप चरित्र Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०. थेरगाथा ८१. दक्षस्मृति ९२. दशकुमारचरित्र ८३. दशवेकालिक चूलिका ६४. दशकालिक नियुक्ति ८५. दशवेकालिकसूत्र ६६. दशाध तस्कन् ६७. दीघनिकाय ६० दृष्टान्तशतक ६. देवीभागवत १०. देश-विदेश की अनोखी प्रथाए १. दोहा द्विशती ६२. दोहा - संदोह ६३. धम्मपद ९४. धर्मकल्पद्र ुम ६५. धर्म के नाम पर ( ४ } ६. धर्मयुग (साप्ताहिक) ६७. नदीटीका १०६. नैषधीयचरित्र ( नेपध) १०७. न्यूयार्क ट्रिब्यून हेराल्ड १०५. पंचतंत्र १०६. परमात्म-द्वात्रिंशिका ११०. पराशरस्मृति ११९. पहेलवी टेक्स्ट्स ११२. पातंजलयोगदर्शन ११३. प्रकरण रत्नाकर ११४. प्रज्ञापना १११, प्रशमरति ६६. नलविलास ६९. नवभारत टाइम्स (दैनिक) १००. नालन्दा विशालशब्दसागर १०१. नियमसार १०२. निशीथ भाष्य १०३. निश्वयपञ्चाशत् १०४. नीतिवाक्यामृत १०५. नीतिसार ११६. प्रसंग रत्नावली ११७. प्रास्ताविकश्लोकशतक ११८. बृहत्कल्पभाष्य ११६. हल्का-सूत्र १२०. बृहदारण्यकोपनिषद् १२१. बृहन्नारदीय पुराण १२२. बृहस्पतिस्मृति १२३. बाइबिल १२४. ब्रह्मवैवर्त पुराण १२५. ब्रह्मानन्दगीता १२६. भक्तिमूत्र १२७. भक्तामर त्रिवृति १२ . भगवती सूत्र १२६. भर्तृहरि नीतिशतक १३०. भर्तृहरि वैराग्यशतक १३१. भर्तृहरि शृंगारशतक १२. भवभूति के गुण रत्न Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. भारतज्ञान-कोष १५७. योगवाशिष्ठ ३४. भारतीय अर्थशास्त्र {५८. योगशास्त्र ३५. भाषाश्लोकसागर १५६. योगशिखोपनिषद् १६. भोज-प्रबन्ध १६०, योगसार ३७. मज्झिमनिकाय १६१. रघुवंश -३८. मनुस्मृति १६२. रदिममाला १९. मनोनुशासन १६३. राजप्रपनीयसूत्र ४०. मरुभारती १६४. रामचरितमानस ४१. महाभारत १६५. लघुयोगवाशिष्ठसार १२. मारवाड़ी-भजनमाला ११६. लघुवाक्यवृत्ति १५. मिदरास निर्गमन रखना १५३. लूका (बबल) (यहूदी धर्मग्रन्थ) १६०. लोकप्रकाश ४४. मुक्तिकोपनिषद् १६६. लोकोक्तियों४५. मुगडकोपनिषद् . (क) अरबी लोकोक्ति ४६. मुद्राराक्षसनाटक (ख) चेक 19. मुनिश्रीजंवरीमलजी का संग्रह गि) लैटिन , ४८, मुच्छकटिक (घ) स्पेनिश ४६. मेघदून १३०, वायु पुराण ५०. मोक्षपाहुउ १७१. वाल्मीकिरानायण ५१, यजुर्वेद १७२. विक्रमोर्वशीय-नाटिका २२. वाज्ञवल्क्यस्मृति १७३. विचित्रा (त्रैमासिक) १३. यालकन शिमो PRO १७४. विज्ञान के नये आविष्कार - यहूदी धर्मग्रन्थ) - १७५. विदुरनीति १४. यू. एन. डेमोग्राफिक इयर १७६. विवेकचूड़ामरिग । बुक-१६१६ तथा १९७७-७१ १७७. विवेकविलास १५. पू. री० पी० डी० ज १७८. विशेषावश्यक १६. योगदर्शनभाष्य ११६. विश्वज्ञानकोष Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. विश्वदर्पण २०५. सरलमनोविज्ञान १८१. वीरअर्जुन २०६. सरिता १८२. वेद २०७. सवैयाशतक १८३. वेदान्तदर्शन २०८. सहलतस्तरी १८४, व्यवहारमा २.६. लोकशागिता १८५. व्याख्यान का मसाला २१०. सामायिकसूत्र १८६. व्यासस्मृति २११. सिन्दूर प्रकरण १७. व्रताव्रत की चौपाई २१२. सुभाषितरत्नखण्ड-मंजूषा १८८. शंकरप्रश्नोत्तरी २१३. सुभाषितरल-भाण्डागार १८६. शतपथ ब्राह्मण २१४. सुभाषित संचय 10. शान्तसुधारस २१५. सूक्तरस्नावलि १६१. शालघर २१६. सूत्रकृतांगसूत्र १२. शिशुपालवध २१७. सोरठा-संग्रह १६३. शुक्रनीति २१५. सोवियत भूमि १६४. सुश्रुत २१६. स्कन्धपुराण १६५. श्राद्धविधि २१०. स्थानांगसूत्र १६६. श्रीमद्भागवत (भागवत) २२१. स्याद्वादमंजरी १६७. श्री विलक्षणअवधूत-स्वरो- २२२. स्वरशास्त्र दयअंग २२३, हजरत बुखारी और मुस्लिम १६८. श्वेताश्वतरोपनिषद २२४. हठयोगप्रदीपिका १६. संयुक्तनिकाय २२५. हरितस्मृति २००, संवेगद्र मकन्दली २२६. हर्षचरित २०१. सभातरंग २२७. हितोपदेश २०२. समयसार २२६, हिन्दी मिलाप (दैनिक) २०३. समवायांगसूत्र २२६. हिन्दुस्तान (दैनिक) २०४. समाधिशतक २३०. हिन्दुस्तान (साप्ताहिक) Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति नामावली : १. अकबर २. अश्वाभक्त ३. अमरभूनि ४. अरविन्दघोष ५. अरस्तू ६. अशोन-द-चसिल ७. अष्टावक्र ८. १. इकबाल १०. इन्वेसिना ११. ई. एच. चेपिन १२. ईसरदास आचार्य तुलसी १३. ईसा १४. एक युवक सन्यासी १५. एच. जी. बोन १६. एच. डब्ल्यू. वीचर १७. एडविन मार्कहम २. एडीसन २६. एमी एल २०. एम. जी. लीस्वर 1. एमर्सन २२. एपिक्टेट्स २४. एरियन यूनानी २४. एलकाट (अलकाट) २५. कन्फ्युसियस ( कांगपयुत्सी) २६. कबीर २७. कवि कृपाराम २८. कवि गंग २६. कवि धासीराम १०. कवि देवीदास ३१. कवि दीन ३२. कवि नाथूलाल ३५. कवि बांकीदास ३४. कविराज हरनामदास ३५. कार्डिनल ३६. कार्लमार्क्स ३७. कार्लाइल ३८. कालीदास ३६. कालूगरिण ४०. किडलीयर ४१. किसनिया ४२. कुसुमदेव ४३. कोल्टन ४४. कोलम्ee Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. गांधी ४६. गुरुनानक ४७. गुरुवशिष्ठ ४८, मेटे xt. गोवर्धनाचार्य ५०. चकवरत ५१. चाराश्य ५२. चम्फर्ट ५३. चेस्टर फोल्ड ५४. जगन्नाथ ५५. जीटेलर ५६. जवाहरलाल नेहरू ५७. जानलोक ५८. जानसन ५६. जी. गफ ६०. जेम्जमार फील्ड ६१. टसर ६२. टाल्पेज ६३. टी कोगन ६४, टेनीशन ६५. टैगोर ६६. डा. हेराल्ड व्हीलर १२. डाविन ६८. हिन्स 4. डिजरायली ७०. हेलकारनेगी . १. डेविस ग्रेसन ७२. डैनियल ७३. ड्राइडेन ७४. तिरुवल्लुवर ७५. तुलसीदास ७६. थामसपेन ५७. थियोग्निस ७८. थ्यू फास्टम ७६, दांते ८०. दादा धर्माधिकारी १. दिनकर ८२, देवेश्वर ८३. धनमुनि २४. धूमकेतु ५. भ्रमसीह ८६. नरसी भगत ৬, সনি ८८. नेपोलियन ८६. पंडित श्रद्धारामजी १०. पीथागोरस ६१. पेट्राचं १२. प्रेमचन्द ६३, पुरुषोत्तमदास टंडन ६४. लूटार्च ६५. प्लेटो ६६. पार्क ६७. पोप १८. फीमेलन Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. फ्रैंकलिन १००. बटलर १०१. बर्दिशा १७२, बाइल्ड १०३. बुल्लवर लिटन १०४. बृहस्पति १०५. बेकन १०६. भुदरदास १०७. मयाराम १०८. म. नेवार १.६. महात्मा बुद्ध ११०. महेन्द्र कुमार वशिष्ठ १११. मान्टेस्क्यू ११२. मिकावर ११६. मिल्टन ११४. रयुफस कोयेट ११५. रस्किन ११६. रहीम ११७. राजिया ११८. रामकृष्ण परमहंस ११६. रामतीर्थ १२०. रामानन्द दोपी १२१. रोमसिन १२२. रोबर्ट क्लाईज १२३. रोगको १२४. लाम थेले १२५. ला. फाते १२६. लाबुपेर १२७, लायड जार्ज १२८. लावेल १२६. लीटन १७. लुई ब्लेक १३१, लुकमान हकीम १३२, लूथर १३३. लसिंग १३४. घरले १३५. वर्क १३६. वर्डसवर्थ १६७. व्यास १३८, वाल्टेयर ११६. विक्टरय गो १४७. चिज्म १४१. विनोबा भावे १४२. विलियम पेन १४३, विवेकानन्द १४४. विशपकम्बर लैंड १४५. वीरजी १४६. बन्दकवि १४७. वेदव्यास १४८, शंकराचार्य १४६. शाकघर १५०. शुक्राचार्य १५१. गुभचन्द्राचार्य १५२. शेक्सपियर Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३. खसादी १५४. शोपेनहॉवर १५५. श्रीमद् राजचन्द्र १५६. संत अगस्त १५७. संत मेथ्यू १५. संत रैदास १५. सर अर्नेस्ट बोर्न १६०. सर जान हरशल १६१. सर पी सिडनी १६२. सर्वेन्टिस १६३. सिडनी ११४. सिसरो १६५. सी. सिमन्स १६६. सुकरात १६७. मुबन्धू १६८. सुभाषचन्द्र बोस १६९. सूरदास ( १० ) १७०. सेनेका १७१. सेन्टपाल १७२. सेमुएल जानसन १७३. स्टर्नर १७४ स्वेट मार्टन १७५. हक्सले १७६. हजरत मसीद १७७. हरिभद्रसूरि १७०. हरिभाऊ उपाध्याय १७६. हली बटेन १०० हार्ट १०१. हिटलर १८२. हृट्टन १८३. हेनरी वार्ड वीचर १०४. होमर १६५. व्हिट मैन १८६. व्हैटले Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की अप्रकाशित रचनाएँ : [D] संस्कुल १६. व्याख्यानमणिमाला १७. व्याख्यान रत्न मंजुषा १. देवगुरुधर्म द्वात्रिंशिका २. प्रास्ताविक श्लोकशतकम् ३. एकाह्निक- श्री कालुशतकम् १५. जैन महाभारत - जैन रामायण आदि बीस व्याख्यान ४. श्री कालुगुणाष्टकम् ५. श्री कालुकल्याणमन्दिरम् ६. भाविनी १९. उपदेश सुमनमाला २०. उपाधिका २१. पच्चीस बोल का सरल विवेचन राजस्थानी ७. ऐक्यम् ८. श्री भिक्षु शब्दानुशासनलघुवृतितद्धितप्रकरणम् गुजराती १. गुर्जर भजन पुष्पावली १० गुर्जख्याख्यान रत्नावली हिन्दी २६. कथाप्रबन्ध ११. वैदिक विचारविमर्शन २७. ११. संक्षिप्त वैदिक विचारविमर्शन २५ ११ २२. धनबावनी २३. सवैया शतक २४. औपदेशिक ढालें २५. प्रास्ताविक ढालें छः बड़े व्याख्यान ग्यारह छोटे व्याख्यान २६. सावधानी रो समुद्र ११. अवधान विधि १४. संस्कृत बोलने का सरल तरीका • पजाबी १५. दोहा-संदोह १० पञ्जाब-पच्चीसी Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की प्रकाशित रचनाएँ : १४. चमकते चांद १५. जन-जीवन १६. सोलह सतियां १७ से २३ बक्तृत्वकला के बीज : ( १ से ७ भाग तक ) O गुजराती २४. तेरापंथ एटले शुं ? २५. धर्म एटले शु २६. परीक्षक बनो ! संस्कृत D हिन्दी १. सच्चा धन २. प्रश्न प्रकाश ३. लोक-प्रकाश ४. ज्ञान-प्रकाश ५. श्रावक धर्म-प्रकाश ६. मोक्ष प्रकाश ७. दर्शन - प्रकाश ८. चारित्र प्रकाश ९. मनोनिग्रह के दो मागं १०. चौदह नियम ११. भजनों की भेंट १२. ज्ञान के गोत १३. एक आदर्श आत्मा • २७. गणगुणगीतिनवकम् [] उर्दू २०. जीवन प्रकाश २६. सच्चा धन १२ प Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ धूर्त-दगाबाज १. मुत्र पद्मदलाकार, वाचा चन्दनशीतला। हृदयं क्रोधसंयुक्त, त्रिविधं धूर्तलक्षणम् ।। सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ५७ घूतं व्यक्ति के तीन लक्षण हैं। उसका मुह कमलपत्रवत् निला होता है. शणी चन्दनवन शीतल होती है और हृदय जोध से गरा हुआ होता २. असती भवति सलज्जा, क्षारं नीरं च शीतलं भवति । दम्भी भवति विवेकी, प्रियवक्ता भत्रति धुर्त जनः ।। -पञ्चतन्त्र ११४५१ कुलटा रग्री अधिक लज्जा करती है, खारा जल ज्यादा ठंडा होता है, कपटी व्यक्ति विवेक अधिक दिखलाता है और धुर्त मनुष्य मीठा बोलता ३. पूर्त-सम्बन्धीकहावतें-- • टु मच कारटिसी टु मच ऋष्ट । --अंग्नेगी कहावत • अतिभक्तिरचौरस्य लक्षणम् । -संस्कृत कहावत • अतिभक्ति चारेर लखन । -बंगला कहावत - • शकल मोमनां, करतुत काफरां । - पंजाबी कहावत Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • बेवतां देवतां भांख्यां में धूड़ नाख दे । बेच र जगात को भरे तो । • रोटी खासी शक्कर स्यूं दुनियां उगरणी मक्कर स्यूं । P वक्तृत्वकला के बीज - राजस्थानी कहावतें • ठाठ तिलक और पुरी बावाज की यही निशानी। •● ओछी गर्दन दगाबाज | आंख का अन्धा गांठ का पूरा । उंगली पकड़ते पहुंचा पकड़ा । -हिन्दी कहावतें ४. नराणां नापितो धूर्तः पक्षिरणां चैव वायसः ॥ 1 चतुष्पदां शृगालस्तु, स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी ॥ | ५. बिल्ली गुरु बगलो कियो, वरण ऊजलो देख | पार किसी विध उतरे, दोनां री गति एक । चाणक्यनीति ५२१ पुरुषों में नाई, पक्षियों में काग, पशुओं में गीदड़ और स्त्रियों में मालिनये तं माने जाते हैं । ¤ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० न्यायाजित धन १. शुद्भर्ध विवन्ते, सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पुरा, कदाचिदपि सिन्धवः ।। - अगला नगन ४५ मज्जनों के भी शुद्ध धन से सम्पदार नहीं बढ़तीं। जमे-स्वच्छजलों से नदियां कमी पूर्ण नहीं होती। २. रमन्तां पृण्या लक्ष्भीर्याः, पापीस्ता अतीनशम् । -अथर्ववेद ७११५४ गुप्यकारिणी लक्ष्मी मेरे घर की शोभा बढ़ाए तथा पापकारिणी लक्ष्मी नष्ट हो जाए। ३. न्यायागतस्य द्रव्यस्य, बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ । अपात्रे प्रतिपत्तिश्च, पाये चाप्रतिपादनम् ।। –विदुरनीति ॥६४ न्याय गे अजित धन के व्ययसम्बन्धी दो अतिकम हैं अर्थात् दुरुपयोग हैं- अपात्र को देना और पात्र को न देना । Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 वास्तविक धन 1. यत्कर्मकरणेनान्तः संतोष लभने नरः / वस्तृतम्तद्धनं मन्ये, न धनं धनमुच्यते / / --रश्मिमाला 26 / 1 जिस काम के करने से मनुष्य की अन्तरात्मा को सन्तोष होता है, मैं वास्तव में उसीको धन मानता हूं, लौकिक वस्तु को घन नहीं कहा जाता। 2. पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्न मुभाषितम् / मूढ़: पाषाणखण्डेषुः रत्नसंज्ञा विधीयते / / -चाणक्यनीति 14 / 1 पृथ्वी में तीन रन है-जल, अन्न और सुभाषित / मुर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों -हीरा-पन्ना-माणिनः आदि को रत्न के नाम में पर्य हो गुकार