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विचार
१. कोहं कथमयं दोषः, संसाराख्य उपागतः । न्यायेनेति परामों, विचार इति कथ्यते ।।
___ - योगवाशिष्ठ २।५० में कौन हूं? मेरे में यह संसाररूपी दोष कैसे आया ? शास्त्रिकन्याय से-ऐसे सोचने को विचार कहा जाता है । श्रोतव्ये च कृतौ कणों, वागबुद्धिश्च विचारणे । यः च तं न विचारत, स कार्य विन्दते कथम् ।। कान सुनने के लिए किए गये हैं और वाणी एव बुद्धि निचारने के लिए । जो मनुष्य सुनी हुई बात पर विचार नहीं करता,
उसे कार्यरूप फल कैसे मिल सकता है ! ३. विचाराद् ज्ञायते तत्त्वं, तत्त्वाद्विश्रान्तिरात्मनि ।
- योगवाशिष्ठ २१४५३ विचार से तत्त्वज्ञान होता है और उससे आत्मा को विथाम
मिलता है । ४. बलं बुद्धिश्च तेजश्च, प्रतिपत्तिः क्रियाफलम् । फलन्त्येतानि सर्वाणि, विचारेणब धीमताम् ।।
---योगवाशिष्ठ २ विद्वानों के बल, बुद्धि, तेज, समय के योग्य स्फूति, क्रिया एवं उसके फल-ये सभी कार्य विचार से ही सफल होते हैं।