________________
कविता-विरोध
१८
१. काव्यं करोषि किमुतं सुहृदां न सन्ति ये त्वामुदीर्णपवनं न निवारयन्ति । गव्यं घृतं पिब ! निवातगृहं प्रविश्य, वाताधिका हि पुरुषाः कवयों भवन्ति ॥
सुभाषितरत्नभाण्डागार ३६ क्या बढ़ती हुई वायु को रोकनेवाले तेरे कोई मित्र नहीं हैं, जो तू कविता करने लगा है। जहां हवा न लगती हो, ऐसे मकान में घुसकर गाय का भी पीले ! अधिक वायुवाले पुरुष ही कवि होते है |
काव्य में दोष देखनेवाले व्यक्ति---
अतिरमणीये काव्ये, पिशुनो दूषणमन्त्रेषयति । अतिरमणीये वपुषि व्रणमिव मक्षिकानिकरः ॥
J
- इन्दुशेश ख
जैसे अति सुन्दर शरीर में भी मविखयां व्रण घाव को खोजती हैं, उसी प्रकार नाहे काव्य कितना ही मनोहर क्यों न हो, दृष्टव्यक्ति उसमें दोष देखा करता है |
३. अतिरमणीये काव्ये, पिशुनो दूषणमन्वेषयति । सुन्दरमणिमयभुवने, पश्यति रन्धं पिपीलिका सततम् ।। जैसे रत्नों के सुन्दर महल में भी चींटिया बिलों को देखती
३७