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________________ सरा भाग : चौथा कोष्ठक २५५ निग्नह करनेवाले, धौर एवं सरलहष्टि द्वारा देखनेवाले होते हैं ॥११॥ सुसमाधिस्य संयमी मुनि ग्रीष्मकाल में सूर्य की आतापना लेते हैं। शीतकाल में अल्पवस्त्रधारी होते हैं। वर्षाऋतु में प्रतिसंलोन-इन्द्रियों को वश करके एक स्थान पर रहते हैं ॥१२॥ महषि निर्मन्ध्र परीपह-शत्रओं को जीतनेवाले, धूतमोह एवं जितेन्द्रिय होते हैं तथा सर्वदुःखों के विनाशार्थ पराक्रम करते हैं ॥१३॥ ४. समणस्म भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बढे निम्गंथा भगवंतो अप्पेगइया आभिणिबोहियणाणी जाव केवलणाणी, अप्पेगइया मणबलिया वयबलिया कायलिया, अप्पेगइया मणे मावाणुग्गहसमत्था ३,अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता एवं जल्लोसहि०,विप्पोसहि,आमोसहित,सव्वोसहिपत्ता अप्पेगइया कोवुद्धी एवं बीयबुद्धी पडबुद्धी, अप्पेगइया पयाणुसारी अप्पेगइया संभिन्नसोया,अप्पेगइया खीरासवा,अप्पेगइया महुआसवा,अप्पेगइया सप्पिासवा, अप्पेगइया अक्खीणमहाणसिया एवं उज्जुमई, अपेगया विउलमई विउर्वाणदितपत्ता चारणा विज्जाहरा आगासाइवाइणो || अप्पेगइया कणगालि तवोकम्म पडिवण्णा एवं एगावलि खुड्डागसीनिक्कीलिय तवोकम्म पडिवण्णा....संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति । –औपपातिक समवसरणाधिकार
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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