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पारपाना बीन
(ग) रे रे चातक ! सावधानमनसा मित्र! क्षरणं अयता
मम्भोदा बहवो सन्ति गगने सर्वेऽपिः नेतादृशाः । केचिद् वृष्टिभिरादयन्ति धरणी गर्जन्ति केचिद् वृथा, यं यं पश्यसि तस्य-तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ।
--भतृहरि-नीतिशतक ५१ अरे मित्र चातक ! आकाश में अनेक मेश्र निवाग करते हैं, वे सभी बरसने वाले नहीं हैं। कई तो वृष्टि से पृथ्वी को गीली करते हैं एवं कई व्यर्थ ही गर्जना करते हैं, अतः मेरी बात सुन और हर एक के
सामने दीनवचन मत बोस ! १३. किसने क्या मांगा?
सासू माग्यो बोलरणों, बहुवर मांगी चुप । करसणी माग्यो वरषणों, धोबी माँगी धुप ।
-राजस्पानी नहा