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श्रमण (समण)
१. थाम्यतीति श्रमणस्तथा सम इति शत्र-मित्रादिषु प्रवर्तते इति समण : (अण् प्रत्ययः)
--स्थानांग ४।४ टीका धम-तपस्या करता है अतः वह 'श्रमण' है । तथा शत्र -मित्रादिक पर समभाव रखता है, इसलिए वह 'समण' हैं. यहां अण् प्रत्ययः हुआ है। तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो। सयण असयण अ समो, समो अ माणावमाण सु ।।
- अनुयोगद्वार १३२ जो मन' से सु-मन' (निर्मल मनवाला) है, संकल्प से भी कभी पापोन्मुख नहीं होता, स्वजन तथा अस्वजन में, मान एवं अपमान में सदा सम रहता है, वह समण होता है।
३, जह मम ण पियं दुक्खं, जाणि एमेव सब्वजीवाण । न हणइ न हणाबेइ, सममणइ तेन सो समणो ।।
-अनुयोगद्वार १२६ जैसे--मुझे दुःख प्रिय नहीं लगता, वैसे दूसरों को भी नहीं लगता। यों जानकर जो किसी भी जीव को न मारता है, न मरवाता है एवं समभाव से रहता है, वह श्रमण है ।