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________________ २५६ वक्तृत्वकला के बीज श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी अनेक निर्ग्रन्थ भगवन्त, जिनमें कई एक मतिज्ञानी हैं यावत् कई केवलज्ञानी हैं। कई मनोबली, वचनबली एवं कायबली हैं, तो कई मन, वचन एवं काया से शाप और अनुग्रह की क्रिया करने में समर्थ हैं । कई खेल्लोषधिलब्धिवाले हैं तो कई जनमौषधि, विप्रुडोषधि, आमष पधि, गौर सयौं षधिलब्धिवाले हैं । कई कोष्ठक बुद्धिवाले हैं तो कई बीजबुद्धि और बुद्धिवाले हैं । कई पदानुसारिणी लब्धिवाले हैं तो कई भिन्नश्रोतलब्धिवाले हैं। कई क्षीरमधुसर्पिरावल विधवाले हैं तो कई ऋजुमति विपुलमति एवं कुऋषि वा · एवं विद्याधर हैं तो कई आकाश में गमन करनेवाले हैं। कई कनकावली तप कर रहे हैं तो कई एकावली, लघुसिंहनिष्क्रीडित आदि तप में लीन हैं । इस प्रकार संयम - तप से आत्मा को भावित करते हुए बिहार कर रहे हैं । . ५. पंच नियंठा, पण्णत्ता, तं जहा पुलाए, उसे, कुसीले नियठे, 1 सिणाए । -- स्थानांग ५३३४४५ नियंन्य पांच प्रकार के होते हैं- (१) पुलाक - साररहित धान्य को गुलाफ कहते हैं । त और ज्ञान से प्राप्त लब्धि के प्रयोग द्वारा बल-वाहन सहित चक्रवर्ती आदि का मानमर्दन करने से तथा ज्ञानादि के अतिचारों का सेवन करने में जिनका संग्रम पुलाकवत् साररहित हो, वे मुलाकनिर्ग्रन्थ कहलाते हैं । (२) कुषा – कुश शब्द का अर्थ चित्र ( चीते जैसा) वर्णं है । शरीर एवं उपकरणों की शोभा विभूषा करके उत्तरगुणों 1
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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