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निर्ग्रन्थ
मन्थ: कर्माष्टविधं, मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । तज्जयहेतोरशठं, संयतते यः स निर्ग्रन्थः ।।
-प्रमामरति १४२ आठ कर्म, मिथ्यात्व, अवत और दुष्टयोग-ये ग्रन्थ कहलाते हैं । जो इन्हें जीतने के लिए सरलभाव से प्रयत्न करता है,
वह निर्ग्रन्थ है। २. आगमवलिया समणा निग्गंथा ।
—व्यवहारसूत्र १० श्रमण-
नियों का बल 'आगम' (शास्त्र) हो है । ३. पंचासवपरिणाया, तिगुत्ता छसु संजया ।
पंचनिग्गहणा धीरा, निगंथा उज्जुदंसिणी ।।११।। आया वयं ति गिम्हेसु, हेमन्तेसु अवाउडा । वासासु पडिसलीणा, संजया सुसमाहिया ।।१२।। परीसहरिऊदंता, ध्यमोहा जि दिया। सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणी ।।१३।।
–दशवकालिक श.. निग्रंथ मुनि पांच आस्त्रत्रों को त्यागनेवाले, तीन गुप्तियों से गुप्त, छ: काय के जीधों के प्रति संयमी, पांच इन्द्रियों का