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वक्तृत्वकला के बोज
दसवीं प्रतिभा में श्रावक अपने लिए बनाया हआ भोजन नहीं करता। कोई हजामत करवाता है एवं कोई शिस्या भी रखता है। घरसम्बन्धी कार्यो के विषय में पूछने पर मैं जानता हूं या नहीं जानला इन दो वाक्यों में ज्यादा नहीं बोल सकता । ग्यारहवीं प्रतिमा में श्रावक साधु के समान वेप धारण करता है एवं प्रतिलेखन आदि क्रियाएं करता है, लेकिन सांसारिक प्रेम व अपमान के भय में अपने स्वजन-सम्बन्धियों के घरों से ही मिक्षा लेता है तथा क्षुर में कामत करता है और कोई-कोई साधु की तरह लोन भी करता है। श्रावक श्री रूपचन्दजीजन्म १६२३ जेठ सुदी १७, स्वर्गवास १६८३ फाल्गुन सुदी ७, एक घंटा पांच मिनट का संथारा । स्नान में पान सेर जल, घटातेघटाते अन्न में ४५ तोला रथा । रेल में जलपान भी नहीं, वि. म, १९७२ के बाद रेल का त्याग । छत्ता नहीं , शयन में किया नहीं । जबान के पाबन्द, स्पष्टवक्ता, नपाड़ा ५६ हाथ, सामायिकपौषध में प्रायः फिरते नहीं , . महाग लने नहीं। सामाणिक अन्तिम दिन तक, आचार्य डासगणी की विशेष कृपा।
-'भाषक रूपचन्दजी पुस्तक से