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________________ चौथा भाग : चौथा कोष्ठक २५३ ४. उरग-गिरि-जलण-सागर-नहतल-तरुगण-समो यजो होइ। भमर-मिय-धरणि-जलरुह-रवि-पवणसमो यसो समणा।। -अनुयोगद्वार ५ श्रमण वह है, जो सर्पवत् परकुत निवास में रहता है. परीषहों में पर्वतवत् निष्प्रकम्प रहता है। अग्निवत् तप के तेज से युक्त होला है एवं सूत्रारूप ईनाम से तप्त नहीं होता। समुद्रवत् गम्भीर, ज्ञानादि रत्नों का घर एवं अपनी मर्यादा को नहीं तोड़नेवाला है। आकागवत् निरालम्बी होता है । वृक्षरामवत्-सुख-दुःख में समभाव होता है। श्रम रचत् अनियतवृत्ति से जीननिर्वाह करता है । मृगवत संसार से भयभीत रहता है । पृथ्वीवत रान काठ सदन करत' है। सूर्यवत् सबको समानरूप से प्रकाश देता है। कमलव तृ निलंप रहता है एवं पवनवत् अप्रतिवद्धनिहारी होता है।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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