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________________ १५ त्यागी १. वत्थागंघमलंकारं इत्थिओ सणाणि य । अच्छन्दा जे न भुजंति, न से चाइति बुच्चइ ॥ जेय कते पिए भोए, लद्ध विपिट्ठि कुब्बइ, साहीणे चयइ भोए, से हु चाइति बुच्चद || - दशवेकालिक २।२-३ वस्त्र, सुगंधित द्रव्य, अलंकार, स्त्री और शयन, जो इन चीजों को विवशता से नहीं भोगता - वह त्यागी सच्चा त्यागी वही है, जो मनोहर एवं प्रिय होकर भी पीठ दिखाता है । २. नहि देहभृतां वाक्यं त्यक्तु कर्माण्यशेषतः । " किंतु कर्मफलत्यागी, स त्यागी त्यभिधीयते ॥ - - गीता० १८१११ समस्त कर्मफलों का त्याग कर देना देहधारियों के लिये वाक्य नहीं है, अतः कर्मफलों में ज्ञासक्ति ममता का त्याग करनेवाला ही वास्तव में त्यागी है ! ३. त्याग करता हूं फिर भी जो जलता क्यों रहता है ? देख ! फल की आशा तो नहीं है ? ४. क्रोध-लोभ- भय आदि के वश त्याग करनेवाला वास्तव में त्यागी नहीं है ! : अप्राप्तेऽर्थे भवति सर्वोऽमि त्यागी | नहीं है, लेकिन भोगों को प्राप्त - नीतिवाक्यामृत अप्राप्त वस्तु का त्यागी हर एक हो सकता है । १८०
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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