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________________ २३६ वक्तृत्वकला के दोज ८. सिर्फ आदमी ही रोता हुआ जन्मता है, शिकायत करता हुआ जीता है और निराश होकर मर जाता है। --सर वाल्टर टेम्पल ६. अनार्यता निष्ठुरता, क्रूरता निष्क्रियात्मता । पुरुषं व्यञ्जयन्तीह, लोके कलुषयोनिजम् ॥ -मनुस्मृति १०५८ अनार्यता, निष्ठुरता, अरता और निष्क्रियात्मता-आन्नमीपन-य कार्य मनुष्य को नीचयोनि से उत्पन्न है—से प्रकट करनेवाले हैं। ११. नदी बहना नहीं छोड़ती. समुद्र मर्यादा नहीं छोड़ता. चांद सूर्य प्रकाश देना नहीं छोड़ते, वृक्ष फालना-फूलना नहीं छोड़ते, फूल सुगन्धि नहीं छोड़ता, तो फिर मनुष्य अपना स्वभाव-गुण क्यों छोड़ता है ? १२. आदमी की सकल से अब डर रहा है आदमी , आदमी को लूट कर घर भर रहा है आदमी । आदमी ही मारता है , मर रहा है आदमी , समझ कुछ आता नहीं क्या कर रहा है आदमी ? आदमी अन्न जानवर की, सरल परिभाषा बना है, भस्म करने विश्व को,वह आज दुर्वासा बना है । क्या जरूरत राक्षसों की, चूसने इन्सान को जब , आदमी ही आदमी के, खून का प्यासा बना है । -खुले आकाश में
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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