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या भाग : चौथा कोष्ठक
२५७ में दोष लगाने से जिनका चारित्र चित्रवर्ण (दोषों के दागवाला) होगया है, वे बकुशानिन्थ कहलाते हैं। (३) कुशील-मूल व उत्तर गुणों में दोष लगाने से तथा संज्वलन कषाय के उदय से जिनका शील-चारित्र कुत्सित व दूषित हो गया है, वे साधु कुशील निन्थ कहलाते हैं । ये दो प्रकार के होते हैं—प्रतिसेवनाकुशील और कषायक्रुशील । {४) निर्गन्ध- यह मोह है। जो साधु मोह से रहित हैं, उन्हें निग्रंथ कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं—उपदान्तमोहवाले एवं क्षीणमालवाले। दोनों क्रमशः ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में निवास करते हैं। (५) स्नातक - स्नान किये हुए वो स्नात या स्नातक कहसे है । शुक्लनमान वारा समस्त घातिककर्मों को खपाकर जो शुद्ध हो गये हैं (नहालिये हैं), वे मुनि स्नातक-निर्गन्य कहलाते हैं।